अभिभावकों की इच्छा और करिअर का चुनाव || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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अभिभावकों की इच्छा और करिअर का चुनाव || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

आचार्य प्रशांत: आओ बात करें। मैंने सुना है आप लोगों को बात करना पसंद है। तो आओ थोड़ा और बात करें। हम पहले मिल चुके हैं?

प्रश्नकर्ता: हाँ, सर।

आचार्य: आप में से ऐसे कितने हैं जो पिछले सेमेस्टर में मिल चुके हैं?

(लगभग सभी हाथ उठाते हैं)

लगभग सभी, चलो ठीक है। अच्छा, तो हम पुराने मित्र हैं। हम बात कर सकते हैं।

प्र: सर, मेरा एक प्रश्न है। मेरा प्रश्न यह है कि जो करिअर होता है, उसमें क्या किसी की उम्मीद को प्राथमिकता देनी चाहिए?अभिभावक की, या खुद की? जैसे अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा आई.ए.एस. अफ़सर बने, और बच्चे का लक्ष्य है कि वो सीधे-सीधे एम.टेक. कर के प्रोफेसर बने, तो ऐसे में किसकी सोच को प्राथमिकता देनी चाहिए? अभिभावकों के पास अनुभव है इसलिए ऐसा कह रहे होंगे। या फिर बच्चा अपनी आज़ादी से, अपनी सुविधा देखते हुए चुनाव करे?

आचार्य: बढ़िया। क्या नाम है?

प्र: देवेश।

आचार्य: तो, शुरुआत ही करिअर , व्यवसाय से हो गई। और उसमें तनाव भी दिखाई दे रहा है, कि चुनाव कैसे करें। तीन बातें, ‘व्यवसाय’, ‘संघर्ष’ और ‘रुचि’।

कोई भी कहानी बीच से शुरू करके समझी नहीं जा सकती। किसी भी कहानी को समझना है, तो उसे पूरा देखना पड़ेगा न। कहानी यहाँ से शुरू ही मत करो कि अभिभावक मुझे कोई व्यवसाय सुझा रहे हैं। कहानी उससे पहले से शुरू होती है। अभिभावक हमें कोई भी सलाह क्यों देते हैं? भले के लिए। ठीक है न? नीयत तो यही है कि भलाई हो?

तो ज़्यादा बड़ी बात क्या है? मैं तुम्हें कोई सलाह दे रहा हूँ, तो ज़्यादा बड़ी बात क्या है, ये कि तुम मेरी बात मानो या ये कि तुम्हारा भला हो? जो प्राथमिक उद्देश्य है, वो क्या है? मैं तुम्हें कोई सलाह देता हूँ, और मुझे ये दिख जाए कि उससे तुम्हारा भला नहीं हो रहा, और तब भी मैं अड़ा रहूँ कि तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी, तो मैं तुम्हारा दोस्त हूँ या दुश्मन?

एक चिकित्सक तुम्हें दवाई दे रहा है और उसे दिख रहा है कि ये जो दवाई है, ये तुम्हें फायदा नहीं कर रही है, पर फिर भी वो अड़ा हुआ है कि तुम यही दवाई लो क्योंकि वह बहुत बड़ा चिकित्सक है, और उसके पास बीस बरस का अनुभव है। तो वो चिकित्सक तुम्हारे भले के लिए काम कर रहा है, या अपने अहंकार के लिए?

श्रोतागण: (एक स्वर में) अहंकार के लिए।

आचार्य: अगर मैं वास्तव में तुमसे प्यार करता हूँ, तो मैं ये नहीं देखूँगा कि तुम मेरी सलाह पर चल रहे हो या नहीं। मैं क्या देखूँगा? कि तुम जो भी कुछ कर रहे हो, उसमें तुम्हारी भलाई है या नहीं। मैं अपनी कोई बात तुम पर लाद नहीं रहा हूँ। मैं तुम्हारे सामने एक बात रख रहा हूँ। ठीक है न? उसके साथ-साथ रहना, और उसको समझने की कोशिश करना।

तुम सबकी ज़िंदगी में ऐसे लोग हैं जिनसे तुम प्यार करते हो। दोस्त यार तो हैं ही। अगर वाकई किसी से दोस्ती है, तो क्या चाहोगे? कि वो तुम्हारी ही इच्छा के अनुसार चलता रहे, या ये चाहोगे कि वो जैसा भी चले, खुश रहे? क्या चाहोगे?

