भगवान से बात करने के लिए क्या करें?

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भगवान से बात करने के लिए क्या करें?

आचार्य प्रशांत: देखो, डाउट और ट्रस्ट दोनों किसी ऑब्जेक्ट पर होते हैं। फ़ेथ भी जब तक उस तरह की है कि कोई ऑब्जेक्ट है उसका, तब तक तो घटेगी-बढ़ेगी है ही। फ़ेथ एबसोल्यूट तब होती है जब वो ऑब्जेक्टलेस (निष्प्रयोजन) होती है। अगर तुम इतना भी कह रहे हो न कि मुझे भगवान पर श्रद्धा है, तो ये अभी ऑब्जेक्ट बाउंड फ़ेथ (वस्तु से बँधी हुई श्रद्धा) है। ये कभी श्रद्धा कम होगी कभी बढ़ जाएगी; ऑब्जेक्ट बाउंड फ़ेथ है, ये ट्रस्ट का ही एक फ़ॉर्म है बस।

श्रोतागण: एग्ज़ैक्टली, जब डिस्कशन चल रहा था तो मुझे लग रहा था कि फ़ेथ के साथ ये घटना और बढ़ना शब्द हमें लगाना नहीं चाहिए। कुछ वर्ड्स एब्सोल्यूट हैं, जैसे प्रेम घट रहा है बढ़ रहा है, ऐसा नहीं होना चाहिए। ट्रस्ट ही रखें तो ज़्यादा अच्छा है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, उसमें होगा। दिक्कत क्या है न कि भाषा फिर बहुत सीमित हो जाएगी, अब कबीर साहब का है,

गहरी प्रीत सुजान की बढ़त-बढ़त बढ़ि जाए। और ओछी प्रीत अजान की घटत-घटत घटि जाए॥

वो भी यही कह रहे हैं कि प्रेम, जो सुजान का लव होता है, वो बढ़ता ही जाता है, और, और बढ़ता जाता है। और जो अजान का प्रीत होती है वो ओछी होती है। तो ठीक है, बोल दिया उस तरीके से तो ठीक है। लेकिन ये समझ लो कि, अब भगवान; ये ही उदाहरण ले लो, कि तुमने किसी मूर्ति पर ट्रस्ट कर रखा है। तुम उसको फ़ेथ बोल सकते हो क्योंकि वो जिस चीज़ के लिए खड़ी है वो अननोन (अज्ञात) ही है लेकिन ये फ़ेथ कम-ज़्यादा होती रहेगी, लोगों की होती है।

तुमने लोगों को कहते नहीं सुना कि वो मेरे साथ ऐसी घटना घटी, उसके बाद मुझे भगवान में श्रद्धा हो गयी, तो ये क्या है? ये बढ़ी ही तो है। और किसी के जीवन में कुछ घटनाएँ हो जाती हैं, उसके बाद उसकी जो श्रद्धा होती है वो कम हो जाती है, घटी ही है — तो ये एक प्रकार की श्रद्धा है। दूसरी श्रद्धा होती है वो ऑब्जेक्टलेस है, वो घटती-बढ़ती नहीं है। उसमें लेकिन तुम उसको कह भी नहीं पाओगे कि मुझे फ़ेथ है।

जिसको तुम कह सकोगे, ‘मुझे फ़ेथ है’, उसका तो कोई ऑब्जेक्ट होता ही है। जैसे ही तुम कहते हो न, ’आइ हैव फ़ेथ (मुझे आस्था है)’, मन तुरन्त सवाल उठाता है, टुवर्डस्? तो उसको एक जवाब चाहिए। तुम बोलोगे, ‘गॉड’ या तुम बोलोगे, ‘सेल्फ़’, मिल गया जवाब मन को। ये वाली जो फ़ेथ है, ये तो घटेगी-बढ़ेगी। दिक्कत समझ रहे हो न? जो फ़ेथ तुम्हें पता चलेगी वो तो घटेगी- बढ़ेगी। जो रीयल फ़ेथ है, जो घटती-बढ़ती नहीं है, वो पता भी नहीं चलेगी।

प्र: आचार्य जी, आप कह रहे हैं कि जो घटे-बढ़े वो श्रद्धा नहीं है, न ही वो सम्पूर्ण समर्पण है। तो सम्पूर्ण समर्पण क्या है?

आचार्य प्रशांत: कम्प्लीट सरेंडर का मतलब होता है कि; पहले तुम ये बताओ कि तुम कम्प्लीट हर चीज़ में क्यों लगाते हो? तुम बैठे हो यहाँ पर और तुम क्यों सातवें आसमान की बातें करते हो? कम्प्लीट सरेंडर का क्या मतलब है? अरे यार! तुम छोटा-मोटा सरेंडर तो कर नहीं पाते और कम्प्लीट की बात करते हो। व्हाइ डोंट यू जस्ट आस्क दैट हाउ टू हैव इवन अ लिटल बिट ऑफ़ सरेंडर (तुम क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारे पास थोड़ा-बहुत भी समर्पण क्यों नहीं है)? स्टैंडिंग व्हेयर यू आर, हाउ कैन यू बी टॉट अबाउट द हैवेन्स (जैसी तुम्हारी अभी स्थिति है उस स्थिति में रहते हुए तुम्हें आसमानों की बात कैसे सिखा सकते हैं)?

