प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आपने अभी जाति प्रथा जैसी कुप्रथा के बारे में बताया तो इसी से मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है कि समाज में ‘अछूत’ शब्द कहाँ से प्रचलन में आया। इस ‘अछूत’ शब्द की शुरुआत कहाँ से हुई और वास्तव में अछूत कौन है?
आचार्य प्रशांत: ठीक, अच्छा है! देखो समाज तो भौतिकवादी होता है। समाज को तो बस पदार्थ दिखाई पड़ता है, ग्रॉस मटीरियल (सकल सामग्री)। तो समाज तो जिन लोगों को पसंद नहीं करेगा या जिन्हें दबाकर रखना चाहेगा या जिनसे दूरी बनाकर रखना चाहेगा, उनको वो अछूत या अस्पृश्य घोषित कर देगा। समाज तो ऐसा ही है।
समाज में जो बच्चा पैदा होता है वो पैदा ही एकदम पदार्थवादी होता है, उसको और कुछ चीज़ नहीं समझ में आती। आप आम ज़िंदगी में भी नहीं देखते हो — तुम्हारी प्रेयसी या पत्नी से लड़ाई हो जाए और बैठी हो वो मुँह फुलाकर के, तुम पीछे से जाओ, ऐसे कंधे पर हाथ रखो, ‘छुओ मत मुझे!’ होता है कि नहीं होता है? तो उसने तुम्हेंबना दिया अछूत। बस ये है कि वो तुमको अल्पकाल के लिए अछूत बनाती है। (श्रोतागण हँसते हैं) थोड़ी देर में छुआ-छुई फिर चालू हो जाएगी।
जिसको आप पसंद नहीं करते आप उससे शारीरिक दूरी बना लेना चाहते हो, ’डोंट टच मी!’ है न? तो वही है, हम एक-दूसरे को शरीर ही जानते हैं तो जिसको दूर करना है उसको शारीरिक तौर पर ही दूर कर देते हैं। ये बात सीधे-सीधे शारीरिकता की है, देहभाव की है।
अध्यात्म में भी एक तरह की अस्पृश्यता होती है — अब ये बात नयी है, ध्यान से सुनना — उसका संबंध संगत से होता है। अध्यात्म ये नहीं कहता कि किसका शरीर छूना है कि नहीं छूना है। अध्यात्म कहता है कि तुम्हारी असली पहचान मन है, तुम अपने मन में जीते हो, तुम चेतना हो। और चेतना को ऐसी चीज़ें छूने से बचाओ जो उसको खराब कर देंगी।
तो बात वहाँ व्यक्तियों के तल पर नहीं होती फिर कि कोई व्यक्ति अनटचेबल (अछूत) है। वहाँ फिर बात होती है माहौल के संदर्भ में, विचारों-भावनाओं के संदर्भ में, नीयत के संदर्भ में। ये चीज़ें हैं जिन्हें स्पर्श नहीं करना है, कुछ विचार हैं उनको मन में नहीं आने देना है, वो जैसे ही आएँ सतर्क हो जाना है, ‘ये क्या बात उठ रही है?’ तो उन विचारों से दूर रहो, उन विचारों को कह दो, ‘तुम अछूत हो।’
वास्तविक अछूत हमारे ही भीतर जो पशु बैठा है, वो है। बाहर कोई नहीं अछूत होता। ये बाहर जो छुआछूत की व्यवस्था चली थी ये तो सीधे-सीधे एक सामाजिक रोग था, दोष था, अपराध था गंभीर।
छूने से बचना ही है तो भीतर जो हमारे गंधाता हुआ जानवर बैठा है, उसको छूने से बचो। पर उसको तो हम लिपटाए रहते हैं खूब। उससे ईर्ष्या उठती है, हम कह देते हैं, ‘मैं ईर्ष्यालू हूँ और मैं उस ईर्ष्या का समर्थन भी कर रहा हूँ। वो ईर्ष्या मुझे जिधर को धकेल रही है उधर मैं बढ़ा भी जा रहा हूँ।’
बात आ रही है समझ में?
