अच्छी शुरुआत के बाद जुनून का खोना || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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अच्छी शुरुआत के बाद जुनून का खोना || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: किसी चीज़ के पीछे जाते हैं, सफलता चाहिए। शुरुआत करते हैं, कुछ समय तक तो जुनून बना रहता है फिर जोश घटने लग जाता है, मामला ठंडा पड़ जाता है। क्या करें कि जुनून बना रहे?

वक्ता: दो बातें हैं। पहली बात तो यह कि तुम जिस भी चीज़ के पीछे जाते हो, जो भी तुम लक्ष्य बनाते हो वो तुमसे बाहर का कहीं का होता है। तुम्हें किसी से मिला होता है। जिस परिस्थिति में मिला होता है उस परिस्थिति में वो लक्ष्य बड़ा आकर्षक लग रहा होता है, पर परिस्थिति तो बदल जाएगी। लक्ष्य किसी और का दिया हुआ है, वो तुम्हारे अपने अंतस से नहीं निकला है। वो तुम्हारा ही अपना हिस्सा नहीं है, वो बाहर से आई हुई कोई चीज़ है। जो चीज़ बाहर से आती है उसका स्वभाव होता है वापिस बाहर ही लौट जाना। जो लक्ष्य तुम्हें बाहर वालों ने दिए हैं, वो लक्ष्य तुम्हें बहुत समय तक ऊर्जावान नहीं रख पाएंगे।जो लक्ष्य तुम्हें एक विशेष परिस्थिति ने, एक विशेष दिन ने दिए हैं, वो उस परिस्थिति के बीतते ही स्वयं ही बीत जाएँगे।

नए साल का दिन आता है, लोग संकल्प लेते हैं। पर नए साल का दिन बीत जाता है। तो उन संकल्पों का क्या होता है? वो उनके साथ रह नहीं पाते। संकल्प दिया था एक जनवरी की तारीख को और एक जनवरी के बीतते ही चला जाता है। वो संकल्प लिया ही इसलिए गया था क्योंकि आज एक जनवरी है। एक जनवरी बीत गई, आज पांच जनवरी है, जोश ठंडा पड़ ही जाएगा। इसी तरीके से कोई बाहर वाला आता है, तुम्हें प्रेरित करके चला जाता है। जब वो तुम्हें प्रेरित करता है, तब तुम्हें लगता है कि हम उत्साह से भर गए हैं पर वो व्यक्ति सदा तो तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। वो चला जाएगा, और जैसे ही वो चला जाएगा, उत्साह भी चला जाएगा। ये जो बाहर से आया हुआ उत्साह होता है, यह ऐसा ही होता है, जैसे कोई गाड़ी को धक्का लगा रहा हो। गाड़ी ठीक है, गाड़ी में इंजन भी है और हर प्रकार से स्वयं चलने के काबिल है, पर फिर भी गाड़ी में कोई बाहरी ताकत धक्का लगा रही है। वो गाड़ी कब तक चलेगी? जब तक धक्का लगेगा। और याद रखना धक्का सिर्फ एक दिशा में नहीं लग रहा है, दस ताकतें हैं जो दस दिशाओं में धक्का लगाती हैं। तो अब गाड़ी की हालत क्या होगी? कभी इधर, कभी उधर। जैसे सूखा हुआ पत्ता होता है कि हवा जिधर को ले जा रही है, उधर को चल देता है, क्योंकि उसका अपना कुछ नहीं है, वो अपनी जड़ों से टूटा हुआ है। वैसी ही हमारी हालत रहती है, जड़ों से टूटे हुए हैं, या यूँ कह लीजिये कि गाड़ी का इंजन चुप पड़ा है, होते हुए भी वो इंजन ऊर्जा का संचार नहीं कर पा रहा है। क्यों? क्योंकि तुम कुंजी को भूल गए हो। गाड़ी की चाबी खो गयी है।

गाड़ी की चाबी है अंतर्गमन, आत्मज्ञान, दूसरे पर निर्भरता नहीं, खुद को जानना ताकि तुम्हारे सारे कर्म और कर्मों के पीछे की ऊर्जा वहां से निकल सके। उस चाबी को हमने खो दिया है। तो हम लगातार दूसरों पर निर्भर बने रहते हैं धक्कों के लिए, और यही धक्के दे देकर दूसरे हमारे मालिक बन बैठे हैं। हालत यहाँ तक हो गयी है कि अगर हमें कोई मालिक न मिले, तो हम बेचैन हो जाते हैं। बड़ी गहरी गुलामी है ये, कि मालिक नहीं मिल रहा तो मैं बेचैन हो गया, क्योंकि मालिक ही तो मुझे धक्का देता है। ‘मालिक न हो तो मैं एक कदम नहीं चल सकता। कोई और बताने वाला न हो तो मुझसे चला ही नहीं जाएगा’। ऐसी हमारी हालत हो गयी है।

