प्रश्नकर्त्ता: आचार्य जी, प्रणाम। अच्छे श्रोता कैसे बन सकते हैं? मुझे बीच-बीच में टोकने की आदत है जैसे कि मैं बोल रहा हूँ, जैसे कि कोई बोल रहा होता है तो कई बार उसका जवाब आता है मुझे फिर मैं बोलना शुरू कर देता हूँ।
आचार्य प्रशांत: जब बहुत मन करे किसी से बोलने का इसका मतलब है किसी से बोल नहीं रहे है। इसका मतलब है कि ख़ुद को ही कुछ सुनाना है तो ख़ुद को जो सुनाना है। वह पहले सुना लिया करों।
अगर किसी से कुछ बोलना हो वाकई तो जिससे बोल रहे हो उसका कुछ पता तो होना चाहिए न? मैं यहाँ आपके सामने बैठा हूँ और आपसे मौसम के हाल पर चर्चा करूँ, या जानवरों को होने वाली विविध बीमारियों पर चर्चा करूँ, तो इसका मतलब मैं आपको जानता ही नहीं, है न?
यह प्रश्न पूछे भक्ति पर और मैं इन्हें बताऊँ कि भैंस की पूँछ की खुजली कैसे मिटाते हैं, तो इसका मतलब मुझे इनसे कुछ लेना-देना ही नहीं, है न?
यह मेरे सामने होकर भी मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं रखते हैं, गैर मौज़ूद है। मैं स्वयं से ही बातें कर रहा हूँ, कुछ मेरे मन में है वह मैं बोल रहा हूँ बिना यह देखें कि किससे बोल रहा हूँ जो सामने है उसके लिए मेरे मन में सम्मान ही नहीं है, मैं यह फ़िक्र ही नहीं कर रहा कि वह कौन है, उसकी हस्ती क्या है, उसकी इच्छा क्या है, उसका हित किसमें है। मेरे मन में भैंस की पूँछ उड़ रही है और मुझे उसी पर भाषण देना है।
हम बहुत बार ऐसा करते हैं, करते है न?
छोटे बच्चों को देखना कई बार उन्हें जब कई बार उन्हें कोई मिलता नहीं है तो गेंद ले लेते है और दीवार पर मरते है। दीवार पर गेंद मारी फिर हाथ पर वापिस आयी, फिर दिवार पर मारी फिर हाथ पर वापिस आयी।
हमारा भी जब संवाद हो रहा होता है किसी से, तो सामने वाले को हम दीवार की तरह इस्तेमाल करते हैं। हमें उससे कुछ लेना-देना नहीं है बस उसकी मौज़ूदगी चाहिए ताकि हमारी गेंद आगे-पीछे होती रहे, कुछ है न सामने जो इंसान जैसा लग रहा है, अब उसपर अपनी गेंद मारते रहो; अपनी गेंद मारी, वापिस आयी, फिर गेंद मारी फिर वापिस आई।
आपको बहुत अचरज नहीं होना चाहिए अगर आप पायें कि दो लोग वार्ता कर रहे हैं और एक बात कर रहा है न्युक्लिअर फिज़िक्स (नाभिकीय भौतिक विज्ञान) पर और दूसरा बात कर रहा है मुर्गों की विभिन्न प्रजातियों पर।
और जब एक बोल रहा है तब दूसरा सिर हिला रहा है, 'जी बढ़िया!' और जब दूसरा बोल रहा है तो पहला भी सिर हिला रहा है और दाद भी दे रहा है — 'वाह!'
दोनों की बातचीत का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं, दोनों को अपनी-अपनी बात बोलनी है जिसके लिए उन्हें मनुष्य जैसा दिखने वाला कोई चाहिए। तुम कोई डम्मी भी खड़ी कर दो , कोई पुतला खड़ी कर दो, कोई पुतली खड़ी कर दो, कोई मैनेकिन खड़ा कर दो तो भी चलेगा। उसको मुर्गों पर बोलना है, उसको नुक्लियस पर बोलना है; दोनों अपनी-अपनी बात बोल रहे हैं। सामने वाला क्या बोल रहा है, सामने वाला क्या कह रहा है, सुन रहा है, नहीं सुन रहा है — क्या फ़र्क पड़ता है?
तो, तुम्हें जो बात बोलनी होती है वह आईने के सामने बोल आया करो पहले, यही तो चाहिए न कि सामने मनुष्य जैसी कोई छवि हो?
