प्रश्नकर्ता: मुझ से अतीत में अज्ञानवश कुछ ऐसे कर्म हुए हैं जो आज मुझे गलत लगते हैं व ग्लानि देते हैं। सकाम कर्म नहीं हुआ है इंडिरेक्टली (परोक्ष रूप से) हुआ है। मुझे इस ग्लानि से कैसे मुक्ति मिले? वो ग्लानि झूठ है ये तो अज्ञानी मन नहीं मानता। वो अज्ञानी मन कैसे समर्पण करे और आगे बढ़े?
आचार्य प्रशांत: आप से कुछ ऐसे कर्म हुए हैं, अज्ञान में, वो कर्म आज आप को गलत लगते और ग्लानि भी देते हैं, ठीक है! आप को ग्लानि से मुक्ति चाहिए। अतीत में आपने कुछ कर्म कर डाले हैं जिनको लेकर आप को ग्लानि है आपको उस ग्लानि से मुक्ति चाहिए। ठीक है!
और कहीं बात ये हो कि जैसे पिछले महीने के कर्म को लेकर आज ग्लानि हो रही हो, वैसे ही आप आज भी ऐसे ही कर्म कर रहे हों जिनको लेकर अगले महीने ग्लानि होने वाली हो तो? आप यही कह रहे हैं न कि पहले भी जो हुआ वो ज़रा बेहोशी में हुआ, आपने कहा सबकॉन्शियसली (अवचेतन रूप से)। पहले भी जो हुआ वो अनजाने में हो गया। पहले जो हुआ वो अनजाने में हुआ, बाद में उसकी ख़बर लगी, जब ख़बर लगी तो बड़ा पछतावा उठ रहा है! और ये क्यों नहीं संभावित है कि उतनी ही बेहोशी अभी भी छाई हुई हो और आप आज भी कुछ ऐसे काम कर रहे हों जिनको लेकर अगले महीने पछताना पड़ेगा?
आपको कैसे पता कि आप बदल गए हैं? मैं बताता हूँ; नहीं बदले हैं! न बदलने का प्रमाण है ग्लानि। ग्लानि अगर सच्ची होती तो उसने आप को पूरा बदल डाला होता।
ग्लानि का अर्थ समझते हो? ग्लानि का अर्थ होता है, "मैं गलत हूँ, मुझे नहीं होना चाहिए।" ग्लानि ये नहीं कहती, अगर सच्ची है कि, "मैंने गलत किया।" अगर बस इतना ही कह रही है आपकी ग्लानि कि, "मैंने गलत किया", तो बड़ी झूठी ग्लानि है।
क्योंकि अब क्या व्यक्तव्य है ग्लानि का, "मैं गलत हूँ नहीं, मैंने गलत किया! मैं सही हूँ, 'मैंने' गलत किया। माने जो गलती है वो धोखे से हो गई। वो तो पता नहीं कैसे दुर्घटनावश हमसे गलती हो गई मैंने गलत किया, मैं गलत हूँ नहीं, मैंने गलत किया।" इसीलिए हमें गलती मानने में बहुत ज़्यादा अफ़सोस नहीं होता है। देखते नहीं हम जा कर क्या कह देते हैं, "मुझे माफ़ करिएगा, मुझ से गलती हो गई!" ये कितनी धोखेबाज़ी की चाल है, है कि नहीं? "मुझे माफ़ करिएगा मुझ से ग़लती हो गई।" ग़लती हो गई? माने अभी तुम यही बताने आए हो न कि तुमने करी नहीं ग़लती, तुमसे हो गई? माने तुम तो यही बताने आए हो न कि तुम तो ऊँचे आदमी हो, न जाने धोख़े से कैसे तुम्हारा पाँव फ़िसल गया और तुम ज़मीन पर आ गिरे।
