अध्यात्म, और डर से मुक्ति

Acharya Prashant

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अध्यात्म, और डर से मुक्ति

प्रश्नकर्ता: मैं बहुत व्यग्र और चिंतित रहता हूँ, मैं अपनी ओर से पूरा प्रयास कर रहा हूँ कि शांति में जिऊँ। मैं अपनी व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं के कारण डरा रहता हूँ, मैं निर्भय होना चाहता हूँ, मैं क्या करुँ?

आचार्य प्रशांत: ‘मैं व्यग्र-चिंतित रहता हूँ और डरा रहता हूँ,’ ये वो शास्त्रीय समस्या है जिसके लिए सब ग्रंथ रचे गए, सब बातें कही गईं। जिसके लिए बुद्धों ने, गुरुओं ने अथक प्रयास किया, डर। अगर कोई पूछे कि शास्त्र लिखे ही क्यों गए तो उसका छोटा-सा उत्तर होगा, तुम्हें डर से मुक्त करने के लिए।

डर है, आप पैदा ही डर में होते हो। डर हमारी जैविक अवस्था है। डर के खिलाफ शिकायत करना, जैसे कि वो कोई बाहरी चीज़ हो, जैसे कि वो कुछ अतिशयोक्ति हो गई हो हमारे साथ, जैसे कि प्रारब्ध ने विशिष्ट तौर पर हमें ही चुन लिया हो अत्याचार के लिए, ग़लत होगा। छोटा बच्चा पैदा ही डर में होता हैं और जैसे-जैसे वह बढ़ता जाता हैं, वैसे-वैसे ये डरा हुआ समाज उसमें डर को और गहराता जाता हैं। लेकिन ये भी मत कह देना कि डर सिर्फ़ दुनिया देती हैं तुमको। डरे तुम पैदा होते हो और, और ज़्यादा डरने का बीज़ भी तुम साथ लेकर पैदा हुए हो।

दोनों बातें समझना: ऐसा भी नहीं हैं कि डर सिर्फ़ बीज़ रूप में मौजूद हैं तुम्हारे भीतर। प्राकृतिक जन्म की घड़ी में, जब तुम पैदा हुए हो ठीक उसी क्षण तुमनें जो पहली साँस ली, उस साँस में भी डर था और साथ-ही-साथ तुम्हारे भीतर बीज मौजूद था और ज़्यादा डर जाने का, दोनों ही बातें थी। तो दोनों का ही नाश करना होता हैं, दोनों का ही समाधान करना होता हैं। लेकिन अधिकांशतः न नाश होता है डर का, न बीज़ को कभी निर्बीज किया जाता है। होता उल्टा है, जो डर शरीर में ही रचा-बसा था वह तो रहा ही आता है और जो डर बीज़ रूप में मौजूद था उसे ये दुनिया, हमारी संगत, दाना-पानी दे देते हैं, खाद दे देते हैं, उसको और पोषण दे देते हैं। वह बीज़ पेड़ बन जाता है विशाल।

तो ये है आदमी की स्थिति, ये हैं हम। अब शिकायत तो कोई करे ही न कि डर लगता है। पैदा हुए हो तो डर तो लगेगा, बात ख़तम। अवश्यसंभावी हैं, आयश्यसंभावी भी नहीं, अनिवार्य हैं, अपरिहार्य हैं। सम्भावना की बात नहीं, प्रारब्ध हैं। लिखा हुआ है, क्या? आदमी माने डर। बच्चा माथे पर गुदवाकर पैदा हुआ हैं, ‘मैं डरा हुआ हूँ,’ डरा हुआ भी नहीं, ‘मैं डर हूँ, मैं डर ही हूँ।’

