अभिभावकों से स्वस्थ सम्बन्ध || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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अभिभावकों से स्वस्थ सम्बन्ध || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

आचार्य प्रशांत: तुम जो कुछ भी कर रहे हो, देखना उसको कि, "ये मैं सतह पर कर रहा हूँ या स्रोत पर कर रहा हूँ?” सतही काम क्या होता है?

श्रोतागण: जो बाहर से आ रहा हो।

आचार्य: जो बाहरी घटनाओं से प्रभावित होकर आ रहा हो। जो स्रोत से निकल रहा हो उसकी क्या पहचान है?

श्रोतागण: समय का पता नहीं लगेगा जब कर रहे होंगे।

आचार्य: एक तो समय का पता नहीं लगेगा और दूसरा कि “उसे मैं अच्छे तरीके से समझता होऊँगा। उसको मैं ऐसा समझता होऊँगा कि फिर कोई मुझसे लाख तर्क कर ले, मैं तब भी हिलूँगा नहीं। वो बात मैंने किसी से ली नहीं होगी, वो बात मेरी अपनी होगी।”

प्रश्नकर्ता: सर, पर जो बड़े बोलते हैं वो भी तो करना पड़ेगा।

आचार्य: बेटा, अब तुम भी बड़े हो। एक कहावत है कि ‘जब बाप का जूता बेटे को आने लगे तो बड़े-छोटे का कोई भेद नहीं रह जाता, वो दोस्त हो जाते हैं।’ अब तुम कोई बारह साल के थोड़े ही हो कि तुम कहो कि, “बड़े कह रहे हैं तो करना ही है।”

तुम्हारी तो अब वो हालत है कि तुम उन बड़ो को सहारा दो। तुम ना अब दो साल के हो, ना बारह साल के हो, तुम बाईस साल के हो। तुम्हें अब ये थोड़े ही कहना है कि “मुझे बड़ों का सहारा लेना है, तुम्हें तो उनको सहारा देना है।”

प्र: पर उनकी मर्ज़ी के बिना?

आचार्य: तुम्हारी मर्ज़ी के बिना भी तो कुछ नहीं हो सकता या तुम्हारी मर्ज़ी बेकार है? जब तुम बात करते हो मर्ज़ी की, तो समझना जिसको हम अपनी मर्ज़ी कहते हैं वो क्या होता है? वो बाहर से आई हुई एक मान्यता होती है।

तो उनकी भी अपनी कोई मर्ज़ी नहीं है, उन्होंने भी किसी से सुन लिया है। जैसे तुम आज कह रहे हो न कि, "बड़ों के सामने क्या करें?" वैसे ही उनके पास भी बड़े थे, उन्होंने भी यही मज़बूरी अनुभव की थी कि बड़ों के सामने क्या करें। उनके पास भी अपनी कोई मर्ज़ी नहीं है, उन्होंने भी कहीं से सुन रखा है और अगर तुम्हें उनसे प्रेम है तो प्रेम का ये दायित्व है कि तुम उनको भी सच दिखाओ, तुम उनकी मदद करो। तुम ये न कहो कि, “मैं तो अभी बच्चा हूँ, तुम कहो कि मैं जवान हूँ, बड़ा हूँ, अपने पाँव पर खड़ा हूँ, मुझे कुछ दिखाई दे रहा है और मैं चाहता हूँ कि आप भी वो देखें।"

प्र: पर बड़े तो हमेशा ही बड़े रहेंगे न।

आचार्य: किस आशय में बड़े रहेंगे?

प्र: अनुभव में।

आचार्य: उम्र में; तुम ये कहना चाहते हो कि उनकी उम्र तो हमसे हमेशा ही ज़्यादा रहेगी।

प्र: सर, उम्र की बात नहीं है।

आचार्य: अनुभव तो उम्र ही है। क्या तुम कभी ये कहते हो कि कम उम्र के बन्दे को ज़्यादा अनुभव है?

बेटा, उम्र से कुछ नहीं हो जाता। उम्र और अनुभव दोनों ही बिलकुल व्यर्थ बातें हैं। एक बात बताओ मुझे कि तुम पचास साल तक सोते रहो तो उससे तुम में बड़ा ज्ञान उठ जाएगा? समय तो बीता, पचास साल तो बीते, पर तुमने देखा क्या है? तुम तो सोते ही रह गए, तुम्हारी आँखें तो बंद ही रहीं। तुम मान्यताओं में ही घिरे रहे। उम्र के बढ़ने से क्या हो जाता है?

