अच्छे-बुरे का अंतर कैसे करें?

Acharya Prashant

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अच्छे-बुरे का अंतर कैसे करें?

श्रोता: सर, हमारा मन बुराइयों को बहुत जल्दी स्वीकार करता है और अच्छाइयों को बहुत देरी से स्वीकार करता है। ऐसा क्यों? ऐसा क्या अंतर है इन दोनों में?

वक्ता: हम अच्छाई को देर से क्यों स्वीकारते हैं? बुराई की तरफ क्यों भागते हैं? मन बुराई की तरफ क्यों आकर्षित रहता है, क्यों सोख लेता है और अच्छाई से क्यों बचता है?

बेटा, इस बात में तथ्य नहीं हैं। अगर तुम ध्यान से देखो तो हमने जिसको अच्छा-बुरा कह रखा है, मन दोनों को ही स्वीकार करने को तत्पर रहता है। बल्कि दोनों को समान परिमाण में लेने को तैयार है। तुम ठीक उतनी ही अच्छाई को स्वीकारते हो, जितनी कि बुराई को स्वीकारते हो। बात सुनने में अजीब लग रही है ना।

कौन आदमी कितनी अच्छाई को स्वीकार रहा है ये बिलकुल इसपर निर्भर करता है कि वो बुराई को भी कितना सोख ले रहा है। क्योंकि अच्छाई और बुराई, जिनको हम कहते हैं वो एक ही द्वैत के दो सिरे हैं। दो ऐसे विपरीत हैं जो एक दूसरे के बिना चल नहीं सकते। उदाहरण के लिए, तुमको मीठे वचन बोलने की ज़रूरत ही तब पड़ेगी, जब तुमने पहले कड़वे खूब बोल दिए हों।

कभी तुमने देखा है कि तुम सबसे ज्यादा मीठा कब बोलते हो? जब तुमने किसी को चोट पहुँचा दी है और अब तुम्हें उसे सांत्वना देनी है, उसे वापस लाना है। मीठा बोलने की ज़रूरत ही इसीलिए है कि कड़वा बोल दिया गया है।

सबसे ज्यादा पुण्य किनको करने पड़ते हैं? दान दो, गंगा नहाओ; जो सबसे पापी होते हैं। अब इतना पाप इकट्ठा कर लिया है तो पुण्य तो करना पड़ेगा ना। बात समझ रहे हो?

ऐसे समझो कि ये पीछे मेरे जो पृष्ठभूमि है, ये किस रंग की है? सफ़ेद है ना? इसपर अगर मैं सफ़ेद से ही कुछ लिख दू तो क्या तुम्हें दिखाई देगा? सफ़ेद पर तुम्हें दिखाई ही सिर्फ काला देगा ना। काले के होने के लिए सफ़ेद का होना जरुरी है। सफ़ेद के होने के लिए काले का होना जरुरी है, नहीं तो सफ़ेद और काला दोनों मिट जाएंगे।

अगर सबकुछ मात्र सफ़ेद ही सफ़ेद हो, तो तुम्हें सफ़ेद का भी आभास नहीं होगा। सफ़ेद का आभास होता ही इसीलिए है क्योंकि एक सीमा है सफ़ेद की और उस सीमा के पार काला है। अगर कोई सीमा ना हो सफ़ेद की, सिर्फ सफ़ेद ही सफ़ेद हो, तो तुम्हें सफ़ेद दिखाई ही नहीं देगा।

हम जिनको अच्छाई कहते हैं, हम जिनको बुराई कहते हैं, ये दोनों ही मन की निर्मित्तियाँ हैं। इनको हमने ही बनाया है। और ये हमारे अहंकार को बनाये रखने में सहायक हैं। ये कोई दैवीय आदेश नहीं हैं। ये तो हमारी ही अपनी परिकल्पनाएँ हैं जिनको हमने अपने ऊपर ही लाद लिया है नैतिकता बना के। हम कहते हैं जो अच्छा है वो करो और जो बुरा है वो ना करो ।