श्रोतागण: (एक स्वर में) वो खुश रहे।

आचार्य: तो मेरा उत्तर किधर को जा रहा है दिख ही रहा होगा? प्यार ये नहीं चाहता है कि, "तू मेरी इच्छा से चल।" प्यार है वाकई, तो मैं कहूँगा कि, "तू इस काबिल हो जा कि तू अपनी ही इच्छा से चल सके।"

एक छोटा-सा बच्चा है। जब वह छोटा होता है, तो एक हद तक तो उसकी देखभाल करनी पड़ती है। तुम भी अभी छोटे से बच्चे ही हो।अपने कुछ पुराने दिन तुम्हें भी याद होंगे।

एक समय था जब तुम अपने कपड़े भी खुद नहीं पहन पाते थे। इंतज़ार करते थे कि माँ आएगी और पहना देगी। था या नहीं था? खाना भी नहीं खा पाते थे। था या नहीं था? जूते के फीते भी, तुम लोगों को याद होगा कि कभी माँ-बाप ने ही बांधे होंगे। हुआ है कि नहीं हुआ है? बच्चे बैठे रहते हैं कि माँ-बाप आएँ, जूते के फीते बाँध दें।

पर हर माँ-बाप, अगर वो अपने बच्चे से प्यार करता है, तो वो क्या चाहता है? क्या वो ये चाहता है कि, "ये कितना भी बड़ा हो जाए, जूते के फीते मुझसे ही बंधवाए"? जल्दी बोलो।

श्रोतागण: (एक स्वर में) नहीं, सर।

आचार्य: क्या वो ये चाहता है कि ये कितना भी बड़ा हो जाए, इसको खाना खाने की तमीज़ ही ना आए, ये मेरे ही हाथों खाता रहे?

ऐसा तो कोई माँ-बाप नहीं चाहता। तो माँ-बाप भी वाकई खुश किस दिन होते हैं? जिस दिन तुम...?

प्र: जिस दिन हम आत्मनिर्भर हो जाते हैं।

आचार्य: हाँ! बहुत बढ़िया बात। जिस दिन तुम इस काबिल हो जाते हो कि अपने पाँव से चल सको, अपनी आँखों से देख सको और अपने जीवन के निर्णय, अपनी समझ से ले सको, उस दिन क्या माँ-बाप को ख़ुशी नहीं मिलती? माँ-बाप भी तो आखिर में यही चाहते हैं न?

और अगर कहीं ऐसा हो गया कि तुम जीवनभर आश्रित ही बने रहे, तो माँ-बाप का भी दिल टूट जाना है। ये बात समझ लो। उनकी भी दिली ख्वाहिश, भले ही वो इसको प्रकट ना करते हों, भले ही वो इस बात को खुल कर कहते ना हों, यही है कि मेरा बच्चा जल्दी से ऐसा हो जाए कि उसे मेरे सहारे की ज़रुरत ही ना रहे। पर तुमने सहारे को ही प्रेम समझ लिया है। तुम सोचते हो कि हम सहारा लिए जा रहे हैं, तभी तो प्यार है।

चिड़िया का अंडा होता है,उसमें से बच्चा निकलता है। तुम लोगों के घरों में अगर कभी चिड़िया ने घोंसला बनाया होगा, तो तुमने देखा होगा। तो चिड़िया क्या करती है? चिड़िया ज़रा-ज़रा से घास के तिनके, बच्चे की चोंच के अंदर भी रख देती है। देखा है कभी? वैसे ना देखा हो, फिल्मों में तो देखा होगा। फ़ोटो देखी होंगी।

