अध्यात्म में ‘अन्दर’ और ‘बाहर’ से क्या आशय? || (2017)

Acharya Prashant

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अध्यात्म में ‘अन्दर’ और ‘बाहर’ से क्या आशय? || (2017)

प्रश्नकर्ता: अध्यात्म में “अन्दर” और “बाहर” से क्या आशय होता है?

आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी मन की पकड़ में आ सके वो बाहर है। जिस भी चीज़ के बारे में तुम सोच सको वो बाहर है। जिसको तुम अन्दर कहते हो उसके बारे में भी तुम सोच लेते हो न? जिसको तुम अन्दर कह रहे हो उसके बारे में भी सोच लेते हो न? और, अगर सोच लिया किसी के बारे में तो वो कहाँ का हुआ? बाहर का। तो, अन्दर कुछ होता ही नहीं।

जिस किसी भी वस्तु, व्यक्ति, विचार, हस्ती, घटना को तुम नाम दे सको वो बाहर की हो गयी। अन्दर को तुम ने नाम दे दिया न। क्या नाम दिया अन्दर को? 'अन्दर'। और जैसे ही तुमने कहा वो अन्दर है तो वो कहाँ का हो गया? वो बाहर का हो गया। तो अन्दर जैसी कोई चीज़ होती नहीं। जो भी तुम सोचोगे, विचारोगे, धारणा करोगे, कल्पना करोगे, वो सब क्या हुआ? बाहर का हुआ।

तो अन्दर या बाहर का ये भेद मत बना लेना कि खाल के उस तरफ़ जो है वो बाहरी और जो खाल के इस तरफ़ है वो अंदरूनी। ये भ्रान्ति भी खूब चलती है, क्या? कि, शरीर से बाहर का जो है, शरीर से उस तरफ़ का जो है, वो तो हुआ बाहरी। अब शरीर के इस तरफ़, जैसे खाल कोई दीवार हो, जैसे खाल को हमने दीवार बना लिया हो और हम कहते हों, "दीवार के उस तरफ़ जो है वो कहलाएगा ‘बाहर’ और दीवार के इस तरफ़ जो है वो कहलाएगा ‘अन्दर’", ये व्यर्थ की बात है।

तुम्हारा शरीर भी बाहरी है, मन भी बाहरी है, विचार भी बाहरी हैं। इन सब को ले कर छवियाँ, नाम, मान्यताएँ, परिभाषाएँ रहती हैं न? जो कुछ भी परिभाषित हो गया वो बाहरी। तो, कोई ये ना कहे, “आँखें बाहर को देख रही हैं अब इन आँखों को अन्दर की ओर मोड़ो।” जिधर को भी आँखें मुड़ गईं, वो दिशा बाहरी है। जिधर को भी आँखें मुड़ गईं, वो दिशा बाहरी ही है। हर दिशा बाहरी है।

जो तुम सोच सकते हो वो बाहरी है। जो तुम सोच रहे हो कि नहीं सोच सकते वो भी बाहरी है। जिसको तुमने नाम दिया वो बाहरी, और जिसके बारे में तुम कहते हो, “मैं नाम नहीं दे पाऊँगा", वो भी बाहरी। सब बाहरी-ही-बाहरी है, भीतरी कुछ नहीं।

तो फिर प्रश्न ये उठता है कि तब तमाम संतों ने ये ‘भीतरी’ शब्द का प्रयोग ही क्यों किया? जब वो कहते हैं 'भीतरी', तो उसका आशय क्या है?

अब ध्यान से समझना; जो बाहरी को बाहरी जाने उसे कहते हैं भीतरी। बाहरी जो कुछ है वो वस्तु है, पदार्थ है, विचार है, कल्पना है, छवि है, मानसिक कृति है। और, जैसे-जैसे तुम जानते जाते हो कि ये सब कुछ बाहरी है, उस जानने को कहते हैं भीतरी। जो भीतरी है वो कहीं स्थान में अवस्थित नहीं है। जैसे, तुम कहो कि एक मकान है और मकान के कुछ बाहर होता है, कुछ अन्दर होता है। नहीं, वो बात नहीं है, वो उदाहरण मत पकड़ लेना। वो बिलकुल तुम्हें गुमराह कर देगा।

सब बाहरी है। मकान के बाहर भी बाहर है। और जिसे तुम कहते हो मकान के भीतर की बात, वो भी बाहरी है। जो कुछ भी समय और स्थान में अवस्थित है, वो सब बाहरी है।

तुमने उँगली पर अंगूठी पहन रखी है, जिस दुकान से अंगूठी आयी है वो दुकान बाहरी है।

अंगूठी भी बाहरी है।

जिस खाल पर अंगूठी है, वो खाल भी बाहरी है।

खाल के नीचे जो माँस है, वो भी बाहरी है।

माँस के नीचे जो हड्डी है, वो भी बाहरी है।

और, धमनियों में जो रक्त बह रहा है, वो भी बाहरी है।

और, रक्त का संचार करने वाला ह्रदय भी बाहरी है।

सब बाहरी-ही-बाहरी है।

भीतरी कौन है? वो, जो ये सब जानता है कि ये सब बाहरी है। हर दृश्य बाहरी है, इन सभी दृश्यों का जो निर्पेक्ष द्रष्टा है, मात्र वो भीतरी है। और उसकी बात करना व्यर्थ है, क्योंकि वो द्रष्टा है, दृश्य नहीं है। जब वो दृश्य नहीं है तो तुमने उसे कैसे देख लिया?

बात समझ रहे हो?