कभी तुमने गौर किया कि आज जो अच्छा है वो कल बुरा हो जाता है? कभी तुमने गौर किया कि एक समाज में, एक देश में जो अच्छा है वो दूसरे में बहुत बुरा माना जाता है? कभी तुमने गौर किया कि एक ही स्थान पर जो कल अच्छा था आज बुरा है? एक धर्म में जो बहुत अच्छा माना जाता है वो दूसरे धर्म में बहुत बुरा है।

तो ये अच्छा बुरा क्या है? ये तो आदमी के मन के उत्पाद हैं। कभी तुम्हारा मन आता है तो किसी चीज़ को अच्छा बोल देते हो। कभी तुम्हारा मन आता है तो किसी चीज़ को बुरा बोल देते हो। इस अच्छे-बुरे में रखा क्या है? और तुम अच्छे को भी खूब सोखते हो। ऐसी बात नहीं है तुम अच्छा नहीं करते। तुम देखो कितने लोग तीर्थ यात्राओं पर जाते है, कितने लोग हज करने जाते हैं; अच्छे काम ही तो कर रहे हैं। तुम देखो कुम्भ के मेले में क्या होता है। वो सब अच्छे काम ही तो करने गए हैं, इसी को तो तुम अच्छा बोलते हो ना। सब अच्छे काम ही तो कर रहे हैं।

अच्छा करने वालों की कोई कमी नहीं है। तुम दुनिया भर के परिवारों में देखो क्या चल रहा है, वो अच्छे काम ही तो करना चाहते हैं। हर माँ–बाप अच्छा काम कर रहे है। क्या? वो अपने बच्चों को संस्कारों से भर रहे है। अपनी तरफ से तो अच्छा ही काम कर रहे है और बताया भी यही गया है। और ये अच्छे काम करते-करते ही दुनिया आज विनाश के कगार पे खड़ी हो गयी है।

अच्छा करने वालों की कोई कमी थोड़े ही है । *डू गूडर्स*– एक खोजो, हज़ार मिलेंगे। तुम किसी से सलाह लेने जाओ, मुश्किल ही है कि कोई तुम्हें मना कर दे कि मैं नही जानता, मैं तुम्हें सलाह नहीं दे सकता। हर कोई आतुर है तुम्हारी मदद करने को, तुम्हारे लिए कुछ अच्छा कर देने को। वो तुम्हें सलाह दे देंगे। लोग ऐसे भी है जिनसे तुम रास्ता पूछो, उन्हें खुद रास्ता नहीं पता पर तुम्हें बता देंगे। उन्हें बड़ी कोफ़्त होगी ये कहने में कि मैं जानता नहीं भाई खुद खोज ले। अच्छा करने को आतुर हैं।

तो पहली बात जो तुमने बोला कि मन अच्छाई से बचता है और बुराई की ओर भागता है, वास्तव में ऐसा है नहीं। मन अच्छाई और बुराई की ओर एक ही परिमाण में भागता है। दोनों की ओर जाता है।

जो मन अच्छाई कि ओर नहीं जाएगा, वो बुराई कि ओर भी नहीं जाएगा।

मन तुम्हारा बुराई की ओर जाता ही इसीलिए है क्योंकि उसके विपरीत अच्छाई खड़ी हुई है।तुम कहते हो कि अच्छी बात ये है की कुछ कामों से बचो। इसको तुम क्या बोलते हो? अच्छी बात। तुमसे कहा गया है कि चोरी से बचो, हिंसा से बचो। तुमसे कहा गया है कामुकता से बचो। इनको क्या कहा गया है? ये सब क्या हैं? अच्छी बातें। और तुमने देखा है कि जितना तुम इन अच्छी बातों को करने की कोशिश करते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हारा मन करता है ये करने का। क्या तुमने ये नहीं देखा?