प्र: जैसे कभी-कभी बीच-बीच में टोकते हैं…
आचार्य: अब मुझे भी टोक मारा? (हँसते हुए)
(सभी हँसते हुए…)
तुम जाओ पहले वह आचार्य जी की फ़ोटो उतारकर के उससे बात कर आओ, वह पीछे, देखो! जो-जो बोलना है उससे बोल आओ। वह बेचारी कुछ नहीं बोलेगी, छवि! वह ऐसे ही निरीह मुस्कुराती रहेगी। तुम्हें जो बोलना है उसको बोल लो।
हम स्वयं से इतने भरे हुए होते हैं कि हममें सत्य के लिए कोई जगह होती नहीं। और आश्वस्ति हममें होती नहीं कि जिससे हम भरे हुए हैं वह चीज़ ठीक है, तो उसके सत्यापन के लिए उसके प्रमाणन के लिए हमें जो मिलता है हम उसी पर उस चीज़ को उलीचते रहते हैं।
और किसी सभा इत्यादि का कोई अनुशासन हो तो उस अनुशासन के चलते अधिक-से-अधिक तुम्हारा मुँह बंद कराया जा सकता है, मन थोड़े ही। मुँह बंद भी करा दिया तो भीतर तुम्हारे चर्चा चल ही रही है। वह चर्चा पूरी कर लो क्योंकि उस चर्चा के आगे तुम बेबस हो तुम्हें वह चर्चा करनी ही करनी तो उसे पूरा कर लो न! निपटा लो।
और उसको निपटने के लिए किसी और का दुरूपयोग मत करो, भाई! दीवार के सामने खड़े होकर निपटा लो अपनी सारी चर्चा क्योंकि अन्ततः बात तो तुम्हें स्वयं से ही करनी है।
और जब लगे कि अपनी चर्चा निपटा ली या उस चर्चा में किसी ऐसे बिंदु में पहुँच गए कि जहाँ उलझाव बहुत है और जहाँ से अकेले स्वयं आगे नहीं बढ़ पा रहे अब सहारे की ज़रुरत है, तब किसी और के आगे आकर बैठो तब तुम सुन पाओगे।
सुनना आम तौर पर कोई स्वैच्छिक चुनाव नहीं होता हम जैसे लोग हैं, हमारा सुनना तभी हो पाता जब बड़ी मज़बूरी हो।
तो में कहा करता हूँ — मेरे सामने मजबूर होकर ही आना। जब दिख जाए कि अपनी-अपनी कहकर और अपनी-अपनी सुनकर अब बात बन नहीं रही और कोई लाभ हो नहीं रहा तब यहाँ आकर बैठो।
अभी तो तुम अपने ही मन की सामग्री को लेकर बड़े आत्मविश्वास से भरे हुए हो। तुम्हारे पास बड़ा असला है, गोला बारूद है, तुम दनदना के फायर करना चाहते हो जो मिले उसी पर इससे भी कुछ बोल दूँ, उससे भी कुछ बोल दूँ, उससे भी कुछ बोल दूँ। जैसे किसी छोकरे को भरी हुई मशीन गन मिल गयी हो और वह आगे, न पीछे देखे बस चारों-तरफ़ फायर मार रहा हो।
गुरु के सामने यूँ ही उथली चर्चा के लिए आकर नहीं बैठते, गुरु के सामने तब जाकर बैठते हैं जब कोई काँटा ही गड़ गया हो सीने में, अपने निकाले जो निकल ही नहीं रहा होता किसी ऐसी उलझन में फँस गए होते है जिसके आगे स्वयं बेबस होते हैं। जब उतनी मजबूरी में मेरे सामने आकर बैठोगे तब सुन पाओगे अन्यथा सुन नहीं सकते।
चिकित्सक के पास भी जाते हो, वह जब परहेज बताता है और जो दवाइयाँ बताता है, उनका पालन तुम तभी तक कर पाते हो जब तक तुम बीमार होते हो, है ना ? बड़ी बीमारी है इसीलए जो चिकित्सक ने कहा है वह मानना पड़ेगा, नहीं तो कौन मानेगा उसके परहेज़?
वह कह रहा, ‘न रोटी खानी है, न चावल खाना है, सिर्फ़ दलिया।' और बीमारी तुम्हें कुछ है नहीं तुम कहोगे — 'धत्त'।
चिकित्सक की बात भी तुम मजबूरी में ही मानते हो न, जब उतनी मजबूरी पता लगने लगे तब सुनो। तब तक तो अपनी चलाओ। गेंद मेरे पास से ले जाओ; खेलो, खूब खेलो।(हँसते हुए)
जिस मजबूरी की मैं बात कर रहा हूँ वह बहुत जल्दी पता लग जाए, अगर जो बातें तुम करते रहते हो उन बातों को भी ईमानदारी से करो।
कोई भी चर्चा अगर ईमानदारी से करोगे तो पाँच मिनट से ज़्यादा नहीं कर पाओगे, पाँच मिनट में तुम्हें पता लग जाएगा कि बात में उथलापन है, बात में विरोधाभास है। बात कहीं जा नहीं रही, बात का कोई आधार नहीं है, अटक जाओगे।
पर हमारी चर्चाएँ पाँच मिनट क्या घंटो चलती रहती हैं, सालों से चल रही हैं क्योंकि बात भी हम बड़े उथले तल की करते हैं। उस उथले तल पर कोई समस्या हमें आती ही नहीं। समस्याएँ भी उन्हें आती है न, जिनके लक्ष्य ज़रा बड़े होते हैं। लक्ष्य ही बड़े छोटे-छोटे हैं तो कोई समस्या नहीं आएगी, फिर तो तुम्हारा खेल जैसा चल रहा था तुम उसे वैसा चलाते रहोगे।
दुनिया का कोई विषय उठा लो और उस पर ईमानदारी और गहराई से चर्चा करने लगो तो मेरा दावा है पाँच मिनट से आगे नहीं बढ़ पाओगे अटक जाओगे।
फिर कहोगे, 'या तो मुझे ध्यान करने दो ताकि बात समझ सकूँ या फिर मुझे कोई ज्ञानी मिले, विशेषज्ञ मिले जो इस मुद्दे के बारे में मुझे थोड़ा प्रकाश दे, या तो मुझे गुरु मिले जो मन की गाँठें खोले।'
पाँच मिनट के भीतर अटक जाओगे उन मुद्दों पर भी जिन मुद्दों पर तुम अपनेआप को बड़ा समर्थ, बड़ा महारथी समझते हो। जिन मुद्दों के साथ तुम दिन-रात हो, जो विषय तुम्हारी रोटी-पानी के विषय हैं, तुम्हारे स्टेपल विषय हैं, उन विषयों पर भी पाँच मिनट से आगे नहीं बढ़ पाओगे।