प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं चार साल से आपको सुन रही हूँ और पढ़ भी रही हूँ। यह मेरा तीसरा कैंप (शिविर) है। जीवन में काफ़ी बदलाव भी आया है। कुछ-कुछ वृत्तियाँ भी दिखती हैं मेरी। लेकिन एक जो बात है, वह मन को उद्विग्न करती है बार-बार। मेरी बेटी जो है, वह कुछ व्यवहार करती है या कुछ सोचती है, वह पूरी तरह अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाती है, तभी मुझे चिंता होती है। तो थोड़ी मिनट के लिए मैं उद्विग्न हो जाती हूँ मतलब चिंता होती है तब। तो मुझे यह भी पता है कि यह मेरा उसके प्रति मोह है लेकिन उससे छूट नहीं पाती हूँ मैं। वह भी आपको सुन रही है, वह यहाँ आई भी हुई है। तो मुझे कुछ मार्गदर्शन कीजिए कि मेरा मोह थोड़ा छूटे।
आचार्य प्रशांत: मुझे आपसे मोह नहीं, लेकिन फिर भी आपने जो उलझन बताई है, मैं उसका यथाशक्ति समाधान करने की कोशिश करूँगा न? तो समस्या सुलझाने के लिए मोह थोड़े ही चाहिए! बोध चाहिए। चाहिए न? बेटी से अगर प्रेम है तो आप उसकी उलझनें, समस्याएँ सुलझाना चाहेंगे, है न? नहीं सुलझाना चाहेंगे? सुलझाना चाहेंगे। और सुलझाव के रास्ते में बाधा है मोह।
किसी की भलाई चाहते हो तो उससे मोह मत करो। और किसी रिश्ते में आग लगानी है तो उसमें मोह और आसक्ति ले आओ।
अगर पहचानना हो कि कौनसा रिश्ता बर्बादी की ओर बढ़ रहा है तो देख लेना कि उसमें मोह है क्या। अटैचमेंट (लगाव) अगर दिखाई दे गया तो समझ लेना यह रिश्ते में आग लगी अब। मोह शुभ नहीं होता। ऐसा नहीं है कि मोह कोई नैतिक मूल्य है जिसका पालन करना चाहिए। मोह एक व्यावहारिक मूल्य है, प्रैक्टिकल वैल्यू है वो। इस तरीके से कि अगर मोह होगा तो दिक्कत आएगी।
हम कुछ ऐसे समझते हैं कि वैसे तो मोहा अच्छा होता है, मीठा होता है लेकिन वह ज्ञानी लोग, संत लोग बोल गए हैं कि मोह मत करो, तो मोह थोड़ा कम रखना चाहिए। मोह अच्छा, मीठा नहीं होता। जो आपके पास के, निकट के, आपके प्यार के लोग होते हैं, मोह उन्हीं के लिए घातक हो जाता है। दोहरा रहा हूँ, जिसकी भलाई चाहते हो उससे मोह मत करो।
यह बात शायद अभी समझ में न आए। प्रेम है अगर किसी से तो मोह बिलकुल मत रखना उससे। मोह जहाँ आया, प्रेम को खा जाएगा। अब यह शायद हमें पता ही नहीं कि बिना मोह का प्रेम कैसा होता है। कोशिश करो, साधो उसको। जिससे तुम जुड़ गए, उसे बढ़ने कैसे दोगे? जिससे तुम ही चिपक गए, उसे अब उड़ने कैसे दोगे? जवाब दो।
मोह, पता है न, क्या है? मोह ऐसा है कि बरगद का पौधा लेकर उसको कुची-कुची गमले में, अपने शोनू-शोनू कमरे के अंदर रखूँगी। और रोज़ उसको किसी (चुंबन) दिया करूँगी। कुची-कुची गमला, शोनू-शोनू कमरा और रोज़, उस बिचारे की कुल चार ही पत्ती है, उनको किसी देनी है! और चार ही पत्ती क्यों है? काहे कि आपको मोह बहुत ज़्यादा है न। आप कहें, ‘देखो मैं कितना प्यार करती हूँ इससे, रोज़ किसी देती हूँ।’ वह मरा जा रहा है, विषचुंबन है यह! अब दिक्कत क्या है कि अपना कमरा छोटा-सा है। अपने पास कोई खुली जगह, खुला आकाश नहीं। और वह बरगद क्या चाहता है? उसको तो बहुत सारी ज़मीन और बहुत सारा आकाश चाहिए। मोह है तो क्या करोगे? कमरे में रखे रहोगे। प्रेम है तो क्या करोगे? उसे दूर वहाँ स्थापित करोगे जहाँ उसकी भलाई है।