पहले तो जो थोड़ा उठ रहा हो, उसको थोड़ा और ऊपर की बात बतायी जा सकती है। पर तुम बैठे यहाँ हो और बात करते हो कम्प्लीट सरेंडर, दिक्कत हो जाती है न। पूछो, ’सरेंडर क्या है?’ सरेंडर यही है कि मौज में हैं। सरेंडर यही है, उदाहरण के लिए — कि बैठे हैं, सेशन कर रहे हैं, बारिश आ गयी, उठ कर अन्दर चले जाएँगे; क्रिब (शिकायत) नहीं मारेंगे। और सरेंडर का मतलब ये थोड़ी है कि बारिश आ गयी तो यहाँ लोटना शुरू कर देंगे कि हाँ… मैं समर्पित हूँ।

सरेंडर का मतलब यही है — अब जो हो रहा है सो हो रहा है, हम क्या करें? क्यों कुछ करना है? कम्पलीट सरेंडर का कम्प्लीट हटाओ, मैं कह रहा हूँ, ‘सरेंडर का मतलब ये है — सब्ज़ी दाल बने हैं, सब्ज़ी में मिर्च ज़्यादा है, दाल में कम है तो दाल के साथ चावल खा लिया, हो गया, खत्म।’ काम चल गया न? ठीक है। और ये नहीं कि उसमें फिर कुढ रहे हैं कि अरे, हाय…! यू आर डन विथ इट (आपका कम पूरा हो गया)। दाल चावल खाओ, आगे बढ़ो। क्या करना है कि, अब सब्ज़ी में मिर्च है बहुत तो अब ठीक है।

श्रोता: सर इट मीन्स सबमिटिंग योर विल टू गॉड ( सर, इसका अर्थ है कि अपनी इच्छा भगवान को समर्पित कर दें)?

आचार्य प्रशांत: एंड गॉड डज़ नॉट अनाउंस हिज़ विल (और भगवान अपनी इच्छा घोषित नहीं करते)। एग्ज़िस्टेंस (अस्तित्व) में जो कुछ हो रहा है वही तो गॉड की विल (इच्छा) है न। अब गॉड की विल थी की सब्ज़ी में मिर्च थी तो अब क्या करें, नाचें? साथ में इंसीडेंटली (संयोग से) दाल मिल गयी, इसमें थोड़ी कम मिर्च है तो चावल मँगा लो, दाल के साथ खा लो, आगे का काम बढ़ाओ।

अब उसी गॉड की विल है कि सारंग की तबीयत खराब हो गयी तो खिचड़ी बन गयी। तो खिचड़ी जब बन गयी, तुम्हें भी मिल गयी, नहीं मिलती तो भी ठीक था। नहीं मिलती तो रोटी और उसमें दाल-चावल में ही काम तो चल ही गया था। पर अब देख लो, ग्रेस (अनुकम्पा), दाल चावल भी मिला और खिचड़ी भी मिली। तो छोटे-मोटे सरेंडर से शुरू करो न — कम्प्लीट-वम्प्लीट, इतनी जल्दी बातें हवा-हवाई मत मारा करो, छोटी-छोटी बातों में सरेंडर करो, बड़ी बातें क्या?

अब आ रहे हैं, बारिश हो गयी है तो क्या करें? खड़े हो जाओ और आसमान की ओर मुँह करके गाली दें? नहीं, कर सकते हो, क्यों नहीं कर सकते? कि खड़े हो जाओ और लगो बकने कि। क्या हो जाएगा? और इसका ये मतलब भी नहीं है सरेंडर का, कि तुम अब गीले हो गये हो तो जान दे देनी है, ‘कि जब तूने गीला किया है तो अब तू ही सुखा।’ अब हो गये गीले तो अब जहाँ ओपर्चुनिटी मिली कि कपड़े बदल सकते हो वहाँ बदल भी लो। गीला होने में क्रिब नहीं मारनी है और जब बदलने का मौका मिले तो उसको भी हाथ से क्यों जाने देना है?

श्रोता: वो भी मौका उसी ने दिया है।

आचार्य प्रशांत: वो मौका भी उसी ने दिया है। अब आ गया मौका तो इस्तेमाल कर लो। कोई दिक्कत नहीं है। चीज़ें एक्शनेबल रखो, एक्शनेबल मतलब जो आचरण में उतर भी सकें। बोफ़ोर्स (तोप) मत मारा करो जल्दी से कि वो गया अब — *द फ़ार्टर इज़ द फ़ार्ट*।

श्रोता: (गॉन) गया।

आचार्य प्रशांत: हो गया। उपनिषद् के ऋषि को हक है कि वो ऐसे ऐसे (हाथ से उछालने का इशारा करते हुए) उछाले, इट मूव्ज़ इट मूव्ज़ नॉट। हम वो बातें करें जो हमारी ज़िन्दगी की हैं। अब असद (एक श्रोता) बोल रहे हैं, ‘इट मूव्ज़ इट मूव्ज़ नॉट।’ क्या बाइक? किसकी बात कर रहे हो? करिज़मा की बात कर रहे होगें और किसकी!

अब, *व्हेन यू विल गो बैक, डू नॉट यूज़ दिस थिंग एज़ एम्युनिशन, राईट? रिलेट इट टू लाइफ़, दैट्स द रीयल थिंग*। (अब वापस जाओगे तो इस चीज़ को बारूद की तरह मत इस्तेमाल करना, ठीक है? अपनी ज़िन्दगी से जोड़कर देखना, वही असली चीज़ है।) ज़िन्दगी में उतरे, भले दो पर्सेंट उतरे, वो ठीक है। और सौ पर्सेंट लेकर उसका तुम सिर्फ़ शो केस में सजा रहे हो तो उसका फिर तो क्या कर रहे हो! ज़िन्दगी में उतारो न। बात तो कर रहे हो ब्रह्म की और छोटी-छोटी बात पर झूठ बोलते हो। अकारण, उससे तुम्हें कुछ मिल भी नहीं रहा। बात तो करते हो, ’आइ एम नॉट द बॉडी’ (मैं शरीर नहीं हूँ) और अभी ऊंघने लग जाओगे।

श्रोता: ऐसे किसी झूठ से जिससे हमारा भला हो उसको बोलने में परहेज नहीं करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: ऐसे किसी?

श्रोता: झूठ से जिससे कि हमारा भला हो रहा है या हमें कुछ प्राप्ति हो रही है, ऐसे झूठ का परहेज नहीं करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: आप का भला क्या है, ये इस पर निर्भर करता है कि आप अपनेआप को क्या समझते हैं। आपकी अगर परिभाषा ही बदल जाए तो आपका भला बदल जाएगा न? लेकिन हम ये मानकर बैठते हैं कि हमें ये पता ही है कि हमारा भला किसमें है। मैंने इन लोगों को एक सवाल दिया था कि पता करके आओ कि ‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ में क्या अन्तर है। कितने लोगों ने करा? तो भला क्या? श्रेय माने क्या? क्या हम में से कोई भी है जो जानता है कि वास्तव में हमारे लिए क्या भला है?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: करता हर आदमी वही है जो उसे लगता है उसके लिए भला है पर बड़ी-बड़ी बुराइयाँ हो रही हैं।

श्रोता: फ़र्ज़ करिए कि मेरी जान पर बनी हुई है और उस झूठ को बोलने से मेरी जान बच जा रही है।

आचार्य प्रशांत: फिर आप वही काम कर रहे हैं जो इसने करा था। ऐसा आपके साथ कितनी बार होता है दिन में कि आपकी जान जाने वाली होती है और झूठ बोलकर आप जान बचाते हो? हर दिन, प्रतिदिन आपके साथ ऐसा कितनी बार होता है कि जान गयी?