अब बोलो क्या करना है? अगर वैसे ही जीना है जैसे पैदा हुए हो तो फिर डर में जीने से समझौता कर लो। कह-दो कि अब डरना तो है ही। पर यदि कोई है तुम्हारे भीतर जो डर से सहमत नहीं होता तो बात करो। बहुत हैं दुनिया में जिन्होंने डर पर नकाब चढ़ा लिए हैं, खूबसूरत आवरण। जिन्होंने डर को बड़े लुभावने नाम दे दिए हैं, लुभावने, सम्मानित, गौरवान्वित। तुम भी वैसे ही हो जाओ। वैसे क्यों नहीं हो जाते? क्यों नहीं तुम अपने डर को प्रेम बोल देते? क्या आवश्यकता है यहाँ आने की और खुल कर बताने की, कि हाँ मैं डरा हुआ हूँ, मैं आतुर हूँ, परेशान हूँ, व्यग्र हूँ? क्यों यहाँ पर ज़ाहिर कर रहे हो इतने लोगों के सामने कि पारिवारिक समस्याएँ हैं जिनके कारण भीतर चक्र चलता रहता है? तुम भी, करोड़ो हैं, उनके जैसे ही हो जाओ, जो मानेंगे ही नहीं कि उन्हें डर है।

एक पुस्तक है मेरी जिसका शीर्षक है डर, हिन्दी में भी है अंग्रेज़ी में भी है। इसी नाम से डर, फियर * । तो ये लोग सब कार्यकर्ता, * वालंटियर , स्वयंसेवक जब ये लोग वह पुस्तक लेकर किसी के पास जाएँगे, कहेंगे ज़रा पढ़िए, तो दस में से आठ जने जानते हो क्या बोलते हैं? क्या बोलते हैं? (एक स्वयंसेवक की ओर इशारा करते हुए) बोलो भाई तुम्हीं बताओं कि क्या बोलते हैं?

स्वयंसेवक: “मुझे किसी चीज़ से डर नहीं लगता।”

आचार्य: “मुझे तो डर लगता ही नहीं किसी चीज़ से, मैं ये क्यों पढ़ू?” और इन्हें बस इतना करना होता है, कितना? माफ़ी दीजियेगा मैं कर के ही बता देता हूँ, (हाथ नीचे करके डराने का अभिनय करते हुए) बस ऐसे करना होता है और वो बिलकुल चिहुँक जाते हैं, उछल पड़ते हैं। फिर पूछा जाता है, "ये क्या हुआ?" तो वो बुरा मान कर चल देते हैं। लेकिन दावा यही है, दावा ही नहीं नारा यही है कि हम डरते इत्यादि नहीं हैं, क्योंकि मान लिया कि डरते हो तो अहंकार को बड़ी चोट लगती हैं।

अहंकार को बड़ी चोट लगती हैं मानने में कि मैं तो डरा-डरा ही घूम रहा हूँ। क्योंकि डरे-डरे घूम रहे हो तो अब तुम बहुत बातें नहीं कर सकते, तुम बहुत बढ़-चढ़ कर दावे नहीं कर सकते। अब तुम्हें ज़रा झुक कर रहना पड़ेगा, अब तुम्हें मानना पड़ेगा कि कुछ गलती तो कर रहे हो। तो हो जाओ वैसे ही, दस में से आठ जैसे हैं, “मुझे तो डर है ही नहीं, लगता ही नहीं।” फ़ोन बजने भर की देर है और फिर जान जाओंगे कि डर लगता है कि नहीं लगता।

और अगर है कोई तुममें जिसकी आवाज़ अभी भी तुम सुन पाते हो और उस आवाज़ को सम्मान भी दे पाते हो, कह रहे हो तुम अगर कि नहीं जीना डरे-डरे, तो फिर समस्त ग्रन्थ तुम्हारे लिए हैं, गुरुओं की वाणी तुम्हारे लिए हैं। उनको सलीके से पढ़ना शुरू करो। विधि दी गई है, निर्देश दिए गए हैं। आचरण की, अनुशासन की एक प्रणाली दी गयी हैं। एक तरीक़ा दिया गया है, एक कायदा दिया गया है, एक तहज़ीब दी गयी है, उस तहज़ीब का पालन करो और फिर देखो कि डर मिटता है कि नहीं।