अब इसमें ताज्जुब क्या है, अगर तुम पूछ रहे हो कि शुरुआत तो जोश से होती है पर शीघ्र ही जोश ठंडा पड़ जाता है? पड़ेगा ही, क्योंकि पहली बात, मालिक बाहरी है और दूसरी बात, मालिक कई हैं। तो एक तुम्हें इधर को खींच रहा है, एक उधर को खींच रहा है। तुम किधर जाओगे? कुछ देर को चल भी दिए तो एक और आवाज़ आएगी और वो तुम्हें उधर को खींच लेगी। जैसे कोई पागल, जो कभी दाएँ जाता हो, कभी बाएँ, कभी ऊपर को भागता हो, कभी नीचे को, कोई लय नहीं है उसकी गति में, कोई संगीत नहीं है, सिर्फ इधर-उधर एक भटकाव है, ऐसी हमारी हालत रहती है। फिर, अगर तुम्हें सफलता मिल भी गयी तो ये मत सोचना कि तुम्हारे बड़ा कल्याण हो जाना है। पहली बात तो किसी प्रकार की सफलता सम्भावना है नहीं, पर अगर हो जाए, और तुम्हें लगने भी लगे कि मैं सफल हो गया, तो वो क्षण तुम्हारे लिए बड़े दुःख का होगा, क्योंकि तुम ये पाओगे कि जिसके पीछे मैं भागता रहा उसको पा कर भी मुझे कुछ नहीं मिला। समझना इस बात को।

मैंने कहा तुम्हारे कई मालिक हैं और सारे बाहरी हैं, और उन्हीं के दिये धक्कों और प्रेरणाओं पर चलते रहते हो। और मैं तुमसे कह रहा हूँ, उनमें से किसी एक दिशा में, जिसमें लक्ष्य बना रखा है, उसकी प्राप्ति हो भी जाए तो तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। बताओ क्यों? क्योंकि यदि, एक मालिक, एक गुलाम को आज्ञा देता है कि बाज़ार से कुछ लेकर आ, और गुलाम जाकर हीरे भी ले आता है, तो उसमें गुलाम को क्या मिल गया? हीरे आये भी तो किसके लिए आये? तुम बड़ी से बड़ी सफलता अर्जित कर लो, तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। तुम पाओगे कि तुम रूखे के रूखे ही रह गए, और वो क्षण, वो सफलता का क्षण तुम्हारे लिए बड़ी पीड़ा का क्षण होगा। तुम कहोगे कि ज़िन्दगी भर जिस चीज़ के पीछे भागता रहा, आज वो मिली भी है तो उससे मुझे कुछ नहीं मिल रहा। मेरा सूनापन वैसा का वैसा ही है। तो इसलिए अच्छा है कि तुम्हें सफलता कभी मिलती नहीं। सफलता मिलती नहीं है तो तुम एक झूठी उम्मीद में जी लेते हो। क्या उम्मीद? कि जिस दिन मिलेगी उस दिन बड़ा सुख होगा। यही उम्मीद है ना? कि जिस दिन सफल हो जाएँगे उस दिन बड़ा सुख होगा।

