प्रश्नकर्ता: आपकी वार्ता में मुक्ति या आज़ादी शब्द बहुत केंद्रीय महत्व रखता है। आप बार-बार अपने श्रोताओं को आज़ादी की ओर प्रेरित करते हैं, साथ-ही-साथ यही शब्द 'आज़ादी', राजनैतिक आंदोलनकारी और सक्रियतावादी एक्टिविस्ट (कार्यकर्ता) लोग भी ख़ूब इस्तेमाल करते हैं। आप जिस अर्थ में आज़ादी की बात करते हैं और राजनैतिक आंदोलनकारी जिस अर्थ में आज़ादी की बात करते हैं क्या वह एक ही हैं?
मैं इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यह शब्द 'आज़ादी', एक नारा बन गया है सड़कों पर और महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों के परिसरों में। कृपया इस विषय में कुछ कहें।
आचार्य प्रशांत: जब अध्यात्म में बात होती है आज़ादी की तो उसका अर्थ होता है उससे मुक्ति पाना जो तुम्हारे भीतर बैठा है और तुम्हारे भीतर बैठकर तुम्हें भीतर-बाहर हर तरफ़ से ग़ुलाम बनाता है, जबकि जब राजनीति में या ख़ासतौर पर लिबरल (उदार) हलकों में, उदारवाद में आज़ादी की बात होती है तो उसका मतलब होता है — अपनी मर्ज़ी, अपनी स्वेच्छा करने की छूट। और यह दो बातें बहुत अलग हैं, सुनने में ही तुमको अलग लग गई होंगी पर जितना तुम इनकी तुलना करोगे और जितना उस तुलना में गहराई से जाओगे उतना पता चलेगा कि यह बातें अलग ही नहीं हैं बल्कि विपरीत हैं, विपरीत ही नहीं हैं बल्कि दो अलग-अलग तलों की हैं।
जब अध्यात्म कहता है कि मुक्ति होनी चाहिए तो वह वास्तव में अहंकार से मुक्ति की बात कर रहा है और जब राजनैतिक कार्यकर्ता कहते हैं कि उन्हें आज़ादी चाहिए तो वह वास्तव में अहंकार की आज़ादी की बात कर रहे हैं। दोनों का अंतर बहुत साफ़ रखो क्योंकि यह जो अंतर है यही दुनिया का शायद अकेला अंतर है, यही अंतर दुनिया के बाक़ी सारे भेद स्थापित कर देता है।
तुम यहाँ तक कह सकते हो कि दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं — एक जो माँगते हैं फ्रीडम ऑफ़ द ईगो (अहंकार की आज़ादी) और एक जो माँगते हैं फ्रीडम फ्रॉम द ईगो (अहंकार से आज़ादी)। बहुत अंतर है। फ्रीडम ऑफ़ द ईगो का मतलब होता है — मुझे मेरी मनमानी करने की छूट दो, मैं जो चाहूँगा मैं करूँगा, मैं ही अथॉरिटी (प्राधिकारी) हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, मैं अपना भला-बुरा भी जानता हूँ, मैं दुनिया को भी जानता हूँ, मुझे किसी प्रकार का कोई ज्ञान चाहिए नहीं और अगर मुझे ज्ञान चाहिए भी, तो वह जो मैं निर्धारित करूँ और मुझे अपने बारे में तो विशेषकर कोई ज्ञान नहीं चाहिए। कोई होना नहीं चाहिए जो मुझे कहे कि तुम भीतर की ओर मुड़ो, अपनेआप को पहचानो, अपनेआप को देखो। तो ज्ञान अगर मैं लूँगा भी तो दुनिया का लूँगा, बातें अगर मैं करूँगा भी तो दुनिया की करूँगा। अपनी ओर मैं देखूँगा नहीं, अपनी बात मैं करूँगा नहीं। मेरे भीतर क्या है उसमें झाँकने में मुझे डर लगता है। हाँ, उस भीतरी व्यवस्था से जो आवाज़ें आती हैं, मैं उनका अंधा अनुकरण ज़रूर करता हूँ, उनके साथ मैंने नाम जोड़ दिया है 'मैं' का अपना।
मैं कहता हूँ जो भीतर से आवाज़ें सब आ रही हैं वह मेरी आवाज़ें हैं, भीतर से जो इच्छाएँ प्रकट हो रही हैं वह मेरी इच्छाएँ हैं और मुझे उन इच्छाओं की पूर्ति चाहिए। यह है फ्रीडम ऑफ़ द ईगो (अहंकार की आज़ादी)।
ज़्यादातर जो नारेबाज़ी होती हैं आज़ादी के नाम पर वह अहंकार की आज़ादी की ही होती है। 'मुझे मेरे हिसाब से चलने दो, मत कोई आये मुझसे पूछने कि तुम जैसे जी रहे हो क्यों जी रहे हो, तुम जो निर्णय कर रहे हो क्यों निर्णय कर रहे हो। मैं अपनी इच्छाओं के अनुसार चलूँगा, कोई न आये मुझसे पूछने कि तुम जो इच्छाएँ रख रहे हो वह आयी कहाँ से?'