असली ग्लानि क्या कहती है? क्या कहेगी असली ग्लानि शिवा (एक श्रोता)? "मैं गलत हूँ।" ना "मुझ से गलत हुआ", जो कि परम धोखेबाज़ी का व्यक्तव्य है, ना "मैंने गलत किया", जिस व्यक्तव्य में भी धोखा निहित है, बल्कि, "मैं तो गलत हूँ ही।" ना, "मुझ से गलत हुआ", ना "मैंने गलत किया", "मैं गलत हूँ!" और फिर जब तुम कह देते हो, "मैं गलत हूँ", तो फिर वो ग्लानि जीवन के आमूलचूल कायाकल्प का कारण बन जाती है। वो ग्लानि फिर तुम्हें पूरी तरह पिघला देती है और बदल देती है। क्योंकि अब तुमने कह दिया है, मान लिया है कि तुम गलत हो। तुम गलत हो तो तुम्हें नहीं होना चाहिए। जो गलत है क्या उसका अधिकार है बने रहने का? मानो तो कि तुम गलत हो।
तुम मानते नहीं कि तुम गलत हो। तुम यही कहते हो कि, "वो तो धोख़े से हो गया, एक्सीडेंटली हो गया, दुर्घटनावश हो गया, संयोगवश हो गया! हम चाहते नहीं थे, हो गया। हमारे बावज़ूद हो गया, *इट हैपेंड डिस्पाइट मी*।" तुम ये नहीं कहते कि, "मैं तो गलत हूँ ही।" असली ग्लानि कहती है, "मैं गलत हूँ। मुझे हटना होगा, मुझे मिटना होगा।" एक बार तुमने कह दिया तुम गलत हो, उसके बाद तुम गलती दोहराते नहीं क्योंकि ग़लती दोहरानेवाला ही मिट जाता है। अन्यथा यही होगा कि पिछले महीने की बात पर आज अफ़सोस कर रहे हो और आज की बात पर अगले महीने अफ़सोस करोगे।
ये चक्र चलता रहेगा। जब ग़लती करोगे उस वक़्त पता नहीं चलेगा कि ग़लती कर रहे हो। जब ग़लती का फल आएगा, अंजाम आएगा, कर्मों का जब कर्मफल दिखाई देगा तब तुम्हें पता चलेगा, "अरे! पिछले महीने भी लगता है ग़लती कर दी, देखो-देखो-देखो परिणाम क्या आया है!" जब परिणाम आएगा तब कहोगे "अरे! ग़लती हो गई। ग़लती हो गई, वो धोख़े से हो गई।"
जैसे बच्चे होते हैं न! "नहीं! पढ़ कर हम सब कुछ गए थे, पढ़ कर सब कुछ गए थे। बस जब परचा सामने आया तो सौ में से अस्सी नंबर का ही कर पाए। तो पहली बात तो ये कि हमारी कोई ग़लती नहीं है, हमें सब आता है। बस जब परचा सामने आया तो वो घड़ी ख़राब हो गई थी, या पेन ख़राब हो गया था या पर्चेवाले ने पाठ्यक्रम के बाहर से सवाल दे दिए थे तो हम सौ में से अस्सी का ही कर पाए।" और नंबर आते हैं पचास! तो अब ये कि, "कर के तो अस्सी का आए थे, हम अस्सी का तो कर के आए ही थे। वो तो इस परीक्षक का दिमाग़ खऱाब है नंबर दिए हैं सिर्फ़ पचास! तो पहली बात तो ये कि हमें आता कितना है? सौ का। पर धोख़े से, बस संयोगवश अस्सी का ही कर पाए। और अस्सी का करने के बाद एक और दुर्घटना हुई!" "नंबर कितने आए?" "पचास!" वो ये कभी नहीं मानेगा कि बेटा! हकदार तो तुम चालीस के थे। धन्यवाद दो कि तुम्हें पचास भी मिल गए!
