प्रश्नकर्ता: आपसे जुड़े हुए तीन-चार महीने हुए हैं और मैं देख रहा हूँ कि यूट्यूब, फ़ेसबुक और दुनिया के जितने भी सोशल मीडिया माध्यम हैं, सभी पर आप मौजूद हैं और आपके पोस्ट्स भारी मात्रा में मौजूद हैं। आचार्य जी, मेरा सवाल है कि आप अगर सही हैं जो कि आप हैं तो लोगों को खुद ही आपके पास आना चाहिए न, आपको इतना प्रचार करने की क्यों ज़रूरत पड़ रही है?
आचार्य प्रशांत: हम किन बादलों पर जीते हैं? एकदम हवा-हवाई! ज़मीन से, यथार्थ से हमारा कोई सम्बन्ध है या नहीं है? प्रश्नकर्ता कह रहे हैं कि आपको अपनी बातों का, अपने संदेश का प्रचार क्यों करना पड़ता है? अगर ये बातें सही हैं, तो लोग खुद-ब-खुद आएँगे सुनने के लिए। ऐसा तुम्हारे अनुभव में है? दुनिया ऐसी है? ये पट्टी तुम्हें किसने पढ़ा दी, ये आदर्श तुम्हें किसने सिखा दिया? और इतने अंधे हो गये हो कहानियों और आदर्शों के सामने कि ज़मीन पर चल क्या रहा है, तुम्हें इसकी कुछ खबर ही नहीं है? एकदम आँख खोलकर देख नहीं पाते, या न देखने में ही तुमने कोई स्वार्थ जोड़ लिया है?
तुम कह रहे हो कि अगर आपकी बात सच्ची है, तो लोग खुद-ब-खुद आएँगे। अच्छा! चलो देखते हैं। बात तुम कर रहे हो सोशल मीडिया की और अन्य सब जो मीडिया हैं। मुझे बताना जो सब टॉप इन्फ़्लुएंसर हैं और जिनके भी सबसे ज़्यादा टॉप फ़ॉलोअर्स वगैरह हैं, वो सच्चे लोग हैं? बताओ न?
तुम्हें ये सपना आ भी कहाँ से गया कि सच्ची बातों की ओर लोग अपने आप आकर्षित होते हैं। तुम होते हो क्या अपने आप आकर्षित? जिन्होंने ये सवाल पूछा है, जो भी इनका नाम हो, ये खुद भी चैनल पर दो ही स्रोतों से आये होंगे। सम्भावना यही है या तो यूट्यूब पर हम जो विज्ञापन देते हैं, वो देखकर आये होंगे, या जो यूट्यूब पर शॉर्ट्स जाते हैं, वो देखकर आये होंगे।
जो असली सच्चे, खरे-खरे वीडियो हैं वेदांत पर, सत्य पर, मुक्ति पर, गीता पर, उपनिषदों पर, संतों पर, उनके तो चार-सौ व्यूज़ नहीं आते और तुम बता रहे हो, ‘लोग सच की ओर अपने आप खिंचे चले आते हैं।’ ये कौनसे लोग हैं?
पूरी पृथ्वी पर चार-सौ ही हैं ऐसे (श्रोतागण हँसते हैं)। कह रहे हैं, ‘सच को भी प्रचार की ज़रूरत पड़ने लग गयी।’ सच को ही प्रचार की ज़रूरत पड़ती है, झूठ तो खुद ही आकर्षित करता है। कि नहीं करता है? हलवा-कचौड़ी की दुकान हो, और बगल में बेल का शर्बत हो या नीम के लड्डू हों, किसकी तरफ़ जाओगे बेटा? कहाँ पर दुकान के सामने बहुत लम्बी कतार दिखाई देगी?