अब यह बड़ी मज़ेदार बात है क्योंकि एक तरफ़ तो यह जो उदारवादी लोग हैं यह इस मत में विश्वास रखते हैं कि इंसान पूरे तरीक़े से उसके पर्यावरण का और उसपर पड़े प्रभावों का और उसके आसपास की सामाजिक व्यवस्था का निर्माण है क्योंकि किसी अटल, अचल, अपरिवर्तनीय, अस्पर्श्य सत्य को तो वह मानते नहीं। वह किसी ऐसे सत्य को तो मानते नहीं जिसको कोई प्रभावित न कर सके, जिसे कोई छू न सके, जिसे कोई बदल न सके। जब आप ऐसे किसी सत्य को नहीं मानेंगे तो आपसे कोई पूछेगा आदमी कहाँ से आया, आदमी क्या चीज़ है, तो आप कहेंगे आदमी कुछ अपने जींस का, अपनी कोशिकाओं में बैठे जैविक पदार्थ का उत्पाद है और कुछ वह अपनी शिक्षा का, अपने सामाजिक माहौल का, अपनी परवरिश का और उसने जो इधर-उधर से प्रभाव अपने ऊपर इकट्ठा कर लिये हैं उनका उत्पाद है।
तो उनका मानना यह है कि सत्य कुछ है नहीं, ऐसा कुछ है नहीं जो सदा अटूट रहे, सुदूर रहे, मन के पार का हो, जिसे न तो जन्म, न मृत्यु स्पर्श कर पाये, समाज की कोई आवाज़ जिस पर कोई असर न छोड़ पाये; ऐसा तो वह मानते नहीं तो आदमी फिर क्या है? उनके हिसाब से कंडीशनिंग (अनुकूलन) का पुतला है। अच्छा, आदमी कंडीशनिंग (अनुकूलन) का पुतला है, तो फिर आदमी की जो सारी इच्छाएँ हैं, सारी ख़्वाहिशें हैं वह फिर कहाँ से आयी? वह भी उसकी कंडीशनिंग (अनुकूलन) से ही आयी।
लेकिन वह दोनों बातें कहते हैं। एक तरफ़ तो वह कहते हैं आदमी पूरे तरीक़े से अपने माहौल की निर्मिति है और यह उनका बड़ा केन्द्रीय उसूल है। वो कहते हैं कि जैसा माहौल होता है आदमी वैसा बन जाता है। माहौल आदमी का निर्माण करता है फिर आदमी माहौल का निर्माण करता है और ऐसे ही समय की गति आगे बढ़ती रहती है, यह उनका मानना है।
तो आदमी अगर पूरे तरीक़े से अपने माहौल का निर्माण कर रहा है तो फिर आदमी के भीतर कोई स्वतन्त्र चेतना तो हुई नहीं ना? अगर आदमी पूरे तरीक़े से अपने माहौल की ही पैदाइश है तो फिर उसके भीतर कोई स्वतन्त्र चेतना नहीं है न? आदमी की चेतना क्या है लिबरल (उदारवादी) विचारधारा के अनुसार? आदमी की चेतना पूरे तरीक़े से उसके पर्यावरण का उत्पाद है तो फिर स्वतन्त्र चेतना तो कुछ होती ही नहीं है।