तुम एक दीवार पर लिख भर दो कि इस दीवार पर थूकना मना है। तुम्हें किसी दीवार को अगर लाल रंग से पोतना हो बिना पैसे खर्च किये तो तुम्हें इतना ही करना है कि इसपर लिख दो, ‘इस दीवार पर थूकना बुरी बात’। और फिर देखो।तुम जितना अच्छा काम करने कि कोशिश करोगे मन बिल्कुल उसके उतने ही विपरीत भागेगा।

मन ऐसा बच्चा है जिसपर जहाँ तुमने बंदिश लगाई, वो ठीक वहीँ जाना चाहता है।

इस दुनिया में तुमने जो कुछ वर्जित कर रखा है, क्या तुमने देखा नहीं कि मन सिर्फ़ वही-वही करना चाहता है। जो भी तुमने ढक रखा है, जिस पर भी तुमने निषेधाज्ञ लगा रखी है, मन उधर को ही भागता है। क्या तुमने ये देखा नहीं है? और जिस समाज में वर्जनाएँ जितनी ज्यादा होती हैं, उस समाज में कुकृत्य भी उतने ही ज्यादा होते हैं ।

अच्छा लाओगे जीवन में, बुरा साथ खिंचा चला आएगा। ये हमारी बड़ी से बड़ी भूल है कि हम सोचते हैं कि बिना बुराई को लाए, अच्छाई लाई जा सकती है। ये हमारी उतनी ही बड़ी भूल है कि जैसे हम सोचें कि हम एक सिक्का लाएंगे जिसमे सिर्फ़ एक चेहरा होगा और जैसे कि सिक्के के दुसरे पक्ष से बचा जा सकता हो। ये संभव नहीं है। बिलकुल संभव नहीं है।

अच्छा-बुरा साथ है, परिपूरक हैं एक दूसरे के; पूरक हैं। ये बात आ रही है समझ में?

तो सवाल फिर ये होना चाहिए कि क्या अच्छे बुरे के आगे भी कुछ है, जिसपर जिंदगी जी जा सकती है। नैतिकता ने तो हमें इतना ही सिखाया है कि जीवन का उद्देश्य है एक अच्छा जीवन जीना। हमें यही बताया गया है ना। और अच्छा जीवन जीने का अर्थ क्या है– प्रेम करो, सदाचारी रहो, आज्ञापालक रहो, हिंसा ना करो, सत्य बोलो; यही सब तो बताया गया है। ये सब अच्छी बातें हैं ना? और अंत में हमसे कहा जाता है कि ये सब करोगे तो सुख मिलेगा। अच्छाई का फल, सुख। बुराई का फल, दुःख।

प्रश्न ये उठता है कि क्या अच्छाई से आगे कुछ है? मैंने कहा अच्छाई-बुराई एक साथ चलते हैं। मतलब समझो। सुख और दुःख भी एक साथ चलते हैं। अच्छाई से सुख आना है, बुराई से दुःख आना है। क्या तुमने ये देखा कभी कि तुम सुखी हो नहीं सकते बिना दुखी हुए। और तुम जितने ज्यादा दुखी होते हो, अब तुम्हारे सुखी होने की संभावना उतनी बढ़ गयी है।

तुम खूब तनाव में हो। तुम्हारा कोई दोस्त अस्पताल में है। तुम खूब तनाव में हो। पता नहीं बचेगा कि नहीं बचेगा। रात भर तुम सो नहीं पाते। पसीने छूट रहे हैं। घड़ी घड़ी लग रहा है कि कहीं खबर ना आ जाए की चला गया और सुबह तुम डॉक्टर के पास जाते हो और वो तुमसे कहता है कि अब ये खतरे से बाहर है। तुम नाचने लग जाते हो; बहुत सुख मिलता है।