श्रोतागण: हलवा-कचौड़ी की दुकान की ओर।
आचार्य प्रशांत: और साहब फरमा रहे हैं कि अगर आप सच्चे हैं तो आपको प्रचार की क्या ज़रूरत। कोई गन्दगी उछाल दो उसके पीछे कतार लग जाती है, क्योंकि हमें भरोसा दिला दिया गया है कि हम मक्खियाँ हैं। गन्दगी देखी नहीं कि झपट पड़ते हैं। सफ़ाई हमको जानलेवा लगती है। मक्खी को फिनाइल की गन्ध कैसी लगती है? वैसे ही लोगों को हमारे चैनल के वीडियो लगते हैं। तो उनको फिर घेरना पड़ता है। और काहे के लिए अन्यथा लोगों से योगदान माँगते हैं, डोनेशन (अनुदान) माँगते हैं? छोटी-सी संस्था है। सबसे ज़्यादा खर्चा होता किस चीज़ में है? सबसे ज़्यादा खर्चा होता है लोगों को सुनाने में। तुम स्थिति की भयावहता देखो। इस युग की इतनी ये भयानक स्थिति है कि हम लोगों को पैसे दे-देकर ज़बरदस्ती सुनवा रहे हैं कि सुनो।
हाँ, वो सुन लेता है। उसके बाद हो सकता है कुछ लोग नियमित रूप से सुनना शुरू कर दें। लेकिन वो सुनें, पहली बार सुनें इसके लिए संस्था बहुत सारा पैसा खर्च करती है, और इसी में लगता है। क्योंकि न तो सोशल मीडिया के एल्गोरिदम (कलन विधि) डिज़ाइन हैं स्पिरिचुअल कंटेंट (आध्यात्मिक सामग्री) को प्रोमोट करने के लिए। स्पिरिचुअल भी क्या बोलूँ, स्पिरिचुअल भी हो जाता है अपने आप अगर उसमें भूत-प्रेत और जादू-टोना और कद्दू के रस की बात हो तो वो अपने आप आगे बढ़ जाता है। लेकिन कोई यथार्थ बात हो तो...।
इंस्टाग्राम देखा है? अभी खोलकर देखना उसकी फीड में, आप कोई भी हों, आपकी फीड में क्या आ रहा होगा? और दनादन एक के बाद एक। और उसके बीच में मेरा थोबड़ा (श्रोतागण हँसते हैं); वो बर्दाश्त करेगा? वो बर्दाश्त नहीं करेगा, तो इंस्टाग्राम डाउन हो जाएगा। तो इंस्टाग्राम क्यों मेरी बातों को प्रमोट करेगा? उनको पैसा देना पड़ता है। तब जाकर के वो, वो जो फ़ीड चल रही होती है कभी ऊपर के उभार की, कभी नीचे की उभार की, उसके बीच में ये (आचार्य प्रशांत) सामने आ जाता है। और चमत्कार ये है कि तब भी कुछ लोग सब्सक्राइब कर लेते हैं। हममें से बहुत लोग तो छोड़कर निकल जाते हैं, अनसब्सक्राइब करते हैं।
आप सब भी ऐसे ही आये हो यहाँ पर। जिन्होंने सवाल पूछा है, वो खुद भी ऐसे ही आये हैं। तब भी ऐसा सवाल पूछ रहे हैं, तो मैं क्या बताऊँ? इसमें न कोई शर्म की बात है, न कुछ छुपाने की बात है। दो-हज़ार-अट्ठारह के अन्त तक चैनल के तीन-हज़ार, पाँच-हज़ार सब्सक्राइबर रहे होंगे। आप समझ रहे हो? दो-हज़ार-अट्ठारह का अन्त भी नहीं, दो-हज़ार-उन्नीस के अक्टूबर तक दस-हज़ार, पन्द्रह-हज़ार सब्सक्राइबर थे बस। बाकी सब कोई ऐसा थोड़े ही हुआ है कि दुनिया अचानक स्वर्ग बन गयी है, तो लोग टूट पड़े और मिलियन कर दिये हैं। ये लोग नहीं टूट पड़े हैं, अन्धाधुन्ध पैसा लगा है उसमें। लोगों का बस चले तो रिपोर्ट कर-करके चैनल बैन करवा दें।
ये बातें सुनना कौन चाहता है? ये ठूँसा जा रहा है लोगों को। पूछते हैं, ‘आप तो एड बहुत देते हैं?’ भाई! एक एड इसलिए दिया जाता है ताकि कोई माल हो जो बिक जाए। ये दूसरी तरह का है, यहाँ पर जो माल है वही विज्ञापन है। इतनी खुली बात आपको दिखाई नहीं पड़ रही है? वो जो प्रचार में आपके सामने विज्ञापन आता है, उसमें ये कहा जाता है, ‘आचार्य प्रशांत को सुनो बहुत महान व्यक्तित्व है’? ये बोला जाता है? या पूरा वीडियो ही सीधे रख दिया जाता है, ‘लो देखो।’