श्रोता: फ़र्ज़ करें।

आचार्य प्रशांत: नहीं, फ़र्ज़ क्यों करें? मैं उन बातों की बात करूँ न।

श्रोता: ऐसा कभी हो जाए तो ऐसे झूठ बोलने में कोई परहेज नहीं करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: ये झूठ है कि ऐसा कभी हो जाए। मैं भी आप से एक प्रश्न पूछ सकता हूँ — ऐसा कभी हो जाए कि सात सिरों वाला साँप मेरे सामने आ जाए, तो मैं उसके किस सिर से बात करूँ। काल्पनिक बातों से हम क्यों उलझें? ज़िन्दगी वास्तविक है, सामने है, उसकी बात करें न। ये सारे सवाल कि देखो, झूठ बोलने में क्या बुराई है अगर झूठ बोल कर किसी की जान बचती हो तो। और ये बातें छोटे-छोटे बच्चे होते हैं न, वो सब भी कर रहे होते हैं कि अगर बताओ कोई; तो झूठ बोलोगे कि नहीं बोलोगे? वो बहुत अपने आप में एक सिचुएशन होती है जिसमें हज़ार फ़ैक्टर्स होते हैं। उस पर रिस्पॉन्स तभी दिया जा सकता है जब वो स्थिति सामने आये।

पहले से तय हम कर भी लें कि झूठ बोलकर जान बचानी है या जो भी है, तो ये ज़रुरी नहीं है कि उस समय आप झूठ बोल ही जाओगे। उस समय तो जो होगा वही होगा, पहले से तय करके नहीं होता। जो बात कह रहा हूँ थोड़ा उस पर ध्यान दीजिए — हम भले की बात करते हैं न? हम नहीं जानते कि हमारे लिए अच्छा क्या है, क्योंकि हमारे लिए अच्छा क्या है वो इस पर निर्भर करता है कि हम अपने आप को क्या समझते हैं। मेरे सामने ये पोहा रखा है और मेरे सामने कुछ क्रीम वगैरह रखी है, अगर मैं अपने आप को अपनी त्वचा समझता हूँ तो मैं उसमें से किसको चुनूँगा?

श्रोता: क्रीम।

आचार्य प्रशांत: कि जल्दी से मुँह चमका लूँ, क्योंकि मेरी अपनी परिभाषा क्या है अपने बारे में? मैं कौन हूँ? आइ एम माइ अपियरेन्स (मैं अपना रूप हूँ)। हू एम आइ? आइ एम माइ अपियरेन्स। तो मैं कहूँगा, ‘मेरा भला किसमें है?’

श्रोता: त्वचा चमकाने में।

आचार्य प्रशांत: त्वचा चमकाने में, तो मैं क्रीम की तरफ़ जाऊँगा। मेरी परिभाषा मेरे बारे में ये है कि आइ एम माइ स्टमक (मैं मेरा पेट हूँ), तो मैं जल्दी से किधर को जाऊँगा? खाने की तरफ़ को जाऊँगा। और मैं कहूँगा, ‘मेरा भलाई इसमें है कि मैं खाना खा लूँ।’ इसके बगल में किताब भी रखी है, अगर मेरी परिभाषा ये है कि आइ एम माइ माइन्ड एण्ड माइ आइडियाज़ (मैं मेरा मन और विचार हूँ) तो मैं किस की तरफ़ जाऊँगा? मैं किताब की तरफ़ चला जाऊँगा।

आप समझ रहे हैं न?

मैं आपने आप को जो समझता हूँ उसी के अनुसार मैं अपनी भलाई समझता हूँ। तो आत्मबोध से ही आदमी वास्तव में वो ही करता है जो उसके लिए भला है, नहीं तो वो सब करता रहता है जो अपने आप को समझता है। आप ये बताओ न, एक बात पूछ रहा हूँ, ‘दुनिया में कोई ऐसा देखा है जो अपना अहित करना चाहता हो?’

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: दुनिया में हर आदमी अपना तो कम-से-कम भला ही करना चाहता है न? लेकिन दुनिया में लोग कैसे हैं? हर कोई कष्ट में है। और हर कोई अपनी ही वजह से कष्ट में है, ये बात मानते हैं कि नहीं? अपनी ही हरकतों के कारण लोग कष्ट में हैं। करना क्या चाहते थे?

श्रोता: भलाई।

आचार्य प्रशांत: अपना भला, और हो क्या रहा है? अपना बुरा। इससे क्या पता चलता है? कि हम जानते ही नहीं है कि हमारी भलाई किसमें है। ये तो बहुत ऊँची बात हो जाएगी जिस दिन हमें पता लग जाए कि वास्तव में हमारी भलाई किसमें है। जो आदमी हत्या कर रहा है, वो क्या सोचकर हत्या कर रहा है? कि हत्या करने में मेरी भलाई है। जो आदमी झूठ बोल रहा है, मक्कारी कर रहा है, मिलावट कर रहा है, वो क्या सोचकर ये सब कर रहा है? कि इसमें मेरी भलाई है। पर क्या उसकी भलाई है इसमें? नहीं है न? मेरी भलाई किसमें है वो इस पर निर्भर करता है कि मैं हूँ कौन। तो वो जानना ज़रुरी है, मैं हूँ कौन। उसी के अनुसार मेरी भलाई स्पष्ट होगी मुझे। मैं स्टूडेंट्स से पूछता हूँ, ‘हर माँ-बाप अपने बच्चे का क्या करना चाहता है?’

