अब तो जाग मुसाफ़िर प्यारे!

Acharya Prashant

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अब तो जाग मुसाफ़िर प्यारे!
"अब तो जाग मुसाफ़िर प्यारे" का अर्थ है, कि जब ये सुन रहा है मुसाफिर, जब तू ये बात सुन रहा है, तभी जग जा। अब से अर्थ है, अभी। और अभी माने, जब जग रहे हो, जब सुन रहे हो, तभी। सुनने के लिये जगना आवश्यक है। सुनने के लिए जगना आवश्यक है। तो जब भी तुम इन वचनों को सुन रहे हो, बस तभी उठ के बैठ जाओ। जब भी सुन रहे हो, तभी उठ जाओ। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

“अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे, अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे, रैन गई लटके सब तारे।

आवागौन सराईं डेरे, साथ तिआर मुसाफ़र तेरे, अजे ना सुणिओं कूच नगारे।

कल लै अज करनी दा बेरा, मुड़ ना हो सी आवण तेरा साथी चल्लो पुकारे।

मोती, चुनी, पारस, पासे, पास समुन्दर मरो पिआसे, खोल्ह अक्खीं उठ बौह बेकारे।

बुल्ल्हा शौह दे पैरीं पड़िये, ग़फ़लत छोड़ कुझ हीला करिये, मिरग जतन बिन खेत उजाड़े।

अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे, रैन गई लटके सब तारे”

~बुल्लेशाह

आचार्य प्रशांत:

अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे, रैन गई लटके सब तारे, अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे।

कब जगने के लिए कहा जा रहा है? कुछ ख़ास हो गया है, जो अब जगने के लिए कहा जा रहा है? कि, अब तो जग। कोइ विशेष घटना घट गई है, जब जगने के लिए कहा जा रहा है, कि अब तो जग! कोई विशेष घटना घट गई है, कोई रात में सोया होता है, तो उसे आप कब जगने के लिए कहते हैं?

श्रोता: जब भोर हो जाती है।

आचार्य प्रशांत: जब भोर हो जाती है। मतलब घटना घटती है कोई। कोई विशेष घटना घटती है, और कहाँ घटती है?

जो सोया हुआ है, उससे बाहर घटती है। बात को समझिए – सामान्यतया जो सोता है, उसे भी हम जगने के लिए बोलते हैं। और जगने के लिए कब बोलते हैं? जब एक घटना घटती है उससे बाहर। जब समय हो जाता है, बाहर घटना घट रही है आकाश में, और समय हो गया है। स्पेस-टाईम दोनों इनवॉल्व्ड हैं इसमें। यहाँ पर जो जगने के लिए कहा जा रहा है, उसका आशय किसी बाहरी घटना से नहीं है, कि अब उचित समय आ गया है, जगो। क्योंकि अगर ये कहा जाएगा कि अब उचित समय आ गया है जगने का, तो फिर ये भी कहा जाएगा कि कुछ समय है, जो जगने के लिए अनुचित है, और कुछ समय है जब सोया ही जा सकता है। जब जगने के लिए कहा जा रहा है, तब कोई विशेष घटना नहीं घटी है। ब्रह्म के लिए एक नाम निर्विशेष भी है, निर्विशेष मतलब? — सदा, ऑर्डिनरी।

“अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे।” का अर्थ ये नहीं है कि कोई समय हो गया है, या कोई घटना घट गई है। कोई आ गया है, कोई आवाज़ दे रहा है, सूरज उग गया है, मुर्गा बोल रहा है या किसी से मिलने का समय हो गया है – कोई विशेष घटना नहीं घट गई है। “अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे” का अर्थ है कि जब ये सुन रहा है, मुसाफ़िर — जब तू ये बात सुन रहा है, तभी जग जा। अब से अर्थ है, अभी। और अभी माने, जब जग रहे हो, जब सुन रहे हो, तभी।

सुनने के लिये जगना आवश्यक है। तो जब भी तुम इन वचनों को सुन रहे हो, बस तभी उठ के बैठ जाओ।

जब भी सुन रहे हो, तभी उठ जाओ। दूसरी पंक्ति क्या कहती है? “रैन गई लटके सब तारे,” न रात है, न तारे हैं। रात, और तारे, दोहराऊँगा, हमसे बाहर नहीं है। रात और तारे, न जगने का परिणाम है।

दो तरह से इसको देखा जा सकता है, घटना दो तरीक़े से होती है। जिस दुनिया में हम आमतौर पर जीते हैं, वहाँ पर रात होती है, हम इसलिए सो जाते हैं। जिस दुनिया में हम आमतौर पर जीते हैं, वहाँ पर रात होती है तो हम सो जाते हैं। और जिस दुनिया की बात बुल्ले शाह कर रहे हैं, वहाँ पर हम सोए हुए हैं, इसलिए रात है। अंतर समझ में आ रहा है? हम जिस दुनिया में जीते हैं, वहाँ पर रात होती है, तो सो जाते हैं। और जहाँ की बात ये कर रहे हैं, वहाँ पर ये जो रैन और तारे हो रहे हैं, ये आसमान में छितराए हुए तारे नहीं हैं। ना आकाश में छाया हुआ अँधेरा है। ये वो अँधेरा है जो इस कारण प्रतीत हो रहा है क्योंकि?

श्रोता: आँखे बंद हैं।

आचार्य प्रशांत: तुम सोए हुए हो। रात हो नहीं गई है, तुम सोये हुए हो। और जब तुमने आँखें बंद कर ली हैं, तो निश्चित है कि सब तरफ़? अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देगा।

श्रोता: कि जब जागो तभी सवेरा होना है।

आचार्य प्रशांत: अंतर समझ में आ रहा है?

सवेरा सदा है, आपके लिए तब है जब आप आँख खोलें। अस्तित्व में कभी रात होती ही नहीं। जो हमारा संसार है, इसमें ज़रूर रात होती है। अस्तित्व में रात कभी होती ही नहीं। अस्तित्व में रात बस तब होती है, जब तुम सोए पड़े हो। तो अगर रात दिखाई दे रही है, और रात का क्या अर्थ है? रात का अर्थ है, अँधेरा, इग्नोरन्स, दुःख, पीड़ा, अज्ञान। और अगर ये सब है, तो इसका अर्थ नहीं है कि अस्तित्व में है।

इसका अर्थ ये है?

श्रोता: हमारी आँखें बंद हैं।

आचार्य प्रशांत: हमारी आँखें बंद हैं। तो जब कह रहे हैं बुल्ले शाह, “रैन गई लटके सब तारे,” तो वो यही कह रहे हैं, अगर अभी ध्यान दे रहे हो, ‘अब’; मैं तुमसे कह रहा हूँ और तुम सुन रहे हो, और अगर अभी ध्यान दे रहे हो, तो अभी गई रैन और अभी गए ये सब तारे। ये छोटी मोटी रोशनियाँ, ये सब गायब हो जाएँगी। बड़ा आँखों को चुंधियाँ दे, ऐसा प्रकाश रहेगा। अंतर स्पष्ट हो पा रहा है?

“अब तो जाग मुसाफ़र प्यारे, रैन गई लटके सब तारे,” ये किसी को सुबह-सुबह नहीं जगाया जा रहा है। बहुत अंतर है, दृष्टि में। ये किसी को सुबह-सुबह नहीं जगाया जा रहा है, कि बीती विभावरी जाग री। ये कहा जा रहा है कि आँख अब खोल ले। तेरी आँखों में ही रात थी, तेरी आँखों में ही तारे थे, आँखें खुल जाएँगी तो वो सब कुछ जो काल्पनिक है, वो ग़ायब हो जाएगा, जो असलियत है, जो प्रकाश है, वो सामने आ जाएगा। ठीक है?

पढ़ो दूसरा।

श्रोता:

“आवागौन सराईं डेरे, साथ तियार मुसाफ़र तेरे, “अजे ना सुणिओं कूच नगारे।”

आचार्य प्रशांत: ‘सराईं’ का जो प्रतीक है वो बहुत इस्तेमाल किया गया है। सूफ़ी परंपरा में ‘सराईं’ के प्रतीक को ज़बरदस्त तरीक़े से इस्तेमाल किया गया है। ठीक है? संसार को सूफ़ियों ने हमेशा ‘सराईं’ ही जाना। और ‘सराईं’ से ही जुड़ा शब्द पहला है, ‘आवागमन,’ ‘आवागौन’ जिसको वो कह रहे हैं। ‘सराईं’ का क्या अर्थ है?

श्रोता: जहाँ रुको, जहाँ रात बिताओ।

आचार्य प्रशांत: ‘सराईं’ का वही अर्थ है, जिसको बुद्ध ने जीवन की ‘सरिता’ कहा है, कि जिसमें कुछ भी कभी टिकता नहीं, लगातार गति है। जिसको हेराक्लीटस ने कहा है, “(यू नेवर स्टेप इंटू द सेम रिवर ट्वाइस),” वही सराईं है। कि सराईं में आप एक दिन जाईए तो एक दृश्य दिखाई देगा, और दूसरे दिन गए तो क्या वही लोग होंगे जो वहाँ पर थे? सराईं वैसी ही दिखेगी बाहर-बाहर से, पर सब कुछ बदल चुका होगा। कि जैसे एक नदी को आप इस पल देखें, और अगले पल देखें तो दूर से देखें तो नदी वही है, पर ठीक से देखें तो सब बदल गया है। जो पानी आपने पहले देखा था, वो पानी कहीं और गया। जो मुसाफ़िर आपने पहले देखा था सराईं में, वो मुसाफ़िर कहीं और गया। सराईं अभी भी भरी हुई है, पर दूसरे मुसाफ़िरों से।

सूफ़ी कहानी है ना कि, शायद ‘जुन्नैद’ की है – बादशाह के पास गया, वो पूछता है “और आजकल इस सराईं में कौन रहता है? बादशाह ने कहा, “तेरा दिमाग़ ख़राब है, महल है ये मेरा, इसको सराईं बोल रहा है?” (जुन्नैद) बोल रहा है, “तुम नए लगते हो, मैं जब पिछली बार आया था यहाँ पर तो तुम्हारा बाप होता था यहाँ पर, जब मैं उससे पहले आया तो तुम्हारा दादा होता था यहाँ पर। अगली बार आऊँगा, तो पक्का है कि तुम नहीं होओगे। तो सराईं नहीं है तो क्या है ये? कहते हैं बादशाह को उसी समय बात चमक गई। उसने कहा “चलो, मैं भी चल रहा हूँ तुम्हारे साथ। सराईं में नहीं रहना, असली घर ढूँढूँगा। ये घर तो सराईं ही है।”

ये वही कहानी है, जिसमें वो उसके महल की छत पर कूदफाँद मचा रहा था। बादशाह ने कहा, “बड़ी आवाज़ आ रही है, छत पर कौन चढ़ गया?” तो देखा, ये चढ़े हुए हैं ऊपर उसके। सुन्नु की है शायद ये। सैनिकों को भेजा, जाओ पकड़ के नीचे बुलाया। कहें, “छत पर क्या कूद रहे हो?” तो कहता है, “मेरा ऊँट खो गया है, वो खोज रहा हूँ।” बोलता है, “चार मंज़िल का मेरा महल है, उसकी छत पर तेरा ऊँट चढ़ के यहाँ आएगा? गलत जगह पर खोज रहा है ऊँट को!” बोलता है, “इतने होशियार तो हो कि तुम्हें समझ में आता है कि महल की छत पर खोजने से ऊँट नहीं मिल सकता। पर इतने होशियार नहीं हो कि तुम्हें समझ में आए कि महल के अंदर तुम जो खोज रहे हो, वो कभी महल के अंदर नहीं मिल सकता!” बत्ती फिर चमक गई।

बिल्कुल सही बोला। कि जब महल की छत पर ऊँट नहीं मिल सकता जैसे, वैसे ही महल के अंदर भी कुछ चीज़ें हैं जो कभी नहीं मिल सकती। तो, कहीं और ही खोजनी पड़ेंगी।

तो क्या कह रहे हैं बुल्ले शाह? कि भाई ये सराईं है, और इसमें तुम अकेले नहीं हो। बहुत सारे और भी हैं, जो तुम्हारे साथ ठहरे हुए हैं। और वो क्या कर रहे हैं जो ठहरे हुए हैं? सब, बस कूच की प्रतीक्षा में हैं। कि कब बजे नगाड़ा और वो कूच कर जाएँ! और कूच करने का क्या अर्थ है? सराईं का अर्थ है, समय। तुम सब समय के जीव हो, समय की एन्टिटीज़ हो, टाइम फॉर्म्स हो।

श्रोता: सभी नष्ट होने वाली वस्तुएँ हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल यही पेरिशेबल कमॉडिटीज़ हो, जिन की अपनी एक शेल्फ लाइफ़ होती है। और तुम ही नहीं, हमारे साथ जितने दिख रहे हैं, सब वही हैं। आज से तीस साल बाद इस कमरे की फोटो खींची जाए तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। एक आध ही कोई होगा जो नज़र आएगा।

श्रोता: साल भर में बदल जाएगी।

आचार्य प्रशांत: साल भर में बदल गई, पूरे तरीक़े से। तो, सब कूच के लिए तैयार बैठे हैं, सराईं है। और क्यों दुनिया भर के संत हमें हमेशा याद दिलाते रहते हैं कि सराईं है? क्या कारण है?

श्रोता: बहुत ज़्यादा अटैचमेंट हम किसी भी चीज़ से हो जाते हैं, तो वो इसीलिए होते हैं कि फिर परमनेन्स की फीलिंग आ जाती है। उससे फिर विषाद पैदा होता है। तो इसीलिए विषाद किसी चीज़ से न हो, इसीलिए याद दिलाते हैं।

आचार्य प्रशांत: परमनेन्ट को ढूँढने में कोई बुराई नहीं है, पर गलत जगह ढूँढने में बहुत गड़बड़ है, धोखा है। जो परमनेन्ट है, उसी परमनेन्ट को वेदांत ‘नित्य’ बोलता है। जो नित्य है, जो सदा है, उसको ढूँढने में कोई बुराई नहीं है, जो हमेशा है। पर, आप उसे गलत जगह ढूँढे, तो बड़ी गड़बड़ है। तलाश हमारी परमनेन्ट की ही है। उसी परमनेन्ट, उसी शाश्वत की तलाश को सिक्योरिटी कहा जाता है। सिक्योरिटी का यही अर्थ है – कुछ ऐसा मिल जाए, जो कभी ना छिने, उसी परमनेन्ट की तलाश। तो, परमनेन्ट चाहिये सबको, ये हमारा स्वभाव है।

नित्यता हम हैं, ये हमारा स्वाभाव है उसको पाना चाहते हैं, उसमें कोई गड़बड़ नहीं है। पर गलत जगह पाना चाहते हैं, इसमें बड़ी चूक है।

सराईं है, सराईं का अर्थ है समय, एक निश्चित अवधि, जो उस सराईं में बितानी है। उस निश्चित अवधि का एक ही उपयोग हो सकता है - कि उस अनित्य को, निश्चित अवधि मतलब अनित्य है, लगातार नहीं रहेगी। कि उस अनित्य का उपयोग करके, उसको पा लिया जाए जो?

श्रोता: नित्य है।

आचार्य प्रशांत: जो नित्य है। और ये बड़ी मज़ेदार बात है। अनित्य इसलिए मिला है कि उसके माध्यम से वो मिल जाए जो नित्य है। टेम्पररी इसलिए मिला है कि उसका प्रयोग करके वहाँ तक पहुँच जाओ जो?

श्रोतागण: परमनेन्ट है।

आचार्य प्रशांत: जो परमनेन्ट है। लेकिन बड़ी गड़बड़ हो जाएगी अगर टेम्पररी को ही?