जानते हो दुनिया के आम आदमी की औसत मानसिक उम्र कितनी है? तेरह साल। आदमी का शारीरिक विकास तो हो रहा होता है पर उसका दिमाग ठस पड़ा होता है। एक बात गौर से समझ लो कि उम्र को और अनुभव को बिलकुल महत्व मत देना।

न उम्र का महत्व है, न अनुभव का महत्व है। महत्व है बोध का, महत्व है तुम्हारी जागृति का और जागृति समय की मोहताज नहीं होती है।

तुम जिस भूमि पर बैठे हो, वहाँ तो उम्र को बिलकुल ही महत्व नहीं दिया गया। बुद्ध के पिता आकर बुद्ध के चरण स्पर्श करते हैं। महागीता है अष्टावक्र की जिसमें अष्टावक्र राजा जनक को उपदेश दे रहे हैं और अष्टावक्र की उम्र उस समय मुश्किल से ग्यारह-बारह साल की है। उम्र की क्या कीमत है? जिस भूमि पर तुम बैठे हो न, उसने उम्र को कभी कोई कीमत नहीं दी, इसने बोध को कीमत दी है।

प्र: कई बार हमें अपने माँ-बाप के फैसलों के आगे झुकना पड़ता है, चाहे हमारा फैसला सही ही हो।

आचार्य: तुम्हें झुकना इसीलिए पड़ता है क्योंकि तुम्हारे मन में लालच और स्वार्थ है, अन्यथा तुम्हें कौन झुका सकता है? तुम कुछ सुविधाओं के मोहताज हो और तुम नहीं चाहते कि तुमसे वो सुविधाएँ छिन जाएँ, इस कारण तुम झुकते हो। बिना तुम्हारी सहमति के तुम्हें कोई झुका नहीं सकता। तुम्हारी सहमति है उस झुकने में।

कौन तुम्हें गुलाम बना सकता है बिना तुम्हारी रज़ामंदी के? तुम्हें दो-चार छोटी-छोटी चीजें मिल रही हैं और उन चीजों की खातिर तुम अपनी स्वतंत्रता बेच देते हो। झुकने का और कोई कारण नहीं है। कोई तुम्हें मार-पीट कर झुकाता है? तुम खुद ही तो झुकते हो न?

तुम झुकते इसिलए हो ताकि तुम्हारी सुविधाएँ न छिन जाएँ, ताकि तुम्हारे सहारे न छिन जाएँ। तुमने अपनेआप को छोटा और कमज़ोर मान रखा है इसलिए तुम झुकते हो। अन्यथा कोई कारण नहीं है झुकने का। और जब मैं कह रहा हूँ कि झुको नहीं तो मैं ये नहीं कह रहा कि लड़ जाओ। मैं कह रहा हूँ कि सत्य पर अडिग रहो। मैं हिंसात्मक हो जाने के लिए नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि सत्य से मत हटो।

प्र: दूसरा नहीं मान रहा तो?

आचार्य: तुम दूसरे को मनवा भी नहीं रहे। तुम बस अपनी जगह पर कायम रहो।

प्र: तो उससे तो कुछ मिलेगा ही नहीं।

आचार्य: यही तो बात है कि तुम मुनाफे की तलाश में हो।

प्र: सर, मेरे बारहवीं में पचासी-प्रतिशत आए थे। तो मुझे नॉएडा पढ़ना था, पर घरवालों ने दाखिला नहीं दिलवाया। कोई पैसों की दिक्कत नहीं थी, कुछ नहीं था फिर भी नहीं दिलवाया। उन्होंने कहा कि मुरादाबाद ही पढ़ना है।

आचार्य: क्यों?

प्र: उन्हें घर से दूर नहीं जाने देना था।

आचार्य: तुम अगर घर से निकलते कि, "मैं जा रहा हूँ नॉएडा की ओर!" तो निकल जाते, कौन रोक सकता था? हाईवे है, बस चलती हैं, तुम बैठ गए, पहुँच गए। तुम्हें दाखिला मिल गया है न?

प्र: हाँ।

आचार्य: तुम्हें दाखिला मिल गया है तो कौन रोक सकता था? तुमने ये क्यों नहीं किया?

प्र: माँ-बाप का साथ नहीं था।

आचार्य: अरे! साथ का क्या मतलब है? तुम्हें जाकर बैठना है और पढ़ना है। यहाँ माँ-बाप बैठे हैं क्या साथ में? तुम घर से निकलते, आते और पढ़ने लग जाते। तुम्हें कौन रोक सकता था?

प्र: दो-लाख फीस कौन देता?