अपनी नज़र में वो हकदार कितने का है? सौ का। और जबकि उसका वास्तविक हक़ कितने का है? चालीस का! मिले हैं पचास! होना चाहिए उसे कृतग्यता से लबरेज़ कि, "अरे! चालीस मिलने चाहिए थे, मुझे तो पचास मिल गए बड़ी बात है।" उलटे वो ये बताता फ़िर रहा है, "ग़लती हो गई इस बार!" ग़लती क्या हो गई? कि, "सौ के हकदार थे पचास ही आए। हमने तो सौ की पूरी तैयारी कर रखी थी पचास ही आए।" असली ग्लानि तब है जब तुम मानो कि तुम चालीस वाले हो। एक बार तुमने मान लिया कि तुम चालीस वाले हो उसके बाद अगली बार चालीस नहीं आएँगे न पचास आएँगे। अगली बार बढ़ोगे, अब तरक्की होगी। अब कोई वास्तविक परिवर्तन आएगा, आएगा न?
और जब तक तुम अपने आप को ही ये धोख़ा दे रहे हो, इस झूठ में रखे हो कि, "हम तो सौ के ही अधिकारी हैं!" तब तक अगली बार भी तुम्हारे पचास ही आएँगे, पचास भी नहीं आएँगे, अगली बार आएँगे पैंतीस। ये जो खुद के साथ छल किया जा रहा है ये चलता रहेगा, कुचक्र बनता रहेगा। तो मत देखिए कि अतीत में क्या हुआ, देखिए अभी क्या कर रहे हैं। अगर ग्लानि का भाव लगातार बना ही हुआ है तो इसका मतलब है कि आप बदले नहीं हैं। जो ग़लतियाँ आपने अतीत में करी हैं उनसे ज़्यादा बड़ी ग़लतियाँ कहीं आप आज न कर रहे हों, अतीत की छोड़िए। आप अतीत की ओर देख रहे हैं, आप पीछे देख रहे हैं। हो सकता है आपके पाँवों के नीचे से ज़मीन सरक रही हो और आप देख रहे है पीछे की तरफ़। देखिए आप जहाँ खड़े है वहाँ क्या हाल है।
प्र: : मतलब तो क्या ग़लती का आयाम, डाइमेंशन बदल गया है?
आचार्य: आज आपके सामने जो मुद्दे हैं ज़िन्दगी में क्या वो काफी नहीं हैं आपकी पूरी ऊर्जा और पूरा ध्यान सोखने के लिए? मैं जा रहा हूँ एक रपटीली राह पर; तीन घण्टे पहले फ़िसल कर गिरा था! रास्ता वही है, उतना ही रपटीला, फिसलन भरा और मैं लगातार किस ध्यान में हूँ, किस उधेड़बुन में, किस सोच विचार में चला जा रह हूँ? कि तीन घण्टे पहले क्या हुआ था। रास्ता वैसा ही है जैसा तीन घण्टे पहले था और मेरा ध्यान कहाँ है? कि तीन घण्टे पहले क्या हुआ था। निश्चित रूप से मैं दोबारा गिरने वाला हूँ!
आप के सामने आज कोई चुनौतियाँ नहीं हैं क्या जो आप पुरानी चुनौतियों से ही अभी भी लड़ रहे हैं? और आप अगर इस वक्त पुरानी बातों में ही उलझे हुए हैं तो आज की चुनौतियों का सामना कौन करेगा? पहले जो नुकसान हुआ होगा सो हुआ होगा। पहले के नुकसान को याद कर-कर के आप आज कितना बड़ा नुकसान उठा रहे हैं इस पर तो गौर करिए! या नहीं उठा रहे हैं बताइए?