श्रोता: भला।

आचार्य प्रशांत: और बच्चे कैसे निकल रहे हैं, और निकलते आये हैं? अब माँ-बाप की नीयत तो यही रहती है कि बच्चे का भला करें, और कर क्या देते हैं बच्चे का? सर्वनाश। पहले पता तो हो कि जो ये चीज़ मेरे सामने है, ये वास्तव में है क्या। तब न उसका भला कर पाऊँगा। और जब मैं उसका भला करना चाहूँ, पहले मैं ये जानना चाहूँ कि वो कौन है, तो उससे भी पहले मुझे क्या जानना पड़ेगा?

श्रोता: मैं कौन हूँ?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि अभी हम कल ही बात कर रहे थे कि जैसा मैं होता हूँ मैं दुनिया को?

श्रोता: वैसे ही देखता हूँ।

आचार्य प्रशांत: अब माँ-बाप खुद अपनेआप को सिर्फ़ और सिर्फ़ एम्बीशन का पुतला जानते हों, तो वो बच्चे के साथ भी क्या करेंगे? एम्बीशियस बनाएँगे और एम्बीशन पूरी करने की कोशिश करेंगे। यही तो करेंगे न? और उनकी नज़र में ये क्या होगी? बच्चे की भलाई। और हो क्या जाएगा बच्चे का?

श्रोता: दुर्गति, सर्वनाश।

आचार्य प्रशांत: बोलिए, रिफ्लेक्शन्स (अवलोकन) बोलिए।

श्रोता: दो दिन पहले उसी रास्ते पर गये थे तो मैंने भी बोला था, ‘डर था बहुत ज़्यादा’, वापस लौट आये थे। तो एक चीज़ इसमें पूरे दो-तीन दिन में हम ऐसे ही ट्राइ कर रहे हैं जब फ़ाइनली उसमें ट्राइ कर रहे हैं, ऊपर चढ़ रहे हैं। कल जूते उतारा, मोजे भी उतारा, तब थोड़ा सा हो पाया। फिर भी डर था, डर के साथ ही था। वो आर्टिफ़िशियली लायी थी मैंने कॉन्फ़िडेंस कि हो सकता है। अगर ये हो सकता है तो हो सकता है। तो आज वही रास्ते गये थे सब लोगों के साथ, देखती रही, नीचे जो है न, मेरे साथ मूव कर रहा था, मतलब इतना वो हो रहा था कि चक्कर आने लगे। फिर भी लायी कॉन्फ़िडेंस, ज़बरदस्त था वो कि जाना ही है इसी रास्ते में।

फिर मोड़ पर आकर वापस गयी थी मैं एक्चुअली, तो मोड़ के इधर देखा तो पूरा खुला हुआ इतना नज़ारा था कि डर का नामोनिशान नहीं था। तो इसमें एक बात है कि हम डर भी रहे हैं, पहले एक्सेप्टेंस नहीं रहती है। दूसरी बात — डर से निपटने का रास्ता ये होता है कि कॉन्फ़िडेंस लाओ, ज़बरदस्ती लाओ, उससे डर मिट जाता है। नहीं तो दबा हुआ रहता है अन्दर कम्पलीट, ऐसा ये दो दिन में उसी बात पर हो रही थी। आज वो एकदम वो ब्यूटी जब नज़र आयी, मतलब जो भी है, मन में ये आया कि सिर्फ़ डर की वजह से इसको मिस कर दिया। तब जाकर वो डर की वो निशानी नहीं रही। तो ये पढ़ाते थे जब फ़ियरलेसनेस तब समझ में नहीं आया।

प्र: आचार्य जी, यहाँ शिविर में जो कुछ भी हो रहा है वो मुझे अवास्तविक क्यों लग रहा है?

आचार्य प्रशांत: दैट इज़ बिकॉज़ समव्हेयर यू आर कन्विंस्ड दैट यू विल ब्रिंग इट टू एन एंड। एंड नॉट दैट दिस प्लेस विल कम टू एन एंड, दिस माइंड, दिस माइंड, द माइंड दैट यू हैव हियर (ये इसलिए हो रहा है क्योंकि आप कहीं-न-कहीं मान चुके हो कि आप इस वक्त को खत्म कर देंगे और ये नहीं कि ये जगह समाप्त होगी बल्कि ये मन जो है यहाँ वो समाप्त हो जाएगा)। समव्हेयर यू आर कन्विंस्ड दैट यू योरसेल्फ़ थ्रू योर डिटरमिनेशन विल किल इट (कहीं-न-कहीं आप निश्चित कर चुके हो कि आप अपने संकल्प से इस वक्त का सर्वनाश कर देगें)।

श्रोता: एज़ इन?

आचार्य प्रशांत: एज़ इन देयर इज़ अ डीप सीटेड वैल्यू कॉम्पीटिंग अगेंस्ट दिस प्लेस (मानो जैसे कोई गहरा और दबा हुआ संस्कार इस जगह से प्रतिस्पर्धा कर रहा हो)। इट्स एज़ इफ़ अ मदर हैज़ अलाउड हर चाइल्ड टू कम टू दिस प्लेस, बट द चाइल्ड वेरी वेल नोज़ दैट द मोमेंट ही गोज़ बैक, द मदर इज़ वेटिंग (ये बिलकुल ऐसी सी बात है कि एक माँ ने अपने बच्चे को यहाँ आने की अनुमति तो दे दी है, पर उस बच्चे को अच्छी तरह से पता है कि जैसे ही वो यहाँ से जाएगा उसकी माँ उसका इन्तज़ार कर रही होगी)। तो आ तो गया हूँ चार दिन के लिए पर वापस तो मेरे को वहाँ जाना ही है और फिर मेरे को पता है दोबारा वही सब चालू हो जाना है।

श्रोता: बट दैट हैपन ड्यूरिंग नॉर्मल डे-टू-डे आलसो (पर वो तो रोज़मर्रा में भी हो जाता है)।