श्रोता: परमनेन्ट।

आचार्य प्रशांत: परमनेन्ट समझ लिया। और यही हम चूक करते हैं, यही अभी आपने कहा भी। ये धोखा है, यही डिल्यूज़न है।

श्रोता: कि होटल के कमरे को घर मान लिया।

आचार्य प्रशांत: हाँ, कि सराईं को घर मान लिया, और फिर आप घर पर नहीं पहुँच पाएँगे कभी। और यही वो सूफ़ी संत, बादशाह से कह रहा था कि गलत जगह को घर मान के बैठ गए हो, असली घर को तलाशो। इसको घर मान के रहोगे तो बेचैन रहोगे। इसमें दिक्कत और कुछ नहीं है। देखिये ये बड़ी मज़ेदार सी बात है, सराईं में जो समय बिताना है, हमने कहा उस समय का एक ही सही उपयोग है, कि उसका इशारा किधर को हो?

श्रोता: परमनेन्ट की ओर।

आचार्य प्रशांत: परमनेन्ट की ओर। और उस समय का मज़ा भी तभी है जब उसको याद रखा जाए जो परमनेन्ट है। टेम्पररी का मज़ा तभी है जब परमनेन्ट याद रहे। टाइम में रहने का मज़ा तभी है जब टाइमलेस याद रहे। तो ज़िन्दगी को वही जिएगा पूरे तरीक़े से जिसे ये याद है कि इस ज़िन्दगी के आगे भी कुछ है। तो ज़िन्दगी को जीने की कला यही है।

ज़िन्दगी को जीने की मौज उसी की है, जो ज़िन्दगी को बहुत सीरियसली से न ले-ले।

श्रोता: उस टाइम का मज़ा भी ले।

आचार्य प्रशांत: सराईं का मज़ा वही ले पाएगा जो जानता होगा ये सराईं है। आप होटल में जाओ और आप परेशान होना शुरू कर दो, कि क्या होगा इस होटल का। कल को मैं छोड़ के चला जाऊँगा उसके बाद कौन इसमें पेंट कराएगा? कौन इसकी देखभाल करेगा? तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी।

श्रोता: फर्नीचर कहाँ लगे हुए हैं?

आचार्य प्रशांत: फर्नीचर कहाँ लगे हुए हैं, चूहे वुहे तो नहीं हो रहे होटल में? पूरा होटल सो रहा है और आप जा कर के आप तहक़ीक़ात कर रहे हो।

श्रोता: वास्तु के अनुसार नहीं है।

आचार्य प्रशांत: घर से ज़्यादा होटल में क्यों आप मौज मारते हो? क्योंकि आपको पता है कि ये रैनबसेरा है, दो दिन का ठिकाना है, तो बड़ी ऐश आती है ना होटल में? इशारा समझ रहे हो बात का? जब होटल, होटल है ये याद रहे, तो बड़ी मौज की जगह हो जाती है। और जब होटल को घर समझ लिया, फिर क्या होगा? अब क्या होगा?

श्रोता: सबको परेशानी होगी।

आचार्य प्रशांत: सबको परेशानी होगी। आप किसी कमरे में घुस के उसमें झाड़ू पोछा करना शुरू कर देंगे, “मेरा घर है भाई, परेशान और करेंगे दुनिया भर को।”

श्रोता: कोई चीज़ पसंद नहीं आ रही तो मतलब यहीं रहना है।

आचार्य प्रशांत: हाँ। समझ में आ रही है बात? सराईं को सराईं जानिए, बड़े मज़े हैं। सराईं को कुछ और जान लिया, तो ज़िन्दगी में नाहक गंभीर हो जाएँगे। दुनिया भर के बवाल सर के ऊपर लेंगे।

श्रोता: सर, एक बहुत कॉमनली यूज़ की जाने वाली एक्सप्रेशन है, व्हेन यू हैव नथिंग टू लूज़, नाउ यू कैन बी मोर एंड मोर एक्सप्रेसिव। आर यू टॉकिंग अबाउट दैट?

आचार्य प्रशांत: यस, इट इज़ रिलेटेड टू दैट।

श्रोता: बेसिकली, वी हैव लॉस्ट एवरीथिंग।

आचार्य प्रशांत: वी हैव नॉट लॉस्ट एवरीथिंग। देयर इज़ नथिंग ऑफ़ यू इन इट। उस होटल में तुम्हारा कुछ है ही नहीं। तुम्हें भ्रम बस हो सकता है कि इसमें मेरा कुछ है, अदरवाइज़, देयर इज़ नथिंग, नो स्टेक्स एट ऑल।

श्रोता: वी डिडंट ओन एनीथिंग इन द फर्स्ट प्लेस।

आचार्य प्रशांत: यू डोंट ओन एनीथिंग इन द फर्स्ट प्लेस यू आर जस्ट हेयर आउट ऑफ़ अ कॉइंसिडेन्स, एंड यू विल मूव आउट ऑफ़ अ कॉइंसिडेन्स आप आए भी थे, दुर्घटनावश, और आप बाहर भी चले जाओगे, कोई और दुर्घटना हो जाएगी तो।

एक ज़ेन मास्टर ने कहा, “जब आये थे, तो आने के लिए चिंता करी थी क्या? तो उस जाने के पल के बारे में इतनी चिंता क्यों करते हो? जब अपने आप बिना मर्ज़ी के आ गए, तो फिर चैन से बैठो, बिना मर्ज़ी के चले भी जाना, जब जाने का मौका आएगा।” आने के बारे में तुम कभी इतना परेशान नहीं हुए थे। कि आने का इंश्योरेंस करा के रखो, क्या पता आने की प्रक्रिया में मर जाऊँ, कुछ हो जाए। और आने वाला हूँ तो पहले से कुछ तैयारी वैयारी कर के रखो, फ़ोन वोन कर के रखो कि मैं आ रहा हूँ, मेरी व्यवस्था कर के रखना। तब तो तुम पहुँच गए। चले भी जाना ऐसे ही, सराईं ही तो है।

श्रोता: इतना सिम्पल है नहीं जितना सिम्पल आप कह रहे हैं

आचार्य प्रशांत: बहुत गहरी रात है, अगर?

श्रोता: आँखें बंद हैं।

आचार्य प्रशांत : और बहुत कॉम्प्लेक्स है, अगर? वरना सिम्पल है।

श्रोता: वैसे ही बता रहा हूँ, इतनी आसानी से जो हम कह रहे हैं ना कि सराईं मान लें।

आचार्य प्रशांत: मानना नहीं है। है ही। बुल्ले शाह कह रहे हैं तुम्हारे आसपास जितने बैठे हैं, रोज़ चेक इन चेक आउट कर रहे हैं, तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा? बारह बजते हैं, चेक आउट टाइम होता है, और रोज़ कितने उठ जाते हैं। तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा? अभी भी तुम्हें दिक्कत हो रही है मानने में, कि सराईं है?

ये क्या बोल रहे हैं यहाँ – “साथ तिआर मुसाफ़र तेरे, अजे ना सुणिओं कूच नगारे।।” सुनाई नहीं पड़ रहा? देख नहीं रहे? रोज़ कितने उठ रहे हैं?

श्रोता: होटल में भी तो यही होता है, बारह बजने वाले हैं, मतलब चेक आउट टाइम हो गया।

आचार्य प्रशांत: रोज़ कितने लोग चेक आउट कर रहे हैं, नहीं दिखाई पड़ रहा? रिमाइंडर आते हैं। आपका जब चेक आउट टाइम होता है, उससे आधा-एक घंटे पहले फ़ोन बजता है कि सर, “डू यू वांट टू एक्सटेंड योर स्टे?”

(श्रोतागण हँसते हैं)

वो असल में ये नहीं पूछना होता है कि, वो ये नहीं पूछ रहा होता “डू यू वांट टू एक्सटेंड योर स्टे?” वो आपसे ये कह रहा होता है, कि बेटा बारह बजने वाले हैं।

श्रोता: निकल लो इज़्ज़त से, नहीं तो एक दिन का और देना पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: हाँ। आपको भी तो इतने रिमाइंडर आते रहते हैं। अब, ये सब (बाल) सफ़ेद हो रहे हैं, ये क्या रिमाइंडर है? कि बेटा समय क़रीब आ रहा है धीरे-धीरे। समय आ रहा है क़रीब, क्यों परेशान हो रहे हो? बड़े पोलाइट रिमाइंडर्स आते हैं, फिर अगला रिमाइंडर भी आएगा, जब दाँत-वाँत हिलने लगेंगे।

श्रोता: हर साल जन्मदिन एक रिमाइंडर होता है।

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल होता है, तो चेक आउट तो रोज़ हो ही रहे हैं। वो कहानी है ना कि बैठा हुआ था ऐसे ही — अपना पेड़ के नीचे बैठा हुआ है। आदमी आया उसके पास एक, अनजान लोग थे सड़क जा रही है सड़क के किनारे पेड़ है, उस में वो बैठा हुआ है नीचे। तो पूछा कि बस्ती किधर है, बस्ती जाना है, बस्ती किधर है। तो वो बोलता है, “उधर है, जाओ।” तो जिस अंदाज़ से उसने कहा, उधर है जाओ, तो उन्हें शक़ तो हुआ कि ये कुछ तो गड़बड़ कर रहा है। पर अब तो और कोई था भी नहीं बताने वाला, तो उसने जो बात कही लोगों ने मान ली, उधर चले गए। चलते गए, वहाँ शमशान और आ गया ख़तरनाक। गीदड़, सियार डोल रहे हैं।

तो लौट के आए उसके पास, वो वहीं बैठा हुआ था। उनको आते देखा तो हँसने लगा। उन्होंने बोला टाइम ख़राब कर दिया घंटा लगवा दिया वहाँ जाके, बस्ती है वहाँ पर? हैं? क़ब्रिस्तान है, उसको बस्ती बोल रहा है। बोला, वहीं असली बसते हैं। जिसको तुम बस्ती बोलते हो, वो तो रोज़ उजड़ती है। ये कभी नहीं उजड़ता, ये रोज़ बसता जाता है। और यहाँ जो आता है, वो यहाँ से कभी नहीं जाता। तो बस्ती तो वहाँ को बोलो ना, जहाँ लोग बस जाएँ, बस ही जाएँ। गए तो बस गए। एक बार क़ब्र में जाता है तो बस जाता है। फिर मैंने उसे कभी निकलते नहीं देखा। जिसको तुम बस्ती बोलते हो, वहाँ तो रोज़ कोई ना कोई उजड़ता है।

ये जो तथ्य है मौत का, ये जिसको समझ में आ गया, उसका काम बहुत बढ़िया हो जाता है। जो इस भ्रम में ही जीता रहता है कि अभी बहुत समय है; दिन में अगर आपको पाँच दस बार मौत याद आ जाये तो आपका काम बढ़िया चल रहा है। आप फिर इस भुलावे में नहीं रह सकते के, ये है और वो है, और दुनिया भर के खेल और दुनिया भर के तमाशे।

श्रोता: पर वो डर भी नहीं होना चाहिए ना।

आचार्य प्रशांत: नहीं, मौत की जो स्मृति है वो डरावनी नहीं है बिलकुल भी। वो एक तथ्य है। आप जा रहे हैं, सड़क पर, चल रहे हैं चल रहे हैं और बस, ठीक है। ज़रूरी नहीं है किसी का जनाज़ा देखें तब याद आए। किसी का जन्मदिन है, तब भी याद आ सकता है। ज़रूरी नहीं है कि कोई बूढ़ा आदमी दिखे, तभी मौत दिखाई देगी। कोई बिल्कुल छोटा बच्चा हो, अगर उसको भी देख के एक बार, बस हल्की सी झलक। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बस मौत ही मौत दिखाई दे रही है चारों तरफ़, यमराज और भैंसे कूद रहे हैं।

एक पैसिव रिमेम्ब्रन्स जो है, वो हमेशा बनी रहे। चुपचाप, हल्की सी स्मृति, वो बनी रहे तो सब कुछ बढ़िया है। बड़े स्वास्थ्य का सूचक है वो। जो डर है मौत का, वो बीमारी है। ये जो पैसिव रिमेम्ब्रन्स है, ये बहुत स्वस्थ चीज़ है।

शायद इसीलिए हिंदुओं में, मुसलामानों में, सब में ये माना गया है कि जनाज़ा जा रहा हो, तो उसको कंधा देना पुण्य का काम है। उसके पीछे मंशा यही रही होगी कि उसके पास जाओ, मृत्यु के तथ्य को देखो। दूर दूर मत रहो। कोई मरा है, देखो, “हाँ ऐसा ही होता है। ऐसा ही होता है, होके रहेगा।”

श्रोता: तभी वो हिंदी में कहावत है ना, किसी के पैदा होने पर जाओ ना जाओ, लेकिन मरने पर ज़रूर जाओ।

आचार्य प्रशांत: हाँ, हाँ, वो शायद बात यही है। कि मृत्यु को देखना बहुत ज़रूरी है। बहुत-बहुत ज़रूरी है।

श्रोता: “कर लै अज करनी दा बेरा, मुड़ ना हो सी आवण तेरा, साथी चल्लो पुकारे।”

आचार्य प्रशांत: ‘अभी’ – देखिए, पहला ही शब्द था, ‘अब’ और यहाँ उसी से मिलता जुलता एक और शब्द इस्तेमाल किया गया है, क्या? ‘अज’ – आज। ‘अज’, आज के लिए प्रयुक्त है। जो करना है, आज कर ले। ठीक है? दोबारा ये समय नहीं मिलेगा, यहाँ आना दोबारा नहीं होने का है। “साथी चल्लो पुकारे” – साथी कह रहे हैं “भाई, हमारे साथ चलो, अभी कर डालो। जो समय है, अभी है। कुछ कच्चा पक्का नहीं होता। कब पकोगे? अभी है तो है, अभी नहीं तो कभी नहीं।” क्या कहा था, एसोप ने?

श्रोता: जस्ट नाउ जंप।

आचार्य प्रशांत: जस्ट नाउ जंप। है तो अभी ही है, नहीं तो नहीं है। बाक़ी सब कल्पना है।

श्रोता:

“मोती, चूनी, पारस, पासे, पास समुन्दर मरो पिआसे, खोल्ह आक्खीं उठ बौह बेकारे।”

आचार्य प्रशांत: ये जो तुमने सब अपना बैंक अकाउंट, शेयर, घर, द्वार, प्रॉपर्टी, संबंध, ये सब पड़े ही रह जाने हैं। प्यासे मरोगे, जब समुद्र?

श्रोता: सामने है।

आचार्य प्रशांत: प्रस्तुत था। वो है ना – “वॉटर वॉटर एव्रीवेयर, बट नॉट अ ड्राप टू ड्रिंक।”

श्रोता: “जल में मीन प्यासी, मोहि सुन-सुन आवे हांसी।”

आचार्य प्रशांत: प्यासे मर जाओगे, सब कुछ उपलब्ध रहेगा, तुम प्यासे मरोगे। बात गहरी है, समझिएगा – मर के प्यास नहीं बुझनी होती। ये जो ज़िंदा रहने का समय है, ये जो सराईं का समय है, प्यास इसी में बुझनी होती है। इसी जीवन को ऐसे जिया जाता है कि प्यास बुझती ही रहे।

इसी जीवन को ऐसे जिया जाता है। मोक्ष या मुक्ति, शरीर छोड़ देने के बाद नहीं है। कि शरीर छोड़ देने के बाद भी कोई मैं बचेगा, और उस मैं को मुक्ति मिल जानी है। शरीर गया तो मैं भी गया। जो प्यास बुझनी है, अभी बुझनी है, समुद्र अभी उपलब्ध है। यही जो जगत है। जिसको दूसरे मौके पर हम ये भी कह रहे हैं, कि पूरी तरह सत्य नहीं है, इसी जगत से प्यास भी बुझनी है। बात समझ में आ रही है?