यह अंतर है मोह और प्रेम में। मोह होगा तो बोलोगे, ‘माई बरगु, माई बरगु’ (मेरा बरगद)। वह क्यूट तो लगेगा ही, उतने से उसको गमले में लगा दिया है, उसकी जड़ें-वड़ें काट दी हैं, वह क्यूट तो लग ही रहा है, बरगद का पेड़ ऐसे लेकर फ़ोटो खींच रहे हैं, सेल्फ़ी में डाल दी। प्रेम होगा तो उसे दूर छोड़ कर आओगे, जहाँ उसकी जड़े गहरी जा सकें, जहाँ वह आकाश में उड़ सके। अंतर समझ में आ रहा है? मोह और प्रेम अलग-अलग ही नहीं, विपरीत होते हैं। मोह आग लगा देता है संबंधों में। मोह का मतलब है, पकड़; मोह का मतलब है, जकड़, माने हिंसा। मोह का मतलब है ऐसा आलिंगन जिसमें सामने वाले का दम घुट जाए।
महाभारत के बाद धृतराष्ट्र ने क्या करना चाहा था, याद है? बोले, ’यह भीम ने ही मेरे सबसे ज्यादा बच्चे मारे हैं।' भीम को बुलाया और बोले, ’आओ गले मिलेंगे।’ मोह ऐसा आलिंगन होता है कि गले मिलो और ऐसे, इतनी ज़ोर से गले मिलो कि जान ही ले लो सामने वाले की। बोलो कि आई लव यू सो मच (मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ)। इतनी जोर से गले मिले हैं कि वह छटपटा रहा है। उससे साँस भी नहीं ली जा रही है पर हम गले मिले हुए हैं, उसको छोड़ ही नहीं रहे।
पिछली बार मैंने बताया था, मुझे बगल में कमरा दिया था। पिछले ही महोत्सव में, सत्र के बाद वहाँ जाकर बैठने के लिए। वहाँ पर लोगों के, प्रतिभागियों के मोबाइल रखे हुए थे। तो एक बजे ही जा रहा था, मैंने बुलाया कि देखो किसका बज रहा है, क्या हो गया, तो उन्होंने देखा। उसमें से कितनी मिस्ड कॉल निकलीं? देखा है वह वाला वीडियो। कितनी निकली? बयालीस मिस्ड कॉल । यह मोह है, ये आक्रमण है, यह हिंसा है।
मोह बहुत हिंसात्मक होता है। सोचो कोई तुमसे गले मिले और गले मिला ही रह जाए! कैसा लगा? ख़ौफ़नाक लगा न? यह मोह है। प्रेम कहता है, ‘गले मिलो, हो गया आलिंगन, चुंबन भी कर लो। हट जाओ! हटना सीखो।’
प्रेम हटना जानता है क्योंकि प्रेम दूसरे का हित चाहता है। मोह सिर्फ़ अपना हित चाहता है तो वह सिर्फ़ चिपकता है। चिपको, चिपको, चिपको। प्रेम निस्वार्थ है और मोह में गहरा स्वार्थ है। विपरीत एक दूसरे के। समझ रहे हैं बात को? हटना सीखिए।
बरगद को उसकी जगह देना सीखिए। एक बार मिलिए महीने में पर उन मुलाकातों का कुछ अर्थ होना चाहिए। रोज़-रोज़, चौबीस घंटे चिपके हुए हैं, एक ही कमरे में, सूँघ रहे हैं एक दूसरे को। क्या है यह? कुहनी मारना सीखो! ‘दूर हट!’, किसी को भी झेल लेना, चिपकू को नहीं।