तो आपमें से कुछ लोग अगर आज के समय में भी ऐसे हों जो अभी इस व्यवस्था में आंशिक विश्वास भी रखते हों कि किसको छू सकते हैं, किसको नहीं छू सकते इत्यादि-इत्यादि, तो सुधर जाइए। अछूत कोई व्यक्ति नहीं होता, कोई वस्तु भी नहीं होती है, अछूत हम स्वयं होते हैं।
उसको मत छुओ जो तुमको कलुषित कर देगा, और वो तुम स्वयं हो। अपनी ही संगत से बचो। दुनिया में एक ही अछूत है, और वो कौन है? ‘मैं स्वयं’ — अहम्। अहम् ही अछूत है, उसी से बचो। लेकिन अहम् इस बात को क्यों स्वीकारेगा कि वो स्वयं ही अछूत है? तो उसने फिर एक कुत्सित चाल चली, क्या? उसने समाज के एक वर्ग को ही अछूत बना दिया, उसने कहा, ‘ये सब हैं अछूत।’ अछूत तुम खुद हो, उनको बना रहे हो। पागल!
आ रही है बात समझ में?
हम सबसे ज़्यादा पक्ष लेते हैं अपना ही, जबकि हमें सबसे ज़्यादा दूरी बनाकर रखनी चाहिए स्वयं से ही। आप वो नहीं हैं जो आपके भीतर से बातचीत करता है, समझिए बात को। उससे दूरी बनाइए वो आप नहीं हैं। भीतर से भावना उठी वो आपके मुँह पर चिपक जाती है। और वो भीतर से उठी माने कहाँ से उठ रही है? वो आपके भीतर जो ग्रन्थियाँ हैं, ग्लैंड्ज़ हैं — रसायन, हार्मोन — वहाँ से भावना उठ रही है, वो आपके मुँह पर चिपक गई है। अरे भाई! उस भावना को अछूत की तरह दूर रखो। वो तुम्हारी नहीं है, वो इस जानवर की (शरीर की) है, तुम ये (शरीर) नहीं हो, दूरी बनाओ!
जो सही है वो अच्छा लगे तो अच्छा, बुरा लगे तो बुरा। सही है तो सही है। सही है तो उसको गले लगा लिया और बाकी सब अछूत है। सत्य को छुएँगे, छुएँगे क्या, उसमें लीन हो जाएँगे और बाकी कुछ भी नहीं छुएँगे। ऐसा होना चाहिए मन, “दूसरो न कोई” — दूसरे को नहीं छूते। जैसे सामाजिक व्यवस्था चलती थी न, ‘पराई नारी को मत छुओ, पराए नर को मत छुओ,’ तो उसका वास्तविक अर्थ वही है जो मीराबाई ने दिया है-
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोई
वो एक हैं बस जिनको स्पर्श करेंगे और किसी को नहीं छुएँगे। और छूने का मतलब कहाँ से? हाथ से नहीं, हाथ से तो दुनिया की चीज़ें छूनी ही पड़ती हैं। कोई हाथ बढ़ाएगा हाथ मिलाने को, ये थोड़े ही कहोगे, ‘तू गंदा आदमी है, तुझे नहीं छूता।’ ऐसे थोड़े ही करोगे। कोई बुरा आदमी भी आ गया गले मिलने, गले मिल लो — अच्छी बात है, स्नेह का क्षण है, जैसा भी हो, उथला सही पर स्नेह है — उसने आग्रह करा है, मिल लो गले। पर मन उसकी गंदगी से गंदा न हो जाए।
मन के तल पर कह देना, ‘हम तुझे स्पर्श नहीं करने देंगे स्वयं को, तू हमें नहीं छू पाएगा।’ तन का क्या है, तन तो संसार की मिट्टी से उठा है, संसार में ही लीन हो जाना है। तो तन को हम संसार से कितना बचाएँ और कैसे बचाएँ? आपको अभी पता भी है कौन-कौनसी चीज़ें आकर आपको स्पर्श कर रही हैं? जो लोग छुआछूत के कभी हिमायती रहे हों वो थोड़ा सोचें।
एवोगैड्रो नंबर याद है कितना होता है? कितना होता है? सिक्स प्वॉइंट ज़ीरो टू थ्री इनटू टेन टू दी पॉवर ट्वेंटी थ्री – एक मोल में इतनी इकाइयाँ होती हैं। अब कोई यहाँ गंदा आदमी बैठा हो, वो साँस ले रहा है, तो उसकी साँस आ-आकर आपके शरीर को छू रही है कि नहीं? छूना तो छोड़ दो, वो आपके फेफड़ों में जा रही है कि नहीं? फेफड़ों में जा रही है तो क्या बन गई आपका? वो आपका रक्त बन गई, वो आपका माँस-मज्जा बन गई, तो तुम कैसे कह दोगे कोई अछूत है?