लेकिन, ध्यान से समझिएगा, जगत से प्यास तब बुझनी है, जब जगत के पार जो है, उसकी अनुभूति रहे। जगत से प्यास तब बुझेगी जब जगत के पार जो है, उसकी अनुभूति रहे। जगत का आधार जो है, जब उसकी अनुभूति रहे तब इस जगत से प्यास बुझेगी, नहीं तो फिर इस जगत से प्यास फिर बढ़ती ही रहेगी। और प्यासे ही मर जाओगे। वही जो कह रहे हैं, कि समुद्र पास लहराता रहेगा और तुम प्यासे मर जाओगे।

हालाँकि हर कोई आदमी जो प्यासा मर रहा है, उसने पीने की कोशिश पूरी करी है। हमारी सारी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ, इसी पीने की कोशिश का ही तो नाम हैं कि पी जाएँ, और पा जाएँ, और पा जाएँ। कोशिश पूरी है कि इसको पी जाएँ, पर मर प्यासे जाते हैं, क्योंकि समझ ही नहीं रहे हैं कि क्या पीना है? ये बात स्पष्ट ही नहीं हो रही है।

ये थोड़ी सी पैरेडॉक्सिकल बात है, इसे ध्यान देंगे तो ही समझ में आएगा। यही सब कुछ जो है, यही रोज़ाना के काम, यही उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना, कहीं जाना, वहाँ पर कुछ करना। यही जो रोज़मर्रा के हमारे काम हैं, जो शरीर से करते हैं, इन्द्रियों से करते हैं, इन्हीं कामों से प्यास बुझ जाएगी अगर सुरति बनी रहे। अब सुरति अपने आप में कोई काम नहीं है। कि आप बाक़ी सारे काम छोड़ के, कि नहीं, बाकी काम हम करें हीं क्यों? कि हम तो सुरति कर रहे हैं। सुरति माने याद रखना, वही पैसिव रिमेम्ब्रन्स कि हम बाक़ी काम क्यों करें? नहीं।

सुरति का अर्थ ही यही है कि बाक़ी काम चलते रहेंगे, वो बनी रहेगी। बाक़ी काम उसके आलोक में चलते रहेंगे। बात समझ रहे हैं? अभी हम लगातार किसकी और देख रहे हैं? एक दूसरे की ओर। या हमारे हाथ में जो कागज़ है, उसकी ओर। क्या हम रोशनी की ओर देख रहे हैं? तो सुरति उस रोशनी की तरह है। जिसकी और देखा नहीं जाता, पर जिसके आलोक में सारे काम चलते रहते हैं। और अगर आप कहें कि असली चीज़ तो वो रोशनी है जिसके कारण हम देख पा रहे हैं। तो चलो सिर्फ़ उस रोशनी को देखो। तो फिर जीवन ख़राब ही हो जाना है, और आँखें भी ख़राब हो जानी हैं। कि साहब कुछ नहीं करते हैं, सिर्फ़ ये प्रकाश की उपासना करते हैं, तो ये लगातार रोशनी की ओर देखे जा रहे हैं।

वो बनी रहेगी, उसकी ओर देखना नहीं है। पर वो बनी रहे। वो अगर बुझ गई, तो क्या हम एक दूसरे को जान पाएँगे? क्या हम बुल्ले शाह को जान सकते हैं? क्या हम इस कागज़ को पढ़ सकते हैं? तो ये रही सुरति जो बनी रहेगी लगातार, पर जिसके बने रहने को कोई नया कर्म नहीं कहा जा सकता। कर्म सब यहाँ हो रहा है। उसका होना काफ़ी है, जैसे एक साक्षी हो। कर्म सारा यहाँ हो रहा है, उसका बस पास में होना काफ़ी है।

ये रहा समुन्द्र, इसी में प्यास बुझ जानी है। इसी में बुझनी है। कोई देवता नहीं है, कोई ईश्वर नहीं है। कोई भी ऐसी चीज़ नहीं है जो हमारी कल्पना हमको बताती है कि आएगी और हमारी प्यास बुझा देगी। कोई अचीवमेंट नहीं है, कोई भविष्य नहीं है। यही रोज़मर्रा का आटा, तेल, चावल, नून, तेल, लकड़ी, यही है। और इसी में पूरी तरीक़े से प्यास बुझ जानी है, अगर आदमी समझदार हो। और कुछ है ही नहीं। स्पष्ट हो रही है बात? और कुछ है ही नहीं, बिल्कुल ही नहीं है।

देखिये, दो तरह के लोग हैं। एक वो जो आटे को, तेल को, लकड़ी को, आख़िरी सत्य मान लेते हैं, और वो उसी के पीछे भागते रह जाते हैं। बिल्कुल उसी के पीछे भागते रह जाते हैं। ज़्यादातर लोग वैसे ही हैं। कि यही तो सब कुछ है, घर बार बना लो, गाड़ी खड़ी कर लो, अच्छा-अच्छा खाने को पा जाओ, दुनिया घूम लो, हो गया। ये एक प्रकार के लोग हैं।

दूसरे प्रकार के लोग वो हैं, जिनको आप स्यूडो रिलीजियस कह सकते हैं। ये वो हैं जो कहते हैं, कि इसमें कुछ रखा नहीं है। असली दुनिया कहीं और है, जन्नत मर के नसीब होती है। वो कहते हैं, ये दुनिया फ़ालतू है। इसमें कुछ नहीं है। कहते हैं, देखो बुल्ले शाह ने भी कहा है, सराईं है, सराईं में क्या रखा है? ये तो बिल्कुल ही फ़ालतू जगह है। तो इसको छोड़ो, उसकी तैयारी करो, जो तुम्हारा असली घर है। इसको भी कुछ नहीं मिलता।

एक तीसरे तरह का आदमी होता है। जो कहता है कि मुझे पता है कि ये पूरी तरह से आख़िरी नहीं है, सत्य नहीं है। लेकिन जो सत्य है, वो इससे अलग भी नहीं है। इसी में रह कर के, इसी के माध्यम से सत्य को पाना है। ध्यान दीजिएगा, ये सत्य नहीं है, पर सत्य इससे अलग भी नहीं है। इस आदमी ने कुछ जाना है। इसने कोई सूत्र पकड़ लिया है, ये जो तीसरा आदमी है। और ये बड़ी मुश्किल बात है। पहली और दूसरी अवस्थाएँ मन को बड़ी जंचती हैं। पहली अवस्था क्या बोलती है? कि यही सब कुछ है। मेरा घर, मेरा परिवार, रुपये, पैसे, संबंध, मेरा बच्चा, यही है।

श्रोता: भाई परीक्षा दे रहा है तो मान के चल रहा है कि ये दुनिया का आख़िरी परीक्षा है, इस परीक्षा में पास हो गए तो बस सब कुछ हो गया।

आचार्य प्रशांत: हाँ, बस यही है। यही असली है और वो कहता है इसी को पा लूँगा तो सब कुछ हो जाएगा। तो उसकी जो सारी दौड़ है, सारी तलाश है, वो इसी में कुछ पाने की है।

जो वो दूसरा आदमी है, जिसको हमने कहा स्यूडोरिलीजियस मैन, वो कहता है ये फ़ालतू है मिथ्या है, नकली है, जगत में क्या रखा है? आओ मंदिर में आओ, चलो आश्रम चलते हैं; कहाँ घर में बैठे हो जाओ गंगा में डुबकी मारो, नहीं हज कर के आओ। ये सब तुम्हारा घर फ़ालतू है, घर में कुछ नहीं रखा है। इन दोनों के विरुद्ध एक तीसरा आदमी खड़ा है, जो बिल्कुल वही रेजर सेज 35.11 पर चल रहा है। जिसने कोई बड़ी मज़ेदार बात जानी है। वो कह रहा है, ये नहीं होगा असली पर असली इससे अलग भी नहीं है। इसी में डूब कर के असली का मिलना है। इसी में डूबना है गहराई से; कि जैसे कह रहा हो, कि सागर नहीं है मोती पर मोती सागर से अलग भी नहीं है। जिसे मोती चाहिए क्या वो ये कहे कि ये तो समुद्र है, ये थोड़ी ही मोती है इससे दूर-दूर रहो। जिसे मोती चाहिए उसे समुद्र में डूबना पड़ेगा। मज़े की बात ये है कि जिस समुद्र में आप डूब रहे हैं, वो समुद्र मोती नहीं है। आपको चाहिए क्या?

श्रोता: मोती।

आचार्य प्रशांत: मोती। और आप डूब किस में रहे हैं? समुन्द्र में, अब समुद्र तो मोती नहीं है! पहला और दूसरा आदमी ये तर्क दे सकते हैं, कि जब मोती चाहिए तो समुद्र में क्यों डूब रहे हो, मोती में डूबो! लेकिन असली बात ये है कि मोती उस समुद्र का ही हिस्सा है। या ये कह लीजिए कि इतने नीचे बैठा है कि एक प्रकार से आधार में बैठा है समुद्र के। समुद्र के आधार में बैठा हुआ है मोती। समुद्र की गहराईयों में बैठा हुआ है मोती। जो समुद्र में डूबा है, उसी ने उसे पाया है।

न तो वो पाएगा मोती को, जो समुद्र में ऊपर-ऊपर तैरता रह गया कि यही तो सब कुछ है! फ़्लोटिंग। न वो पाएगा जो दूर किनारे बैठा है। कि मोती तो ठोस चीज़ होती है, समुद्र तरल है, यहाँ कैसे मिल जाएगी? मैं रेत पर बैठा हूँ, रेत ठोस है, शायद यहाँ मिल जाए।

तो बड़ी विपरीत सी बात है ये, कि समुद्र और मोती में आपस में कोई साम्यता दिखाई भी नहीं पड़ेगी। एक बहता है, दूसरा नहीं बहता है। एक हाइड्रोजन ऑक्सीजन है, दूसरा कार्बन है। पर फिर भी, उसी में डूबना होगा अगर वो चाहिए। डूबना साम्यता में होगा, तो डूबना संसार में ही होगा। और ये बड़ी मज़ेदार बात है कि जो संसार में डूबता है वही संसार के पार निकल जाता है। जो संसार में पूरी तरह डूबता है। और संसार में डूबने का अर्थ ये नहीं है कि संसार को ही आखिरी मान लिया। संसार में डूबने का अर्थ ही यही है, कि वो याद बनी हुई है। वरना आप डूब पाओगे भी नहीं!

श्रोता: सर, अगर मैं किसी संसारी कार्य में पूरी तरह लगा हुआ हूँ, अब उसमें सुरति क्या है?

आचार्य प्रशांत: तुम कभी भी किसी भी कार्य में लग नहीं पाते, क्योंकि तुम किसी भी कार्य के पास अपना बहुत कुछ ले कर के जाते हो। तुम कुछ भी करते समय अपने को पीछे छोड़ के जाते नहीं। इसीलिए, भले ही ऊपर-ऊपर ये लगता हो कि मैं किसी भी काम में, किसी भी क्षण में डूब गया हूँ, डूब कभी पाते नहीं। तुम कोई भी काम उठा लो, कोई भी घटना उठा लो, छोटी या बड़ी, दिनभर में जो करते हो। उसमें क्या कभी भी अपने को छोड़ कर के जाते हो? अपने को छोड़ कर के जाते हो क्या?

श्रोता: अपने को छोड़ने का क्या मतलब है?

आचार्य प्रशांत: अपने को छोड़ने का मतलब है कि आप खेल रहे हो, तो क्या आप ये भूल गए हो कि आप कौन हो? या आपका प्रतिद्वंद्वी कौन है? या ये मौका क्या है? आप भूल तो नहीं पाए ना?

आप खा रहे हो तो क्या भूल गए हो सब आगा पीछा? दुनिया भर की बातें अभी याद हैं, अब कैसे उसके साथ एक हो पाओगे? कितने बजे खाना है, ये भी याद है। हिंदू हूँ, तो व्रत रखना है ये भी याद है। किस हाथ से खाना है, किस में क्या चीज़ मिलानी है, कौन सा भोजन पहले बनाना है, कौन सा बाद में खाना है, सब याद है। तुम कहाँ किसी चीज़ से एक हो पाते हो? खाना भी अगर खाना है तो ढाबे पर खाना है, या होटल पर खाना है, ये भी याद है। अब जो खाना खाने जा रहा है, वो पेट है या तुम्हारा आर्थिक स्थिति है? पर सब याद है।

जब तक तुम इतनी सारी यादें ले कर कुछ कर रहे हो, तब तक कहाँ डूब रहे हो उसमें? लग सकता है कि देखो ना मैं कितना तल्लीन हो कर खाना खा रहा हूँ। कहाँ तल्लीन हो कर के खा पा रहे हो? तुम अपना सब कुछ ले कर के गए हो वहाँ पर, कि जिस वस्तु के साथ एक होना है तुम हो ही नहीं पाओगे। उस वस्तु के बीच में तुम्हारा ‘मैं’ खड़ा हुआ है, बहुत सारा।

श्रोता: आम अनुभव है मेरा कि खाना खा रहे होते हैं, तब भी दिमाग़ में चल रहा होता है कि अब इसके बाद क्या करना है?

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल। उसके बाद ही क्या नहीं करना; एक तो ये बात है कि भविष्य क्या है, तुम खाना भी कुछ बन के खा रहे होते हो। असंभव है वहाँ पर फिर उस खाने की क्रिया में पूरी तरह डूब पाना! असंभव है।

कुछ हो जाने का मतलब ये है कि घटना और मेरे बीच ‘मैं’ ना खड़ा हो। मैं घटना ही बन जाऊँ पूरे तरीक़े से।

तुम अभी यहाँ बैठे भी हो ना, तो बहुत कम ऐसे लोग होंगे, जो इस वक़्त सिर्फ़ कान हैं। बाक़ी लोग अभी हाथ पाँव, पेट, दिमाग़, सब कुछ हैं। जबकि इस क्षण में डूबने का अर्थ ये हुआ कि सिर्फ़ कान बचें, पर तुम्हारा मैं अभी यहाँ बाक़ी है। पूरा अपना ‘मैं’ ले कर के यहाँ पर आए हो, तो नहीं डूब पा रहे हो। समुद्र होगा उपस्थित, कह रहे हैं ना वो कि समुद्र बह रहा है, लहरा रहा है। और तुम उसमें अभी भी प्यासे के प्यासे ही रह जाओगे। क्योंकि तुम यहाँ बैठे भी हो तो निशीथ चौहान बन कर के बैठे हो। तुम सिर्फ़ सुनना बन के नहीं बैठे हो।

तो ये जो कहा जा रहा है, ये इसी जगत का हिस्सा है। इसमें कुछ दिव्य नहीं कुछ पराभौतिक नहीं। लेकिन उस सुनने भर से, अगर ध्यान से सुन लिया गया, तो इस सुनने भर से कुछ ऐसा हो सकता है, जो पार की बात हो, जो बियॉन्ड की बात हो। और वो तब हो पाए जब तुम इस सुनने में डूब पाओ, वो तुम नहीं हो पाओगे। क्योंकि बहुत कुछ है जो तुम्हारे और घटना के बीच में खड़ा है। तुम्हारे और सुनने के बीच में खड़ा है दीवार बन के खड़ा हुआ है। ये आ रही है बात समझ में?