फिर एक दिन आता है जब बच्चा उड़ने लगता है। अपने पंखों से उड़ने लगता है। बच्चा उड़े ही ना अपने पंखों से, तो चिड़िया को कैसा लगेगा? बच्चा उड़े ही ना अपने पंखों से, और कहता रहे, "माँ, मुझे तुझसे इतना प्यार है कि मैं जीवन-भर तेरे ही घोंसले में बैठा रहूँगा", तो चिड़िया को कैसा लगेगा? जल्दी बताओ। जल्दी बताओ।

प्र: उसे दुःख होगा।

आचार्य: तो तुममें से कितने लोगों को वाकई अपने माँ-बाप से प्यार है? हाथ खड़े करो।

(सभी एक साथ हाथ उठा देते हैं)

जिन भी बच्चों को माँ-बाप से प्यार हो, उनका पहला कर्तव्य यह है कि वो आत्मनिर्भर हो जाएँ, वो अपने पाँव पर खड़ा होना सीखें, वो माँ-बाप पर आश्रित ना रहें।

प्यार का मतलब ये मत समझ लेना कि, "मैं घर आऊँ, तो मेरे कपड़े मम्मी धो रही है।" यही होता है न लेकिन? यही करते हो या नहीं? तुम्हारी उम्र में मैं भी यही करता था। तो कोई शर्माने की बात नहीं है। यही होता है या नहीं होता है? अब ये तो कोई ढंग की बात नहीं हुई? और ये तो फिर भी बाहरी बात है कि कपड़े कोई और धो रहा है। लेकिन अगर तुम्हारे निर्णयों में भी तुम्हें सहारा ही चाहिए, तो ये बड़ी खतरनाक स्थिति है।

माँ-बाप आपस में बात करते होंगे कि बेटा दिखने में तो इतना बड़ा हो गया है, पिता कहते होंगे कि कद तो उसका मेरे जितना ऊँचा हो गया, ऊँचाई तो उसने मेरे बराबर निकाल ली है, पर उसकी सूरत तो देखो, अभी भी छठी कक्षा के छात्र जैसा लगता है।

तुम्हें क्या लगता है, उन्हें बड़ा अच्छा लगता है ये देख कर कि हमारा बच्चा अभी भी अपरिपक्व है? उन्हें भी बड़ा अच्छा लगे अगर तुम कभी कोई ढंग की बात करो। और जब तुम ढंग की बात करते होओगे, तो तुमने देखा होगा कि वो कैसे खुश हो जाते होंगे। होते हैं या नहीं होते हैं? (हँसते हुए) “सर, हमने कभी कोई ढंग की बात की ही नहीं है, तो हमें पता ही नहीं है।”

कर के देखना। बड़ों वाली बातें, अभी कर के देखो। बड़ों वाली बात का मतलब ये नहीं है कि शराब पीना, रात भर सड़कों पर घूमना और कहना कि, "ये तो बड़ों वाला काम हमने कर के दिखाया!"

बड़े होने का मतलब है, दिमाग से बड़ा होना, समझदार होना, चीज़ों की असलियत को पहचानना। जो नकली है, उसको नकली कह पाना, और जो असली है उसको असली जान पाना – ये होता है बड़ा होना। ये सब कुछ बिना किसी सहारे के कर पाना, ये होता है बड़ा होना।

सबसे ज़्यादा ख़ुशी तुम्हारे घर वालों को तब होती है, जिस दिन तुम बड़े हो जाते हो। ये बिलकुल मत समझना कि उन्हें बुरा लगेगा कि, "अब ये हमारी सलाह क्यों नहीं लेता, ये हमसे बार-बार पूछता क्यों नहीं, इसको हमारी बैसाखी की ज़रुरत अब क्यों नहीं है।" ये बिलकुल भी मत सोचना कि उन्हें बुरा लगने वाला है।

माँ-बाप हैं, तुम भी किसी दिन शायद माँ-बाप बनो, तो तुम्हें पता चलेगा। बेटे का, बेटी का, भला ही चाहेंगे। पर हो सकता है व्यक्त ना कर पा रहे हों, इंसान हैं। जैसे तुम इंसान हो, वैसे वो भी इंसान हैं।