आचार्य प्रशांत: दैट फ़ियर दैट दिज़ विल एंड इज़ नॉट बिकॉज़ द रेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड इज़ डिटरमिंड टू ब्रिंग इट टू एन एंड, दैट इज़ बिकॉज़ यू योरसेल्फ़ आर नॉट कमिटेड टू लेट इट कॉन्टिन्यू, यू आर इन फ़ैक्ट कमिटेड टू डिस्ट्रॉय इट (ये जो डर है कि यहाँ जो एहसास कर पा रहे हैं वो खत्म हो जाएगा, वो इसलिए नहीं है कि अस्तित्व ने कोई साज़िश रची है बल्कि आप खुद यहाँ से पूर्ण रूप से नहीं जुड़े हैं)। दिस इज़ अ स्टेट ऑफ़ माइंड, राईट? दिस, व्हेन आइ से दिस — आइ मीन दीज़ कैम्प्स दैट वी हैव। दे ब्रिंग यू टू अ पर्टिकुलर स्टेट ऑफ़ माइंड। माइ क्वेश्चन इज़, इज़ देयर एनीथिंग दैट कैन डिस्ट्रॉय दैट स्टेट ऑफ़ माइंड, इज़ देयर समबडी हू इज़... (ये मन की एक अवस्था है, है न? जब मैं ये कहता हूँ तो मेरा मतलब हमारे पास मौजूद इन शिविरों से है। वे आपको एक विशेष मनोस्थिति में लाते हैं। मेरा प्रश्न है — क्या ऐसी कोई चीज़ है जो उस मनोस्थिति को नष्ट कर सकती है? क्या कोई है जो..)?

क्यों खत्म हो भाई? और तुम लोग जब भी कोई कैम्प खत्म होता है न, देखना, हर बार करते हो; इस बार भी अभी जब वापस चलने का वक्त आता है, जब चलेंगे रानीखेत से, देयर इज़ अ टिंज ऑफ़ सॉरो (दुख की एक छटा है)। व्हाइ इज़ देयर सॉरो अपॉन लीविंग (यहाँ से जाने पर वो दुख क्यों)? बिकॉज़ यू नो दैट इट इज़ गोइंग टू कम टू एन एंड (क्योंकि तुम्हें पता है कि ये खत्म होगा)। आइ डोंट फ़ील दैट सॉरो (मुझे उस दुख का एहसास नहीं होता)। *आइ नो इट इज़ नॉट गोइंग टू एंड (मुझे पता है कि ये खत्म नहीं होगा)।

कौन रोक सकता है? मेरे अलावा कौन रोक सकता है? और तुम्हारे अलावा कौन रोक सकता है तुम्हें? तुम अगर सोच ही लो — अब राहुल बोल रहा था कि मैंने मोबाइल-फ़ोन नहीं इस्तेमाल किया, एक-दो और लोगों ने भी कुछ-कुछ बातें आकर शेयर करी हैं कि सर, मैंने मिस ही नहीं किया घरवालों को। तीसरा दिन हो गया है और अभी तक मुझे, मैं मिस ही नहीं कर रहा हूँ। एक ने तो ये भी बोला कि मुझे गिल्टी फ़ील हो रहा है। और ये बात पिछली ट्रिप में भी हुई थी न? किसने? कोई था।

तो ये बड़ी कॉमन सी चीज़ है कि फ़ोन से अटैचमेंट छूट गया, मेल नहीं चेक करी। इट्स अ स्टेट ऑफ़ माइंड, व्हाइ मस्ट यू बी अफ़्रेड दैट दिस इज़ एन अनरियल, अ टेम्परेरी काइंड ऑफ़ स्टेट? इट इज़ टेंपरेरी इफ़ यू वांट इट टू बी टेम्परेरी (ये मन की एक अवस्था है। आपको क्यों डरना चाहिए कि ये एक अवास्तविक, एक अस्थायी प्रकार की स्थिति है? यदि आप इसे अस्थायी बनाना चाहते हैं तो ये अस्थायी है)।

तुमने तय ही कर रखा हो कि तुम्हें इसको मार देना है तो ये मर जाएगा। पर अगर तुम इसे मारो नहीं तो ये अपनेआप चलेगा, कोई दिक्कत नहीं है, तुम्हें कोई बहुत कोशिश भी नहीं करनी पड़ेगी। इट डज़ नॉट रिक्वायर यू टू बी अ वारियर (इसके लिए आपको योद्धा होने की आवश्यकता नहीं है), कि लड़-लड़कर मैं… नहीं कुछ नहीं। योर ओन वैल्यूज़, आइ एम रिपीटिंग दिस, योर ओन वैल्यूज़ आर हेल्बेंट ऑन डिस्ट्रॉइंग इट, नथिंग एल्स (आपके अपने मूल्य, मैं ये दोहरा रहा हूँ, आपके अपने मूल्य, ही इसे नष्ट करने पर तुले हैं, और कुछ नहीं)।

प्र: आचार्य जी, जब कल हम जंगल के अन्दर जा रहे थे तब मुझे कदम-कदम पर जानवरों और जीव-जन्तुओं का डर लग रहा था, क्या ये सामान्य बात है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, कुछ बातों को समझो। नदी बह रही होती है, सामने पत्थर आ जाता है, बड़ा पत्थर है, काफ़ी बड़ा, तो नदी क्या करती है? साइड से हो लेती है। तुम चल रहे हो और सामने एक जानवर आ जाए बड़ा, तो तुम्हें भी क्या करना है? या करते ही हो? लेकिन तुम्हारे और नदी दोनों के साइड होने में बस एक अन्तर होता है, क्या? नदी साइड हो लेती है। नदी भी पगलायी नहीं है कि जाकर सिर पटक दे कि जब तक पत्थर नहीं तोड़ूँगी, आगे नहीं बढ़ूँगी। नदी जैसे साइड हो लेती है बिना डरे, नदी क्या डर-डरकर साइड होती है? जानवर सामने आ जाए — साइड हो लो। डर बिलकुल दूसरी चीज़ है। अभी यहाँ पर एक साँप आ जाए तो क्या करना है?

श्रोता: हट जाना है आराम से।

आचार्य प्रशांत: हट जाओ न; नहीं, आराम से भी क्यों? दिख ही रहा है कि विषैला साँप है तो आराम-आराम से हटोगे क्या?

श्रोता: सर, हटेंगे तो वो पैर पर आएगा और पीछा करेगा।

आचार्य प्रशांत: अब मान लो पीछा ही कर रहा है तो? आराम-आराम से चलोगी?

