अभ्यास नहीं, ध्यान || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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अभ्यास नहीं, ध्यान || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

वक्ता: जो भी कुछ इन्द्रियों से आ रहा है, उसमें समय होगा। कोई तुम्हें सिर्फ छू भी रहा है, तो उसमें समय है। वह एक न्यूरोनिक प्रक्रिया है, जो मस्तिष्क तक जाती है। एक विद्युत्-चुंबकीय (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक) तरंग है, और एक ट्रांस्वर्स तरंग है। दोनों की इक्वेशन में ‘टी’ (टाइम/समय) आता है। ठीक है? (अपने हाथ की ओर इंगित करते हुए) अगर यहाँ दबाव लगाऊंगा, तो उसमें भी समय सम्मिलित होगा।

आप यह जो पूछ रहे हैं कि क्या कोई ऐसी चीज़ हो सकती है जो समय और स्थान से आगे है, और साथ ही मन के आगे भी है। क्या आपको पता है आपने “मैं कौन हूँ?” प्रश्न का जवाब दे दिया है?

‘वो तुम हो’। इसी को हम कहते है ‘तत त्वम् असि’। वही तुम हो जो समय और स्थान से परे है। वही तुम्हारी असली पहचान है।

जो शब्द मैंने बोले हैं, वो बेकार हैं। क्योंकि मैंने जो बात बोली है वो तुमने इन्द्रियों, से अपने कानों से सुनी है। यह तुमने समय में ही सुनी है। यह सब मैं समय में ही बोल रहा हूँ। अगर तुम इसका शोध करोगे, वो भी समय में ही होगा। अभी तुम मुझे अपने आप से दूर देख रहे हो, उसमें भी समय और स्थान है। तुमने एक ऐसी बात जो समय-स्थान के परे है, उसे तुमने समय-स्थान में सुना है, तो उसे तुम मन से नहीं समझ सकते। बस एक सिद्धांत की तरह बता रहा हूँ कि बात यही है। इतना भी अगर जान लिया कि कुछ है जो समय-स्थान के परे है, और मन के परे है, और वो ‘मैं हूँ’, तो बस तुम समझ गए।

समय-स्थान से तुम अपने आप को पहचान मत दो, उनसे सामंजस्य मत बैठाओ। जो भी गतिविधियाँ हो रहीं हैं वो शाश्वत नहीं हैं। समय का क्या अर्थ है? वो जिसका आना-जाना लगा रहता है, वो जो शाश्वत नहीं है। बात समझ रहे हो? समय का क्या अर्थ है? वो जो आए और जाए, जैसे दिन-रात, जैसे उम्र, जैसे कोई तुमसे मिलने आए और जाए। यह सब समय में है ना? हर बात जो समय पर निर्भर करती है, उसे गम्भीरता से मत लेना क्योंकि वो सत्य नहीं है, क्योंकि वो असली नहीं है। इसका संकेत यह है कि जो भी चीज़ समय पर निर्भर है, उसे गंभीरता से ना लो। उसी तरह से जो भी चीज़ स्थान पर निर्भर करती है जैसे तुम्हारा शरीर, उसे गंभीरता से न लो।

श्रोता १: सर, लेकिन अभ्यास तो समय में ही होता है। कुछ सीखना है, तो वो तो समय और स्थान में ही होगा।

वक्ता: अभ्यास मतलब क्या? अभ्यास मतलब दोहराना, पुनरावृत्ति। अभ्यास से सीखते हो या ध्यान से सीखते हो?

असल में होता क्या है कि तुम किसी प्रक्रिया को पांच बार दोहराते हो, तो एक बार तो ध्यान में होते ही हो। तुम एक बार में सीख जाते हो, पर तुम्हें भ्रम होता है कि तुम पांच बार में सीखे हो। तुम पांच बार के दोहराने से नहीं सीखे हो, तुम उस एक बार के करने से सीखे हो जब तुम ध्यान में थे। दिक्कत यह है कि वो एक बार का करना, पांच बार के दोहराने की प्रक्रिया में आ रहा है, इसलिए तुम्हें लग रहा है कि तुम पांच बार में सीख रहे हो। दोहराना तुम्हें कुछ नहीं देता।