लेकिन मैं तुमसे कह रहा हूँ कि जिस दिन तुम्हें तुम्हारा लक्ष्य मिल गया, उस दिन तुम्हारा दिल टूट जाएगा, क्योंकि तुम्हें पता चलेगा कि इस लक्ष्य के पीछे भागकर तुमने सिर्फ जीवन व्यर्थ गंवाया है। तुमने जिस चीज़ को पूरी ऊर्जा दे दी, पूरा समय दे दिया वो किसी काम की नहीं थी, उसमें कोई काबिलियत नहीं थी, फ़ालतू ही दौड़े उसके पीछे। यही हश्र हुआ है उन सभी लोगों का जिनको तुम आज दुनिया के बड़े सफल लोग कहते हो। तुम दूर से देखते हो इसलिए तुम्हें पता नहीं है, पर उनकी पीड़ा असफलता की पीड़ा से कहीं ज़्यादा गहरी है। असफलता की पीड़ा तो कुछ भी नहीं होती। मैं तुमसे कह रहा हूँ, सफलता की पीड़ा बड़ी गहरी पीड़ा होती है। असफलता तो उम्मीद दे कर जाती है कि इस बार असफल हुए हैं पर किसी और दिन कामयाब हो सकते हैं, सफलता के बाद तो कोई उम्मीद ही नहीं बचती। तुम कहते हो, ‘लो, जो माँगा था वो मिल गया, मिल गया और कुछ नहीं मिला। मेरे तमाम मालिकों ने मुझे सिखाया कि रूपया-पैसा इकट्ठा कर लो, मिल गया, पर कुछ नहीं मिला। आग लगा दो ऐसे रूपए में। मेरे तमाम मालिकों ने मुझे सिखाया कि इज्ज़त खूब इकट्ठा कर लो, मैं बड़ा इज्ज़तदार हूँ, पर थूकता हूँ इस इज्ज़त पर। मुझे जो कुछ भी सिखाया गया जो पाने योग्य है, जब तक नहीं पाया था तब तक भी दुःख था, और जब पा लिया है तो परम दुःख है’।

ये होता है लक्ष्यों के पीछे दौड़ने वालों का अंजाम। जब तक नहीं पाया, दुखी रहते हैं क्योंकि पाया नहीं, और जब पा लेते हैं तो परम दुखी हो जाते हैं। इसलिए तुम पाओगे कि अधिकांश लोग वृद्धावस्था में जाकर चिड़चिड़े हो जाते हैं क्योंकि उन्हें अपने पूरे जीवन की व्यर्थता साफ़-साफ़ दिखाई देने लगती है। तुम बहुत कम वृद्धों को पाओगे की वो अब भी बच्चों की तरह मासूमियत से मुस्कुरा सकते हों। उनके भीतर कटुता, कड़वाहट और हार की खीज भर जाती है। ऐसा होना चाहते हो? तुम भी चाहते हो कि चालीस-पचास साल दौड़ो और फिर कहो कि क्या मूर्खता की। और फिर कुछ कर नहीं सकते, बड़ा भयानक क्षण होता है, क्योंकि जीवन तो गया, अब लौट कर नहीं आएगा। इसी को कबीर कह गए हैं ना,

हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाए।

कौड़ियों के पीछे दौड़ते-दौड़ते हीरे जैसा जनम गँवा दिया। याद रखना तुम्हारे सब लक्ष्य दूसरों ने दिए हैं, इसलिए वो कौड़ी बराबर हैं, इसलिए उनकी कोई कीमत नहीं है। तुम्हारे सारे लक्ष्य बाहरी हैं। एक ही लक्ष्य हो सकता है जीवन का- अपने तक वापिस आ जाना। ऐसे चलो कि अपने को पा लो, ऐसे जियो कि उसमें तुम्हारी पूरी मालकियत रहे, किसी के गुलाम बनकर नहीं; न परिस्थितियों के, न घर के, न समाज के, न धर्म के, न मीडिया के, न राजनीति के, न शिक्षा के, न आदर्शों के, न संस्कारों के; किसी के गुलाम बनकर नहीं। अपनी चेतना से जियो। ध्यान साधो, और अपनी जाग्रति में जो उचित लगे वो करो। वहां पर कोई लक्ष्य नहीं हो सकता, वहां तो बस प्रतिपल की चेतना हो सकती है। अभी तक जो किया, सो किया, और फिर देखना कि वो जुनून जिसकी तुम बात कर रहे हो, वो मिला रहता है या नहीं। जुनून ही नहीं रहेगा, एक नशा सा रहेगा, सुरूर। ऐसे मस्त रहोगे कि पूछो मत, लोगों को ईर्ष्या होगी तुमसे।