एक तरफ़ तो आप कह रहे हैं कि आज़ाद चेतना कुछ है नहीं, दूसरी ओर आप कह रहे हैं कि मेरी आज़ादी में खलल न डालो। एक ओर तो आप मान रहे हैं कि आदमी पूरे तरीक़े से ग़ुलाम है और यहाँ आप सही ही मान रहे हैं क्योंकि अहंकार की जहाँ तक बात है वह तो ग़ुलाम ही होता है। अहंकार का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व तो होता नहीं; वह तो होता ही है पूरे तरीक़े से पराया, पूरे तरीक़े से झूठा, पूरे तरीक़े से आयातित, कैसे भी बोल लो।
तो उसके पास कोई स्वतन्त्रता तो हो ही नहीं सकती। अब वह अहंकार, वह सेल्फ (मैं), वह ईगो (अहंकार) जो परिभाषा से ही ग़ुलाम है वह चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि मेरी आज़ादी में कोई विघ्न न डाले, कोई खलल न डाले तो यह बात हास्यास्पद है न?
वह अहंकार जो एड़ी से लेकर चोटी तक सिर्फ़ बाहरी प्रभावों का संकलन मात्र है वह चिल्ला-चिल्लाकर नारे क्या लगा रहा है? 'आज़ादी, आज़ादी और मेरी आज़ादी में कोई बाधा न बने।' अरे भाई, बाहर से कोई तुम्हारी आज़ादी को नहीं भी बाधित करेगा तो तुम भीतर से आज़ाद कहाँ हो! भीतर की आज़ादी की बात करता है अध्यात्म।
तो मैं जब बात करता हूँ आज़ादी की तो मेरा आशय होता है भीतरी आज़ादी, उसको मुक्ति कहते हैं। भीतरी आज़ादी का मतलब होता है कि यह जो मैं बना बैठा हूँ, यह जो मैं अपनेआप को मानता हूँ, यह जिन विचारों को मैंने पकड़ लिया है, जो पहचानें मैंने ओढ़ ली हैं क्या यह वाक़ई मैं हूँ? क्या यह वाक़ई मेरी हैं? और अगर यह मेरी नहीं हैं तो क्या मैं इनसे आज़ाद हो सकता हूँ? यह अध्यात्म की प्रक्रिया है। और इस प्रक्रिया में जो परिणाम निकलता है वह परिणाम होता है स्वतन्त्र चेतना।
आप अपनेआप से ही मुक्त हो जाते हैं। आप आज़ाद हो जाते हैं उससे जो आप आजतक अपनेआप को समझते आये हैं लेकिन आप हैं नहीं। आप आज़ाद हो जाते हैं उन सब मुखौटों से, नक़ाबों से जो आपको पता भी नहीं था कि कब आपके मुँह पर पहना दिये गये थे और उन सबको उतारने के बाद, उन सबसे मुक्ति पाने के बाद जो शेष बचता है उसी को अध्यात्म कहता है 'अक्षुण्ण सत्य', 'अविचल सत्य', 'अकाट्य सत्य', 'अचिन्त्य सत्य'। वह चेतना की आख़िरी ऊँचाई होती है, वह चेतना की पूर्ण शुद्धि होती है।
उसके बाद किसी चीज़ से आप आज़ादी नहीं माँगते, उसके बाद आप आज़ादी की माँग से भी आज़ाद हो गए, उसके बाद आप उससे भी आज़ाद हो गए जो ख़ुद तो ग़ुलाम है लेकिन अपनी ग़ुलामी की ओर देखना न पड़े इसीलिए ज़ोर-ज़ोर से सड़कों पर आज़ादी के नारे लगाता है। बात समझ में आ रही है?