श्रोता: सर, जो भी अपनेआप को सेफ़ करने के लिए ठीक लगे वो करें?

आचार्य प्रशांत: अगर दौड़ना पड़े सेफ़ करने के लिए, भागोगे न? मुड़ जाओ, सामने से कुछ खतरा है, मुड़ जाओ। पर बिना डरे मुड़ जाओ या ये है कि बिना डरे नहीं मुड़ सकते? नहीं समझ रहे हो बात को?

नदी के सामने भी पत्थर आता है तो नदी मुड़ जाती है न? कोई मनाही है क्या कि सामने साँप आ जाए तो तुम भी मुड़ जाओ। उस मुड़ने के लिए डरने की ज़रूरत क्या है, मैं ये पूछना चाहता हूँ। तुम रात में बाहर निकलीं, बड़ा अच्छा किया — तुम्हारे सामने सियार खड़े हो जाते दो, तो क्या कहतीं कि मैं डरती नहीं हूँ, मुझे पंजा मारो?

अरे! अब सियार आ गया सामने तो मुड़ो वापस और भक से अन्दर जाओ, और क्या करोगी? और अगर छोटा सियार हो तो फिर हाथ में उठा लो। क्या, कोई बुराई नहीं है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में हाय-तौबा मचाने की, पैनिक करने की, बदहवासी की कोई आवश्यकता है क्या? डर उसका नाम है। डर इसका मतलब ये है कि हम अन्दर तक हिल गये, शेकेन (हिलना), कम्पित हो रहे हैं। देयर इज़ नो नीड टू बी शेकेन (कम्पित होने की ज़रूरत नहीं है)।

डू व्हाट इज़ नीडेड (वो करो जिसकी ज़रूरत है)। इफ़ अ टाइगर जम्प्स् हियर, रन विद ऑल योर माइट, बट रन विदाउट पैनिंकिंग (अगर यहाँ शेर आ जाए तो पूरी जान लगाकर भागो, पर भागो बिना घबराहट के)। दैट इज़ आल दैट इज़ नीडेड (बस यही ज़रूरी है)।

यार, तुम्हें अभी साँप काट ले तो तुम्हें सिर पर उठाकर के हम पूरी ताकत से दौड़ेंगे गाड़ी तक पहुँचने के लिए क्योंकि एक-एक सेकंड कीमती होगा, या ये कहें कि अब आराम से चलो। तेज़ी से चला तो ये डरने की बात है? हमारी जितनी जान होगी, उतनी जान लगाकर दौड़ेंगे कि जल्दी पहुँचो गाड़ी तक और पसीना आ रहा होगा, गिर-विर जाएँगे, कट जाएँगे, खून निकलेगा, लेकिन फिर भी दौड़ेंगे। लेकिन उस दौड़ने में पैनिक ज़रूरी है क्या? बदहवासी ज़रूरी है? कि दौड़ें और साथ में रोते भी जा रहे हैं कि हाय! अब क्या होगा।

श्रोता: पता नहीं शायद रिज़ल्ट को सोचकर ही इंसान रोता है न, और रिज़ल्ट इज़ नॉट इन अवर हैन्डस् (परिणाम हमारे हाथ में नहीं है)।

आचार्य प्रशांत: ठीक है। अभी ज़रूरी है दौड़ना, आगे क्या होगा ये सोचना हमारे बस में नहीं है न? हमें सोचना नहीं है, निष्काम का यही मतलब होता है न? अभी दिखाई दे रहा है कि डॉक्टर तक पहुँचाना है तो दौड़ो। लेकिन अगर दौड़ने में ये सोचने लग गये कि बचेगी कि नहीं बचेगी, तो दौड़ना भी मुश्किल हो जाएगा। तुम दौड़ो बस, अभी जान लगाकर दौड़ो; अब बचेगी कि नहीं बचेगी, ये विचार आवश्यक नहीं है।

श्रोता: और उसके बाद से ये एक तरह का एफ़र्ट (प्रयास) हुआ न?

आचार्य प्रशांत: दौड़ना?

श्रोता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिलकुल हुआ। इट मूव्ज़, इट मूव्ज़ नॉट। देयर इज़ अ लॉट ऑफ़ मूवमेंट (उसमें बहुत गति है)। व्हेयर? इन द लेग्ज़ (पैरों में)। व्हेयर नॉट?

श्रोता: इन द माइंड (मन में)।

श्रोता: सो सर, डूइंग इज़ देयर न ? (तो सर, कर्म तो है न)?

आचार्य प्रशांत: ओब्वियस्ली इट इज़ देयर (निश्चित रूप से है)। डू अ लॉट (बहुत करो)। वी सेड, लेट देयर बी होलसम फ़ुलसम मूवमेंट (हमने कहा कि पूरी और पर्याप्त मात्रा में गति हो)। व्हेयर, एट द सेंटर और इन द पेरिफ़री? (कहाँ, केन्द्र में या परिधि में?)

श्रोता: पेरिफ़री (परिधि)।

श्रोता: एफ़र्ट विद फ़ेथ (प्रयास के साथ श्रद्धा)।

आचार्य प्रशांत: नो, देयर इज़ नो एफ़र्ट इन दिस (नहीं, इसमें कोई प्रयास नहीं है)। वी टॉक्ड अबाउट एफ़र्ट (हमने प्रयास के ऊपर चर्चा की हुई है पहले)। वी सैड एफ़र्ट इज़ नेवर फिज़िकल (हमने कहा था कि प्रयास शारीरिक नहीं होता कभी)। हमने एफ़र्ट की बात करी थी, एफ़र्ट कब लगता है जब?

श्रोता: माइंड (मन) में...

आचार्य प्रशांत: कैसे मन में? एक टूटे हुए मन में जो होता है उसे एफ़र्ट कहते हैं। बेटा, आप मिस कर रहे हो चीज़ों को, अभी ही हमने एफ़र्ट पर इतनी लम्बी दो घंटे की चर्चा करी है।

श्रोता: सर, वी कैन से डूइंग विद फ़ेथ विदाउट थिंकिंग अबाउट रिज़ल्ट (सर, हम कह सकते हैं श्रद्धा के साथ करना पर परिणाम की सोचे बिना) ?