और उसको हटाया जा सकता है, वो कोई बड़ी बात नहीं है। तुम तय ही कर लो कि उसको नहीं होना चाहिए तो वो हट जाएगा। तुम्हें उसमें कोई स्वार्थ दिखता है, इसलिए वो उठ खड़ा होता है। तुमको ये साफ़-साफ़ दिखने लगे कि इसमें स्वार्थ नहीं है, नुकसान ही नुकसान है तो वो हट जायेगा।

आगे?

श्रोता:

“बुल्ल्ला शौह दे पैरीं पड़िये, ग़फ़लत छोड़ कुझ हीला करिये, मिरग जतन बिन खेत उजाड़े।”

आचार्य प्रशांत: ‘शौह’ उसी अर्थ में प्रयोग हुआ है जैसे शौहर होता है, शौहर। कह रहे हैं, कि शौहर के जा के पाँव पकड़ लो। अब कौन सा शौहर?

श्रोता: मेरे वो पिया।

आचार्य प्रशांत: हाँ। ये भक्त कवियों में, सूफ़ियों में, सब में बड़ा चलन रहा है ‘उसको,’ ‘आत्म’ को, पति रूप में सम्बोधित करने का, स्वामी रूप में सम्बोधित करने का। कि वही है असली करने वाला। बुल्ले शाह कह रहे हैं, कि तुम बाक़ी सब हरकतें छोड़ो, और जा के उस शौह के, पति के, पिया के, पाँव पकड़ लो। और अपनी जितनी, कौन सा शब्द इस्तेमाल किया है इन्होंने, क्या छोड़ के?

श्रोता: ग़फ़लत।

आचार्य प्रशांत: ग़फ़लत। अपनी सारी ये जो तुमने भ्रम पाल रखे हैं, कल्पनाएँ, या उनके शब्दों में कहा जाए तो लापरवाहियाँ, इनको छोड़ दो और बिल्कुल सीधे हो जाओ। बिल्कुल सीधे हो जाओ। अपनी सारी चतुराई छोड़ दो, अपना सारा अहंकार छोड़ दो, और जा कर के पाँव पर पड़ जाओ।

श्रोता: सर ये ग़फ़लत जो है, वो भी है तो कहीं ना कहीं आपसे आई?

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल आई है, बिल्कुल उसी से आई है। उसके न होने से नहीं आ सकती। लेकिन उसके होने से जो दर्द है, जो बेचैनी है, वो भी उसी ग़फ़लत को ही है। हम वो ग़फ़लत ही हैं ना! तो ग़फ़लत को अगर अपना कुछ ख़्याल हो, अपने आप से थोड़ा प्रेम हो तो अपने लिए ही जा कर के पाँव पर पड़ जाए। वो किसी और को थोड़े ही सलाह दे रहा है, उस ग़फ़लत को ही तो सलाह दे रहे हैं, और किसको दे रहे हैं?

ग़फ़लत माने अहंकार। हम अहंकार ही हैं न पूरे, ऊपर से नीचे तक हम और क्या हैं? तो वो हमें ही सलाह दे रहे हैं। हमारे ही हित के लिए। उसका कुछ नहीं बिगड़ रहा, उसके पाँव पकड़ो ना पकड़ो, उस को क्या अंतर पड़ना है? जिसको बेचैनी है, जिसको समस्या है, उसको कह रहे हैं। क्या है आखिरी पंक्ति?

श्रोता: “मिरग जतन बिन खेत उजाड़े।”

आचार्य प्रशांत: माया मृग की बात करी है, जैसे मृग मरीचिका में जो इस्तेमाल होता है। मृग, क्या है मृग? हिरण। कि तुम्हारा जो खेत है, वो उजाड़े दे रहा है, जो मृग है जो कल्पनाओं का मृग है, यही तुम्हारी जान लिए ले रहा है। इसी से बचो। अपने दिमाग़ी करतूतों से, अपनी सारी कारस्तानियों से, अपनी जो सारी चालाकी है, इसी से बचने के लिए कह रहे हैं वो।

कह रहे हैं, “तुम्हारा दुश्मन और कोई नहीं है, तुम जो अपने आप को इतना स्याना समझते हो, यही तुम्हारा दुश्मन है, सीधे हो जाओ बिल्कुल।” और कोई सलाह ही नहीं है उनके पास देने के लिए। तुम्हारी जितनी करतूतें हैं, इनको छोड़ कर के बिल्कुल सीधे हो जाओ। यही तुम्हारा खेत उजाड़ रही है, हरकत।

इशारा लगातार, लगातार, एक ही तरफ़ है – उठो, जग जाओ। और वो उठना, जगना, अभी है। किसी प्लानिंग से नहीं होगा। तुम ये नहीं कह पाओगे कि तब उठूँगा, और परसों उठूँगा और नरसों उठूँगा। तुम्हारा कल परसों करना भी तुम्हारी चालाकियों का हिस्सा है, और कुछ नहीं है।

श्रोता: जिसको आप चालाकी बोल रहे हैं, वो काफ़ी कुछ कंडीशनिंग से भी आता है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, चालाकी का अर्थ है कि, मैं चालक हूँ इसका अर्थ क्या है? कि मैं अपना स्वार्थ देख रहा हूँ। चालाकी का अर्थ है कि मैं बहुत बड़ा होशियार हूँ।

श्रोता: डर भी है, मतलब जो समाज का डर है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल। बिना डर के आप होशियार हो भी नहीं सकते। सारी होशियारी ही इसी में है कि मैं उस डर के कारण, अब उस डर से दूर जा सकता हूँ। डर ही कारण है होशियारी का। जिसको डर नहीं वो बिल्कुल सीधा सपाट खड़ा हो जाएगा कि मेरा क्या बिगड़ जाना है। जिसको डर है, उसी को चालाकी चाहिए। बिल्कुल सीधे हो जाओ।

मन चालाकियों का ही नाम है, छोड़ दो इसको। मन की चालाकियाँ बेवक़ूफ़ियों से आगे कुछ होती भी नहीं हैं।

अगली कौन सी है?

श्रोता:

साडे वल्ल मुक्खड़ा मोड़ वे प्यारिआ, साडे वल्ल मुक्खड़ा मोड़। आपे लाईआं कुंड़ियां तैं, ते आपे खिंच्चदा हैं डोर। अरश कुरसी ते बांगां मिलियां, मक्के पै गया शोर। बुल्ल्हा शौह असां मरना नाहीं, वे मर जावे कोई होर।

आचार्य प्रशांत: “साडे वल्ल मुक्खड़ा मोड़ वे प्यारिआ साडे वल्ल मुक्खड़ा मोड़।” – जब हमने वो गानों वाला सत्र करा था, तो याद है, “तुम पुकार लो?”

श्रोता: जी

आचार्य प्रशांत: तो ठीक वही यहाँ पर। मैं नहीं पुकार रहा, मेरे पुकारने से भी क्या होगा? तुम पुकार लो, तुम मुखड़ा मोड़ो मेरी तरफ़। अर्थ समझ रहे हैं क्या है? उसका मुख तो हमेशा मुड़ा ही हुआ है। उसका मुख कब दूसरी ओर हुआ था? जब कहा जा रहा है कि मेरी ओर मुँह मोड़, तो सिर्फ़ यही कहा जा रहा है – कि मेरी मति ऐसी कर दे कि मैं तेरी ओर मुँह मोड़ लूँ। उसका मुँह कहीं विपरीत दिशा में था ही नहीं। या ये कहिए कि जितनी दिशाएँ हैं, हर दिशा में ही उसका मुँह है। तो ये कहना कि मेरी ओर मुँह मोड़, ये बात ही थोड़ी विचित्र है। बुल्ले शाह निश्चित रुप से ये नहीं कहेंगे कि मेरी और मुँह मोड़। क्योंकि वो जो है, ‘आत्म’ वो आपसे हट के किधर को भी मुँह कर कहाँ सकता है? किसी ने किधर को मुँह फेर रखा हो, तो ना आप उससे कहेंगे कि मेरी और मुँह मोड़। वो और किधर को मुँह करेगा? सारी दिशाएँ ही उसकी हैं। उसका मुँह तो निरंतर सब तरफ़ को है। तो मुँह मोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता! तो वो कहाँ मुँह मोड़ेगा?

जो सूरज ढल जाता हो, उससे तो कहा जाए होगा कि उठ और उग, और जो सूरज कभी ढलता ही न हो, उससे कहा जाए कि उग, तो ये बात ही।

तो जब बुल्ले शाह कह रहे हैं कि मेरी और मुँह मोड़, तो वो ये कह रहे हैं कि मेरी मति ऐसी कर दे कि मैं तेरी ओर मुँह कर लूँ। ये मति भी तो तूने ही दी है ना, ये मन तेरा, ये अहंकार तेरा। स्रोत में तो तू ही बैठा है सबके? प्रार्थना उससे ये है कि मेरा मन ऐसा कर दे कि मैं तेरी ओर उनमुख हो जाऊँ। “मेरा मन ऐसा कर दे कि मैं तेरी ओर उनमुख हो जाऊँ।”

और ये बड़ी मज़ेदार बात है। सूफ़ी जाने जाते हैं, अपने विनय के लिए। सूफ़ियों से ज़्यादा विनम्र आदमी, मिलना मुश्किल है। वो ये भी नहीं कहते कि मैं तेरी प्रार्थना कर रहा हूँ, ध्यान दीजिएगा, वो ये भी नहीं कहते हैं कि मैं तेरी प्रार्थना कर रहा हूँ। क्योंकि उसमें भी अहंकार है, कि मैं कुछ तो कर रहा हूँ ना! समझ रहे हैं बात को? कि मैं कुछ तो कर रहा हूँ! और धर्मों के लोग होंगे, और परंपराओं में अक्सर आप ये सुनेंगे कि भक्त कह रहा है कि मैं ऐसी तपस्या करूँगा कि भगवान को विवश होके आना पड़ेगा। यहाँ बड़ा सूक्ष्म अहंकार है।

यह सुना है ना, फलाने ने फलानी नदी के तट पर खड़ा हो कर के एक पाँव पर खड़ा रह कर तीन हज़ार साल तक तपस्या करी। तो क्या हुआ उसकी वजह से? भगवान को प्रकट ही होना पड़ा। यहाँ तक कहा जाता है कि उस भक्त की वजह से भगवान का सिंहासन डोलने लग गया। तो उनकी आँख खुली, कि ये क्या हो रहा है? तो वो फलाना नदी पे खड़ा हो के तपस्या कर रहा है! तो उनको आना पड़ा और पूछना पड़ा, “क्या?” तो वो बोला, “ये चाहिए।” तो बोले, “तथास्तु! मिले तुझे!” समझ रहे हैं? अब यहाँ अहंकार है, कि मैं ऐसा कुछ तो कर सकता हूँ, कि उस तक पहुँच जाऊँ।

तो ये बड़ी ह्यूमिलिटी की बात है कि मेरे करे से तो ये भी नहीं होगा। वो भी तभी होगा जब तू चाहे। “मैं तेरी ओर देखूँ, ये भी तभी होगा जब? जब तू चाहे। तू नहीं चाहेगा तो मैं तेरी ओर देख भी नहीं पाऊँगा। तो मेरा मन ऐसा कर दे कि मैं तेरी ओर देख पाऊँ।” अंतर समझ रहे हो? मैं तो तपस्या भी नहीं कर पाऊँगा, मैं तो साधना भी नहीं कर पाऊँगा अगर तू न चाहे। और ये बात बिलकुल सही है। इस कमरे में हम बैठते हैं, और कितनी ही बार हमें लगता है करना चाहिए, पर क्या हम कर पाते हैं? नहीं कर पाते, क्योंकि ग्रेस उपलब्ध नहीं है। आपके तो बड़े संकल्प बनते हैं, कि ये कर लूँ कि वो कर लूँ, और उन संकल्पों का होते क्या है? हमारे तो बड़े संकल्प बनते हैं, बनते हैं कि नहीं बनते हैं?

श्रोता: बहुत सारे।

आचार्य प्रशांत: और हमारे उन संकल्पों का होता क्या है?

श्रोता: टूट जाते हैं, छूट जाते हैं। जब परीक्षा का समय आता है, ख़त्म।

आचार्य प्रशांत: ख़त्म हो जाते हैं ना? और मान लो उन्ही संकल्पों में से एक संकल्प ये है कि मैं उस तक पहुँचूँगा, तो वो संकल्प भी टूट जाएगा। क्योंकि हमारे संकल्पों की नियति ही है अपूर्ण रह जाना। संकल्प भी पूरा हो सके, इसके लिए आवश्यक है, उस तक पहुँचने का संकल्प भी पूरा हो सके, उसके लिए आवश्यक है, कि ‘उसकी’ मेहर हो। और ये बड़ी मज़ेदार बात है, कि तुझ तक पहुँचू, ये संकल्प भी मैं ले पाऊँ, और ये संकल्प मैं पूरा कर पाऊँ, इसके लिए भी तेरी ही दृष्टि पड़े, तो ही होगा काम। यही वो कह रहे हैं।

श्रोता: ओशो कहते हैं कि तुम तैयारी कर सकते हो और उसके बाद सिर्फ़ इंतज़ार कर सकते हो।

आचार्य प्रशांत: ये उससे भी आगे की बात है। ये कह रहे हैं, कि तैयारी भी तो तब होगी ना, जब तू मुझे कहेगा तैयारी करने को? मेरा मन ऐसा कर कि तैयारी हो सके, या जो भी होना है हो सके! तैयारी करने में भी बड़ा दंभ है। कि मैं तैयारी कर रहा हूँ।

श्रोता: मैं कुछ भी नहीं कर सकता।

आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं कर सकता मैं। तैयारी भी तो तब हो जब तू बोले।

श्रोता: बिल्कुल वैसे ही जैसे वैष्णो देवी माता ही ख़ुद टूर ऑपरेटर हों। चलो बुलावा आया है। वो ख़ुद ही टूर ऑपरेटर हों, वो बोलें कि ऐसे आना है, ये तैयारी है।

इसमें सर, मीस्टर एकहार्ट का वो कि ‘वो तैयार है और हमारी सहमति है? क्या है ये?

आचार्य प्रशांत: वो लीला वाली बात है, जब उन्होंने कहा था कि तुम्हें तैयार होना पड़ेगा। तुम अपनी मर्ज़ी से तो कभी तैयार होगे भी नहीं। उसी तैयारी का नाम ग्रेस है। तुम तैयार हो सको, इसके लिए तुम्हारा होना तो कभी पर्याप्त होगा नहीं। क्योंकि जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, तुम दस हज़ार साल में भी तैयार नहीं होओगे। तुम कभी नहीं तैयार होओगे। क्योंकि तुम्हारी तैयारी का अर्थ ही है अहंकार की मौत, और तुम हो अहंकार। तो अपनी मौत के लिए तुम आज कल परसों क्या, दस हज़ार साल में भी तैयार नहीं होओगे। तुम तैयार हो सको, इसके लिए भी कुछ ऐसा चाहिए, जो तुम्हारा नहीं है, और उसी का नाम प्रार्थना है।

मैं कुछ कर सकूँ, उसके लिए मेरे पास कुछ चाहिए जो मैं हूँ ही नहीं। वही आ सके, वही बरस सके मुझ पर उसी का नाम प्रार्थना है।

या ये कह लीजिए, अब बात को समझना है, तो थोड़ा पैरेडॉक्सिकल लगेगी। द बेस्ट आई कैन डू इज़ टू एकनॉलेज, आई कांट डू एनीथिंग एंड दैट इज़ द फुल्लेस्ट। (अधिक से अधिक मैं ये कर सकता हूँ कि मैं स्वीकार करूँ कि मैं कुछ नहीं कर सकता, और यही पूरा है।)

श्रोता: मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ की मैं कुछ नहीं जानता हूँ

आचार्य प्रशांत: हाँ। अगर मुझे कुछ करना ही है तो अधिक से अधिक मैं ये कर सकता हूँ, कि मैं मान लूँ, कि मैं कुछ नहीं कर सकता, यही प्रार्थना है। और ये बहुत कुछ है करना, ये आसान नहीं है।

अधिक से अधिक मैं ये कर सकता हूँ कि मैं स्वीकार करूँ कि मैं कुछ नहीं कर सकता। और जब वो अभिस्वीकृति आ जाता है, तो उसके बाद बहुत कुछ होता है। वो अभिस्वीकृति इस बात का द्योतक नहीं है कि इस के बाद अब आप मुर्दा हो जाएँगे कि पड़े रहेंगे, कि ये तो लुल्ल हो गए। उसके बाद बहुत कुछ होगा। ज़बरदस्त ऊर्जा के साथ होगा, और वही होगा जो उचित है कि हो। फिर कुछ अंड-बंड नहीं होगा, कि दुनिया भर के कारखाने चल रहे हैं, और उसमें ये और वो हो रहा है। जो होगा, पूर्णता के साथ होगा, पर सिर्फ़ उतना ही होगा जितना होना ही चाहिए, बाक़ी नहीं होगा। समझ रहे हैं?