दुनिया के हर आदमी से उत्सर्जित गैसें और पदार्थ आपके शरीर में मौजूद हैं इस समय। टेन टू दी पावर ट्वेंटी थ्री बहुत बड़ा आँकड़ा होता है और हर व्यक्ति उतना उत्सर्जन प्रतिपल कर रहा है। तो बताओ दुनिया में कोई कहीं भी है उसका माल तो तुम्हें स्पर्श कर ही रहा है न? कर रहा है कि नहीं कर रहा है? भई, एक-दो मॉलिक्यूल (अणु) ही सही लेकिन तुम तक पहुँच ज़रूर रहे हैं।
तो तुमने किसी को अछूत घोषित करके हासिल भी क्या कर लिया? वो उतनी दूर भी खड़ा है तो भी उसका माल सब तुम तक आ गया और तुम्हारे शरीर में न सिर्फ़ प्रवेश कर गया, बल्कि वो तुम्हारा शरीर बन गया। तो क्या तुम किसी को अछूत बना रहे हो? तो अछूत बनाना शारीरिक तल पर तो अव्यावहारिक है, असंभव है — पाप है, अपराध है, वो बात तो है ही — अपराध तो है ही, असंभव भी है।
समझ में आ रही है बात कुछ?
तो तन की छुआ-छूत खत्म करो, बेकार की बात है। मन को सिखाओ कि किसको छूने से बचना है। और मन लिपटा हुआ है किससे? स्वयं से ही। मन क्या है — अहंकार के आसपास के दायरे को, माहौल को, मन कहते हैं। मन के केंद्र में ही अहंकार बैठा हुआ है। मन लिपटा हुआ है किससे चारों ओर से? किससे लिपटा हुआ है? अहंकार से। यहाँ ज़रा दोनों को अलग करो, अलग करो।
कुछ आ रही है बात समझ में?
बहुत-बहुत सतर्क रहा करो, ‘कौनसी चीज़ है जो मन तक जा रही है?’ जो शुभ है भीतर जाना, कोई भी कीमत अदा करके, हाथ जोड़कर के, पाँव पड़कर, उसको भीतर प्रवेश कराओ। और जो चीज़ भीतर नहीं जानी चाहिए, जान भी देनी पड़े तो भी उसे स्वयं को छूने से रोक दो।
आपका अस्तित्व इतना सस्ता नहीं है कि उसको आप यूँही उछाल दें और वो किसी के भी हाथ में पड़ जाए। अपनी गरिमा का खयाल रखा करिए, तन से ज़्यादा मन के तल पर। आपके मन में कौन छा गया है ये कोई छोटा विषय नहीं होता। कौनसे विचार आपको पकड़ रहे हैं, किसका आप बार-बार खयाल कर रहे हैं, कौन आपको प्रभावित करे दे रहा है, कौन आपका आदर्श बन गया; ये छोटी बातें नहीं होतीं, इन्हींसे जीवन तय हो जाता है।
तो यूँही न हो कि कोई आपके मन को छू गया। गिरधर गोपाल के अतिरिक्त किसी को हक मत दीजिए कि आपके मन को छू जाए, “दूसरो न कोई।” मन पर बस उन्हीं का स्वामित्व होना चाहिए बाकियों को अधिकार ही नहीं है। बाकी चढ़े आएँ मन पर कुछ भी बनकर के, उनको बोलो, ‘हट, अछूत!’
ये नाम दो उन सबको जो आते हैं बहुत प्यारा बनकर, लुभावना बनकर, आपके चित्त पर कब्ज़ा करने, चितचोर। उनको क्या नाम देना है सबको? अछूत। बस संट रहेगा मामला बिलकुल, उबर ही नहीं पाएगा। ऐसी चोट पड़ेगी बच्चू को, कहेगा, ‘एक-से-एक संबोधन सुने थे प्रियतमा से पर ये वाला तो, गजब हो गया!’