आचार्य प्रशांत: नहीं, व्हेन यू आर डूइंग इट फ़ुली, यू एनीवे डू नॉट हैव द़ स्पेस टू थिंक अबाउट द़ रिज़ल्ट (नहीं, जब तुम पूरी तरीके से डूब कर काम करते हो तो तुम्हारे पास फिर परिणाम के बारे में सोचने की कोई जगह भी नहीं होती)। यू रियली थिंक दैट एट दिस मूमेंट, आइ एम थिंकिंग दैट व्हाट विल हैपन ऑफ़्टर वन आवर ( क्या तुम्हें सच में लगता है कि इस वक्त मैं ये सोच रहा होंगा कि एक घन्टे बाद क्या होने वाला है)? *इन कंप्लीट डूइंग, देयर इज़ एनीवे नो स्पेस फॉर स्पेकुलेटिव थॉट *(जब पूरी तरीके से डूबकर काम करते हो तो ऐसे भी तुम्हारे पास कोई वक्त नहीं बचेगा कि तुम्हें काल्पनिक विचार आये)।

प्र: आचार्य जी, किसी व्यक्ति को हम पहली बार अथवा उसके किसी काम को ही देखकर ये धारणा बना लेते हैं कि ये बेवकूफ़ है या बुद्धिमान है, इससे कैसे बचा जाए?

आचार्य प्रशांत: न बेवकूफ़, न भला — क्या हो रहा है बस ये जान लो। उस पर लेबल लगाने की ज़रूरत नहीं है। क्या हो रहा है बस ये जान लो। और जो हो रहा है वो जानोगे तो उसमें से तुम्हें अपने लिए भी बहुत सीख मिलेगी। हो ये रहा है कि तुम एक बार अपने कर्मों का भंडार तैयार कर लेते हो, प्रारब्ध का, तो फिर वो तुम्हें भुगतना ही पड़ेगा। अब कोई बड़ी बात नहीं है न कि कल ये भी विवश कर दे प्रिया को जाने के लिए, वो प्रारब्ध है। अब पुराना कर्म है, फल है। इसमें कोई जजमेंट (निर्णय) नहीं है, बस ये है, इट्स अ फ़ैक्ट, इट्स अ लॉ (ये बस तथ्य है, नियम है)। *इट्स अ लॉ*।

मैं ये खा रहा हूँ तो जितने ग्राम अन्दर जा रहा है, उतने ग्राम वजन बढ़ रहा है कि नहीं बढ़ रहा है? ये लॉ है, अब इसमें कोई जजमेंट वाली बात नहीं है। जो बोओगे सो काटना भी पड़ेगा। तुम ने अतीत में जो कुछ कर रखा है, वो रहेगा न? तुम अपनेआप को सौ-बन्धनों में अगर बाँधे हुए हो, तुम्हीं ने बाँधा है, बाँधा और किसी ने नहीं है, तुम्हारे ही कर्म हैं, तो अब कर्मफल मिलेगा, कर्म दंड मिलेगा। और इसमें ये न देखो कि उन्होंने क्या किया और इन्होंने क्या किया। तुम बहुत दूर नहीं हो।

श्रोता: वही बात है सर। हम अपनेआप को नहीं देखते हैं, उधर चले जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: तो पाँच साल बाद…

(सब हँसते हुए)

प्र: आचार्य जी, हम जल्दी से किसी व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रही क्यों हो जाते हैं?

आचार्य प्रशांत: नॉट टू जज इज़ टू हैव द़ गट्स टू रिमेन इन अनसर्टेनिटी (किसी का आकलन न करने का मतलब है कि आपके पास हिम्मत है अनिश्चितता कीअवस्था में रह पाने की)। मुझे कोई नया बन्दा मिला, मेरे लिए बहुत आसान हो जाता है कि मैं लेबल लगा दूँ। ये ‘ए टाइप’ का है, ये ‘बी टाइप’ का है, ये ‘सी टाइप’ का है — अब इससे मेरे मन को सान्त्वना मिल गयी कि मैं इन तीनों को जानता हूँ।

श्रोता: पर्टिकुलर वे में बिहेव (व्यवहार) कर सकता हूँ उनके साथ।

आचार्य प्रशांत: अब मुझे सतर्क नहीं रहना है, अब मुझे अलर्ट, चैतन्य नहीं रहना है। जज कर देने से अनसर्टेनिटी खत्म हो जाती है न? जज जैसे ही कर दिया तुमने अब अनसर्टेन कुछ बचा नहीं, तुमने उस पर मोहर लगा दी।

श्रोता: और सर, बहुत वो रहता है कि जज करने के लिए जल्दी से वो पता चल जाए कि क्या है, जैसे मन।

आचार्य प्रशांत: एक डरा हुआ मन जल्दी से सर्टेनिटी (निश्चितता) चाहता है। इसीलिए मैंने कहा, ’गट्स तो रिमेन इन अनसर्टेनिटी (अनिश्चितता में रह पाने की हिम्मत)।’ अनसर्टेनिटी, कि मैं कुछ साफ़-साफ़ कह नहीं सकता कि ये कौन है और कैसा है, और किस प्रकार कैसा, लेकिन ठीक है जैसा भी है, ठीक है, काम चल रहा है अभी। ठप्पा लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है।

तुम देखो न, जब पुरी में थे मैं और रोहित, तो एक झरने से नीचे उतर रहे थे। बीच में भी और नीचे भी दो जगह पर लोगों ने क्या पूछा, ‘कैसा है?’ वो चढ़ रहे हैं खुद भी, पूछ हमसे रहे हैं। ‘कैसा है?’