आगे!

श्रोता: “आपे लाईआं कुंड़ियां तैं, ते आपे खिंच्चदा हैं डोर।”

ख़ुद ने ही रोका है और ख़ुद की ही डोर खींच रहे हो।

आचार्य प्रशांत: मछली फँसाने का जो काँटा होता है, तुम्हीं डालते हो, तुम्हीं आकर्षित करते हो हमको और फिर तुम्हीं हमको उससे बाहर भी निकालते हो। तो ये सारे काम तुम्हारे ही हैं।

हम रविवार को जब गीता कर रहे थे, तो उसमें कर्ताभाव पर बड़ी बात हुई थी। ये आप देख रहे हैं, क्या कहा जा रहा है? ये सीधे-सीधे अकर्ता होने का काम है। सब कुछ तुम्हारे द्वारा हो रहा है। कर्म ऐसा लग सकता है कि मेरे माध्यम से हो रहा है, पर कर्ता हो तुम्हीं। कर्म ऐसा दिखाई पड़ सकता है, कि मुझमें, मेरे आसपास हो रहा है पर कर्ता हो तुम्हीं। चारा डाला गया मछली को, मछली उसकी और आकर्षित हुई, ध्यान से नहीं देखा तो ऐसा लग सकता है कि कर्म करने वाली कौन है?

श्रोता: मछली।

आचार्य प्रशांत: मछली। पर जो जानते हैं, वो अच्छे से जानते हैं, कि मछली ये कर्म कर नहीं रही, उससे करवाया जा रहा है। तो कर्ता कौन हुआ?

श्रोता: इंसान।

आचार्य प्रशांत: अरे, जिसने चारा डाला है अभी। जिसने चारा डाला है। समझ रहे हो बात को?

फिर जब मछली उस चारे को पकड़ लेगी और ऊपर खींची जाएगी, तो कुछ पंडित लोग आएँगे और कहेंगे कि देखो ये मछली अपना कर्मफल भुगत रही है। इसने लालच दिखाया, ये चारे की ओर आई, अब फँस गई, इसे ऊपर खींचा जा रहा है। पर जो जानता है वो इससे आगे की बात जानेगा। वो कहेगा, मछली ख़ुद तो कभी आई ही नहीं थी चारे की ओर। कर्ता कोई और था, जिसने बुलाया। और कर्ता अभी भी कोई और है जो उसे खींच रहा है। मछली ख़ुद तो कभी कुछ कर ही नहीं रही।

इसी बात को कृष्णमूर्ति, चॉइसलेसनेस (अचुनाव) के नाम से बोलते हैं। कि तुम कुछ कर कहाँ रहे हो, तुम्हारे पास कोई चुनाव नहीं है। कृष्णमूर्ति की चॉइसलेसनेस सीधे-सीधे अकर्ताभाव है, और कुछ नहीं है। अकर्ताभाव, तुम कर्ता नहीं हो।

अब दूर से देखो तो लगेगा, कहाँ कृष्णमूर्ति, कहाँ बुल्ले शाह? कहाँ वो चुप चाप बैठे हुए बुद्ध की तरह, कहाँ ये नाचता हुआ आदमी भिखारी सा। कहाँ वो जो सीधा-सादा, साफ़-साफ़ सत्य बोलते हैं, बिना कोई कल्पना बीच में लाये, और कहाँ ये आदमी, जहाँ मछली बीच में ला रहा है और शौहर बीच में ला रहा है, समुद्र बीच में ला रहा है, और सराईं बीच में ला रहा है! कल्पनाएँ ही कल्पनाएँ ला रहा है। पर एक ही हैं, दोनों में कोई अंतर नहीं है।

श्रोता: सर एक संशय था, ये कलाकारी क्या है? बुल्ले शाह, वहाँ कहीं पीछे, अरस्तू, सुकरात, यहाँ कबीर साहब, मिलारेपा, शेरपा, मारपा?

आचार्य प्रशांत: ये कलाकारी ये है कि एक घर में सौ – डेढ़ सौ बच्चे रहते थे, वो सब बाहर निकल गए अपने आप को बहुत बड़ा-बड़ा जान के। कोई कहीं खो गया, कोई कहीं खो गया। पर जब घर लौटते हैं, तो एक ही घर में वापस आते हैं।

श्रोता: वो सभी एक ही ओर इशारा कर रहे हैं, लेकिन अलग-अलग तरीक़े से।

एक बार बुद्ध से किसी ने कहा था, कि आप तो वही कहते हैं, जो उपनिषद् बताते हैं, सिर्फ़ आपके शब्द दूसरे होते हैं। तो आनंद हँसते हैं, कि इनके अलावा बुद्ध और कह भी क्या सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: आपकी बातो में कुछ नया ही नहीं है। आप जो बोल रहे हैं, वो सब पहले ही उपनिषदों में लिखा हुआ है। आपके बस शब्द अलग हैं, आपके कहने का तरीक़ा अलग है, वरना आप कोई नई बात नहीं बोल रहे हैं। तो पीछे खड़ा था, वो हँसने लग गया, तो वो बोलता है, कोई नई बात अगर ये बोल रहे होते तो क्या ये बुद्ध होते?

श्रोता: सत्य नया थोड़े ही है, वो तो नित्य है।

आचार्य प्रशांत: जो भी कभी बोलेगा वो यही बोलेगा जो सदा से नित्य का, बिलकुल ठीक, नित्य का अर्थ ही यही है। हाँ, अंदाज़ समय के अनुकूल होगा।

श्रोता: अंदाज़ समय के अनुकूल होगा, और अंदाज़ उसके अनुकूल होगा जैसे मैंने जाना।

आचार्य प्रशांत: वो अनुभव से निकलेगा। शब्द, भाषा, अंदाज़ — ये समय, वातावरण, माहौल, सुनने वाले, कहने वाले, इसके अनुसार होंगे। लेकिन जो बात है, जो महीनतम, सूक्ष्तम बात है, वो तो वही होनी है। और इसमें बड़ा मज़ा है। कि जब कहीं से चले और देखा कि वहीं पहुँच गए। कहीं से चले, और पहुँच कहाँ गए?

श्रोता: केंद्र पर।

श्रोता: जैसे आप बड़े शहर में कितना भी खो जाएँ, लेकिन जब आप रुकेंगे, तो आप घर ही होंगे।

श्रोता: अभी आपने जो कर्ता वाली बात कही थी, उसमें एक तो ये है कि सारी दुनिया में सब कुछ लिखित है और कुछ मुक्त इच्छा नहीं है। और कुछ लोग कहते हैं, कि कुछ प्रतिशत मुक्त इच्छा है और कुछ प्रतिशत ख़ाका खिंचा हुआ ही पहले से है। तो अगर मुक्त इच्छा नहीं है, तब तो मैं आप की बात से सहमत हूँ, मतलब हर चीज़ के लिए कर्ता मैं नहीं हूँ और सब लिखित है। बट अगर मुक्त इच्छा है तब तो कुछ हद तक जिम्मेदारी भी हमारी है।

आचार्य प्रशांत: मुक्त इच्छा से क्या मतलब है हमारा?

श्रोता: मुक्त इच्छा मतलब वही चुनाव, कुछ चुनाव का होना।

आचार्य प्रशांत: किसके पास वो चुनाव होगा? चुनने वाला कौन है? चलो ऐसा कहते हैं कि, मनीष के पास कोई चुनाव है! ऐसा कहते हैं। उसके पास कोई चुनाव है। वो क्या चुनेगा?

श्रोता: जो उस वक़्त करना उचित है।

आचार्य प्रशांत: तो, वो क्या चुनेगा? जब भारत और पाकिस्तान का मैच चलेगा तो मनीष किसे चाहेगा कि जीते?

श्रोता: मतलब मैं चुनाव कर सकता हूँ कि उस समय मैंने कब टीवी बंद करना है।

आचार्य प्रशांत: वो ठीक है। अपने बच्चे को और किसी दुसरे बच्चे को लड़ते देख, मनीष किसे चाहेगा कि जीते?

श्रोता: नहीं, वो मैं चुनाव नहीं कर सकता, लेकिन मैं अपने कर्म चुन सकता हूँ।

आचार्य प्रशांत: ठीक है। अगर किसी एक तरह का भोजन उसे पसंद है और किसी एक तरह का भोजन उसे पसंद नहीं है, वो किसे चुनेगा?

श्रोता: दोनों में से कुछ भी चुनाव कर सकता हूँ।

आचार्य प्रशांत: जो उसे पसंद नहीं है?

श्रोता: हाँ, वो भी कर सकता हूँ।

आचार्य प्रशांत: तो, इसका मतलब उस समय उसे खाना पसंद आ रहा है।

श्रोता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: ठीक है? सो, तो वो अभी भी चुन रहा है की उसे जो पसंद है।

श्रोता: वो तो हो सकता है कि चलो आज, हर रोज़ तो यही खाते हैं

आचार्य प्रशांत: तो इसका अर्थ ये है कि उस क्षण मैं उस भोजन को पसंद कर रहा हूँ? तो, उस क्षण, मैं तब भी चुनाव कर रहा हूँ ? तो अंततः मैं क्या चुन रहा हूँ ?

श्रोता: जो मुझे पसंद है।

आचार्य प्रशांत: जो भी मुझे पसंद है। और मुझे पसंद क्या है?

श्रोतागण: जो मैं हूँ।

आचार्य प्रशांत: जो मैं हूँ। और वो कहाँ से आता है?

श्रोता: मेरी कंडीशनिंग।

आचार्य प्रशांत: तो आप जिसे मुक्त इच्छा कहते हैं, वो आना ही है आपके अतीत से। तो इसमें मुक्त इक्षा है कहाँ?

श्रोता: तो, मुक्त इच्छा नहीं होती है।

आचार्य प्रशांत: आप जिसे मुक्त इच्छा कहते हैं, वो मुक्त इच्छा नहीं है। ये मत कहिये कि, मुक्त इच्छा नहीं होती। आप जिसे मुक्त इच्छा कहते हैं, वो मुक्त इच्छा नहीं है। मुक्त इच्छा, ध्यान की समझ है। लेकिन इसके साथ परेशानी ये है कि आप इसका अनुमान नहीं लगा सकते कि ये है क्या? ये तब काम करता है, जब तुम नहीं होते हो? आप जिसे मुक्त इच्छा कहते हैं, ये तब काम करता है जब आप मुक्त इच्छा को प्रयोग में नहीं ला रहे हैं। वास्तवित मुक्त इच्छा तब काम करती है जब ‘आप’ इच्छा का प्रयोग नहीं कर रहें।

श्रोता: लेकिन वो भी तो प्रेरणा से आती है।

आचार्य प्रशांत: वो प्रेरणा से नहीं आती है।

श्रोता: तो कई बार विचार आता है कि ये करना चाहिए, वो करना चाहिए।

आचार्य प्रशांत: वो विचार ध्यान नहीं है ना?

श्रोता: ध्यान तो बस एक अवस्था में जाने वाली बात है ना?

आचार्य प्रशांत: लेकिन वो जो अवस्था है, वो तो विचार नहीं है ना?

श्रोता: वो विचार नहीं है। लेकिन उसमें जो वो मुक्त विचार आता है, जो आपकी कंडीशनिंग से नहीं आता!

आचार्य प्रशांत: कोई विचार मुक्त नहीं होता, हर विचार आश्रित होता है। हर विचार तो ये सीधे-सीधे इस बात की अनुभूति है कि मन काम कैसे करता है। मन ऐसे ही काम करता है। देखिए, मन दो तीन तरीक़ों से काम कर सकता है। सतह पर जो मन काम करता है, वो विचार से काम करता है। ठीक है ना? बिल्कुल ऊपर-ऊपर, वो सतही विचार हैं। कई बार आपको बहुत चीज़ों के लिए बहुत कुछ सोचना भी नहीं पड़ता।

ये सब एक तरीक़े की वृत्तियाँ हैं। वृत्तियों को आधुनिक मनोविज्ञान अचेतन बोलेगी। हम आम तौर पर दिन भर जो कुछ कर रहे होते हैं, तो पाते हैं कि बिना बहुत कुछ सोचे, ठहर कर के विचार किए बिना भी काम चल रहा है। विचार की कोई बहुत गहरी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वृत्तियों से काम चल जाता है। एक तरह का संग्रहित ज्ञान है, अतीत से। आप इतनी बार उस मोड़ पर गाड़ी को मोड़ चुके हैं, कि इस बार मोड़ने के लिए आपको विशेष सोचना नहीं है। संगृहीत ज्ञान है, वो आपको दोबारा से वहाँ मुड़वा देगा। ठीक है ना?

आप इतनी बार अपनी गाड़ी के गेट खोल चुके हैं और बंद कर चुके हैं, कितना जोर लगा के खींचना है इसके लिए आपको सोचना नहीं पड़ेगा। अपने आप काम हो जाएगा।

इतनी बार आप ने अपने कमरे में लाइट बंद करी है, कि आप को सोचना नहीं पड़ेगा, अपने आप जाएँगे और आप को पता है कौन सा स्विच है, वो तीसरा वाला। खट से ऊँगली जाएगी और बंद कर देगी। कभी ध्यान दिया है, कि सोचना नहीं पड़ता, लाइट बंद करनी है तो, तीसरा स्विच। पंखा चालू करना है तो पाँचवा बटन। अपने आप हो जाता है।

श्रोता: व्यवस्था चेंज करो तो फिर मुश्किल होती है

आचार्य प्रशांत: हाँ, और अगर वो कोई बदल दें, तो फिर वहाँ पर बैठ के टिक-टिक-टिक-टिक, करते रहो फिर। उससे आगे जब बढ़ते हैं, तो फिर आता है विचार। जहाँ पर काफ़ी सोचना पड़ता है। उससे भी जब आगे बढ़ते हैं, और गहराई से अगर जानना है आपको, तो फिर आता है वो बिंदु जहाँ पर आपको ज्ञान है, पर वो ज्ञान विचार को नहीं पता हो सकता, कि है। आप बात समझ रहे हैं? ऐसा समझ लीजिए जैसे

श्रोता: अनुभूति है

आचार्य प्रशांत: नहीं, अनुभूति नहीं है वो।

(चित्र के माध्यम से समझाते हुए)

जब हम कहते हैं ना कई बार कि हम अपने मन का इतना ही प्रतिशत उपयोग करते हैं, और ये सब; उसका अर्थ बस यही है कि हम ज़्यादातर, सिर्फ़ यहाँ सतह सतह पर घूमते रहते हैं। ये आपका जो चैतन्य मन है, ये वो है, कॉन्शस माइंड। कॉन्शस माइंड में आपको बहुत सारी बाते हैं, जो पता है विचार तौर पर। आमतौर यहाँ पर वो ज्ञान बैठा हुआ है जो आपने इक्कट्ठा करा है इन्द्रियों के माध्यम से, इसी जन्म में। ठीक है?