जिसको तुम देख लो वो क्या कहलाता है? दृश्य। जो दिखे सो दृश्य। और भीतरी कौन है? द्रष्टा। दृश्य दिखते हैं न, द्रष्टा थोड़े ही दिखते हैं। द्रष्टा तो देखते हैं। द्रष्टा दिखते नहीं हैं, द्रष्टा देखते है। तो, जो भीतरी है उसकी बात करना व्यर्थ है। उसको तुम देख तो सकते नहीं, उसके बारे में तुम्हें जानकारी तो हो सकती नहीं। वो ज्ञान का विषय नहीं है। ज्ञान के विषय, मात्र पदार्थ इत्यादि होते हैं। तो, भीतरी की बात करना व्यर्थ है। हाँ, तुम्हारी बात में अगर वज़न है, तो वो वज़न जिस से आ रहा है उसको भीतरी कहते हैं।

तुम्हारी बात अगर सच्ची है, तो उस सच्चाई को भीतरी कहते हैं। तुम ने अगर साफ़ देखा है, तो सफ़ाई को भीतरी कहते हैं। हाँ, तुमने दृश्य जो भी देखे हैं, वो सारे बाहरी हैं। पर अगर सही देखा है तो जिस के कारण सही देखा है, उसे भीतरी कहते हैं। बात समझ रहे हो? इतनी सारी चीज़ें यहाँ दिखाई दे रही हैं न? ये सब जो दिख रहा है, सब बाहरी है। अपना शरीर दिखता हो, वो भी बाहरी है। अपनी आति-पुलाति दिख रही हो वो भी बाहरी है।

तो क्या नहीं बाहरी है? नज़र की सफ़ाई जो सब कुछ साफ़-साफ़ देख रही है, वो बाहरी नहीं है, वो भीतरी कहलाती है। मैंने नहीं कहा कि आँख भीतरी है, वो जो आँख को साफ़-साफ़ देखने की शक्ति देता है, मात्र उसको भीतरी जानना।

उपनिषद् कहते हैं,

“आँखों के पीछे जो आँख बैठी है, उसको जानना भीतरी।"

"कान जिसे सुन नहीं सकते, पर जो कानों को सुनने की शक्ति देता है, उसे जानना भीतरी।"

"ज़ुबान जिसका नाम नहीं ले सकती पर जो ज़ुबान को बोलने की शक्ति देता है, उसे जानना भीतरी।"

"मन जिसके बारे में ना सोच सकता है, ना कह सकता है, ना नाम ले सकता है, पर जो मन को सोचने की शक्ति देता है, उसे जानना भीतरी।”

मन के भीतर की किसी सामग्री को भीतरी मत जान लेना। मन में तो जो कुछ है वो तो बाहरी-ही-बाहरी है –

अच्छा भी बाहरी, बुरा भी बाहरी।

पाप भी बाहरी, पुण्य भी बाहरी।

स्वर्ग भी बाहरी, नरक भी बाहरी।

ये लोक भी बाहरी, अन्य सभी लोक भी बाहरी।

मन की सामग्री सारी बाहरी।

मन का आधार मात्र है जिसे कहा गया है, “भीतरी”, वो तुम हो। वही तुम्हारी पहचान है।

प्र: जब ध्यान लगता है, अन्दर एक गूंज उठती है, ऊपर की तरफ़ निकलती है।

आचार्य: ऊपर भी बाहरी, नीचे भी बाहरी, समय, स्थान, दिशाएँ सब बाहरी। जो कुछ भी तुम्हें अनुभव हो जाए, सब बाहरी। तुम्हें क्या कभी ऐसी चीज़ का अनुभव हुआ है जो समय और स्थान में अवस्थित ना हो? टाइम और स्पेस से आगे का तो तुम्हें अनुभव नहीं होता न, वो सब बाहर की बाते हैं, उनके धोखे में मत आना।

प्र: तो हम उसे अनुभव कभी कर ही नहीं सकते?

आचार्य: नहीं, बिलकुल नहीं।

प्र: तो हम ध्यान क्यों करते हैं?

आचार्य: ताकि तुम अनुभवों से आज़ाद हो सको। सदा अनुभवों में जीते हो और कष्ट पाते हो।

ध्यान है अनुभवों से आज़ादी।

ध्यान है, तुम्हारा, स्वभाव में स्थित हो जाना, जहाँ तुम किसी अनुभव के प्यासे या ग़ुलाम नहीं हो।

ध्यान है ये जान लेना कि तुम ना भोक्ता हो, ना अनुभोक्ता। करोगे क्या अनुभव का? अनुभवों के पीछे इसलिए ही भागते हो न क्योंकि लगता है न अनुभव कोई तृप्ति दे जाएँगे। ध्यान का अर्थ होता है – तृप्ति की तलाश खत्म हुई, जान लिया किसी तृप्ति की ज़रूरत नहीं है। ये धारणा, कि तृप्ति चाहिए, ये धारणा ही परेशान किए हुए थी। धारणा ही छोड़ दी। ऐसा नहीं कि तृप्ति मिल गई, ये धारणा छोड़ दी कि तृप्ति का अभाव है; ये ध्यान है।

जो कहे कोई कि, "ध्यान में इस तरीके के, उस तरीके के अनुभव हुए", तो जान लेना वो ध्यान में कभी उतरा ही नहीं। ध्यान में उतरने का मतलब होता है अनुभोक्ता का लोप हो जाना। अनुभव करने वाला ही नहीं बचा तो अनुभव कहाँ से होगा भाई? और अगर अभी अनुभव करने वाला बचा है और अनुभव की प्यास बची है तो ध्यान कैसा?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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