पुरानी बातों का चिंतन चल रहा है, वर्तमान में जो सामने है उस से ध्यान भंग हो रहा है कि नहीं, बोलो? और जो पुरानी चोट थी वो तो जितनी लगनी थी लग गई, जो नुकसान होना था हो गया, उसको वापस ला सकते हो क्या? हाँ, उसका विचार करते-करते नए और नुकसान तुम पाँच पैदा कर लोगे। क्यों कर लोगे? क्योंकि कुछ बदले तो हो नहीं। आदमी तो तुम मूलभूत रूप से वही हो न जो तीन घण्टे पहले फ़िसल कर गिरा था। जो तीन घण्टे पहले फ़िसल कर गिरा था वो अपनी ना चाल बदले, ना रंग-ढंग बदले, ना अपना ध्यान बदले तो वो फिर गिरेगा कि नहीं गिरेगा? कोई बात रही होगी जो वो तीन घण्टे पहले गिरा। कुछ बात तो थी न, कोई कारण, कोई वजह तो थी न, बोलो! वो वजह क्या अभी भी मौज़ूद नहीं है?
क्या वो वजह मिट गई? जब वो वजह अभी भी मौज़ूद है तो जैसे तीन घण्टे पहले गिरे थे वैसे ही दोबारा गिरने वाले हो न? तो किस पर ध्यान दें? कि तीन घण्टे पहले जो दुर्घटना हुई उस पर या वो जो दुर्घटना बस अब होने जा रही है उस पर? बोलो!
हुआ था ऐसा! बंटू जी गाड़ी चला रहे थे। रात का वक्त और चढ़ा भी रखी थी। बंटू जी की ऐसी ज़िन्दग़ी, ऐसी ही संगत। दोस्तयार ही ऐसे हैं, माहौल ही ऐसा है उनका। और गाड़ी लेकर चले जा रहे थे, झपकी आ गई। नशा भी है, नींद भी है। और गाड़ी भी मस्त है। सामने से चला आ रहा है ट्रक। और ट्रक ने जितनी ज़ोर से ब्रेक मारे जा सकते थे मारे और जितना हॉर्न बजाया जा सकता था बजाया। और दुर्घटना से बस एक पल पहले किसी तरह से बंटू जी को होश आ गया। उन्होंने तेज़ी से गाड़ी काटी और दुर्घटना बच गई।
लेकिन बड़ा खौफ़ लगा, बड़ा सदमा, बिलकुल सिहर गए। वही नहीं सिहर गए, गाड़ी में और जो दो चार उन्हीं के जैसे नशेड़ी बैठे थे वो भी सब। कहें, "अरे!आज मरते-मरते बच गए, बहुत बड़ी बात हो गई, बहुत बड़ी बात हो गई।" गाड़ी आगे बढ़ी। बंटू जी के दिमाग से सदमा उतर ही नहीं रहा है, दिल धड़कता ही जा रहा है धकड़-धकड़-धकड़। बहुत बड़ी बात हो गई है,पूरी गाड़ी में यही चर्चा है। बंटूजी बोले, "पूरी दुनिया को पता चलना चाहिए क्या हुआ, बहुत बड़ी बात हुई है।" तो बोले, "फेसबुक पर डालूँगा।" नशेड़ी आदमी। वो लगे मोबाइल निकाल कर फेसबुक पर कहानी लिखने और फोटो डालने।
इस बार ट्रक फिर आया। हॉर्न भी बजाया, ब्रेक भी लगाया पर इस बार दुर्घटना टली नहीं। क्योंकि आदमी तो वही है न। आदमी तो पुराना ही है; पहली बात। दूसरी बात, वो पुरानी ही बात को याद किए जा रहा है। न नशा उतरा है, न इंसान बदला है बल्कि उसके पास विचलित रहने को, वर्तमान से अनुपस्थित रहने को एक कारण, एक बहाना और मिल गया है। पहले उसके पास सिर्फ नशा था। अब उसके पास एक पुरानी स्मृति भी है जिसको वो बहुत महत्वपूर्ण मानकर के उसी में खोया हुआ है। उसी की चर्चा कर रहा है कि, "अरे अतीत में कुछ गड़बड़ हो गई।" बंटूजी यही तो डाल रहे थे फेसबुक पर कि, "मुझ से बड़ी गड़बड़ हो गई थी, मैं नशे में था, मैं सो गया था, झपकी लग गई थी, बड़ा बुरा हो गया था। दुर्घटना बस होने ही वाली थी।"