आचार्य: उसके लिए बैंक हैं। मैं आइ.आइ.टी और आइ.आइ.एम में पढ़ा हूँ और वहाँ जिन बच्चों का दाखिला होता है, उनके माँ-बाप हँसते-हँसते दो-लाख क्या, बीस-लाख दे दें। पर मेरे पूरे बैच में शायद ही कोई रहा हो जिसने माँ-बाप से पैसे लिए हों पढ़ाई के। सब ने बैंक लोन लिया था क्योंकि वो अपनी खुद्दारी थी, उनकी अपनी आज़ादी की बात थी। घर से आसानी से पैसे मिल रहे थे, पर सब ने बैंक लोन लिया।

मुझे ये देख कर बड़ा ताज्जुब होता है कि आइ.आइ.टी और आइ.आइ.एम वाले बैंक लोन लेकर पढ़ते हैं और यहाँ आता हूँ तो लोग बोलते हैं कि “घर से पैसे नहीं लूँगा तो पढ़ूँगा कैसे?”

अच्छी विश्वविद्यालय है न जिसमें पढ़ना चाहते थे? उन विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए तो तुम्हें तुरंत बैंक लोन मिल जाता। पता है बैंक वाले कैंपस में आकर अपनी कैनोपी लगाते हैं कि, "यहाँ से ही लोन ले लो।" और जहाँ तुम्हें दाखिला मिला है वहाँ का अच्छा रिकॉर्ड है, तो सिक्योरिटी भी नहीं माँगते हैं। तुमने क्यों नहीं की पढाई? तुम्हारी मर्ज़ी के बिना किसी ने नहीं रोका है। तुम खुद रुकना चाहते थे।

मैं अपना उदाहरण देता हूँ। मैंने सत्रह की उम्र से चौबीस की उम्र तक पढ़ाई की है और मैंने घर से एक पैसा नहीं लिया। ऐसा नहीं कि मेरी घरवालों से लड़ाई थी। मेरी माँ को प्यार था मुझसे तो वो मेरे सूटकेस में, मेरी जेबों में पाँच सौ के नोट डाल देती थी कि ऐसे सीधे देंगे तो लेगा नहीं इसीलिए इसके कपड़ों में रख दो, पर मैंने नहीं लिए। मैं आइ.आइ.एम में पढ़ रहा था जहाँ सोने तक का समय नहीं मिलता और उसके साथ जाकर मैं ट्यूशन पढ़ाया करता था। तुम तो थर्ड ईयर (तीसरे साल) में हो, मैं जब फर्स्ट ईयर (पहले साल) में था तब से अपना कमा रहा था।

आइ.आइ.टी के पास एक जगह है कालू सराय, वहाँ पर ‘फिटजी’ जैसे कोचिंग सेंटर हैं। वो एक कॉपी चेक करने का पाँच या दस रुपये दिया करते थे। हम लोग पूरे-के-पूरे बंडल उनके पास से ले आते थे, चेक करते थे और पैसे लेते थे। तुम क्यों नहीं कर रहे हो? तुम ट्यूशन क्यों नहीं पढ़ा सकते हो? तब तो इंटरनेट भी नहीं था, फिर भी हम रास्ता ढूँढ लेते थे क्योंकि चाहते थे। वही स्रोत वाली बात। तुम क्यों नहीं रास्ता ढूँढ लेते? तुम क्यों राज़ी हो जाते हो? तुम इतने गए-गुज़रे हो कि तुम गणित नहीं पढ़ा सकते छठी-आठवीं के बच्चों को?

प्र: सर अगर उनके फैसले को नहीं मानेंगे तो हम अलग नहीं हो जाएँगे उनसे?

आचार्य: अलग होने का क्या अर्थ है? प्रेम में, मैं हूँ, तुम हो, हम में आपस में प्यार है। ये प्यार कोई बंदिश तो नहीं है कि मैंने जो कह दिया तझे मानना ही पड़ेगा। ये प्यार जो शर्तें लगाए कि “मैंने जो कहा तू मान और तू नहीं मानता तो मेरा और तेरा कोई रिश्ता नहीं।” तो ये तो प्यार है ही नहीं, ये तो फिर व्यापर है। प्यार तो मुक्ति देता है जो कहता है “जा, अपने हिसाब से जी, अपने पंखों से उड़।” ये कौनसा प्यार है जो कहता है कि, "हमारे हिसाब से चल"? ये प्यार है ही नहीं।

प्र: इसका मतलब माँ-बाप प्यार ही नहीं करते?