हर इंसान में कमियाँ होती हैं। साफ़-साफ़ समझा ना पा रहे हों। खुद भी कहीं भूल कर देते हों। हर इंसान को हक़ होता है न भूल करने का, या नहीं होता है? तुम्हें भूल करने का हक़ है, माँ-बाप को भूल करने का हक़ नहीं है? उन्हें भी हक़ है। तो हो सकता है, समझा ना पा रहे हों। पर चाहते वो यही हैं कि तुम अपने निर्णय खुद लो।

और अगर तुम ये पाओ कि वो तुमसे कहते हैं कि निर्णय हमसे पूछ कर लिया करो, तो उसकी एक ही वजह है। वजह जानना चाहते हो? अच्छा, पहले ये बताओ कि कितने लोगों ने ऐसा देखा है कि माँ-बाप स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने देते? ऐसा कितने लोगों को लग रहा है? हाथ खड़े करो।

(मौन)

ईमानदारी से कर लो हाथ खड़े, आपस में दोस्तों की बात है। कितने लोगों को ऐसा लगता है कि, "निर्णय खुद लेना तो चाहता हूँ, पर माँ-बाप अक्सर रोक देते हैं"? हाथ खड़े करो।

(कुछ श्रोतागण हाथ उठाते हैं)

अगर वो तुम्हें रोक देते हैं, तो उसका कारण ये है कि तुमने अभी तक ये प्रदर्शित ही नहीं किया है, तुमने अभी तक इस बात का कोई प्रमाण ही नहीं दिया है कि तुम इस काबिल हो कि जब अकेले घर से निकलोगे, तो गिर नहीं पड़ोगे।

देखो, उन्होंने तुम्हें बचपन से देखा है न? और उन्होंने बचपन से यही देखा है कि इसे तो सदा हमारे सहारे की ही ज़रुरत पड़ी है। ज़रा उनकी जगह पर जा कर बात को समझते हैं। थोड़ा उनकी नज़र से देखते हैं। उन्होंने आज तक क्या देखा है? यही कि बेटे को, या बेटी को, लगातार हमारे सहारे की ही ज़रुरत पड़ी है। और उन्होंने ये भी देखा है कि जब भी कभी हमने सहारा छोड़ा है, तो इसने उल्टे-पुल्टे काम ही किए हैं।

तो उनके मन में वही छवि बैठ गई है। उस छवि का कारण है। क्योंकि तुमने ये प्रदर्शित भी तो नहीं किया कि अब तुम परिपक्व हो। तुमने कभी परिपक्वता का कोई काम करके दिखाया है? तुम कर के दिखाओ न। तुम कर के दिखाओ, तो उनको भी समझ में आए।

तो अगर अभी तुमको ऐसा लग रहा है कि एक तरफ मेरा मन है जो कुछ करना चाहता है, और दूसरी तरफ माँ-बाप हैं जो कुछ और मुझसे करवाना चाहते हैं, तो तुम ये पक्का समझो कि माँ-बाप तुम्हारा ही निर्णय मान लेंगे अगर तुम ये दिखा सको कि तुममें अपने निर्णय के फलों को झेलने की काबिलियत है। तो वो तुम्हारी बात मान लेंगे।

मुक्ति बहुत अच्छी चीज़ है। पर जिसको भी मुक्ति चाहिए, उसके पास मुक्ति के परिणाम झेल पाने का सामर्थ्य भी तो होना चाहिए। या नहीं होनी चाहिए?