होनेवाली थी अतीत में या हो रही है ठीक अभी, बोलो? जो दुर्घटना अभी घट रही है, मेरा निवेदन है, कि उस पर ध्यान दीजिए। रात गई बात गई। बीती बातों पर धूल फेंकिए। ज़िन्दगी किसी को खाली नहीं छोड़ती। आज की ही बहुत चुनौतियाँ हैं, उनका सामना करिए। जब आज की चुनौतियों को ग़ौर से और करीब से देखेंगे तो पता चलेगा कि, "अरे! आज ही बड़ी गड़बड़ हो रही थी और मैं तो पुरानी गड़बड़ के हिसाब-किताब में खोया हुआ था। मैं तो यही याद कर रहा था कि दो साल पहले घर में चोरी हुई थी और मैं नशे में सोता रह गया। और सेंध तो घर में आज लग रही है! मैं याद कर रहा हूँ दो साल पहले की चोरी को और असली डकैती तो आज पड़ रही है।" आज जो घर में डकैती पड़ रही है उस पर ध्यान दीजिए। आज जो गलतियाँ कर रहे हैं उनके प्रति सजग हो जाइए, वो आपका वास्तविक प्रायश्चित होगा।
प्र: मैं बहुत दिन पहले आपसे जब जुड़ा था दो-हज़ार-सत्रह में थ्रू स्काइप एम. टी.एम. (स्काइप के ज़रिए) पर तो उस टाइम पर आपने कुछ विधि बताई थी और गाइड किया था कैंप में जुड़ने के लिए। लेकिन मुझे बहुत टाइम लग गया, अब दो-हज़ार-उन्नीस है, कैम्प आने में। इस बीच मैं आपके वीडियोस से ही जुड़ा रहा। मेरे अंदर जो छुपे हुए डर हैं उनसे बाहर नहीं निकल पा रहा हूँ। तो क्या-क्या चीज़ें हैं जो अहम् की आहुति के लिए, जो-जो ऐतिहासिक छुपे हुए डर है, उनका सामना कैसे करें और उनको कैसे जानें कि इस समाज में चलते हुए भी उनसे अछूते रहते हुए कैसे आगे बढ़ें?
आचार्य: सबसे पहले तो पता करना पड़ेगा कि डर अपने हैं कौन से। पुराने और ऐतिहासिक डरों की बात बिलकुल छोड़ दीजिए। देखिए कि आज कौन सी चीज़ है जो आप को डरा देती है। कौन सा विचार, कौन सी घटना, कौन सी संभावना! और देखिए कि वो डर आपसे क्या छीनने की धमकी देता है! उस पूरी प्रक्रिया का निरीक्षण तो करिए। कोई आता है, आपसे कुछ कह जाता है आप डर जाते हैं। आप वहीं पर रुक जाते हैं। आप कहते हैं, "इतनी ही घटना घटी कोई आया, उसने मुझ से कुछ कहा, मैं डर गया।" या आप कह देते हैं कि, "फलाने व्यक्ति को तो मैं देख कर ही डर जाता हूँ या फलानी कोटि की ख़बर सुनकर ही मैं डर जाता हूँ।" ये आपने पूरी प्रक्रिया अभी फ़िर जाँची नहीं।
आपने बस ये देखा कि बाहर-बाहर क्या हुआ, ये देखिए कि आपके भीतर क्या हो रहा है। क्या खोने से इतना चिंतित हैं आप? क्या है जो आपने पकड़ रखा है और किसी भी पल छिन सकता है? और छिन सकता है तो आपने पकड़ क्यों रखा है, किस उम्मीद में, किस धारणा के साथ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप कह तो रहे हैं कि आप डरे हुए हैं पर जिस बात को लेकर आप डरे हुए हैं उस बात से आप सुख भी खूब भोग रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस चीज़ के छिनने को लेकर के आप व्यग्र हैं वो चीज़ आपकी हो ही ना? है तो आपकी नहीं पर आपने उसे भोग खूब रखा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि डर का सम्बन्ध सीधे-सीधे लालच और स्वार्थ और शायद बेईमानी से है?