ये सुख तुम्हें क्यों मिला? क्या ये सुख तुम्हें मिलता, अगर रात भर तुम तनाव में नहीं होते? ये सुख मिला ही इसीलिए क्योंकि दुःख पहले था। दुःख जितना गहरा होगा, सुख उतना ही ज्यादा होगा और जैसे हमारी ये भूल रही है कि अच्छाई के पीछे भागे हैं ये जाने बिना की अच्छाई, बुराई के बिना आ नहीं सकती उसी तरीके से हमारी और गहरी भूल ये रही है कि हम सुख के पीछे भागे हैं ये समझे बिना कि सुख, दुःख के बिना आ नहीं सकता। तुम्हें अगर खूब सुखी होना है तो तरीका बड़ा सीधा है, खूब दुखी हो जाओ। खूब दुखी हो जाओ।

तुम मत पियो पानी अड़तालीस घंटे तक। और फिर अड़तालीस घंटे के दुःख के बाद जब तुमको पानी मिलेगा तो तुमको ऐसा लगेगा कि अमृत मिल गया; इतना सुख। कोशिश करके देख लो। और जिसे पानी मिला ही जा रहा है उसे पानी में क्या सुख है। कोई सुख मिलेगा ही नहीं। सुखी होने का तो एक मात्र तरीका है कि पहले दुखी हो जाओ। पर हमारी मूढ़ता ये यही रही है कि हम आशीर्वाद भी यही देते हैं की, सुखी रहो। उनसे पूछो, “पागल हो गए हो? कर क्या रहे हो तुम? सुख, बिना दुःख के आ सकता है क्या?” और हम आशीर्वाद देते है, ‘अच्छे इंसान बनो’। उनसे भी कहो, “जान लोगे क्या मेरी? अच्छाई के बिना बुराई क्या आ सकती है?”

अच्छाई और बुराई से हट कर कुछ और भी है। नैतिकता से हट कर कुछ और भी है। उसे ‘बोध’ कहते हैं। उसे जानना कहते हैं। वहाँ अच्छा–बुरा कुछ नहीं होता। वहाँ ये नहीं होता कि, ये काम अच्छा है और ये काम बुरा है। वहाँ तो बस उचित-अनुचित होता है। और जो अभी उचित है वो थोड़ी देर में अनुचित हो जायेगा। तो तुम कैसे कहोगे की क्या अच्छा, क्या बुरा। वहाँ तो बस या तो अहंकार होता है, या बोध होता है; अच्छा–बुरा नहीं। वहाँ ये नही होता की तुमने कसम खा रखी है कि मैं इस तरह की ही जिंदगी जियूँगा क्योंकि ये अच्छी जिंदगी है। वहाँ तो ये होता है की जो अभी ठीक है वो थोड़ी देर में ठीक नहीं रहेगा।

प्रतिपल तुम्हें जागरूक रहना है और देखना है कि क्या ठीक है अभी। और जो ठीक है अभी, जो बात मेरे होश से निकल रही है, वही उचित है। अंतर समझना इन दोनों बातों का। जो आदमी अच्छे बुरे पर चलता है, उसने पहले ही तय कर रखा है कि ऐसे, ऐसे, ऐसे चलना है। और जो आदमी बोध पर चलता है, उसे कुछ पता नहीं है कैसे चलना है। वो तो प्रतिपल जानता है कि कैसे चलना है; नया जानता है, ताज़ा जानता है। पहले से नहीं जानता है।

उसको इसीलिए लगातार जगे हुए रहना होता है। क्योंकि जगे हुए नहीं हो तो तुम्हें पता कैसे चलेगा कि अभी क्या करे, कैसे जिए, अभी उचित क्या है। जो आदमी अच्छे–बुरे पे, नैतिकता पे चल रहा है, वो मज़े में सो सकता है। उसे पहले ही पता है क्या करना है। भाई बता दिया गया है ना, ये अच्छे काम हैं, ये बुरे काम हैं; अच्छे काम करने हैं, बुरे काम नहीं करने हैं। तो उसे तो पहले ही पता है। उसके लिए तो जिंदगी बेहोश चीज़ है। और जो दूसरा आदमी है जो अच्छे–बुरे पर नहीं चलता, उसके लिए जिंदगी का मतलब ही जागरण है। मैं प्रतिपल जगा हुआ हूँ और तय कर रहा हूँ कि अभी क्या ठीक है। जो उसके लिए ठीक है वो ज़रूरी नहीं कि वो मेरे लिए ठीक हो। मेरे लिए ही एक क्षण पहले जो ठीक था, अब जरुरी नहीं है कि वो ठीक हो। सब कुछ नया है। जब सब कुछ नया है तो पुरानी धारणाओं पर कैसे चल सकता हूँ।

