आचार्य प्रशांत: समझ में नहीं आ रहा क्या कि जब भगत सिंह कहते थे कि वो नास्तिक हैं तो वो वास्तव में परंपरागत धर्म, सड़े-गले धर्म, संस्थागत धर्म को नकार रहे थे। नहीं तो एक ऊँचे आदर्श के लिए शरीर की आहुति दे देने से बड़ा धार्मिक काम क्या होगा?
अगर कोई नौजवान सच्चे अर्थों में धार्मिक हुआ है तो वो तो भगत सिंह स्वयं है। मुझे बताओ तुम अपना प्राणोत्सर्ग कर रहे हो, तुमने तो पूरी भौतिकता ही खो दी न अपनी। अगर जान चली गयी तो ज़रा भी भौतिकता बची? तो कुछ तो होगा न जो भौतिकता से ऊँचा होगा जिसके लिए तुम अपनी भौतिकता न्यौछावर कर रहे हो। माने तुम मान रहे हो न कि इस भौतिक शरीर से ऊँचा कुछ होता है।
भगत सिंह ने उस ऊँचे लक्ष्य को नाम दिया था ‘आज़ादी’। फ़र्क़ नहीं पड़ता तुम क्या नाम दे रहे हो, इतना मानना काफ़ी है कि तुम्हारी शारीरिक सत्ता से ज़्यादा क़ीमत किसी और चीज़ की है। भगत सिंह का जीवन ही इस बात का प्रमाण है। बाईस-तेयीस साल में वो कह रहें हैं – नहीं चाहिए बाक़ी पूरी ज़िन्दगी, अभी साठ-सत्तर साल और जीते, बोले नहीं जीना है। शरीर की हैसियत क्या है? ये तो संतो वाली बात हो गयी न बिलकुल– नहीं जीना, शरीर की हैसियत क्या है, आज़ादी बड़ी चीज़ है, आज़ादी चाहिए।
तुम्हारी उम्र में भगत सिंह फाँसी पर चढ़ चुके थे। वो किसी से पूछने गए थे कि मैं बम फेंकू इसमें मेरा फ़ायदा है कि नुक़सान है? और तुम्हारे तर्क पर चले होते फिर तो हो गया था काम! तुम्हारे तर्क पर चले होते तो फिर फ़ोन मिला रहे होते – ‘पापा बम फैंके कि न फैंके’। जवानी ये सब बातें नहीं करती। दूसरे हमारा फ़ायदा देखें, दूसरे हमारा फ़ायदा देखें। जवानी अपना रास्ता ख़ुद बनाती है। झुंड में नहीं चलती जवानी, शेर की तरह, कैसे? अकेले।
‘ख़ुदीराम बोस’ पता है कौन हैं? अठारह साल के टिनेज़र थे जिन्होंने शहादत क़बूल ली थी। अंग्रेजों के हाथों मारे गए थे। पर इस टिनेज़र का नाम लड़कों को नहीं पता होगा कि मुझे बताओ भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव कितने साल के थे जब फाँसी पर चढ़े थे?तो ये भी नहीं पता पता होगा, जबकि ये तीनों ही बाईस-बाईस, तेयीस-तेयीस साल के थे, और तेयीस ही मार्च को फाँसी पर चढ़ गये थे।
अब टिनेज़र को या यंग अडल्ट (युवा, वयस्क) को संगति चाहिए। सवाल ये है कि उसे किसकी संगति मिल रही है? इन जैसे टिनेज़र्स की संगति मिल रही है क्या उसको? और बहुत ज़बरदस्त किशोर और युवा हुए हैं भारत के और दुनिया के इतिहास में। मैं उनका नाम लेता चलूँगा। मैं अगर अभी तुमसे पूछूँ कि ‘बिनोय बसु’ के बारे में बताओ। तो ये नाम ही शायद तुमने ख़ुद न कभी सुना हो कि ‘बिनोय बसु’ ये कौन हैं?