बहुत ख़तरनाक हो जाती है आज़ादी की वह माँग जिसमें अंतर्दृष्टि न हो, जिसमें व्यक्ति ने अपनेआप को ग़ौर से देखा न हो।
अच्छा एक बात बताइए, बहुत स्थूल उदाहरण लिये लेते हैं — एक शराबी है, ठीक है? एक शराबी है उसपर नशा चढ़ा हुआ है और वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है, 'दरवाज़ा खोलो, दरवाज़ा खोलो, मुझे आज़ादी होनी चाहिए सड़क पर निकलकर के पीने की और पीकर के मैं जैसी सड़क पर हरकत करना चाहूँ वह करने की।' आप उसे यह आज़ादी देते हो क्या? उसकी यह माँग जायज़ भी है क्या?
आपने उसे कहीं बंद कर दिया है, वह नशे में है और बंद करके दरवाज़े पर आपने ताला डाल दिया है, ठीक है? और वह कह रहा है मुझे ताले से आज़ादी चाहिए, मुझे दरवाज़े से आज़ादी चाहिए। वह कह रहा है यह सब ताले और दरवाज़े परंपरा के हैं, यह सब ताले और दरवाज़े धर्म के हैं इनको तोड़ो, इनको हटाओ।
आप उसके पास आ रहे हो आप कह रहे हो कि यह ताला और दरवाज़ा सिर्फ़ एक प्रतिबिम्ब है तुम्हारे भीतर की ग़ुलामी का। तुम सोच रहे हो कि तुम बाहर से ग़ुलाम हो, तुमपर दरवाज़ा बंद कर दिया गया है, तुमपर ताला लगा दिया गया है लेकिन यह जो तुम्हें बाहरी ग़ुलामी दिख रही है वास्तव में तुम्हारे भीतर की ग़ुलामी को ही परिलक्षित कर रही है। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जिसके कारण तुम बाहर से ग़ुलाम हो। वह कह रहा है मुझे ताले से आज़ादी चाहिए।
आप उसको समझा रहे हो, 'नहीं, तुझे नशे से आज़ादी चाहिए।' वह कह रहा है, 'नहीं, नशे से आज़ादी मुझे नहीं चाहिए क्योंकि मैं हूँ नशेड़ी, नाम मेरा नशेड़ी। अगर मुझे नशे से आज़ादी मिल गई तो मेरा तो नाम ही मिट जाएगा, मैं बचूँगा कहाँ! मेरा क्या नाम है? नशेड़ी।' अब नशेड़ी को अगर नशे से आज़ादी दिला दी तो उसकी तो पहचान ही ख़त्म हो गई न?
तो कहता है, 'नहीं, मेरी भीतरी ग़ुलामी क़ायम रहने दो और मैं जो करना चाहता हूँ मुझे करने दो। कोई आये नहीं, कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं, कोई व्यवस्था मैं मानूँगा नहीं; मैं तो अपने मन की करूँगा।' और वह बड़े-बड़े सब नाम ले रहा है। कभी उदारवाद का नाम ले रहा है, कभी जनतंत्र का नाम ले रहा है, कभी आज़ादी का नाम ले रहा है, कभी समानता की बात कर रहा है। वह यह सब बड़े-बड़े शब्द फेंक रहा है और यह शब्द वाक़ई आदरणीय शब्द हैं, इन शब्दों में अपनेआप में कहीं कोई बुराई नहीं है।
समानता, इक्वलिटी बिलकुल बहुत सुन्दर बात है। और शराबी कह रहा है, 'नहीं, देखो सब समान हैं प्रकृति में, अलग-अलग हैं पर सब समान हैं तो जब मैं और तुम समान हैं तो तुम्हें हक़ किसने दिया कि मुझे सड़क पर निकलने से रोको?' और उसकी बात में देखो कितना दम मालूम पड़ता है, ठीक है?