तो, ये प्रथम तरीक़े का ज्ञान है। यहाँ पर जो ज्ञान बैठा हुआ है, वो, वो है जो आपने इसी जन्म में जाना है। आपने किताबों से पढ़ा है, ये करा है, वो करा है, ऐसा है, वैसा है। यहाँ अचेतन में जो ज्ञान बैठा हुआ है, वो, वो है जो आपको बहुत पहले से पता है, क्रम विकास के परिणाम स्वरुप। वो आपके डी.एन.ए. में बैठा हुआ ज्ञान है। कभी पेड़ थे कभी पत्ती थे, कभी पानी थे, कभी रेत थे, कभी बिल्ली थे। और वो सारे अनुभव भी इक्कट्ठा हैं।

हाँ, आपसे कहा जाए कि बताओ, क्या करते थे जब हाथी थे? तो आप बता नहीं पाओगे। पूछा जाए कि क्या करते थे, कौन से जंगल में थे? और बताओ, कौन सा वाला पत्ता बहुत पसंद था, तो बता नहीं पाओगे। पर याद है अभी भी, कुछ भी भूलता नहीं है। जिसको हम भूलना कहते हैं, थोड़ा सा ध्यान दीजिएगा; जिसको हम भूलना कहते हैं, उसका अर्थ बस यही है कि नॉलेज चेतन से नीचे होकर कहाँ पहुँच गया?

श्रोता: अचेतन।

आचार्य प्रशांत: अचेतन में चला गया। आदमी कभी कुछ भुला नहीं सकता। एक बार आपको जो अनुभव हुआ, वो स्थाई है। वो मन पर एक पक्का निशान छोड़ता ही छोड़ता है। मन उन्ही निशानों का नाम है। एक-एक अनुभव मन पर अंकित होता ही रहता है। हाँ, कुछ-कुछ समय तक वो कॉन्शस विचार के तौर पर रहता है और कुछ समय बाद वो सबकॉन्शस में प्रवेश कर जाता है। अब वो विचार रूप में याद नहीं आएगा। आप कोशिश करोगे उसका विचार याद आ जाए, वो याद नहीं आएगा। तो इसलिए आप कभी चाबी रख के भूल जाते हो — आप वास्तव में भूले नहीं हो।

बस वो जो, जैसे कि एक बूँद डालो मिट्टी पे, तो कुछ समय तक तो उसका निशान रहेगा वहाँ पर। और थोड़ी देर बाद वो बूँद क्या करेगी? वो गहरे समा जाएगी। अब आप उसको खोजो सतह पर कि कहाँ गई? तो आपको शायद लगेगा कि बची ही नहीं है। वो है अभी भी पर वो गहरी चली गई है, ऐसा नहीं कि वो खो गई है। तो वो जो आपको ज्ञान था, कि चाबी कहाँ रखी है, वो गहरे समा गया है। और ये चाबी रखने वाला तो बहुत सतही उदाहरण है।

यहाँ, ये जो सबकॉन्शस है आदमी का, इसमें ऐसी-ऐसी जानकारी बैठी हुई है, जो आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि आपको पता है। आपको सब कुछ पता है, एक-एक राज़ पता है। पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है इस सबकॉन्शस में। इस पूरे विश्व का कोई तथ्य नहीं है जिससे आप अवगत न हों। क्योंकि आप ही हैं वो सब कुछ। उस क्रमविकास की पूरी प्रक्रिया से आप ही तो गुज़रे हैं। करोड़ों साल से आप ही तो गुज़र रहे हैं? तो सब कुछ आपने देखा है, आपके अनुभव में रहा है। तो ये बड़ी साधारण सी बात है कि आपको पता है। हाँ, विचार तौर पर नहीं पता है।

अभी आपसे कहा जाए कि बताओ, तुम कभी डायनासौर थे तो कितने अंडे दिए थे? तो बता नहीं पाओगे। पर गुज़रे हो उस अनुभव से। अब पल्ल्व को पूरा याद है कि बुद्ध कब था! पर अभी कहा जाए कि बताओ, तो अपनी ही ऊँचाई नहीं बता पाएगा।

फिर उस सबकॉन्शस से भी नीचे आता है, वो क्षेत्र जो सिर्फ़ और सिर्फ़ ध्यान में उपलब्ध हो पाता है। वहाँ पर और गहरा ज्ञान बैठा हुआ है, और भी गहरा ज्ञान। वही है ध्यानस्थ बोध। मुक्त इच्छा यहाँ बैठती है। दिक्कत ये है कि लोग जब मुक्त इच्छा की बात करते हैं तो वो उसको यहाँ की जगह यहाँ बैठा देते हैं। कि जैसे वो आपका एक कॉन्शस विचार हो। कि मेरा पिज़्ज़ा खाने का मन है, ये मेरी मुक्त इच्छा है, ये बहुत बेवकूफ़ी की बात है। मुक्त इच्छा यहाँ नहीं यहाँ होती है (चित्र पर दर्शाते हुए)।

मुक्त इच्छा का अर्थ है कुछ ऐसा होना जो मुझे पता भी नहीं है कि हो। अंतर समझ रहे हैं ना? मुक्त इच्छा का अर्थ ही यही है कि ‘मुक्त’ है। ‘मुक्त’ किससे? ‘मुक्त’, मुझसे! मुक्त इच्छा का अर्थ है कि, यह मुझसे मुक्त है, किसी और से नहीं। आमतौर पर जब हम मुक्त इच्छा बोलते हैं, तब हम कहते हैं कि दूसरों से मुक्त है, ऐसी इच्छा। जबकि मुक्त इच्छा का असली अर्थ है कि मुझसे मुक्त है।

श्रोता: आमतौर पर मुक्त इच्छा ‘मेरी मुक्त इच्छा’ होती है।

आचार्य प्रशांत: मेरी मुक्त इच्छा।’ जबकि, मुक्त इच्छा का अर्थ होता है, ये मुझसे मुक्त है। मेरी मुक्त इच्छा नहीं, ऐसी इच्छा जो मेरी भी नहीं है।

श्रोता: ये वैसे ही है, जैसे हमारा मुक्ति के बारे में धारणाएँ है, हम सोचते हैं कि हम दूसरों से मुक्त हैं। लेकिन जब तक हम ख़ुद से मुक्त नहीं हो सकते हैं, तब तक हम दुसरे मुक्त कैसे हो सकते हैं।

श्रोता: अपनी ही इच्छा से मुक्त।

आचार्य प्रशांत: फ्री फ्रॉम योर ओन विल। क्योंकि आपकी इच्छा, आपकी इच्छा नहीं होती। आपकी इच्छा हमेशा ही कंडीशनिंग होती है।

तो, मुक्त इच्छा असल में ख़ुद से मुक्ति है। जो होती इस ध्यान की स्थिति में है। और ये ध्यान की स्थिति कोई एक मुद्रा या कुछ और नहीं है। ये वही सुरति है, चुप चाप एक याद हमेशा बनी रहे, वही है। उसमें जो कुछ भी होता है, वो मुक्त इच्छा है।

श्रोता: क्योंकि उसमें जो कुछ भी होता है, वो सहज है, और पूर्व निर्धारित नहीं है।

श्रोता: “अरश कुरसी ते बांगां मिलियां, मक्के पै गया शोर।”

आचार्य प्रशांत: आसमान में जो सत्य के उगने की आवाज़ गूँज रही है, उसी का शोर, उसी की गूँज मक्के में सुनाई देती है।

आसमान से समझना पड़ेगा, कि ये जो अरश कहा है, जिस आसमान की बात कर रहे हैं बुल्ले शाह उस आसमान को समझना पड़ेगा। ये भारत में एक बहुत पुराना प्रतीक है आसमान, उसको प्रयोग किया है। दो तरह के आसमान होते हैं, एक बाहर, और एक हमारे भीतर। एक बाहर, और एक हमारे भीतर। बाहर का आसमान हम सब जानते हैं। बाहर का आसमान वो है जिसमें ये पंखा है, तुम्हारा ये शरीर है, जिसमें ये किताब है, जिसमें बिल्डिंग है। और भीतर का आसमान वो है जिसमें हमारी सारी कल्पनाएँ हैं।

भीतर के आकाश का को कहा जाता है, चित्त का आकाश – चिदाकाश। ठीक है? उसी में सत्य का उदय होता है, बाहर नहीं होता। इसी में सत्य का उदय होता है, इसी में सत्य उगता है। फिर जब इसमें उग आता है, तो वो बाहर के आकाश में भी दिखाई देता है। बाहर ही हैं सब मक्का, मदीना, काशी, सब बाहर हैं। उगता भीतर है, दिखाई बाहर देता है। इस बात को समझना अच्छे से।

बाहर से भीतर नहीं हो सकता। जब आप भीतर से पवित्र होते हो, तब बाहर तीर्थ की ओर जाते हो। या ये कहो कि तब बाहर तीर्थ बनता है। इसी कारण से, जैनों ने अपने पैगंबरों को ‘तीर्थंकर’ कहा। ये नहीं कहा कि वो तीर्थ में पैदा हुआ। उन्होंने कहा, ये जहाँ हैं, वहाँ तीर्थ कर देते हैं — तीर्थंकर। अब वही जो अक्सर कहने में बहुत मज़ा आता है, कि जहाँ मैंने सर को झुका दिया…

श्रोतागण: वहीं काबा बना दिया।

आचार्य प्रशांत: वहीं एक काबा बना दिया — तीर्थंकर।

श्रोता: दिस इज़ द हाई लेवल ऑफ़ प्रेयर।

आचार्य प्रशांत: बट दिस इज़ ओनली प्रेयर।

श्रोता: समबडी नॉट बॉदर्ड अबाउट व्हेयर ऐम आई।

आचार्य प्रशांत: पर वो आप कर भी नहीं सकता, क्योंकि जब आपका सर झुकेगा तो ये देख के नहीं झुकेगा कि खड़ा कहाँ हूँ। या लेटा हुआ हूँ, या शीर्षासन कर रहा हूँ। कभी भी झुक सकता है।

श्रोता: वो मेट्रो में एक वो लगा है ना, होर्डिंग, जोज़फ़ कैम्पबेल का – एक धार्मिक जगह वो है जहाँ आप ख़ुद को, बार – बार खोज सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: रूमी हैं। तो ये बात समझ में आ रही है? कबीर भी इसी गगनमंडल की बार बार बात करते हैं। गगनमंडल, गगनमंडल। वो गगनमंडल बाहर नहीं है। वो गगनमंडल यही है। भीतर, आंतरिक, अपना आकाश। सत्य उसमें ही उगता है और फिर बाहर भी सब कुछ पवित्र हो जाता है तीर्थ की तरह। समझे बात को?

और जब भीतर पवित्र है मामला, तो बाहर लगातार तीर्थ है। इसका ये भी मतलब है कि जब अंदर पवित्र नहीं है, तो बाहर क्या दिखाई देगा लगातार? गंदगी ही गंदगी दिखाई देगी। फिर चाहे कहीं जा कर के बैठ जाओ।

श्रोता: ये कृष्णमूर्ति की भाषा में, “आर्डर इनसाइड इज़ आर्डर आउटसाइड।”

आचार्य प्रशांत: “आर्डर इनसाइड इज़ आर्डर आउटसाइड।”

श्रोता: “बुल्ल्ले शौह सा मरना नाहीं, मर जाव। कोई और पियारेया”

आचार्य प्रशांत: ये भी बड़ी मज़ेदार बात है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने हमेशा मौत के सवाल को बड़ी संजीदगी से लिया है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ – याद है? मृत्यु से अमृत की और ले चल। ये उपनिषद् कहते हैं। कबीर बार बार बोलते हैं, कि जिसने ये बात जान ली, अब वो यम के पंजों से मुक्त हो गया।

भारत ने इस मौत के सवाल से कभी आँखें नहीं चुराईं। हमेशा, इसको बिल्कुल आँख में आँख डाल के देखा है कि मौत चीज़ क्या है, और जानना है इसको। और सारे सत्य का निचोड़ इसी बात को माना गया, कि तुम मौत के पार जा सकते हो कि नहीं जा सकते हो? जो तुमको अमृतत्व न दे पाए वो सत्य नहीं है। जो तुमको मौत के भय से मुक्त न कर पाए, वो सत्य नहीं है। तो यही कह रहे हैं बुल्ले शाह, हमें नहीं मरना, हम मर नहीं सकते।

रमण ये बात सुन कर बड़े खुश होते। कहते “बिल्कुल ठीक! तुम मर सकते कैसे हो?” जब मर रहे थे रमण, तो उनके जितने चेले चपाटे थे, वो आ कर के हाय! हाय! करने लग गए। तो बोलते हैं कि क्या पगला रहे हो? मैं कहाँ जा रहा हूँ? यहीं रहूँगा हमेशा और जा कहाँ सकता हूँ। तो वो खुश भी हो गए, बोले, “इसका मतलब नहीं मर रहे हैं।”

(श्रोतागण हँसते हैं)

दो-चार घूमनेघामने चले गए, बोले चलो चाट पकौड़े खा के आते हैं, नहीं मर रहे, बोल दिया ख़ुद ही। वो मर गए थोड़ी देर में। तो कुछ एक लोगों को लगा, बड़ा धोखा हो गया, अभी तो बोले थे, “मैं जा कहाँ सकता हूँ, यहीं रहूँगा।” अर्थ उनका दूसरा था, बात दूसरी थी। जब वो कह रहे हैं कि मैं कहाँ जा सकता हूँ, मैं यही रहूँगा। तो बात कुछ और कह रहे थे। कि हम मर कहाँ रहे हैं? वही जो बुल्ले शाह ने कहा कि — ऐसा मरना नहीं।

हम जो हैं, वो नहीं मर सकता। उसी को जानने का नाम जीवन है।

ये जो मरणधर्मा जीवन है, जिसका अंत ही मौत में होना है, देखिएगा ये कितनी पैराडॉक्सिकल बात है। कि जीवन जिसका अंत ही मौत में होना है, उसका उपयोग ही यही है, कि उसमें ये जान लो कि क्या है जो मौत के?

श्रोतगण: परे है।

आचार्य प्रशांत: तो जो मर्त्य है, जो मरना ही है, जिसको ख़त्म ही होना है, उसमें रहते हुए उसको जान लो जो कभी मर नहीं सकता, बस यही जीवन है।

श्रोता: तो फिर डर भी तो ख़त्म हो जाएगा?

आचार्य प्रशांत: वही है। मौत और डर के अलावा और है क्या? मौत और डर के अलावा है क्या?