बिनोय बसु एक बहुत ज़बरदस्त जवान क्रांतिकारी थे और उनके साथ नाम अमर है – ‘बादल गुप्ता’ और ‘दिनेश गुप्ता’ का। आप कहेंगे– बादल गुप्ता दिनेश गुप्ता! आप थोड़ा-सा जा करके इंटर्नेट पर पढ़िए तो सही या कोई किताब लेकर पढ़िए तो सही। ‘बैटल ओफ़ द वैरांडा’ कलकत्ता की राईटरस बिल्डिंग ; वहाँ पर ये तीनों यूवा क्रांतिकारी घुस गए थे और आइ.जी. सिम्सन था जिसने बहुत क्रूरता-पूर्वक दमन कर रखा था भारतीयों का और जेलों में बंद क्रांतिकारियों का।
तो वहाँ घुसे, वहाँ उसको गोली मारी और उसके बाद बड़े सशक्त पुलिस-बल से कुछ देर तक लोहा लेते रहे। उसके बाद तीनों अपनी मर्ज़ी से शहीद हो गए और बिनोय बसु ने ख़ुद को गोली मारी उसके बाद भी ज़िंदा रह गए। अंग्रेज उन्हें पकड़कर के अस्पताल में भर्ती करा आए। उनको जहां गोली लगी थी वो उस जगह को जान-बूझकर अपने हाथों से लगातार खोदते रहे खोदते रहे खोदते रहे जब तक उनकी मौत नहीं हो गयी। ये भी तो एक जवान आदमी हैं न और इनके साथ दो टिनेज़र थे, अठारह-अठारह साल के ये लड़के थे बादल गुप्ता दिनेश गुप्ता। अठारह साल समझते हो– बारहवीं का लड़का।
इनके बारे में क्यों नहीं पता है हमारे आज के टिनेज़र्स को? क्या वज़ह है? और ये बड़ी ज़बरदस्त कहानी है टिनेज़र्स की भाषा में कहें तो इम्प्रेसिव (प्रभावशाली) भी है और इन्स्परेश्नल (प्रेरणादायक) भी है।
‘यतींद्रनाथ थे’ उन्होंने कहा– जेलों में क्रांतिकारियों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता है तो अनशन करेंगे और वो अनशन उनका ऐसा था कि तिरेसठ दिनों तक उन्होंने कुछ अपने भीतर जाने नहीं दिया। उनकी नाक के भीतर नली लगाकर के कुछ खिलाने-पिलाने की कोशिश की जाती तो खासना शुरू कर देते ज़ोर से। तिरेसठ दिन समझते हो? तिरेसठ दिन बिना कुछ खाए-पिए रहना, और ये चौबीस साल के थे।
एक बार में फाँसी पर झूल जाना या गोली खाकर मर जाना तो फिर भी अपेक्षतया थोड़ा आसान है। तिरेसठ दिनों तक धीरे धीरे जानबूकर के मौत की ओर बढ़ना समझो तो, चौबीस साल, चौबीस साल का लड़का ही है; इनके बारे में पता ही नहीं होगा न।
मैं अभी पूछूँ सूर्य सैन के बारे में बताओ निर्मल सैन के बारे में बताओ तो कुछ नहीं बता पाएँगे टिनेज़र्स और लड़के। तो इनकी संगति तो नहीं ही कर रहा है आज का युवा वर्ग, किसकी संगति कर रहा है? इस सवाल के साथ रहो। किसकी संगति कर रहा है? टिनेज़र है आज का; इनको तो अपना रोल मॉडल (आदर्श) नहीं मान रहा। तो आज का जो टिनेज़र है वो फिर संगति कर किसकी रहा है?
‘शांति घोष’, ‘सुनीति’ चौधरी’ ये पन्द्रह-पन्द्रह साल की लड़कियाँ थीं। अठारह की उम्र में बारहवीं में होते होंगे तो पन्द्रह की उम्र में तो नौंवी-दसवीं में होते हो। और पन्द्रह की उम्र में इन्होंने जा करके गोली चला दी थी सीधे और जेल चली गयी थीं। अंग्रेजों पर सीधे गोली चला दी थी। और ये वो उम्र है जब आज की टिनेज़ लड़कियाँ ऐसा व्यवहार कर रही होती हैं अधिकतर जैसे अभी छोटी-सी, नन्ही-सी डॉल हूँ गुड़िया हूँ।
‘कनकलता बरुआ’ का नाम ही नहीं सुना होगा इन टिनेज़ लड़के-लड़कियों ने; मृत्यवाहिनी की सदस्यता थीं और सतरह की उम्र में प्रदर्शन कर रही, भीड़ का नेतृत्व कर रही थीं हाथ में तिरंगा लेकर के। गोली खाई; और अंग्रेजों ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर निकलोगे सड़क पर तो गोली खाओगे। चेतावनी के बावज़ूद निकलीं, सामने से गोली खाई और सड़क पर ही वीरगति को प्राप्त हो गयीं। और ये सतरह साल की हैं। क्या इनके बारे में जान रहें हैं आज के टिनेज़र्स ? इनके बारे में तो नहीं जान रहे हैं।
‘कल्पना दत्त’ ‘बीना दास ‘प्रीतिलता वादेदार’ इनका नाम भी सुना है आज की किशोर टिनेज़ लड़कियों ने? इक्कीस साल की थीं प्रीतिलता, चटगाओं में जो ब्रिटिश क्लब था, एंटर्टेन्मेंट क्लब। उसमें जा कर के बम लगा आयीं, फ़ाइरिंग करी और जब क्लब के भीतर से ज़वाबी फ़ाइरिंग होने लगी और एक गोली उनको लग गयी तो सायनाइड खाकर के जान दे दी।
ये तो इक्कीस की थीं। और कल्पना दत्त और बिना दास इनके साथ जब थीं तो वो अठारह-अठारह साल की थीं। अठारह ही साल में ज़बरदस्त तरीक़े से क्रांतिकारी गतिविधियों में उतर भी गयीं, पकड़ीं भी गयीं, जेल भी हों आयीं। इनके बार में हमारा टिनेज़र नहीं जान रहा है; उससवाल के साथ रहना कि इनके बारे में हमारा जो टिनेज़र है, वो क्यों नहीं जान रहा है? और जबकि इनकी कहानियाँ ऐसी हैं कि जानने लायक़ हैं।
एक बार आप इनकी कहानियों के साथ हो लो तो उसके बाद दुनिया-भर की जो बेहूदा दो कौड़ी की ख़ुराफ़ाती कहानियाँ हैं जो वो आपके दिमाग़ से तुरंत उतर भी जाएँगी।
भगत सिंह ने पूरे देश की आज़ादी के लिए संघर्ष क्यों किया? क्योंकि अकेले-अकेले आज़ादी तो वैसे भी नहीं मिलने की। ये वास्तव में कोई सामाजिक या राजनीतिक पहल नहीं थीं। ये किसी बर्बर विदेशी शासन के प्रति आक्रोश या क्रांति मात्र नहीं था।
मूलतः यह आध्यात्मिक मुक्ति का अभियान था। एक ऐसी मुक्ति जिसमें तुम कहते हो मेरे शरीर की बहुत क़ीमत नहीं। बाईस-तेयीस साल का हूँ फाँसी चढ़ जाऊँ क्या फ़र्क़ पड़ता है, शरीर के साथ मेरा तादात्म्य वैसे भी नहीं है। मैंने तो अब पहचान बना ली है बहुत बड़ी सत्ता के साथ। भगत सिंह के जीवन में वो बहुत बड़ी सत्ता थी– भारत देश।
समझ में आ रही है बात?