फिर वह इसी तरह कह रहा है आज़ादी की बात; कहता है, 'एक इंसान होता कौन है दूसरे इंसान पर अपनी इच्छा थोपने वाला? तुम अपने घर में अपनी इच्छा का काम करो, मुझे अपने घर में मेरी इच्छा का काम करने दो। मैं अपने घर में पिऊँगा और यह जो सामने सड़क है यह साझी सड़क है, न तुम्हारी है, न मेरी है। जितना हक़ तुम्हारा इस सड़क पर चलने का उतना ही हक़ मेरा इस सड़क पर चलने का, मैं इसपर चलूँगा, मैं कैसे भी चलूँ। मैं धरना प्रदर्शन करूँगा, मैं कुछ भी करूँगा। मेरा शरीर, मेरी ज़िन्दगी, मेरे पैसे, मेरी शराब और मेरे निर्णय कि मैं पीना चाहता हूँ।' उस शराबी की दृष्टि में आज़ादी का यह अर्थ है।
अब यहाँ पर यह उदाहरण चीज़ को इतना साफ़ किये दे रहा है कि आप तुरंत कह देंगे कि हाँ साहब, बात सही है, शराबी को निश्चित रूप से ताले से आज़ादी मिलनी चाहिए। किसी को हक़ नहीं है किसी दूसरे व्यक्ति को ताले में रखने का लेकिन ताले से उसे आज़ादी बाद में मिले पहले तो उसे नशे से आज़ादी मिले।
दिक्क़त यह है कि नशे से उसे आज़ादी चाहिए नहीं क्योंकि अभी हमने थोड़ी देर पहले कहा नशे से आज़ादी का मतलब होगा अपनेआप से आज़ादी, अहंकार से आज़ादी। उसके मैं का नाम क्या है? मैं नशेड़ी हूँ; अहम् जुड़ गया है नशे से, नशा हटा नहीं कि अहम् गिर जाएगा और आदमी जीता ही जैसे अपने अहंकार की रक्षा के लिए है। बात समझ में आ रही है?
अब थोड़ा ग़ौर से देखिए कि नशे में कौन नहीं है। अभी हम बात कर लेते हैं विचारधारा के नशे की। क्या विचारधारा नशा नहीं होती? जिसको आप उदारवाद कहते हैं। चाहे आप वामपंथियों को ले लीजिए, चाहे आप दक्षिणपंथियों को ले लीजिए, चाहे इस वाद की बात कर लीजिए चाहे उस वाद की बात कर लीजिए, हैं तो यह सब विचारवाद ही और जो विचारवादी हुआ वह वितंडावादी भी हो ही जाएगा। नशा नहीं है क्या विचारधारा?
और जो नशे में होता है वह कभी अपनी स्थिति को नाजायज़ नहीं ठहराता। सौ में से कोई एक होता होगा जो शायद ईमानदारी से कह दे कि साहब मेरी हालत ठीक नहीं है और इस वक़्त मैं कोई भी निर्णय लूँगा तो गलत ही लूँगा। जबतक मेरा नशा न उतर जाए मेरी किसी भी बात को मानिएगा मत। ऐसा ईमानदार शराबी तो कोई एकाध ही होता होगा सौ में। बाक़ी तो जो शराबी होता है एक बार उसपर नशा चढ़ा नहीं, वह और ज़्यादा हठी हो जाता है कि नहीं मेरी ही मानो, मेरी ही करो, मुझे आज़ादी दो, मेरे हिसाब से ही चलना है मुझको। समझ में आ रही है बात?