आचार्य: वो तुम जानो। साफ़-साफ़ देखो। लेकिन इतना मुझे पक्का है कि प्यार में शर्तें नहीं हो सकती। जहाँ शर्तें होती हैं वहाँ तो व्यापार चल रहा है कि “हमने तेरे ऊपर इतना खर्चा किया है, हमने तझे पैदा किया है तो अब हमारी बात मान। तेरी हिम्मत कैसे हो गई हमारे विरुद्ध जाने की? हम मालिक हैं तेरे!”

प्र: सर फ़र्ज़ भी तो बनता है हमारा कुछ उनकी तरफ।

आचार्य: फ़र्ज़ क्या है? मेरा तुमसे प्यार है अगर तो मेरा फ़र्ज़ क्या है? मेरा फ़र्ज़ ये है कि मैं तुम्हें होश में लाने में मदद करूँ। मेरा फ़र्ज़ ये ही कि मुझे रौशनी मिली है तो मैं तुम्हें भी दूँ।

प्र: फिर ये तो स्वार्थ है।

आचार्य: ये स्वार्थ नहीं है, ये परम-प्रेम है। धृतराष्ट्र हैं, वो अंधे हैं; पत्नी आती है, वो भी पट्टी बाँध लेती है। ये प्रेम है? या प्रेम वो होता कि “मैं अपनी आँखें खुली रखूँगी ताकि मैं तुम्हें भी चलने में सहारा दे सकूँ”? अब मिया-बीवी दोनों अंधे हो गए और अब दोनों साथ-साथ ठोकर खा कर गिर रहे हैं। ये प्रेम है? या प्रेम वो होता है कि “तुम अंधे हो तो आओ हम तुम्हें सहारा देंगे, और हम कोशिश करेंगे कि किसी तरह तुम्हारी ज्योति भी वापस आ सके”? ये प्रेम होता है। प्रेम रौशनी देता है या अँधेरा बाँटता है?

प्रेम का एक मात्र फ़र्ज़ होता है — जाग्रति।

प्रेम ये नहीं होता कि तुम अपनी मानसिकता की कोठरी में कैद हो और हम उसी में कैद रहने देंगे। प्रेम कहता है कि “भले हमारे-तुम्हारे संबंधों में तनाव आ जाए लेकिन मैं तुम्हें भी मुक्त करके रहूँगा क्योंकि मैंने मुक्ति जानी है और मुक्ति बड़ी आनंदपूर्ण है। तो भले तुम्हें बुरा लगे, फिर भी मैं तुम्हारी साहयता करूँगा।” एक-दूसरे को बंधन में डालने का नाम थोड़े ही प्रेम है। कैसी बातें कर रहे हो?

फिर जब तुम माँ-बाप की बात करते हो तो उनके साथ थोड़ा सा रियायत बर्ता करो। तुम लोग बड़ा अन्याय भी करते हो माँ-बाप के साथ। मैंने अभी कहा कि तुम खूब बड़े हो गए हो, खूब जवान हो गए हो। गाँव-देहात में तो अट्ठारह-बीस साल में शादी हो जाती है, बाइस-चौबीस साल में बच्चे हो जाते हैं, खासतौर पर अगली लड़की हो तो।

तुम ही यहाँ बैठे हो, हो सकता था तुम ही माँ-बाप होते। अब तुम अच्छे से जानते हो अपने आप को कि तुम हमेशा संदेह में घिरे रहते हो, जीवन का तुम्हें कुछ पता नहीं, दुर्बलताएँ तुम पर हावी रहती हैं, ऐसा ही है न? चलो अपने आप को नहीं देख सकते तो अपने पड़ोसी को देखो, उसकी यही हालत रहती है? अब तुम्हारा पड़ोसी कल को बाप बन जाए और अपने बच्चों को बोले कि “मैं भगवान हूँ, मैं जो कह रहा हूँ वो बिलकुल ठीक है, मेरी आज्ञा मानना तेरा फ़र्ज़ है”, तो ये बेवकूफ़ी की बात हुई या नहीं हुई? और ऐसे ही तुम्हारे जैसे ही लोग होते हैं न जो माँ-बाप बन जाते हैं। वो भगवान कहाँ से हो गए? उनकी आज्ञा में क्या दम हो गया?