इसीलिए मिलती है जवानी। इसलिए नहीं मिलती कि शरीर को ही ख़ुराक देते जाओ और शरीर की माँगों को मानते जाओ और कामनाओं को पोषण देते जाओ। जवानी मिलती है ताकि उसका उत्सर्ग हो सके, ताकि वो न्योछावर हो सके। जिस उम्र में हम अपनेआप को, बहुत लोग दुधमुहाँ बच्चा ही समझते हैं उस उम्र में वो चढ़ गए फाँसी पर; और ये कोई किशोरावस्था का साधारण उद्वेग नहीं था, भगत सिंह का ज्ञान गहरा था। दुनिया-भर के तमाम साहित्य का अध्ययन किया था उन्होंने; ख़ासतौर पर समकालीन क्रांतिकारी साहित्य का। समाजवाद साम्यवाद इनकी तरफ़ झुकाव था उनका, खूब जानते थे, समझते थे।
किसी बहके हुए युवा की नारेबाज़ी नहीं थीं भगत सिंह की क्रांति में, गहरा बोध था। और वो बोध मैं कह रहा हूँ मूलतः आध्यात्मिक ही था। अन्यथा जीव में देहाभिमान इतना गहरा होता है कि यूँही कोई शरीर नहीं त्याग सकता। जब कोई आम युवा जीवन की चकाचौंध और रंगीनियों के ख़्वाब देखता है उस समय भगत सिंह अपने जीवन की निज़ी माँगों से बहुत दूर बहुत आगे जा चुके थे।
तेयीस साल, पच्चीस साल, सत्ताईस साल का आम नौजवान देखता है कि किस तरीक़े से घर बसा लूँ, कोई स्त्री मिल जाए। और भगत सिंह से; कहते हैं कि एक बार उनकी माताजी ने विवाह का प्रसंग छेड़ा कि बेटा शादी, तो भगत सिंह बोले हो चुकी। शादी हो चुकी। आज़ादी दुल्हन है मेरी। उसी के साथ हो गया अब गठबंधन; अब किसी स्त्री वगैरह के लिए कहाँ जगह है?
ये क्या है? ये आध्यात्मिक समर्पण है मुक्ति के प्रति, कि और कुछ मायने नहीं रखता। न देह क़ीमत रखती है न सामाजिक परम्परा क़ीमत रखती है न मन की कामनाएँ क़ीमत रखती है। मुक्ति-मात्र क़ीमत रखती है; उसी को समर्पित हो चुके हैं उसी से मिलन हो चुका है, यही योग है।
जवान हो तो जीने का एक ही तरीक़ा है– किसी बहुत बहुत ऊँचे लक्ष्य को, उद्देश्य को, मिशन को समर्पित हो जाओ। नहीं तो जवानी माने फिर यही समस्याएँ-समस्याएँ उलझाव, समय की बर्बादी, मन का गंदा रहना, लफड़े, झगड़े, अतृप्तियाँ, वासनाएँ और फिर निराशायें। ऐसे न जीना हो तो फिर उनकी ओर देखो, सादर देखो, सप्रेम देखो जिन्होंने अपने से आगे के किसी काम के लिए अपनेआप को आहुति बना दिया, और तरीक़ा कोई नहीं जीने का।
‘हम तो घर से निकले ही थे बांध के सर पे कफ़न, जाँ हथेली में लिए लो बड़ चलें हैं ये कदम,
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर,
हाथ जिनमें हो जुनूँ कटते नहीं तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़लाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगें हमें रोको न आज,
वक़्त आने दे बता देंगें तुझे ऐ आसमाँ, हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है,
ज़िंदगी तो अपनी मेहमा मौत की महफ़िल में है, सरफ़रोशी की तम्मना अब हमारे दिल में है।’