दुनिया तुम्हें जो भी कुछ देगी वह कोई चीज़ होगी, तो दुनिया डर मिटा नहीं पाएगी, पूछो क्यों? विज्ञान बहुत तरक्क़ी कर जायेगा, जितनी तरक्क़ी करेगा तुम्हें क्या देगा? और बड़ी और बेहतर चीज़े। (टेप रिकार्डर को अपने हाथ में लेते हुए) अब ये चीज़े आ गई तुम्हारे हाथ में, अब क्या होगा? और ये कैसी चीज़ हैं? बढ़िया चीज़ हैं, अब क्या होगा? तुम और डरोगे, काहे को डरोगे? कि छीन न जाए। ये दिक्कत है आधुनिकता, विज्ञान में। ये सब बहुत करते हैं तो भी तुम्हें क्या दे देते हैं? चीज़े ही तो दे देते हैं और हर चीज़ अपने साथ क्या लेकर आती है? डर।

चलो तुमनें कहा विज्ञान के पास नहीं जाएँगे, उत्पादन के पास नहीं जाएँगे, निर्माणियों, फैक्टरियों के पास नहीं जाएँगे, तुमनें कहा कि हम इंसानो के पास जाएँगे। तुम गए इंसानो से संलग्न हो गए, फिर क्या मिल गया? डर। काहे को? अरे बिछड़ जाएगा, छिन जाएगा, धोखा दे देगा, न जाने क्या कर दे। तुम्हें अपना ही भरोसा नहीं, दूसरे आदमी का क्या भरोसा करोगे। तो दुनिया से जो कुछ भी मिलेगा वह तुम्हारे डर को संवर्धित ही करेगा।

डर मिटाना है तो ज़रा ग्रंथों के पास जाओ, उनका पाठ करना शुरू करो। ये बात आधुनिक मन को ज़रा रास नहीं आती, क्योंकि तुम्हारी बाक़ी जितनी समस्याएँ हैं उनका समाधान तो तुमने विज्ञान से होते देखा है। शरीर को कुछ हो गया, नई-नई दवाइयाँ हैं। तुम कहते हो ये देखो मेडिकल साइंस ने कितना कुछ दे दिया हमको, पर कोई भी डॉक्टर डर नहीं मिटा सकता तुम्हारे भीतर से। कर लो कोशिश, कह दो उससे, वह ख़ुद डरा हुआ हैं, तुम्हारा क्या डर निकलेगा। यहाँ जो आते हैं मुझसे मिलने उसमें से एक-चौथाई तो डॉक्टर होते हैं। दस प्रतिशत साईकेट्रिस्ट (मनोविज्ञानी) होते हैं, फियर स्पेशलिस्ट , वह दूसरों का डर निकाल रहे होते हैं। और फिर आकर कहते हैं कि “हमारी-आपकी बातचीत कृपा करके रिकॉर्ड न करें, मेरा धंधा ठप हो जाएगा। दुनिया जान गई अगर कि मैं ही सबसे ज़्यादा डरता हूँ तो मेरी तो दुकान बंद।”

अभी तीन दिन हो यहाँ पर, ताप-त्रय के उन्मूलन के लिए। एक उचित ग्रन्थ उठाओ और डूब करके उसका सेवन करो। फिर उसमें जो समझ में ना आऐ, उससे सम्बंधित प्रश्न पूछो। यही विधि हैं। सीधी, सरल, सच्ची लेकिन उबाऊ विधि हैं। तो मन कहेगा “इसमें कुछ भी रोमांच नहीं, इसमें कुछ भी नया नहीं, इसमें कुछ भी उत्तेजक नहीं। ये क्या करा इन्होंने? इन्होंने बोल दिया कि बेटा किताब उठाओ और पढ़ना शुरू करो। ये तो बच्चों वाली बात हैं।" जैसी भी बात है तुम्हारे काम की यही बात है, पालन करो। और नहीं पालन करना तो मत करो। किसने कह दिया कि अनिवार्य है डर से मुक्ति। जीव पैदा हुए हो डरे-डरे जिओ, डरे-डरे मरो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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