हर क्षण, जीवन जब मेरे सामने आ रहा है, वो पहले तो कभी नहीं आया था ना। प्रतिक्षण सब कुछ नया ही है। क्या किसी ने कोई भी क्षण दोबारा जिया है? जब सब कुछ नया है तो अच्छे–बुरे की धारणा पुरानी कैसे चल सकती है? जब हर कदम नया है तो हर कदम पर ये नए रूप में ही तय करना होगा कि अब किधर को जाना है; जाना भी है की नहीं जाना है।

ये बोध का जीवन है। इसमें अच्छा–बुरा कुछ नहीं। जिसको भी तुम बेटा अच्छा कहोगे, जिसको भी तुम बुरा कहोगे, फँस जाओगे।

तुम अगर कहोगे कि शांति बहुत अच्छी बात है, और मैं उस शांति की बात कर रहा हूँ जिसको तुम युद्ध के विपरीत में इस्तेमाल करते हो। तुम अगर कहोगे कि नहीं, नहीं, नहीं, हमें सिखाया गया है कि शांति बहुत अच्छी बात है और युद्ध बहुत बुरी बात है; फँस जाओगे। क्योंकि जिंदगी में ऐसे मौके आते है जब शांति बुरी होती है और युद्ध अच्छा होता है। युद्ध ही उचित है। लेकिन अगर तुम्हें सिखा दिया गया है कि लड़ाई बुरी है, लड़ाई बुरी है, तो फिर जिस दिन जिंदगी तुम्हें चुनौती दे रही होगी कि आओ लड़ो और अभी लड़ना ही उचित है, उस दिन तुम लड़ नहीं पाओगे। फँस गए ना।

अच्छे–बुरे पर चलने वाले आदमी का यही हश्र होता है। वो फँस जाता है।

पूरी गीता और क्या है? कृष्ण, अर्जुन को क्या कह रहे हैं? लड़ो, ये मौका हथियार रखने का नहीं, हथियार उठाने का है। लड़ो। और दुसरे मौके आते है जब कहना पड़ता है- “अभी अगर लड़ें तो हिंसा हो जाएगी, शांत रहो।” अब कैसे तय करें कि कब लड़ें और कब शांत रहें?

जीवन में सभी विपरीतों की जगह है– काले की भी जगह है, सफ़ेद की भी जगह है, शांति की भी जगह है और युद्ध की भी जगह है। और ये बात तुम्हें सिर्फ बोध बता सकता है कि कब लड़ना है और कब नहीं लड़ना है। जो आदमी अच्छे–बुरे पर चलेगा वो कहेगा, “या तो हमेशा लड़ना है, या हमेशा नहीं लड़ना है”। क्योंकि अच्छा और बुरा तो उसकी दुनिया में अपरिवर्तनीय है। बात समझ रहे हो ना।

जिंदगी में समस्त द्वैतों के लिए जगह है। जीवन पूर्ण है। जीवन देने का भी समय आता है, जीवन लेने का भी समय आता है। चलने का भी समय है और बैठे रहने का भी समय है। तुम कैसे कहोगे कि कुछ अच्छा है और कुछ बुरा है? अभी तुम मौन होकर के सुन रहे हो। थोड़ी देर में वो समय आएगा जब मैं कहूँगा कि अब, तुम बोलो। अब, हम कैसे घोषणा कर दें कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है?