तो तुम्हें पैसे देकर के कहा जा रहा है, लो वीडियो देखो। लो वीडियो देखने के बीस रुपये लोगे, लो देखो। बीस-बीस रुपये एक-एक वीडियो को देखने के दिये जा रहे हैं। और ये कहते हैं, ‘प्रचार क्यों कर रहे हैं?’ नहीं करते, हमारा क्या जाता है? तुम तक बात नहीं पहुँचेगी बस। हम तक तो पहुँचनी थी तो पहुँच चुकी है। प्रचार नहीं करेंगे तो तुम तक नहीं पहुँचेगी। चाहते हो ऐसा तो बताओ।
तो थोड़ा सा संवेदना और सहानुभूति के साथ स्थिति को समझते हुए चीज़ों को देखा करिए। अभी बारह-तेरह-चौदह का ये वैलेंटाइन डे का तमाशा है, तो आप पाओगे इससे रिलेटेड शॉर्ट्स वीडियोज़ डलेंगे। आपको लग सकता है उनको देखकर के पर इसमें आध्यात्मिक क्या है? भाई! पहली बात तो ये कि वो अलग से तो रिकॉर्ड किये नहीं गये हैं। ऐसी ही किसी बातचीत में से साठ-सेकेंड निकालकर के उसका शॉर्ट्स बनाया जाता है। तो अगर ये पूरी बात आध्यात्मिक है तो इसके बीच का साठ-सेकेंड क्या हो गया? तामसिक हो गया, कुत्सित हो गया, गर्हित हो गया? ये कैसे हो सकता है? हाँ, वो निकाला इस तरह से जाता है कि सुनने वाले को रोचक लगे, और फिर उसके नीचे लिखा रहता है पूरे वीडियो का नाम पट्टी में।
तो नतीजा ये होता है कि जब आप शॉर्ट वीडियो डालते हैं, तो उसके साथ वो जो उसका मदर वीडियो (पूरा वीडियो) होता है, जो दो-हज़ार-सत्रह में छपा था और उसके दो-सौ-छप्पन व्यूज़ हैं अभी तक। जब आप शॉर्ट वीडियो डाल देते हो उससे निकालकर तो अचानक उस मदर वीडियो में तेज़ी आ जाती है। लोग उसको देखना शुरू कर देते हैं। और यही मिशन है, यही तरीका है।
समझ में आ रही है बात?
झूठ चल जाएगा बिना प्रचार के, सच को बच्चे की तरह पालना पड़ता है छोटे से। सच महाशक्तिशाली है, अति सामर्थ्यवान है अपने लिए। लेकिन हमारा सच तो बहुत दुर्बल है। अंतर समझो। जब मैं कह रहा हूँ कि सच को बच्चे की तरह पालना पड़ता है, तो मैं ‘हमारे सच’ की बात कर रहा हूँ। हमारा झूठ बहुत ताकतवर है या हमारा सच?
श्रोतागण: झूठ।
आचार्य प्रशांत: हमारा झूठ बहुत ताकतवर है। तो हमें अपने सच को बहुत सम्भालना पड़ता है, बहुत सहेजना पड़ता है, खिलाना-पिलाना पड़ता है। वही काम संस्था कर रही है। छोटा सा, नन्हा सा सच है, और उसको जो कुछ भी खिलाया-पिलाया जा सकता है सब खिला-पिला दिया जाता है, ‘इसी को दे दो, इसी को दे दो।’ और आपको भी यही करना पड़ेगा अपनी ज़िन्दगी में।
आप ये सोचेंगे कि जो सही चीज़ है वो तो अपने आप हो जाएगी। ऐसा नहीं होने का। आपमें से कई लोग पैरेंट्स होंगे। बच्चा अपने आप क्या सीखता है? अनुभव से बताइएगा। अपने आप भी बहुत कुछ सीखता है। क्या सीखकर आता है? बोलो। सब ज़हालत, बदतमीज़ियाँ, बदअदबी। ये सब अपने आप सीखकर आता है कि नहीं? तो अपने आप सिर्फ़ यही होता है। इंसान पैदा हुए हैं, कोई देवता या भगवान नहीं हैं। इंसान पैदा होने का मतलब ही यही होता है कि आपके भीतर गन्दगी को ही सोखने की एक ज़बरदस्त वृत्ति है।
सफ़ाई अपने आप नहीं होती है, गन्दगी अपने आप आएगी। सफ़ाई मेहनत लेगी, सफ़ाई श्रम लेगी। ये हम भूल ही जाते हैं। आपमें से कौन ऐसा है जो बैठे-बैठे साफ़ हो जाता है? साफ़ होने के लिए तो जाते हैं नल ऑन करते हैं, शावर खोलते हैं। फिर घिसते हैं, फिर शैंपू लगाते हैं। साफ़ होने के लिए तो इतना कुछ करना पड़ता है। गन्दे होने के लिए क्या करना पड़ता है?