ये अपने जीवन का लगातार निरीक्षण और अवलोकन कर के ही पता चलता है।आप दो-हज़ार-सत्रह में पहले मिले थे, फिर आपने कहा कि आपको दो वर्ष लग गए शिविर में समक्ष आकर बैठने में। बीच में आप कह रहे हैं कि आप वीडियो इत्यादि देखते रहे। शिविर में आप पहले आ गए होते तो महीने भर की अवलोकन की प्रक्रिया से आप लाभान्वित होते। उसमें करना ही ये होता है कि देखो अपने आप को, संतो की, गुरुओं की सीख के प्रकाश में देखो अपने आप को और वो सब चीज़ें भी दिखाई दे जाएँगी जो तुम अपने बारे में कभी जानते नहीं थे।ए क बार वो छुपी हुई चीज़ें सामने आ गईं उसके बाद उनका हटना, मिटना आसान हो जाता है। दुश्मन ख़तरनाक ज़्यादा तभी तक है जब तक छुपा हुआ है, प्रकट हो गया फ़िर उससे निबटा जा सकता है।
प्र: : धन्यवाद आचर्य जी। मैं डरता था इसलिए क्योंकि मैं देहतल पर ही जी रहा था। मन डरता था अनुशाशन से। तो आज जैसे मैं शिविर में ज्वाइन (जुड़) कर रहा हूँ तो जिस प्रक्रिया से गुज़र रहा हूँ उसमें सजगता का पता चल रहा है तभी ये प्रश्न, जो पहले अंदर-ही-अंदर चलता था, अभी बाहर आ रहा है, आपके पास रख पा रहा हूँ। मैं सोचता हूँ वो चीज़ झूठा अभी समझ में आ रहा है जो पकड़ के रखा था कि देहतल में जी रहे थे।
आचार्य: शिविर की सारी प्रक्रियाओं में पूरी तरह डूब कर उतरिए, कोई कोताही मत करिए और शुरुआत यहीं से हो जाएगी। कहने को शिविर तीन या चार दिवसीय होता है। वो आरम्भ भर होता है, बात दूर तक जाती है। कोई भी व्यक्ति अगर ईमानदारी से शिविर के अनुशासन और शिविर की प्रक्रियाओं का पालन कर रहा है तो मैं दावे से कह सकता हूँ कि वो जितने लाभ की अपेक्षा लेकर आया था उससे ज़्यादा और उससे ऊँचे तल का लाभ उसे अवश्य होगा।
प्र: : और एक प्रश्न पूछने के लिए आतुर हो रहा है मन कि जो अफ़सोस हो रहा है कि जिस समय ये होना चाहिए था वो पल मैं आलरेडी (पहले ही) खो चुका हूँ जीवन का। तो अभी जितने भी पल बाकी हैं तो उनसे उनका सामना करने के लिए करेज (साहस) की ज़रुरत है।
आचार्य: तो असली अफ़सोस का फल ये होना चाहिए कि आप कहें कि, "पहले खो दिया, अब नहीं खोऊँगा। बहुत खो चूका हूँ, अब ज़रा भी और नहीं खो सकता। दो वर्ष लगा दिए शिविर करने में। अब जब कर रहा हूँ तो इससे एक-सौ-एक प्रतिशत लाभ लेकर ही मानूँगा।” ये असली अफ़सोस है।