अगर हम कहें बोलना अच्छा है, तो अभी जो तुम कर रहे हो वो बुरा हो गया क्योंकि अभी तुम चुप बैठे हो। क्या अच्छा, और क्या बुरा। सबकुछ अपने स्थान पर उचित है। जो अपने स्थान पर नहीं है वही अनुचित है और जीवन में सबकुछ के लिए स्थान है। कुछ भी ऐसा नहीं है जो जीवन से बाहर हो। जीवन के रचनाकार ने कुछ भी इसीलिए बनाया ही नहीं है की वो त्याज्य रहे, कि वो अस्वीकार्य है। सब कुछ की अपनी जगह है।

एक स्थिति ऐसी भी आएगी जब तुम कहो, “बिल्कुल, इच्छा है और पूरी होनी चाहिए”। उचित है कि इच्छा पूरी की जाए। और एक स्थिति ऐसी भी हो सकती है, जब तुम देखो कि ये इच्छा कहीं से भी करणीय नहीं है; इसको छोड़ो। अब तुम कैसे कहोगे कि इच्छा को पूरा करना अच्छा है की बुरा है। अगर तुमने ये व्रत ले रखा है कि इच्छाएँ बुरी होती हैं, तो भी फंसोगे। और अगर तुमने ये संकल्प ले रखा है कि इच्छाएँ पूरी करनी चाहिए, तो भी फंसोगे। अरे कभी पूरी करनी होती हैं, कभी पूरी नहीं करनी होती हैं। ये बात तो उस समय की है, तुम्हारी जागरूकता की है। आ रही है बात समझ में?

कभी सोना उचित है, कभी उठना उचित है। क्या चौबीस घंटे आँखों को खुला रखोगे? नहीं ना! सदा तो कुछ भी नहीं। कभी एक सिरा ठीक है, कभी दूसरा ध्रुव उचित है। तुम लगातार नहाते नहीं रह सकते, तुम लगातार खाते नहीं रह सकते। नहाने की भी जगह है और खाने की भी जगह है। कोई कहता है नहाना अच्छी बात है। अच्छी बात है, तो फिर नहाते रहिये, बाहर ही क्यों आये? नहाना उचित है और नहाने को रोक देना भी तो उचित है ना। की नहीं उचित है? जवाब दो।

नहाना अच्छा है, बिल्कुल ठीक। नहाने को रोकना भी तो अच्छा है ना। और अगर नहाने को रोका नहीं तो जिंदगी कहाँ गुजारोगे? गुसलखाने में। तो, जो तुमसे बोलें कि नहाना अच्छा, उनसे ये पूछो कि नहाना ही अच्छा, या नहाने को रोकना भी अच्छा। फिर तो एकमात्र अच्छा जीव मछली है। वो नहाती ही रहती है। और उससे ज्यादा बदबू कोई नहीं मारता।