श्रोता: अज्ञात का डर ही तो है।

आचार्य प्रशांत: बस बस। मौत यानी डर, सारे डरों के मूल में मौत बैठी हुई है। मौत ही है। “मर जावे कोई होर।” जो मरते हैं वो मरें, जिनका स्वभाव हो मरना वो मरें। हम अमर हैं। इसी को आपका नारायण उपनिषद बिलकुल इतनी बोल्ड घोषणा करता है, “नाहं कालस्य, अहमेव कालं।” “नाहं कालस्य” – मैं काल का नहीं हूँ। ना अहम् कालस्य। काल माने समय भी, और काल माने? मौत भी। हम मौत के नहीं हैं।

“अहमेव कालं” – अहम् एव कालं। मैं ही काल हूँ। ये जो अनुभूति होता है ना, ये जीना कहलाता है। ये आदमी जिएगा। हम नहीं जीते हैं, कि सुसियाई शकल ले कर के घूम रहे हैं, इधर-उधर। और डरें हुए हैं, और बात बात में असुरक्षा कूद रही हैं, फांद रही हैं। जो आदमी छाती ठोक कर ये बोले ना, “नाहं कालस्य” वो जी सकता हैं। सिर्फ़ वो जी सकता है। और सारी आध्यात्मिकता इसी का नाम है। वो जीवन से भागने का नाम नहीं है। वो जीवन को ऐसे जीने का नाम है कि बस जिएँ। बात समझ में आ रही है? कि ये है शेर, जो जिया।

वो नहीं है — “हमें डाँट दिया।” अब देखिए ना, ये जो जिस ऋषि ने ये दहाड़ा होगा, “नाहं कालस्य” उस ने किसी से सुन के नहीं दहाड़ा है, ये उसकी अनुभूति है। सोचिए? हम कल्पना ही कर सकते हैं। कल्पना बहुत दूर तक नहीं जाएगी, पर फिर भी सोचिए। क्यों पल्लव? तुम्हें सब पता है, उसे अब याद आ गया है।

श्रोता: बड़े लोग होंगे ये! मैंने एक शेर सुना था – “चुपचाप किसी कोने में पड़े रहते हैं, बड़े लोग फिर भी बड़े रहते हैं” ये शायद इन्हीं लोगों के लिए बना होगा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

इसके आगे का भी कुछ था, शायद – उनकी शक़्ल कुछ दरवेशों से मिलती है, जिनके पैरों में कई ताज पड़े रहते हैं, चुपचाप किसी कोने में पड़े रहते हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य प्रशांत: मज़ा आ गया वाह! बढ़िया है। किसका है?

श्रोता: ये नहीं पता। मेरा एक दोस्त है जिसे शेर ओ शायरी का शौक है, वो कभी कभी मार देता है तड़ से।

आचार्य प्रशांत: जिसका भी है, उसका नहीं है।

श्रोता: नहीं-नहीं, उसने लिखा नहीं है। उसे याद भी होगा किसका है।

आचार्य प्रशांत: समझिए तो, क्या कह रहा हूँ मैं! “जिसका भी है, उसका नहीं है।”

श्रोता: तभी तो मैं कह रहा हूँ, ये बड़े लोग हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य प्रशांत: अगला क्या है, पढ़िए?

श्रोता:

सब इक्को रंग कपाई दा, इक आपे रूप वटाई दा।

अरूड़ी ते जो गदों चरावै, सो भी वांगी गाईं दा।

सभ नगरां विच आपे वस्से, ओहो मेहर गराईं दा।

हर जी आपे हर जा खेले, सदिआ चाईं चाईं दा।

बाग़ बहारां तां तूं बैखे, थीवें चाक अड़ाईं दा।

इश्क़-मुश्क़ दी सार की जाणे, कुत्ता सूर सराईं दा।

बुल्ल्ला तिस नूं वेख हमेशा, इह है दर्शन साईं दा।

आचार्य प्रशांत: सब इक्को रंग कपाई दा, इक आपे रूप वटाई दा – कपास, कॉटन की बात हो रही है। अलग-अलग रंग के कपड़े बन जाएँगे। एक बार कपड़े बन गया, तब तो बहुत अलग लगता ही है कि एक कपड़े में और दूसरे कपड़े में बड़ा भेद है। तमाम तरह की विविधता पैदा हो जाती है, भिन्नता पैदा हो जाती है। कपड़े से पहले वो धागा है। धागे भी अलग-अलग रंग के, अलग-अलग मोटाई के, अलग-अलग प्रकार के होते हैं। तब भी उनमें बड़ी विभिन्नता पैदा हो जाती है। पर जो देखने वाला है, वो उससे और नीचे तक जाएगा। वो कपड़ा, धागा उससे नीचे एक चीज़ आती है, उसको स्लाइवर1.27.11 बोलते हैं, उन सब से नीचे जाएगा और सीधे-सीधे, जो कपास है, जो फाइबर है, स्रोत है वहाँ तक पहुँचेगा। वहाँ पर वो क्या देखेगा?

श्रोता: सब एक जैसे हैं, इक्को रंग कपाई दा।

आचार्य प्रशांत: कोई अंतर नहीं है। जिसका एक ही रंग है, जिसको कबीर बोल रहे हैं, “एक रंग में जो रहे।” जो एक ही रंग है, वो कौन सा रंग है? हरा, पीला, सफ़ेद? क्या पता गेरुआ होता हो, भारत है भाई? क्या पता हरा होता हो, बुल्ले शाह मुसलमान थे। कौन सा रंग? या सफ़ेद होता हो, बुद्धों का रंग है। कौन सा रंग है उसका?

श्रोता: कोई रंग नहीं है, वो बेरंग है।

आचार्य प्रशांत: बेरंग है? बड़ा रंगीला बेरंग है लेकिन वो। है तो बेरंग ही।

श्रोता: उसका कोई रंग नहीं, और उसका सभी रंग है

आचार्य प्रशांत: बढ़िया।

श्रोता: मैं रंग-बिरंगा हूँ लेकिन फिर भी बेरंग हूँ।

आचार्य प्रशांत: समझ में आ रही है बात? तो सारे रंग उसी से निकलते हैं, लेकिन अपने आप में उसका?

श्रोता: कोई रंग नहीं है।

आचार्य प्रशांत: सारे रंग उसी से निकलते हैं। लेकिन अपने आप में उसका कोई रंग नहीं है। इसीलिए, जानने वालों ने बड़ी ज़ोर दे कर के ये बात कही है कि उसको न तो रूप देना, न नाम देना, न अकार देना। ये गलती मत कर देना, और ख़ास तौर पर इस्लाम में सख़्त पाबंदी है। ये कोशिश भी मत कर देना, ये तो छोड़ ही दो कि तुमने उसकी मूर्ति लगा दी, ये भी कोशिश मत कर देना, कि खेल-खेल में उसकी पेंटिंग बना दी। या कि कभी मौज में आ गए तो उसको नाम देने शुरू कर दिए। हालाँकि समझने वालों के लिए ही ये बात कही गई है, नासमझों ने भी उसको बिलकुल एक दूसरी अति पर ला के छोड़ दिया है।

श्रोता: अनुष्ठान बना दिया है।

आचार्य प्रशांत: अनुष्ठान बना दिया है। पर जो बात है वो ज़बरदस्त क़ीमत की है। तुम जिसको भी नाम दोगे, उसको अपने मन के बारे में ले आ पाओगे। और तुम उसको मन में लाने की धृष्टता कर रहे हो, जो मन में आ ही नहीं सकता, जो मन का स्रोत भर है। और तुमने बड़ी गड़बड़ कर दी, अब ये विधर्म है। तो ठीक करता है इस्लाम कि इसको ईश-निंदा ही बोलता है, और ये है ही ईश-निंदा। जो भी समझेंगे वो इसको यही कहेंगे। वेदों में भी कभी मूर्तिपूजा की बात नहीं हुई है।

भारत में आप आज समझते हैं कि हिंदू धर्म में तो बिल्कुल केंद्रीय बात है मूर्ती पूजा। ऐसा कभी नहीं था, ये बहुत बाद में शुरू हुई है। पहली जो मूर्तियाँ बनी हैं भारत में, वो भी आपके राम और कृष्ण की नहीं बनी हैं।

श्रोता: बुद्ध की हैं।

आचार्य प्रशांत: वो बुद्ध की हैं। हिंदुओं में मूर्तिपूजा का कभी रिवाज़ था ही नहीं, ये बहुत बाद में घटना शुरू हुई है। जिस ऋषि ने उपनिषद् कहा हो, वो बिल्कुल अच्छे से जानता है कि ब्रह्म अमूर्त है। वो बिल्कुल वही बात बोलेगा जो क़ुरान ने बोली है कि भाई, ये बेवकूफ़ी मत करो कि उसको…

श्रोता: आकार दे दो।

आचार्य प्रशांत: सब कुछ दे दिया। सारी कल्पनाओं में बाँध दिया तुमने, मत करो ये। क्योंकि ये करके तुम मन को भटकाओगे। हालाँकि इसी बात को विधि की तरह भी प्रयोग किया जा सकता है। ये एक तकनीक तो बन सकती है, पर सत्य नहीं। देखिए, आप एक मूर्ती सामने रख लें, ये अपने आप में एक अच्छी तकनीक हो सकती है। इसमें कोई दोराय नहीं है।

आप समझ रहे हैं ना, एक एकाग्रता की विधि हो सकती है, कि एक बहका हुआ मन है, आपने सामने एक मूर्ती रख दी, वो उसी में जा के स्थापित हो गया। मन उस मूर्ती में जा कर के लय हो गया। दिक्कत ये होती है कि जो लोग मूर्ती की पूजा करते हैं, वो मूर्ती को कभी तकनीक भर नहीं मानते ना फिर। वो मूर्ती को सत्य ही मान लेते हैं।

श्रोता: जैसे मुसलमान में भी मदीना जो है, वो तकनीत ही है कि उसी ओर झुक कर के…

आचार्य प्रशांत: हाँ, हाँ, हाँ। दिक्कत वही होती है ना हमेशा देखिए, बात इस्लाम या इसाईयत या किसी भी। जो कहते हैं वो सच कहते हैं शब्दों में, वो सच को कहते हैं शब्दों में। और जो सुनते हैं…

श्रोता: वो शब्द सुनते हैं।

आचार्य प्रशांत: वो सुनते हैं शब्द, और उसको ही सच समझ लेते हैं।

श्रोता: उसमें अपना रंग मिला कर के।

आचार्य प्रशांत: कि जैसे किसी ने, ये बोतल यहाँ रखी हुई है, इसमें आपको कोई पानी भर के दे, पानी तो कब का उड़ गया, और आप बोतल को बाजा बजाते हुए घूम रहे हैं, कि ये रहा सच। अब उससे प्यास बुझेगी आपकी? इस बोतल में पानी रख के दिया गया था, पानी उड़ गया, कब का उड़ गया। अब बोतल का आप डमरू बजाते घूमते रहो। उससे क्या होगा?

श्रोता: ओशो एक मिरर हाउस का उदाहरण देते हैं, कि तुम, तुम्हारी पिक्चर तुम एक ही हो। चारों तरफ़ अलग अलग बनावट के मिरर हैं, तो उसके हिसाब से उनमें तुम्हारी पिक्चर दिखाई पड़ती है।

आचार्य प्रशांत: और शोर ज़रूर होगा, खूब ज़ोर का। भरी बोतल जितना शोर नहीं करती है, खाली बोतल उससे ज़्यादा करती है। शोर खूब होगा। आप बड़े होशियार आदमी कहलाओगे।

श्रोता: छेदों वाली बाल्टी से पानी खींच के देखिए कितना शोर होता है

आचार्य प्रशांत: निशीथ को पता है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

केन-उपनिषद्, कितना शोर होता है छेदों वाली बाल्टी में, पानी खींचने पर?

श्रोता: अरूड़ी ते जो गदों चरावै, सो भी वांगी गाईं दा।

आचार्य प्रशांत: गाय शुद्धता का प्रतीक है। बुल्ले शाह कह रहे हैं, कि गंदगी से भरा हुआ एक मैदान है, वहाँ एक आदमी गधा चरा रहा है। दूसरा आदमी वहाँ पहुँच जाता है, होगा कोई ब्राह्मण, हिन्दू, पंडित; वो कह रहा है मैं यहाँ पर गाय चराऊँगा। वो कह रहा है, इन दोनों में क्या अंतर है? दोनों ही गंदगी में घूम रहे हैं। बात समझ रहे हैं आप?

गंदगी मैदान में मतलब, आधार में ही गंदगी है। तुम जो कुछ कर रहे हो, जब वो मूलतः गंदा है, तुम जिस जगह पर हो, जब वो मूलतः सड़ा है, तो तुम वहाँ पर ये झूठे बदलाव ला कर भी क्या कर लोगे? कल्पना कर लो ना, एक सड़ा हुआ मैदान है, होते हैं कई बार। जब उत्तर प्रदेश से दिल्ली में घुसो तो बगल में ग़ाज़ीपुर में वो देखा है ना, पहाड़ जो…

श्रोता: गंदगी का पहाड़ हैं?

आचार्य प्रशांत: अब आप वहाँ पर जाओ और बिल्कुल एक शुद्ध गौ माता ले के उसको चराना शुरू कर दो। और एक आदमी हो जो खच्चर-गधे चरा रहा हो, तो कोई अंतर पड़ेगा क्या? दोनों की ही ज़िन्दगी ख़राब है, दोनों ही बदबू झेल रहे हैं, दोनों को ही कीड़े लग रहे हैं, क्या अंतर पड़ना है?

जब तुमने अपने चारों ओर माहौल ही गंदा कर रखा है, जब तुम्हें दिख ही नहीं रहा कि क्या हो रहा है ये सब? तो ये बातें बड़ी छोटी हो जाती हैं कि तुम वहाँ पर क्या कृत्य कर रहे हो। वहाँ पर तो फिर एक ही कृत्य है जो काम आ सकता है, कि भागो। उसके अलावा वहाँ कुछ भी करोगे तो तुम्हें नुक़सान ही होगा। ऐसी जगहों पर एक ही उचित कर्म है, क्या? कि सटक लो। उसके अलावा तुम जो भी करोगे, वो ख़राब ही होना है। सीवर में, एक आदमी ब्रैस्ट स्ट्रोक मार कर के तैराकी कर रहा है, और एक बटरफ्लाई मार रहा है, एक को कम नुक़सान होगा दूसरे से? इस तरह के गंदे नाले में तो एक ही काम ठीक है। कि वो वाला स्ट्रोक मारो जो तुमको?

श्रोतागण: बाहर ले जाए।

आचार्य प्रशांत: बाहर ले जाए। और जल्दी से जल्दी बाहर ले जाए। बाक़ी और तुम अंदर उसमें घुस कर कितने भी पैंतरे चलाओ, जान तो तुम्हारी ही जा रही है। कोई सा तुम स्ट्रोक मार लो और कितनी ही करामातियाँ दिखा लो, कि देखो मैं कितना होशियार हूँ। ये करता हूँ, और वो करता हूँ।

श्रोता: सभ नगरां विच आपे वस्से, ओहो मेहर गराईं दा।

आचार्य प्रशांत: जैसे, सब कपड़ों का कपास वही है, वैसे ही सब नगरों में बसने वाला भी वही है। और आगे वो बात को बढ़ाते हैं, कि गाँव में भी वही बसता है। सांख्य योग पर जब बात करी थी, तो पुरुष शब्द पता नहीं कितनी ही बार आया था। अब नगर और पुरुष, ये दोनों बड़ी जुड़ी हुई बातें हैं। “पुर” का भी अर्थ?