राजनैतिक कार्यकर्ता जब आज़ादी-आज़ादी चिल्लाते हैं तो वह अक्सर उस शराबी जैसी ही हरकत कर रहे हैं, बिना यह देखे कि तुम्हारे मन के भीतर कितनी ज़बरदस्त ग़ुलामी बैठी हुई है नशा बनकर, इधर की विचारधारा की, उधर की विचारधारा की।
तुम शोर मचा रहे हो आज़ादी का। पहले समझो तो कि तुम्हें ग़ुलाम बनाने वाली ताक़त मूलतः है कौन-सी। इसमें कोई शक नहीं कि हमसे बाहर की भी बहुत ताक़तें होती हैं जो हमे दबा कर रखना चाहती हैं, जो हमारे ऊपर वर्चस्व रखना चाहती हैं लेकिन अगर तुम ग़ौर करोगे और थोड़ा-सा उनकी भी सुनोगे जिन्होंने जीवन के बारे में दो-चार बातें तुम्हें बतायी हैं तो तुम्हें पता चलेगा कि मूलतः तुमको दबाने वाली जो ताक़त है वह तुम्हारे भीतर ही बैठी हुई है।
हम अपने सबसे बड़े दुश्मन आप हैं। बस एक यही बात है जो राजनैतिक आंदोलनकारी कभी कहते नहीं कि किसी भी तरह की ग़ुलामी वास्तव में सर्वप्रथम आतंरिक होती है और जब वह आतंरिक ग़ुलामी मिटने लगती है तो उसके बाद बाहरी ग़ुलामी या तो महत्वहीन हो जाती है या मिट जाती है। जो भीतरी तौर पर ग़ुलाम नहीं रहा उसे बाहरी तौर पर ग़ुलाम बनाना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। कुछ देर के लिए बना भी लो तो वह टिकेगा नहीं ऐसे माहौल में, जहाँ बाहरी ताक़तें उसपर दिन-रात कब्ज़े की कोशिशें करती हों।
और अगर तुम पाओ कि वह ऐसे माहौल में टिका हुआ है तो इसका मतलब है कि उसे उन बाहरी ताक़तों से कोई फ़र्क पड़ता नहीं है। बाहर के लोग अपनी व्यवस्था चला रहे हैं, अपने नियम-क़ायदे चला रहे हैं पर यह आदमी भीतर से आज़ाद है। उन सब नियम-क़ायदों को और व्यवस्थाओं को यह दो कौड़ी का नहीं समझता। इसपर उनका कोई असर ही नहीं पड़ रहा, इतना भी इसपर असर नहीं पड़ रहा कि यह उन व्यवस्थाओं का विरोध करने निकल पड़े। तो ये हाल होते हैं उस आदमी के जो भीतर से आज़ाद होता है।
देखो, बाहर से तुम्हें ग़ुलाम बनाया जाए इसके लिए या तो तुम्हारे पास लालच होना चाहिए या डर होना चाहिए या अज्ञान होना चाहिए, नहीं तो कोई तुम्हें ग़ुलाम बना कैसे लेगा बताओ? बोलो। लालच दिखाकर तुम्हें ग़ुलाम बनाया जाता है, तुम्हें डराकर तुम्हें ग़ुलाम बनाया जाता है या तुम्हारे अज्ञान का इस्तेमाल करके तुम्हें ग़ुलाम बनाया जाता है और यह तीनों ही कहाँ बसते हैं? तुमसे बाहर कहीं? लालच हो, डर हो या अज्ञान हो यह बसते कहाँ हैं? भीतर बसते हैं न? जब यह भीतर बसते हैं तो तुम्हारी ग़ुलामी का मूल कारण कहाँ है? बाहर कि भीतर? भीतर है न।
तो अध्यात्म उस भीतरी कारण को मिटाने की बात करता है जिसके कारण सब बाहरी ग़ुलामियाँ आती हैं और उस भीतरी कारण को मिटाया नहीं और बाहर धरना-प्रदर्शन किया, ख़ूब शोर मचाया आज़ादी-आज़ादी तो यह बात हास्यास्पद है। यह सब करके शोर-गुल कर लोगे लेकिन वह शोर-गुल की बात बहुत दूर तक जाएगी नहीं। ऐसे शोर-गुल रोज़ होते हैं, हर जगह होते हैं, हर घर में होते हैं उनसे कुछ बात बनती नहीं है। समझ में आ रही है बात?