‘ये इतना खुश किस बात पर रहता है, अकारण ही खुश रहता है, हम तनाव में मरे जा रहे हैं कि ये हासिल करना है और वो हासिल करना है और ये मगन रहता है। हमें इसके पास कुछ दिखता नहीं, इसने कुछ रूपए नहीं कमाए, बहुत पैसे नहीं कमाए, इसका घर बहुत बड़ा नहीं है, पर फिर भी इसकी आँखों में कुछ है जो छलकता सा रहता है। यह आनंद है, गहरी तृप्ति, जो हमें नहीं मिलती। बड़े से बड़े अमीरों को नहीं मिलती, बड़े नेताओं को नहीं मिलती, बड़े व्यापारियों को नहीं मिलती। इसको कैसे मिल जाती है?’ और तुम कहोगे, ‘तुम भी मस्त हो जाओ मेरी तरह, तुम्हें भी मिल जाएगी। तुम जब तक भाग रहे हो लक्ष्यों के पीछे, तुम्हें कुछ नहीं मिल पाएगा। भागना छोड़ो, जीना शुरू करो। फिर देखो जुनून रहता है या नहीं। बड़ा गहरा जुनून रहेगा। यूँ बोझिल, उदास, लटके नहीं रहोगे। चलोगे तो कुछ और ही बात रहेगी चलने में। हंसोगे, उठोगे, बैठोगे, कुछ और ही रहेगा मामला, अलग ही चमकोगे और उस चमकने का कोई कारण नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि तुम्हें कोई ख़ास मिल गया है। अकारण चमकोगे, इसलिए वो चमकना और भी अद्भुत है, कि बिना वजह चमक रहे हो। कोई सोचे कि वजह पता लगा लूँ तो पायेगा ही नहीं, क्योंकि अगर वजह होगी तो वजह हट भी सकती है, जब वजह है ही नहीं तो वजह हटेगी नहीं। तो इसलिए कोई अंत नहीं हो सकता उस जूनून का क्योंकि उसकी कोई वजह ही नहीं है। उसकी एक ही वजह है- होना। हैं, तो मस्त हैं। कबीर का एक दोहा है इसी पर,

मन मस्त हुआ फिर क्या बोलें, क्या बोलें फ़िर क्यों बोलें,

हीरा पायो गाँठ गठियाओ बार-बार वाको क्यों खोलें|

अब बोलना कैसा? हीरा मिल गया है। अपने हीरे को पा लिया है, बाहर के हीरों के पीछे भागने का दिल ही नहीं करता। जिसको अरबों मिल गए हों वो सौ, दो-सौ के पीछे क्यों भागेगा? फिर रहेगा जुनून। अक्षय संपदा मिली है कि बाँट रहा हूँ सबमें, सबको दे रहा हूँ, पर फिर भी कम नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। परिस्थितयों से अंतर नहीं पड़ता, दुःख आते हैं, सुख आते हैं, सर्दी आती है, गर्मी आती है, हम मस्त ही रहते हैं। हमारे साथ ऐसा नहीं होता ना? परिस्थितयां बदलती हैं, हमारा मौसम भी बदल जाता है। ऐसा ही होता है ना? तुम गुलाम हुए फिर परिस्थितियों के।

श्रोता १: सर, इससे दूर कैसे रहा जाए?

वक्ता: गुलामी तुम्हारा स्वभाव नहीं है, गुलामी तुमने सीखी है। जो सीखा है उसे अनसीखा भी किया जा सकता है। तुमने ये गुलामी महनत कर-करके अर्जित की है। ये तुम्हें मिली नहीं थी। ये तुमने कोशिश कर कर के बेड़ियाँ इकट्ठी की हैं, पूरी महनत से। जब खुद इकट्ठा की हैं तो खुद ही छोड़ भी तो सकते हो।

श्रोता २: मजबूर हैं, सर।

वक्ता: जब भी कहते होना कि मजबूर हूँ, ध्यान से देखना वहां मजबूरी नहीं है, तुम्हारी पूरी-पूरी सहमती है। बिना तुम्हारी रज़ामंदी के तुम्हें कोई विवश कर ही नहीं सकता क्योंकि विवशता जैसा कुछ होता नहीं है। तुम अगर कहते हो कि तुमने बेड़ियाँ पहन रखी हैं, तो बेड़ियाँ किसी ने डाली नहीं हैं, तुमने अपनी स्वतंत्रता का सौदा किया है। तुमने कहा है कि मुझे कुछ छोटी-मोटी सुविधाएं मिल जाएं और उनके बदले में मैं बेड़ियाँ पहनने को तैयार हूँ। कुछ तुच्छ चीज़ों के पीछे तुम ख़ुद व्यापर कर देते हो। ये मत कहो कि मजबूर हूँ, क्योंकि मजबूरी कुछ होती नहीं है। तुम कहते हो मजबूर हूँ, मजबूरी नहीं है, सौदा है। और सौदा बड़े घाटे का है, कौड़ियों के पीछे तुम हीरा बेचे दे रहे हो। ज़रा-सी सुरक्षा मिली रहे, एक छत मिली रहे, कुछ रूपए-पैसे मिलते रहें, लोगों से सम्मान मिलता रहे, इसके पीछे तुम अपनी आत्मा का सौदा करे बैठे हो। जिस दिन चाहोगे उस दिन ये सौदा करना बंद कर दोगे। लेकिन उसी दिन बंद करोगे जिस दिन तुम्हें समझ में आएगा कि बड़े नुकसान का है ये। तुम ध्यान से देखना कि कौन तुम्हें मजबूर कर सकता है। वही जिस से तुम्हें कुछ मिल रहा हो। उसी मिलने के लालच में तुम उसके सामने बंधक बने रहते हो, तुम उससे लेना बंद कर दो, वो तुम्हारा मालिक नहीं रह सकता। तुम जब तक लिए जा रहे हो, वह तुम्हारा मालिक रहेगा ही रहेगा।