सुना है ना कबीर का, ‘मीन सदा जल में रहे, धोए बास ना जाए’। कुछ भी सदा कहाँ एक जैसा है। और झूठ बोलने तक की भी जगह है। कोई अगर तुमसे कहे कि ना, झूठ बोलने की कोई जगह नहीं; बिल्कुल है। और चोरी तक की जगह है, बिल्कुल है। ये बात जरा खतरनाक है। इसीलिए सुन कर के दिल थोड़ा दहलता है कि अरे चोरी ठीक है। हाँ, जीवन में मौके आते हैं जब चोरी ठीक है। चोरी ही ठीक है। उस क्षण, अगर तुमने चोरी नहीं कि तो पाप है। चोरी करना ही उचित है। वही धर्म है। और जीवन में मौके आते हैं जब झूठ बोलना ही उचित है। उस मौके पर अगर तुमने झूठ नहीं बोला, तो अपराध है; झूठ बोलो। पर अच्छे और बुरे पर जिंदगी चलाने वाले इस बात को कभी समझेंगे नहीं। वो कहेंगे, “नहीं, नहीं, नहीं, झूठ क्यों बोल दिया?”। झूठ ही बोलना ठीक था इसीलिए बोल दिया। ये बात हम बड़े होश से कह रहे हैं की झूठ ही बोलना ठीक था। हमने कोई वासना के मारे झूठ नहीं बोला है। बोध में झूठ बोला है। और मैं तुमसे कह रहा हूँ, तमाम तुम्हारे बुद्ध पुरुष हुए हैं, संत हुए हैं और इन्होंने झूठ खूब बोले हैं। क्योंकि झूठ ही तो बोलना उचित था उस समय, और क्या करते। हाँ, इनके झूठ सस्ते झूठ नहीं थे। इनके झूठ इसीलिए नहीं बोले गए थे कि अपनी दो कौड़ी की इच्छा पूरी कर ली जाए। इनके झूठ इसीलिए बोले गए थे क्योंकि अस्तित्व के साथ एक थे। दैवीय झूठ थे इनके। आ रही है बात समझ में? न अच्छा, न बुरा। भूल जाओ वो सब जो मन में घुसा हुआ है कि ये अच्छा है, ये बुरा है। देखो ध्यान से जिंदगी को, और फिर खुद ही समझ जाओगे की क्या उचित है। जो उचित है वही अच्छा है। जो उचित है वही अच्छा है। पर उसको पकड़ नहीं पाओगे, उसको लिख नहीं पाओगे, उसको पत्थर की लकीर नहीं बना पाओगे। क्योंकि वो बदलता रहता है।

श्रोता: सर, जो मुझे उचित लग रहा है, हो सकता है कि वो आपको अनुचित लगे?

वक्ता: मेरे लगने से क्या फर्क पड़ेगा?

श्रोता: सर, तो फिर जो मुझे उचित लग रहा है, जरुरी तो नहीं की वो सार्वभौमिक स्वीकार हो?

वक्ता: ना, बिल्कुल भी नहीं। तुम्हें स्वधर्म का पालन करना होता है, जो तुम्हारे लिए उचित है। फर्क क्या पड़ता है कि पूरी दुनिया और क्या सोच रही है। तुमने जाना ना। तुम अगर जान रहे हो कि ये चाय है और इसमें ज़हर है और पूरी दुनिया कह भी रही है कि तुम्हारे लिए उचित यही है कि पियो इसको, तो पिओगे? तुमने जाना ना। तुम तो उसपर चलो जो तुमने जाना।

हाँ, शर्त ये है कि तुमने जाना हो, तुमने गहराई से उतर कर के समझा हो। ऐसा नहीं कि तुम किसी और की आँखों से देख रहे हो, तुमने अपनी आँखों से देखा हो। तुम्हारी अपनी आँखे माने तुम्हारे अहंकार की आखें नहीं, तुम्हारे संस्कार की आँखें नहीं। तुम्हारी अपनी आँखें, तुम्हारा बोध। मैं शांत हुआ, मैं स्थिर हुआ, और उस स्थिरता में भीतर से अपने आप एक ज्ञान उठता है, वो बोध कहलाता है। वो ज्ञान कही से सुना सुनाया नहीं होता, वो समाज की आवाज़ नहीं होती। वो अपना होता है। और जब अपनी आवाज़ सुनाई देती है ना, उस वक़्त पक्का समझ लो कि तुम्हारे भीतर वो सवाल उठेगा ही नहीं जो अभी पूछ रहे हो। क्योंकि वो आवाज़ इतनी पक्की, इतनी ताकत देने वाली होती है कि तुम्हारे भीतर ये संशय रह ही नहीं जाता कि दूसरों की सुनूँ या अपनी करूँ ।

तुम जानते हो कि यही करना है क्योंकि यही उचित है, चाहे जान जाए। अब हम पीछे नहीं हट सकते। इतनी ताकत होती है उसमें। तुम्हें कोई रोक नहीं सकता। तुम्हें मार सकता है, तुम्हें रोक नहीं सकता।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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