अध्यात्म जिस मुक्ति की बात करता है वह धरने-प्रदर्शन वाले आज़ादी के नारों से बहुत ही अलग चीज़ है। हाँ शब्द भले ही एक हो, मैं भी कई बार कह देता हूँ 'आज़ादी', पर जब मैं कहता हूँ 'आज़ादी' — अब यह तीसरी-चौथी बार दोहराकर कह रहा हूँ — तो मैं कह रहा होता हूँ 'अहंकार से आज़ादी' और आमतौर पर जब विचारधारा वाले लोग कहते हैं 'आज़ादी' तो उनका अर्थ होता है — अहंकार को मनमर्ज़ी करने की आज़ादी, शराबी को शराब पीने की और अपने मनचाहे कर्म करने की, मनचाहा व्यवहार करने की, मनचाहा जीवन बिताने की, मनचाही बोतल चुनने की आज़ादी।
इसीलिए तुम पाओगे कि जो लोग आज़ादीवादी होते हैं वह लोग अध्यात्म के बड़े ख़िलाफ़ होते हैं और यह संयोग की बात नहीं है। उन्हें अध्यात्म के ख़िलाफ़ होना ही पड़ेगा क्योंकि अध्यात्म उनके आज़ादी के नारों को बिलकुल खोखला साबित कर देता है। तो वो अध्यात्म से बिलकुल कन्नी काटते हैं, वो अध्यात्म की खिल्ली भी उड़ाते हैं और यह भी बड़ी मज़ेदार बात है कि वो अध्यात्म की खिल्ली उड़ा कैसे लेते हैं जब उन्होंने कोई आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ा ही नहीं!
लोग आते हैं और धर्म की और अध्यात्म की खिल्ली उड़ाते हैं, उनसे पूछो, 'तुम जिस चीज़ का मज़ाक उड़ा रहे हो तुम्हें उसके बारे में जानकारी कितनी है?' तो जानकारी कुछ नहीं है पर मज़ाक बनाना है।
यह अद्भुत कारनामा साहब आपने कर कैसे लिया कि जिस किताब को आपने पढ़ा नहीं उसको आप जुलुस निकाल करके गाली देने लग गये! यह आपने कैसे कर लिया? आज़ादीवादियों का अक्सर एक पसंदीदा निशाना होता है सनातन धर्म। उसकी खिल्ली उड़ाने में, उसको नीचा साबित करने में, उसको शोषणकारी, दमनकारी, अवैज्ञानिक, विचारहीन और पिछड़ा हुआ साबित करने में उदारवादियों को, आज़ादीवादियों को बड़ा मज़ा आता है।
ठीक है साहब, बिलकुल छूट है आप किसी भी चीज़ के बारे में कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन जिस चीज़ के बारे में आप बोल रहे हैं, थोड़ा उसके बारे में अध्ययन कर लेते, जानकारी कर लेते। जिस धर्म को आप इतनी गालियाँ देते हैं उस धर्म का जो केंद्रीय स्तम्भ है उसके थोड़े क़रीब आ जाते, उसको जान लेते, कुछ उसका परीक्षण कर लेते।
हिन्दू धर्म वैदिक धर्म है और बहुत बार मैं कह चुका हूँ कि वेदों की आत्मा है वेदान्त। यह सब लोग जो कहते हैं कि हमे धर्म से ही आज़ादी चाहिए इन्होने वेदान्त पढ़ा है क्या? कौन-से उपनिषद पढ़े हैं? कौन-से ऋषियों का दर्शन पढ़ा है? अक्सर यह लोग विश्वविद्यालयों से निकले हुए लोग होते हैं, तो भाई किताब पढ़ने-लिखने की तो तुमको शिक्षा मिली है न? तुम्हारी जो पूरी व्यवस्था रही है अभी तक शिक्षकीय, जो तुम्हारी पूरी एकेडेमिक ट्रेनिंग (अकादमिक प्रशिक्षण) रही है वह पढ़ने-लिखने की ही रही है न? किताबों का ही तुम्हारा माहौल रहा है। तो भारतीय दर्शन-शास्त्र भी पढ़ लेते। दर्शन की इतनी शाखाएँ हैं उनकी कुछ जानकारी हासिल कर लेते। वैदिक दर्शन के अलावा नास्तिक शाखाएँ भी हैं उनको भी पढ़ लेते।
और फिर वेदान्त है, वेदान्त को थोड़ा सा जान लेते। और जब तुम दर्शन में जाओगे तो वेदान्त में तो चले ही गये तुम। पढ़ लो, जान लो उसके बाद कोई वाजिब आक्षेप हो तो करो। बिना जाने, बिना समझे जिस चीज़ से वास्ता नहीं, जिस चीज़ का बचपन से लेकर अभी तक कभी ज्ञान पाया नहीं उसके बारे में मुँह चलाना अक्लमंदी तो नहीं है न? थोड़ा पढ़े-लिखों जैसी बात करो, अगर विश्वविद्यालय के छात्र हो तो। क्या नारेबाज़ी कर रहे हो!