साझेदारी में गहराई होनी चाहिए। विस्तार बहुत ज़रूरी नहीं होता। कैसे विस्तार की बात कर रहा हूँ? विस्तार माने खाना भी साथ में, चलना भी साथ में, उठना-बैठना, सोना सब साथ में, यह होता है। सब कुछ हम तो साथ-साथ करते हैं। शॉपिंग (ख़रीददारी) भी साथ में, कपड़े भी एक जैसे। मेरे एक बैचमेट (सहपाठी) ने यही किया। उसने, उसकी बीवी ने, दोनों ने एक-सी टीशर्ट और एक-सी जींस पहन के फ़ोटो डाल दी। मैंने उसका स्क्रीनशॉट लेकर बस उसको भेज दिया। उसका जवाब आया, ‘मुझे माफ कर दे भाई,’ और बहुत उसने ईमानदारी से और बेचारगी में यह एक लाइन लिखी थी, ‘मुझे माफ कर दे भाई।’ क्योंकि उसको पता था, यह बहुत ज़लील हरकत है। और उसकी यहाँ पर (टीशर्ट पर) लिखा हुआ था: आई लव माय वाइफ़ (मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता हूँ), उसने, आई लव माय हस्बैंड (मैं अपने पति से प्रेम करती हूँ) । और ये फ़ोटो खिंचा रहे हैं और डाल रहे हैं। वो कुछ भी हो सकता है, आई लव माय सन, डॉटर, फ्रेंड (मुझे प्रेम है अपने बेटे, बेटी, दोस्त से), रिलीजन (धर्म) भी हो सकता है, कुछ भी हो सकता है। क्यों चिपकते हो इतना? जॉब (नौकरी) भी हो सकता है, कुछ भी।
वह जो सामने वाला है, अगर वह जीवंत है तो उसके हित की परवाह करो, देखो उसके लिए क्या बेहतर है। तुम्हारी क्या ज़रूरतें हैं, उनको पीछे रखना सीखो। और तुम्हारी ज़रूरतें अगर यह हैं कि तुम्हें हर समय किसी दूसरे को पकड़े रहना है तो यह ज़रूरत ही ठीक नहीं है। तुम आदमी ख़तरनाक हो। फिर तो तुम शिकार ढूँढ रहे हो कि यह मेरी ज़रूरत है कि मुझे हर समय किसी को थामे रहना है, पकड़े रहना है। जैसे छोटे बच्चे नहीं होते कि सुसू जाने के लिए भी मम्मा चाहिए, रात में अकेले नहीं जा सकते, वैसे बहुत सारे वयस्क भी होते हैं, उन्हें कुछ भी करना है तो उन्हें मम्मा का हाथ थामना है। इसमें मम्मा को क्या सुख मिल रहा है? इसमें दूसरे का क्या हित है, यह बताओ न। छोटे बच्चे की तो चलो मजबूरी है, वो डरता है तो उसको कहीं भी जाना है तो तुम्हें जगाएगा, कहेगा, ‘साथ चलो।’ इतने बड़े हो गए, तुम अभी भी अकेले कहीं नहीं जा सकते?
बहुत सारे लोग शिविर में नहीं आए, विशेषकर महिलाएँ। पूछो, काहे नहीं; ‘वह साथ कोई नहीं आ रहा।’ वह ‘कोई’ कौन है? 'वोही'। वही है जो कोई है। वह ‘वही’ जानबूझकर नहीं आएंगे, कहेंगे, ‘यहीं तो आ-आकर बिगड़ गई है यह।’ तो वह भी नहीं आयीं। अब आप बड़ी हो गयीं हैं। सुसु जाने के लिए क्यों...?
अकेले उड़ना सीखिए। उसमें बेवफाई नहीं हो जाएगी। बरगद का पेड़ अगर अपनी नियति को प्राप्त करता है, चारो तरफ़ अपनी बाहें पसारता है, जटाएँ फैलाता है, जड़ें उसकी गहरी जाती हैं, तो यह बेवफ़ाई कर रहा है वह किसी से? बोलिए। आप भी बरगद का पेड़ हैं। आप अगर खुला फैलेंगे तो ये आपने किसी से बेवफ़ाई नहीं कर दी। और अगर कोई ऐसा है जिसका दिल टूटता है इस बात से कि आप गहराई क्यों पा रहे हैं, ऊँचाई क्यों पा रहे हैं, तो वह व्यक्ति किसी के लिए ठीक नहीं है, न आपके लिए न अपने लिए।