प्र: होनी चाहिए।

आचार्य: वो तुमको प्रदर्शित करना पड़ेगा कि, "मैं अकेले चल सकता हूँ। और अकेले चलूँगा, तो संभव है कि ठोकर खाऊँ, गिरूँ। पर अगर गिरूँगा, तो संभाल लूँगा।" और ये बात सिर्फ मुँह से कहने की नहीं है। ये तुम्हारी ज़िंदगी में दिखाई देनी चाहिए कि तुममें अब अकेले चल पाने की, चोट खा कर भी दोबारा उठ पाने की, काबिलियत आ गई है। और काबिलियत तो है ही। इतने बड़े हैं हम, कोई छोटे थोड़े ही हैं। पर वो काबिलियत दिखानी पड़ेगी। और जब दिखाओगे तो उन्हें बड़ी ख़ुशी होगी।

कहते हैं बाप उस दिन बाप बनता है, जिस दिन बेटा उसका दोस्त हो जाता है। तो बाप भी, अधूरा-सा ही अनुभव करता रहता है कि ये तो बच्चा ही है अभी। उम्र इतनी हो गई, लेकिन है अभी ये दुधमुँहा ही। वो भी इंतज़ार कर रहे हैं कि कब मैं इससे दोस्ती कर सकूँ। माँ भी इंतज़ार कर रही है कि बेटी को दोस्त कब कह सकूँ। पर दोस्ती कैसे होगी? क्योंकि दोस्ती तो दो समान परिपक्वता वाले लोगों में ही होती है। एक समान स्तर की परिपक्वता।

अब वो तो हैं बहुत परिपक्व, और तुम अगर लगातार अपरिपक्व ही बने रहो, तो कभी दोस्ती हो सकती है क्या? हो पाएगी क्या? नहीं हो पाएगी। अब दोस्ती ही नहीं, तो फिर बात बनेगी नहीं न? तो फिर क्या रहेगा? तनाव। फिर तुम उसको नाम दोगे, ‘पीढ़ी का अंतर *(जैनरेशन गैप)*’।

फिर तुम्हें कई बार अभिभावकों से झूठ बोलना पड़ेगा, माँ-बाप को बात-बात पर गुस्सा दिखाना पड़ेगा। ये सब होता है या नहीं होता है? फिर पाबंदियाँ रहेंगी। "यहाँ नहीं जा सकते, इससे नहीं मिल सकते, इससे ज़्यादा पैसे तुम्हें नहीं दिए जाएँगे।" इस तरह की बातें होंगी। होती हैं या नहीं होती हैं?

तुम छुट्टियों में कहीं जाना चाहते हो, उनको डर है कि तुम्हें अगर अकेला छोड़ दिया गया तो तुम पता नहीं किस नदी-नाले, पहाड़ में जा कर गिरोगे। अब ये डर उनको दिया किसने? तुम्हीं ने दिया न? तो ये डर हटाएगा भी कौन? तुम्हीं हटाओगे न? लेकिन उसके लिए, परिवक्वता दिखाने के लिए, परिपक्व होना पड़ेगा।

और परिपक्व आदमी का पहला लक्षण है- अकेले चल पाने से डर ना लगना। अकेले रह पाने से डरना नहीं, अकेले सोच पाने से डरना नहीं, अकेले जी पाने से डरना नहीं- यही परिपक्वता है।

इसका ये मतलब नहीं है कि वो ज़बर्दस्ती अकेला रहता है। सबके साथ रहता है, लेकिन अकेलेपन से डरता नहीं है। कोई अनिवार्यता नहीं है कि अकेले ही रहना है। सबके साथ रहना है, मज़े में रहना है, लेकिन अकेलेपन से डरना नहीं है।

जो अकेलेपन से डरता नहीं है, वही सबके साथ दोस्ती का संबंध रख सकता है। जिसको अकेला होना नहीं आता, वो किसी का दोस्त नहीं हो सकता।

इस बात को लेकर तनाव में मत आया करो कि अभिभावकों को कैसे समझाएँ। अभिभावक कोई दुश्मन थोड़े ही होते हैं। या दुश्मन हैं? कोई है यहाँ जिसे लगता हो कि नहीं वो तो दुश्मन ही हैं? दुश्मन तो नहीं हैं न? कुछ और ही गड़बड़ चल रही होगी। उस गड़बड़ को ठीक कर दो, सब अनुकूल हो जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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