और यह सबकुछ सिर्फ़ इसलिए है — ऐसा नहीं कि पढ़े नहीं जा सकते, उपनिषद् तो अति संक्षिप्त हैं। किसी का अगर इरादा ही हो उन्हें पढ़ने का तो अभी पढ़ सकता है। वेदान्त के ग्रंथ ही अधिकतर संक्षिप्त ही हैं पर नीयत ही नहीं है पढ़ने की। नीयत इसलिए नहीं है पढ़ने की क्योंकि अगर पढ़ लिया तो उसके बाद उस तरह की बहकी-बहकी बातें कर नहीं पाएँगे जो अभी करते हैं। तो इसीलिए एकदम पढ़ते नहीं; हाँ, बात उन्हीं की करते हैं। कैसे बात उन्हीं की करते हैं? अपमान करके, गाली देकर के बात उन्ही की करेंगे। समझ में आ रही है बात?
आज़ादी बड़ी प्यारी चीज़ है, बहुत आदरणीय चीज़ है, पूरा जीवन ही आज़ादी को समर्पित हो जाए तो जीवन सार्थक हो गया लेकिन असली आज़ादी। यह सब आज़ादी कि मुझे शराब पीनी है और मुझे शराब पीने का हक़ होना चाहिए; मुझे अज्ञान में रहना है, मुझे अज्ञान में रहने का हक़ होना चाहिए; मुझे जानवर मारने हैं, मुझे जानवर मारने का हक़ होना चाहिए; कोई मुझसे पूछेगा नहीं कि तुम्हारी प्लेट (थाली) पर जानवरों का क़त्ल करके माँस क्यों रखा हुआ है, इस बात को कोई न पूछे यह मेरा व्यक्तिगत मामला है; मुझे आज़ादी होनी चाहिए किसी भी जीव की हत्या करने की, ख़ून बहाने की, उसके माँस में अपने दाँत गड़ाने की; यह आज़ादी है? यह तुम्हारी परिभाषा है आज़ादी की? असली आज़ादी की तरफ़ बढ़ो।
असली आज़ादी अध्यात्म में है और मैं फिर कह रहा हूँ जो आदमी आध्यात्मिक हो गया वह बाहरी ग़ुलामी कभी स्वीकार नहीं करेगा। बाहर से उसे ग़ुलाम बनाने वाली ताक़तें या तो स्वयं पीछे हट जाएँगी या हार जाएँगी या अप्रासंगिक हो जाएँगी क्योंकि जो ख़ुद से आज़ाद हो गया न, अब उसके ऊपर कोई लालच-डर काम करता नहीं। वह अब ज़बरदस्त सूरमा हो जाता है, उसे दबाया जा ही नहीं सकता। वह जीवन में जिस भी तरह का संघर्ष करेगा उसमें वह मर तो सकता है पर दब नहीं सकता। तुम उसका शरीर तो मार सकते हो पर उसे हार मानने पर विवश नहीं कर सकते। अब ऐसा आदमी बताओ कैसे ग़ुलाम रहेगा बाहर से?
तो बाहरी आज़ादी भी जिनको प्यारी हो वो आतंरिक रूप से आज़ाद होने पर ध्यान दें। फिर बाहरी आज़ादी अपनेआप पीछे-पीछे आ जाएगी छाया की तरह।
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