श्रोतागण: कुछ नहीं।
आचार्य प्रशांत: गन्दे तो अपनेआप ही हो जाते हैं। इंसान पैदा हुए हो न, गन्दे तो अपने आप हो जाएँगे। साफ़ होने के लिए बहुत श्रम करना पड़ेगा। तो यही जो सफ़ाई है उसी को मैं सच्चाई बोलता हूँ। मैं कहता हूँ, ‘छोटे बच्चे की तरह है, उसे बहुत पालना-पोसना पड़ता है, उस पर मेहनत करनी पड़ती है।’ झूठ, वो अपनेआप बड़ा, बलिष्ठ, बलवान अपने आप हो जाएगा वो। तुम कुछ नहीं अगर कर रहे तो ये मत कहना कि मैं निष्पक्ष हूँ सच और झूठ के बीच में। अगर तुम सच और झूठ के बीच में निष्पक्ष हो, तो तुम झूठ का साथ दे रहे हो। क्योंकि वो डिफ़ॉल्ट विजेता है। हम पैदा ही हुए हैं ऐसे होकर के कि डिफ़ॉल्ट क्या है? झूठ।
झूठ डिफ़ॉल्ट है, सच ऑप्शनल (वैकल्पिक) है। तो इसीलिए बहुत सक्रिय और बहुत सचेतन तरीके से सच को चुनना पड़ता है। झूठ को चुनना नहीं पड़ता। झूठ तो बसा-बसाया, बना-बनाया है हमारी आन्तरिक व्यवस्था में। सिस्टम में उसकी डिफ़ॉल्ट कॉन्फ़िगरेशन (गलत व्यवस्था का प्रारूप) है। किसकी?
श्रोतागण: झूठ की।
आचार्य प्रशांत: झूठ की। झूठ की डिफ़ॉल्ट कॉन्फ़िगरेशन है। सच सिर्फ़ एक विकल्प है जिसे तुम चाहोगे तो चुनोगे, नहीं चाहोगे तो नहीं चुनोगे। मेहनत करनी पड़ती है उस विकल्प को चुनने के लिए, कीमत अदा करनी पड़ती है। झूठ को कोई कीमत अदा मत करो। झूठ मुफ़्त में मिल जाएगा। वो अपने आप आ जाएगा।
असल में, थोड़ा सा अगर इसमें मैं और गहरा जाऊँ न तो इसके जड़ में मातृत्व और बचपने को लेकर के जो हमारी मान्यताएँ हैं, वो ज़िम्मेदार हैं। हमने अपनी पुरानी कबीलाई मानसिकता को कायम रखते हुए अभी भी अपनेआप को यही पट्टी पढ़ा रखी है कि बड़ी शुभ चीज़ होती है जब किसी का जन्म होता है। और मातृत्व माने माँ बनना, जन्म देना कोई बड़ी अच्छी बात है, बहुत प्यारी बात है। इस झूठी कहानी के केन्द्र में ये झूठ बैठा हुआ है कि जो बच्चा पैदा हुआ है वो सुन्दर, सरल, सच्चा और मासूम है।
भई! अगर आपको पता हो कि आप जिसको जन्म दे रहे हो, उसकी निन्यानवे-प्रतिशत सम्भावना राक्षस बनने की है, तो क्या आप जन्मोत्सव पर बड़ी खुशियाँ मनाओगे? बोलो। लेकिन देखो हम कितना महत्व देते हैं मैटरनिटी को, मातृत्व को। और हम छोटे बच्चों को लेकर के कितनी बातें मन में माने बैठे हैं। हम मुहावरा भी ऐसे ही बोलते हैं कि ये तो बच्चे जैसा मासूम है। कहते हैं न? ‘बच्चे जैसा मासूम है।’
आप सोचते ही नहीं कि वो जो चीज़ पैदा हुई है बहुत गड़बड़ चीज़ है। उसको ठीक करना पड़ता है, और बड़ी मेहनत लगती है। और उतनी मेहनत के बाद भी हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे वो चीज़ें ठीक हो नहीं पातीं। फ़ैक्ट्री भी गड़बड़ है, प्रोसेस भी गड़बड़ है, आउटपुट भी गड़बड़ है, और आप सेलिब्रेट कर रहे हो। सबकुछ गड़बड़ है। वो बंडल आफ़ डिफ़ेक्ट्स (दोषों का समूह) पैदा होता है। और हम कहते हैं, ‘आह! खुशियाँ उतरी हैं, खुशियाँ उतरी हैं।’ खुशियाँ नहीं उतरी हैं, गड़बड़ उतरी है। अपने आप जो कुछ भी हो सकता है वो क्या होगा? गड़बड़ ही होगा। ये बात बिलकुल गाँठ बाँध लीजिए। ‘अपने आप जो कुछ हो सकता है वो गड़बड़ ही होगा।’