एक सोता हुआ आदमी है, तुम उसे सोते में कुछ बता दो, या वो कोई बात सोते हुए दस बार दोहराए, तो वो क्या सोते-सोते कुछ सीख जाएगा? और एक बार ध्यान में करेगा तो सीख जाएगा। ध्यान की कमी में सत्तर बार भी कोई चीज़ करोगे, तो कुछ नहीं सीखोगे। अभ्यास से कुछ नहीं होता। जिस किसी ने भी यह बोला है, “अभ्यास से व्यक्ति निपुण होता है”, वो बेवकूफ़ है। अभ्यास मात्र पुनरावृत्ति है।

इस तरह से जो एक सी. डी. होती है, उसमें तो निपुणता की पराकाष्ठा होनी चाहिए, क्योंकि वो एक ही चीज़ को बार-बार दोहरा रही है। एक सी. डी. तो फिर महाज्ञानी हो गई, क्योंकि बिल्कुल बदलती नहीं है, एक ही चीज़ को बार-बार दोहराती रहती है।

अभ्यास नहीं, ध्यान।

अभ्यास अंततः दोहराना ही है। सी. डी. भी दोहरा रही है। ऊर्जा का स्रोत कुछ भी हो, है तो दोहराना मात्र ही। दोहराने से कुछ नहीं होता, समझने से होता है। तुम किसी मंत्र को लेकर दोहराते रहो, जीवन भर दोहराते रहो, क्या तुम्हें कुछ भी समझ में आएगा? तुम्हें उससे कोई भी फायदा मिलेगा? जबकि सिर्फ ‘एक पल’ ध्यान का और उससे काम हो जाएगा। हो जायेगा कि नहीं हो जायेगा? उसके बाद जीवन-भर दोहराने की कोई जरूरत है क्या? अगर एक बार में समझ आ जाए, तो बार-बार दोहराना मूर्खतापूर्ण नहीं लगेगा? जैसे, मैं इसे कहूँ कि आओ खाना खा लो, फिर मैं इसे दोबारा बोलूं, फिर तिबारा, फिर दस बार बोलूं। तो इसे क्या करना चाहिए? ये कहेगा, ‘बेवकूफ समझ रखा है। दोहरा क्यों रहे हो बार-बार?’ यही बोलेगा। अगर एक बार करने में ही समझ आ जाए, तो क्या बार-बार करने की आवश्यकता पड़ेगी?

जहाँ समझ नहीं होती, वहाँ अभ्यास करना पड़ता है। अभ्यास मूर्खता है। समझ के अभाव के कारण ही अभ्यास है।अभ्यास मूर्खतावश ही होती है? अन्यथा, अभ्यास आएगा कहाँ से।

जहाँ ध्यान के वातावरण का अभाव हो, सिर्फ वहीं पुनुरुक्ति या आभ्यास की आवश्यकता पड़ती है।

(वक्ता वाक्य को बार-बार दोहराते हैं)

क्या आप देख रहे हैं मैं क्या कर रहा हूँ? कारण स्पष्ट है। समझ नहीं आया, तो दोहराना पड़ रहा है। यदि एक बार में समझ में आ जाए, तो क्या अभ्यास की कोई आवश्यकता है?

तो फिर तुम अभ्यास क्यों करते रहते हो? कारण प्रत्यक्ष है। तुम कुछ समझते नहीं हो। एक बार समझ गए, तो अभ्यास की क्या आवश्यकता?

पर तुम अभ्यास करोगे। तुमसे पूछा जाए कि तुम क्या कर रहे हो, तो तुम कहोगे, ‘अभ्यास! हम सवाल पर अभ्यास कर रहे हैं’।

श्रोता २: सर, सांस लेने की प्रक्रिया भी तो अभ्यास ही है, उसमें भी तो दोहराना है।

वक्ता: याद रखना, तुम सांस ले नहीं रहे हो। क्योंकि यदि तुम्हारे ऊपर छोड़ी जाती जिम्मेदारी सांस लेने की, तो तुम बीच-बीच में भूल भी जाते। तुम सांस ले नहीं रहे हो, सांस ‘ली’ जा रही है। तुम्हारे भरोसे नहीं छोड़ा है प्रकृति ने। ये बस ‘हो’ रहा है। यह बस हो रहा है, बिना किसी विचार के। और बहुत सुचारू रूप से हो रहा है। यह हो रही है बहुत अच्छे से, इसमें कोई परेशानी नहीं है।

सांस लेने की प्रक्रिया में किसी विचार का कोई योगदान नहीं है। ये बस हो रहा है।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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