जीवन में लोग हैं जो व्यर्थ शोर मचाये रहते हैं, जिनका होना जीवन में और कोई औचित्य नहीं ला रहा है। सिर्फ इतना-सा है कि वो घुसे हुए हैं। तुमने क्यों घुसा रखा है उन्हें? तुम उन्हें घुसाए रहोगे अगर तुम्हें उनसे कुछ चाहिए। कहो, ‘नहीं चाहिए तुम्हारी तालियाँ, नहीं चाहिए तुम्हारा अनुमोदन, नहीं चाहिए कि तुम कहो कि सर बहुत अच्छा बोल रहे हैं’। तुम कहोगे, ‘महाशय, तशरीफ़ ले जाएं’। आपकी कोई जगह नहीं मेरी ज़िन्दगी में, क्योंकि अगर आप हो भी तो आपकी वजह से दूसरों के साथ अन्याय हो रहा है। चार और लोग हैं जिनसे मैं और बातें प्रेम की कर सकता हूँ, शांति में, मैं उनसे भी नहीं बात कर पा रहा तुम्हारी मौजूदगी में’।

पर हम भूखे हैं, हम भूखे हैं कि कोई कह दे कि हम बड़े अच्छे हैं, हम भूखे हैं कि हमें किसी से दो पैसे मिलते रहें। तो अगर वो तुम्हारे सर चढ़कर बैठता है तो इसमें अचम्भा क्या है? क्यों झेल रहे हो और किस दिन के लिए झेल रहे हो किसी को? एक ही ज़िन्दगी है और भारत की जो औसत आयु है, जिस हिसाब से लोग जीते हैं, उस हिसाब से तुम एक-तिहाई तो जी चुके। तो जीने को अगर तीन-चार दिन मिले थे तो एक दिन तो बीत गया, तुम किस दिन के इंतज़ार में बेहुदों को झेले जा रहे हो? तुम ये भी कहो कि मैं सुनहरे भविष्य की आशा में वर्तमान का सौदा कर रहा हूँ तो वह भविष्य आएगा कब मुझे ये बता दो। कब आएगा? किसी भी दिन कोई रोड एक्सीडेंट, और अब तो तीस-पैंतीस की उम्र में हार्ट-अटैक होने लगे हैं। तुम अमर होकर आये हो?

तुम किस विशेष दिन की आशा में जी रहे हो, ये बता दो। और कैसे तुम्हें पक्का पता है कि उस दिन तक तुम पहुँच रहे हो।उपलब्ध तुम्हें आज का ही दिन है, पर आज के दिन का तुम सौदा कर देते हो और तुम्हें यही सिखाया गया है, ‘वर्तमान की क़ुरबानी दे दो एक सुनहरे भविष्य के लिए, आज की बलि चढ़ा दो ताकि कल सुन्दर हो’।और वो कल कब आना है, ठीक-ठीक बताओ? एक-तिहाई ज़िन्दगी तो गुज़ार दी तुमने, अब वो कल आना कब है? तुम एक ऐसी मूवी को देख रहे हो जो दो घंटे की है, डेढ़ घंटा बीत गया, पर उसमें कोई आनंद अभी आ ही नहीं रहा, पर तुम लगे हुए हो। ख़त्म हो जाएगी। क्या इंतज़ार कर रहे हो?

नहीं सर, हमें ये बताया गया है कि आदमी के लाखों जन्म होते हैं, हम अगले की तैयारी कररहे हैं, ये वाला तो सिर्फ रिहर्सल है। इस जन्म को तो हम रिहर्सल में गुज़ार देंगे, ये नेट प्रैक्टिस चल रही है। जो अबसे आठवाँ-नौवाँ जन्म होगा वो असली मैच होगा, उसमें छक्के लगाएँगे।

-‘संवाद’ पर आधारित । स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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