चाहे वो फ़ॉलिंग इन लव हो, चाहे वो फ़िज़िकल प्रोसेस हो। ये सब अपने आप ही होते हैं न, ये सब गड़बड़ ही होने वाले हैं। और जो कुछ भी सही होगा उसके लिए कॉन्शियस एफ़र्ट लगेगा — सक्रिय सचेतन श्रम। उसके बिना कुछ अच्छा नहीं होता, एकदम नहीं होता। आपको लग रहा होगा कि ज़िन्दगी में कुछ मुफ़्त मिल गया, आसानी से मिल गया, अपने आप मिल गया, प्राकृतिक तौर पर मिल गया, तो आप गलतफ़हमी में हैं किसी। जो कुछ भी मिला है, वो बहुत घातक है। चेत जाइए।
‘यूँही प्यार हो गया किसी से, यूँही विरासत में बाप की ज़ायदाद मिल गयी। यूँही माँ-बाप के पैसों पर स्कूल में और कॉलेज में शिक्षा मिल गयी। ये सब गड़बड़ ही है। क्योंकि ये सब यूँही हो गया। इसमें आपका कोई सक्रिय सचेतन श्रम सम्मिलित नहीं था। यूँही जो कुछ भी हो रहा है उसमें या तो आपका नुकसान है। या कम-से-कम आपका लाभ तो नहीं है। लाभ कुछ नहीं है।
सच इतना सस्ता नहीं है कि बस यूँही टपक पड़े। न आज़ादी इतनी सस्ती है। मुफ़्त तो गुलामी ही मिलती है, और वही डिफ़ॉल्ट है। सच को लेकर न जाने कैसी-कैसी — सच बोल दो या ज़िन्दगी में जो भी कुछ ऊँचा है, पाने लायक है, सुन्दर है, पवित्र है उसको लेकर के — कैसी-कैसी तो हमने कल्पनाएँ, यही बस।
‘यूँही चले जा रहे थे। अचानक किसी का दुपट्टा लहराता हुआ आया, मुँह पर पड़ गया, उधर देखा, बस हो गया। ज़िन्दगी की सबसे ऊँची चीज़ मिल गयी।’ अरे! यार, तुम समझ नहीं रहे हो। एटमॉस्फ़ेरिक करंट थी। (श्रोतागण हँसते हैं) हवा ऐसे बह रही थी (हाथों से संकेत करते हुए)। वो कहीं और को भी बह सकती थी। वो दुपट्टा तुम्हारा मुँह पर नहीं आता। और ये भी बस संयोग की बात थी कि उसने सुबह ही दुपट्टा धोया था। (श्रोतागण हँसते हैं) और खुशबू मारी थी उस पर। कल तक वही दुपट्टा पसीने से ऐसा गन्धा रहा था। तुम्हारे मुँह पर लगता, भाग जाते। पर तुमको लगता है, ‘बस हो गया, मिल गया। यही तो ज़िन्दगी की सबसे ऊँची, खूबसूरत चीज़ है, मिल गयी।’ और तुम उसके लिए फिर एकदम आह! आह!
ये संयोग हैं, ये एक्सीडेंट्स हैं। ऐसे नहीं होता। संयोगवश थोड़े ही। तपस्या, साधना की ज़रूरत ही क्या है अगर संयोगवश ही तुमको जीवन में सबसे ऊँची चीज़ मिल जानी है। चलते-चलते यूँही कोई मिल गया था। और चलते-चलते तो क्या मिल जाएगा? क्या, पता नहीं! चालान कट सकता है, वायरस लग सकता है। वायरस अपनेआप लग जाता है। वैक्सीन के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। इतने से भी समझ में थोड़े ही आया होगा इनको (प्रश्नकर्ता को)।
बस, ठीक है। चलो।