श्रोता: लोग हैं कि नहीं हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, क्राउड (भीड़) है कि नहीं ऊपर? चढ़ तो रहे हो न खुद ही, देख लेना कैसा है। पर नहीं, वो उस अनसर्टेनिटी में जीना कि जब तक ऊपर नहीं पहुँचे हैं तब तक अनसर्टेन है कि क्या मिलेगा। हमें डर लगता है उस अनसर्टेनिटी से, तो हम जल्दी से ही मोहर लगा देना चाहते हैं कि हमें पता चल गया है कि ऊपर अच्छा अच्छा है, कि कोई ऊपर से उतर रहा हो, वो बोल दे कि अच्छा-अच्छा है तो हमें पता चल गया नाउ वी नो। सम सेकेंड हैंड नॉलेज हैज़ टोल्ड अस, सो नाउ वी नो (किसी द्वितीय स्त्रोत से पता कर के जान गये)।

प्र: आचार्य जी, किसी स्थिति के बारे में पहले से जानकारी रखना, फिर निष्कर्ष निकालना कि वो हमारे अनुकूल है अथवा नहीं और फिर उसी के अनुसार आगे बढ़ना, क्या ये सही तरीका नहीं है?

आचार्य प्रशांत: बट यू सी, आइ मस्ट बी अ ट्रिमेंडसली लिमिटेड मैन इफ़ आइ कैन रिस्पॉंड ओनली इन थ्री वेज़ (देखो, मैं एक बहुत हीं संकुचित इंसान होऊँगा अगर मैंने सिर्फ़ तीन तरीके से उत्तर दिया) कि ‘एबीसी’ तीन लेबल लगा दो क्योंकि मुझे सिर्फ़ तीन तरीकों से डील करना आता है।

आपके पास हर तरीके की सिचुएशन से डील करने की ताकत है। आपको उस पर लेबल लगाने की कोई ज़रूरत ही नहीं है — एबीसी। अगर ऊपर ज़्यादा लोग होंगे तो भी हम रिस्पॉंड कर देंगे, कम लोग होंगे तो भी कर देंगे। झरना भरा हुआ होगा तो भी कर देंगे, झरना सूखा सा होगा तो भी कर लेंगे। मुझे पहले से जानने की आवश्यकता ही नहीं है कि ऊपर मामला क्या है। मामला जैसा भी होगा, हममें ये काबिलियत है कि हम उसी के अनुरूप एक उत्तर दे लेंगे।

श्रोता: और सर फ़ेथ है तो ये भी है कि जैसा भी होगा, अच्छा ही होगा।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जैसा भी होगा, अच्छा ही होगा। तो ये पहले से जान कर रखना, टिपिफ़ाइ (प्रतीक से प्रकट कर देना) कर देना, जजमेंटल (निर्णयात्मक) हो जाना — ये इस बात का सबूत है कि आप फ़ेथलेस हैं।

देखो, जितनी भी बीमारियाँ हैं न, उनकी जड़ तो एक ही होती है, उसके अलावा और कोई दूसरी जड़ होती ही नहीं है, क्या? दूरी।

श्रोता: जजमेंटल होता है तो उस समय रीयलाइज़ होता है कि इट इज़ हैपनिंग बिकॉज़ ऑफ़ फ़ेथलेसनेस (ये आस्था न होने के कारण हो रहा है)।

प्र: आचार्य जी, किसी स्थिति को समझने और उसके विषय में कोई धारणा बना लेने में क्या अन्तर है?

आचार्य प्रशांत: देखो, लेबल लगाने में और स्थिति के अनुरूप जवाब देने में एक ही अन्तर है। लेबल तयशुदा होता है। नोइंग (जानना) और जजिंग में क्या अन्तर है? नोइंग अभी की है और जजिंग हो गयी तो हो गयी। राहुल डरपोक हैं, अब एक मौके पर हो सकता है कि राहुल डर गये, इसका ये मतलब नहीं है कि वो डरपोक हैं। हाँ, डर गये — ये बात सही है, ये तथ्य है। तो इस तथ्य से भी हम इनकार नहीं कर रहे हैं।

ये भी हम कई बार गलती कर देते हैं कि अगर कोई डरा हुआ है और तुम उसको बोलो, ‘ यू आर अफ़्रेड (तुम डरे हुए हो), तो वो बोलेगा, ‘ डोंट बी जजमेंटल।’ अरे! इसमें जजमेंटल की क्या बात है यार? तुम डरे हो। वो बोलेगा, व्हाइ आर यू जजिंग मी? अरे, जजमेंट क्या है, फ़ैक्ट है, तुम डरे हो। जजमेंटल होने का अर्थ ये होता है कि मैंने ठप्पा लगा दिया कि ये डरपोक है। अब मैं कल मिल रहा हूँ तो कल भी कह रहा हूँ, ‘हें,… तू डरपोक है।’ और परसों मिल रहा हूँ, परसों भी कह रहा हूँ। डरपोक नहीं है, उस मौके पर डरा हुआ था। उस मौके पर डरा हुआ था। ठीक है, अब लेबल मत लगाओ।

मन के बहुतक रंग हैं। जो आदमी अभी डरा हुआ लग रहा है, अगले दिन वो पता नहीं क्या कर दे। तो लेबल मत लगाओ। लेकिन मैं उस पर भी सावधान कर रहा हूँ — ये बड़ा फ़ैशनेबल बन गया है — ‘नो, यू नो वन शुड नॉट बी जजमेंटल।’ और ये ज़्यादातर वही लोग बोलते हैं जिन्हें पता होता है कि वो नालायकी कर रहे हैं। तुम उन्हें नालायक न बोलो, इस खातिर वो कहते हैं, ‘डोंट बी जजमेंटल।’ कॉर्पोरेट वर्ल्ड में तो खूब चलता है ये। तुम अगर किसी को बता दो कि ये क्या कर रहे हो, पागलपना है, तो कहेगा, ’डोंट बी जजमेंटल।’ ये क्या बात है भाई?

श्रोता: एक्सक्यूज़।

आचार्य प्रशांत: हाँ, ये तुमने फ़ैक्ट को न देखने का बहाना बना रखा है कि जो कोई तुम्हें फ़ैक्ट दिखाये, उससे बोल दो, लेट्स नॉट बी जजमेंटल, यू नो लेट्स नॉट बी जजमेंटल (निर्णयात्मक नहीं होना चाहिए)। आइ एम नॉट जजिंग, आइ एम जस्ट स्टेटिंग द ओब्वियस फ़ैक्ट (मैं निर्णयात्मक नहीं बन रहा, मैं बस तथ्य बता रहा हूँ)।

YouTube Link: https://youtu.be/MJ30LgpGQXo

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