तुम अपने आप को देखो न कि तुम्हारा एक छोटा सा बच्चा हो और तुम उसे सिखा रहे हो कि “मैं भगवान हूँ, मेरी आज्ञा मान, मैं देवी हूँ मेरी आज्ञा मान।” तुम्हारे ही दोस्त का बच्चा अगर ये सब कर रहा होगा तो तुम कहोगे कि “पागल है क्या, ये भगवान दिखता है तुझे? ये क्या है मैं बताता हूँ, इसकी असलियत में जानता हूँ।” पर क्योंकि परंपरा चली आ रही है तो हर माँ-बाप गलती कर जाता है और अपने बच्चों को ये बता देता है कि माँ-बाप की आज्ञा शिरोधार्य है। ये बड़ी बेवकूफ़ी की बात है।

अपने बच्चों को तुम कभी ये शिक्षा मत दे देना कि “हम भगवान हैं।” अपने बच्चों को ये मत बोल देना कि, "हम जो बोल रहे हैं वो ठीक है, हमारी बात माना कर।" क्योंकि तुम अच्छे से जानते हो कि तुम खुद कितने परेशान हो, तुम अच्छे से जानते हो कि तुम्हें जीवन की खुद कोई समझ नहीं है। जब तुम्हें जीवन की समझ नहीं है तो तुम्हें हक़ क्या है अपने बच्चों पर अपनी बात थोपने का? पर दुनिया का हर माँ-बाप खुद जीवन को कुछ नहीं जानता पर बच्चों पर आज्ञा ज़रूर चलाता है।

बच्चा हो तो उससे प्यार करो और प्यार का अर्थ होता है उसको ऐसी काबिलियत देना कि वो मुक्त जीवन जी सके — ये प्यार है। प्यार ज़ंजीरों का नाम नहीं है, प्यार किसी पर मालकियत करने का नाम नहीं है। और नहीं देख पा रहे तो अपने पड़ोसी की ओर देखो और सोचो कि वो अपने बच्चे से बोल रहा हो कि “मैं भगवान हूँ, मेरी हर आज्ञा माना कर।”

जैसे तुम हो, वैसे ही दुनिया के सारे माँ-बाप हैं। दुनिया भर में भले ही तुम्हारी कोई हैसीयत न हो, जीवन के सामने भले ही तुमने घुटने टेक रखे हो, पर अपने बच्चों पर तुम चढ़ जाते हो कि, "हम जो बोल रहे हैं वो परम सत्य है और इसी पर चल।" ये अन्याय है।

प्र: पर सर उन्होंने हमे बड़ा किया है, इतना कुछ किया है तो हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उनके लिए कुछ करें।

आचार्य: हाँ बिलकुल ठीक है। ये मानवता का तकाज़ा है कि किसी ने तुम्हारे ऊपर रुपया खर्च किया, पैसा खर्च किया, तुम्हारी देखभाल की तो तुम कहो कि “आज तक आपने दिया, अब हम आपको देंगे, और इसलिए नहीं देंगे कि हम कोई उधार लौटा रहे हैं, इसलिए देंगे क्योंकि हमें आपसे प्यार है। आज तक आपने हमारी देखभाल करी, अब आप हमें भी तो मौका दीजिए कि हम आपको सहारा दे सकें। जब हमें क, ख, ग नहीं आता था तो आपने मुझे रौशनी दिखाई, अब मुझे कुछ दिख रहा है तो मैं भी तो आपको कुछ दिखाऊँ और जब मुझे क, ख, ग नहीं आता था और आप मुझे सिखाते थे तो मैं रोता भी था, चिल्लाता भी था और आपकी बात नहीं मानता था।”

जब माँ-बाप बच्चे को सिखा रहे होते हैं तो बच्चा उसका विरोध करता है कि नहीं करता? तो माँ-बाप का क्या फ़र्ज़ होता है उस समय? माँ-बाप का फ़र्ज़ होता है कि हर तरीके से उसे सिखाएँ। तो तुम्हारा भी यही फ़र्ज़ है कि तुम्हें कोई बात ऐसी समझ में आ रही है जो माँ-बाप को नहीं पता तो तुम भी हर संभव तरीके से उनको सिखाओ। जैसे उन्होंने तुम्हें सिखाया, वैसे ही तुम उन्हें सिखाओ। ये थोड़े ही कि, "हम दबे बैठे हैं, हम मुँह कैसे खोल दें?"

और एक बात ध्यान रखना कि हर माँ-बाप के लिए सबसे ख़ुशी का दिन वही होता है जिस दिन उनकी संतान इस काबिल हो जाती है कि उन्हें कुछ सिखा सके। अगर वो तुमसे सही में प्यार करते हैं न तो बड़ा आनंद मिलेगा उन्हें अगर तुम उन्हें ऐसी बात बताओगे जो उन्हें आज तक दिखाई नहीं दी थी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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