श्रोता: नगर।

आचार्य प्रशांत: तो जब बुल्ले शाह कह रहे हैं कि “सभ नगरां विच आपे वस्से, यही कहा है ना? तो उनका अर्थ यही है, कि सारे नगरों में जो पुरुष बसता है वो तुम्हीं हो। वो पुरुष हो तुम। “पुर” माने नगर, उसमें जो बसे वो पुरुष। सभी नगरों में जो बस रहा है वो पुरुष तुम ही हो। तुम हो या वो हो, एक ही बोल लो। सूफ़ी हैं तो कभी ये नहीं कहेंगे कि ‘तुम हो’ वो कहेंगे कि ‘वो हैं’ — पिया।

“हर जी आपे हर जा खेले, सदिआ चाईं चाईं दा” – छोटा जीव, बड़ा जीव, आदमी, पशु, सबमें वही खेल रहा है, लगातार वही खेल रहा है। कपास का माध्यम ले कर बात बोली है, शहर का माध्यम ले कर के बात बोली, अब जीवों का माध्यम ले कर के बोल रहे हैं। तीनों बातें में सिर्फ़ बात एक ही कही है, कि एक ही स्रोत है जहाँ से ये सब कुछ उभर के सामने आ रहा है। स्रोत एक ही है और विभिन्नता में जिस किसी ने इस एकता देखा, यूनिटी इन डाइवर्सिटी का मतलब ये नहीं होता है, कि हम विभिन्न प्रकार के लोग चलो एक हो कर के रहें। यूनिटी इन डाइवर्सिटी बहुत गहरी बात है। यूनिटी इन डाइवर्सिटी ये है, जो ये बोल रहे हैं। यूनिटी इन डाइवर्सिटी का मतलब सवधर्म सद्भाव नहीं होता। समझ में आ रही है ना बात? यूनिटी इन डाइवर्सिटी का यही मतलब है। कपड़ा कैसा भी हो?

श्रोतागण: कपास एक है।

आचार्य प्रशांत: कपास एक है।

श्रोता: बाग़ बहारां तां तूं बैखे, थीवें चाक अड़ाईं दा।

आचार्य प्रशांत: गुरु के लिए शब्द इस्तेमाल किया है, “अड़ाईं।” कह रहे हैं ये जो बाग़ है, इसमें बड़े मौसम आते हैं। बिल्कुल सड़ा हुआ भी हो सकता है, पत्ते झड़े हुए हैं, पेड़ कटे हुए हैं, हज़ार तरीक़े का। इस पूरे बाग़ को लेकिन अगर इसकी पूरी प्रफुल्ल्ता में देखना है, बहार में देखना है, तो बस गुरु को समर्पित हो जाओ।

क़ादरी थे, बुल्ले शाह के गुरु, बड़ी मस्त कहानी है उनकी। तो, उनका डेरा था। आसानी से किसी को उसमें शामिल नहीं करते थे। बुल्ले शाह गए, तो पहले तो बड़ी मुश्क़िल से उनको एंट्री टिकट मिला, कि आओ भाई। फिर एक बार, क़ादरी साहब नाराज़ हो गए, मुर्शिद, गुरु, नाराज़ हो गए। और नाराज़गी भी उनकी छोटी मोटी नहीं। कान पकड़ के बिल्कुल निकाल दिया उनको वहाँ से, “निकलो यहाँ से।” निकल गए बुल्ले शाह।

निकल तो गए, इनको चैन न आए बाहर। तो उन्होंने बड़ी जुगत लगाई कि किस तरीक़े से, वापस पहुँच सकें। तो कभी कुछ करें, कभी कुछ करें, गुरु उनको घुसने ही न दे वापस। “कि तुझे एक बार निकाल दिया तो निकाल दिया, तू तो आएगा नहीं अब दोबारा, आइयो मत भगा दूंगा।” बड़ा नाटक मचे, दो महीना, चार महीना, छः महीना कोशिश करते रहे। फिर जब इनसे रहा नहीं गया, तो उन्होंने कहा अब कुछ अलग ही करना पड़ेगा। तो एक बार, और गुरु ने निकला कुछ ऐसी ही बात हुई थी, इसी बात पर था कि ठीक-ठीक कहानी क्या है याद नहीं, कुछ ऐसा करा था, कि दिखाई पड़ रहा था कि अहंकार अभी इस आदमी में है। चालबाज़ आदमी है, चालाक आदमी है, चल बाहर निकल।

कुछ औरतें जा रही थी मिलने, दर्शन के लिए। क़ादरी साहब के पास। तो उनके पास जा के बोलते हैं, कि मदद करो मुझे भी ले चलो। तो उन्होने कहा ठीक है, चलो। औरतों के कपड़े पहन लिए। तो सब औरतें गईं, साथ में ये भी घुस गए डेरे में, आश्रम में। अब वहाँ इनकी तो चेकिंग होती नहीं तो छोड़ दिया, आओ घुस जाओ। वहाँ घुस गए, बाकी सब तो अपना पैलागी कर के जो भी बात करनी थी करी, इन्होंने नाचना शुरू कर दिया, ख़ुशी के मारे अंदर कि घुस ही गया, घुस ही गया। अब जाने जान के नाच रहे थे? कहते हैं कि मदहोश हो गए थे। लगे नाचने।

गुरु तक ख़बर पहुँची कि एक औरत घुस आई है और मुँह ढका हुआ है, पर्दा है, और नाच रही है बिल्कुल मस्त हो कर के। और जब वो सामने आये कि कौन सी औरत घुस आई है काहे नाच रही है, तो बिलकुल गए और पाँव पर गिर पड़े। और उन्होंने कहा कि ये चक्कर दूसरा है, देखा ये था। तो कहा “ठीक है, जब तुमने अपना अहंकार इतना गिरा दिया, तो फिर आजा, वापस आजा।” बुल्ले शाह, ये बातें सुन कर लग रहा होगा कि बड़े! ये वॉरियर थे, ये लड़े थे।

श्रोता: तलवारबाज़।

आचार्य प्रशांत: हाँ। ये बहुत पुराने थोड़े ही हैं? औरंगज़ेब के ज़माने के हैं, मुश्क़िल से करीब 400 साल। वो ज़माना था जब बड़ी सख़्ती कर रखी थी औरंगज़ेब ने। ये उदार इस्लाम है। औरंगज़ेब का जो संस्करण था इस्लाम का, वो बड़ा कट्टर था, तो बुल्ले शाह उसके ख़िलाफ़ लड़े थे। जान बड़ी ज़ोखिम में डाली थी अपनी, और बड़े ही मस्त आदमी थे। बुल्ले शाह को कहते हैं, इतने सुन्दर थे और इनके भूरे से बाल थे — स्वर्ण, और बड़ा हट्टा-कट्टा सुन्दर आदमी था। वॉरियर, गठा हुआ शरीर, कि जो यहाँ पर बात कर रहा है कि जा शौहर के चरणों में लेट जा, वो आदमी खुद एक बड़ा मर्दाना शरीर था।

तो ये ऐसा ही होता है, ज़िन्दगी जीने वाले लोग हैं। और ये बड़ी मज़ेदार बात है कि जो पूरे लोग होते हैं, कि जिनकी एक स्त्रैण पक्ष भी होती है वही असली पुरुष भी होते हैं। समझ रहे हैं ना? जिनमें यिन यैंग, पुरुष-प्रकृति, दोनों एक साथ होते हैं। वही जीवन को पूर्णता के साथ जीते हैं।

श्रोता: क्या वो जो अर्धनारीश्वर है, शिव का, वही है?

आचार्य प्रशांत: हाँ वही है।

श्रोता: “इश्क़-मुश्क़ दी सार की जाणे, कुत्ता सूर सराईं दा।

आचार्य प्रशांत: भाषा नहीं दिख रही है, बेबाक भाषा, बिल्कुल? और ये याद रखियेगा, ये जो बातें कही जा रही हैं, ये बड़े ही रूढ़िवादी दौर में कही जा रही हैं। उस दिन हम सरमद की बात कर ही रहे थे। वो सीधे गले कटवाता था। अब ये पंजाबी थे, उन दिनों औरंगज़ेब का, सिखों का बड़ा झगड़ा चल रहा था। ये सिखों के साथ खड़े हो गए थे, “गलत कर रहा है औरंगज़ेब।”

देखिए इस आदमी को, सीधे। कि तुम लोग क्या बातें करते हो इश्क़ की, फ़ना की? कह रहे हैं, कुत्ता और सुअर, इनके बस की नहीं होती है इश्क़। लहज़ा देख रहे हैं, इस आदमी का? ये डरा हुआ आदमी लग रहा है कहीं से? कह रहे हैं, “तुम परमात्मा की बातें करो ही मत, तुम्हारे बस की ही नहीं है। ये दूसरों की बातें हैं। ये और लोग हैं, जिनको हक़ है ये बातें करने का। तुम तो कुत्ते हो और सुअर हो, अपनी नाली में पड़े रहो, यही तुम्हारा काम है।”

ये मीठी बातें नहीं कर रहा है ये आदमी। कि तुम आशिक़ी करोगे? ये मुँह और मसूर की दाल? लो देखो आईना। कुत्तों ने कब आशिक़ी करी है? कुत्तों ने वही किया है, जो सड़क पर करते हैं। कुत्ते उतना ही कर सकते हैं, वो कर लो तुम, उतना तुम्हें उपलब्ध है। और सुअर? वो आशिक़ी करेगा? इश्क़ मुश्क़ की बातें? हाँ?

नहीं कह रहे हैं, डिअर सर एंड रिगार्ड्स। कह रहे हैं, “बड़ी बदबू आ रही है। नहा के आया करो।” ये उन लोगों में से हैं।

श्रोता: “बुल्ला तिस नूँ वेख हमेशाँ, एह दरसन साईं दा।”

आचार्य प्रशांत: वही जो बात हमने तब कही थी। संसार में रहने का तरीका ही यही है, इतने डूबो उसमें कि संसार से पार वाला नज़र आ जाए। बुल्ले शाह कह रहे हैं, “एक एक जीव में उसी को देखो, और यही साईं का दर्शन है।” फिर से पढ़ो उस लाइन को।

श्रोता: बुल्ल्ला तिस नूं वेख हमेशा, इह है दर्शन साईं दा।

आचार्य प्रशांत: उसी को हमेशा देखो। हमेशा देखो मतलब सभी चीज़ों में। सभी जगहों पर, सभी वस्तुओं में, सभी समयों पर, उसको ही देखो, और यही उसका दर्शन है। उसका दर्शन कहीं और नहीं हो पाएगा। इसी में, इसी किताब में, इसी चादर में, इसी चेहरे में, इसी पंखे में, उसी जगत में, उसी कुत्ते और सुअर में। उसी में वो दिखाई देगा और उसमें अगर दिखाई नहीं दे रहा तो कहीं नहीं दिखाई देगा। उसमें अगर नहीं दिखाई दे रहा तो कहीं नहीं दिखाई देगा।

एक पोस्टर है मेरे पास, उसको लगाता नहीं हूँ। उसमें एक बड़ा खौफ़नाक जानवर है, जो यूँ छलाँग मार रहा है, और सामने उसके एक लड़की खड़ी हुई है छोटी सी। और वो बोल रही है, “ब्रह्म, क्या ये तुम हो?”

पर बात समझिए। कि जब वो खौफ़नाक जानवर जो कूदने वाला है आपके ऊपर जब उसमें भी वही दिखाई दे, तब तो समझिए कि जाना! और ये बिल्कुल दो तरफ़ की बात है। इसका मतलब ये नहीं है कि वो जानवर कूद रहा है तो खड़े ही हो गए। इसका मतलब ये है कि जब वो कूद भी रहा है, तब भी होश कायम है। तब भी वो सुरति जगी हुई है, बात समझ में आ रही है ना? तब भी उस जानवर से आगे की भी कोई बात दिखाई दे रही है। उस क्षण पर भी होश नहीं खो दिया है। ब्रह्म, तुम वही हो। अभी भी जो हो रहा है, डर नहीं गए हैं।

रामकृष्ण एक बार नदी पार कर रहे थे। तो उनके साथ उनका एक चेला था बड़ा प्यारा। तो नाव से अपना पार कर रहे हैं, तूफ़ान आ गया तभी ज़ोर का, नाव लगी काँपने। अब चेला भी बंगाली, कुछ भी कर सकता है। वो जब उसको बुद्ध याद आ सकता है तो। रामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए हैं, नाव ऐसे ऐसे काँप रही है, खूब ज़ोर का तूफ़ान है। तो वो उनसे कह रहा है, कि आपको डर नहीं लग रहा? डर लगना चाहिए, ये है वो है। और कुछ भी हो सकता है। आप लापरवाह आदमी हैं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। ये नाव भी पुरानी है, और ये है और वो है। कुछ तो करिये!

तो वो बोल रहे हैं, “बैठा रह चुपचाप, ठंड रख।” वो माने ना, शोर मचा रहा है, और कुछ भी कर रहा है। तो रामकृष्ण ने कहा, अच्छा इधर आ। यहाँ बैठ बगल में। जैसे ही बगल में बैठा, यूँ उसकी गर्दन पकड़ ली, यहाँ से चाकू निकाला और सीधा उसकी गर्दन पर लगा दिया। तो, उस से पूछ रहे हैं, डर लग रहा है? तो कहता, मज़ाक मत करिये, आपसे क्या डरना है? बोलते हैं, क्यों डर क्यों नहीं लग रहा? ये चाकू जो है, इसकी धार देख, लग जाए तो खून निकल आता है।

(श्रोतागण एवं वक्ता हँसते हैं)

समझ रहे हो ना बात को? बोले, “डर कैसे नहीं लग रहा तुझे, डर! खतरनाक चाकू है, डर क्यों नहीं रहा?” बोल रहा है, “अरे, आप ही तो हैं, आप मार थोड़े ही देंगे मुझे?” तो वो बोले, “ऐसे ही मुझे भी डर नहीं लग रहा। वही तो है, मार थोड़े ही देगा मुझे, और मार भी देगा तो अच्छा ही करेगा। जैसे तुझे मुझसे डर नहीं लग सकता, भले ही मैं तुझे चाकू दिखाऊँ या कुछ भी दिखाऊँ, तू मुझसे डरेगा नहीं। वैसे ही वो मुझे कुछ भी दिखाए, मैं उससे डरूँगा नहीं। वो जो भी करेगा, उसमें मेरा भला ही होगा।”

आ रही है बात समझ में? वही है। “ब्रह्म, इस दैट यू?” इस तूफ़ान में भी तो वही बैठा हुआ है! एक हलकी सी याद बनी रहे।

(मुस्कुराते हुए) लग जाए तो? खून निकल आता है।

श्रोता:

इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए।

इक अलफ़़ों दो हीत चार होए, फिर लख करोड़ हजार होए, फिर ओथों बाझ शुमार होए, हिक अलफ़़ दा नुक़्ता न्यारा ए।

क्यों पढ़ना ऐं गड्ढ किताबां दी, सिर चाना ऐं पड अज़ाबां दी, हुन होइउ शकल जलादां दी, अग्गे पैंडा मुश्कल मारा ए।

बण हाफ़िज़ हिफ़ज़ क़ुरान करें, पढ़-पढ़ के साफ़ ज़बान करें, फिर निअमत वल्ल ध्यान करें, मन फिरदा ज्यों हलकारा ए।

बुल्लाह बी बोहड़ या बोया सी, ओहो बिरछा वड्डा जां होया सी, जद बिरछा ओह फ़ानी होया सी, फिर रह गया बीज आकाश ए।

इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए।

आचार्य प्रशांत: बुल्ले शाह ने इस बार निशाना उन पर साधा है, जिन्हें पढ़ने लिखने का बहुत शौक है। (हँसते हुए) जो किताबों में ही खोए रहते हैं। बुल्ले शाह कहते हैं, क्या तुम किताबें विताबें ले के? इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए। एक अलफ़। और अलफ़ वैसे भी, जैसे हिंदी में “अ” हुआ। पहला ही।

पहला ही ध्यान से पढ़ लो, तो आगे का पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं है। तुम्हें इतना कुछ करना ही इसीलिए पड़ रहा है क्योंकि तुम कभी भी कुछ भी ध्यान से नहीं पड़ते। बुल्ले शाह कह रहे हैं, अलिफ़, “बे” आता है ना? “बे” तक भी पहुँचने की ज़रुरत नहीं है। वहीं पर सब कुछ हो जाएगा। एक अक्षर, एक। वही तुमको मुक्ति दे देगा अगर तुम उसी में डूब गए होते।

श्रोता: पोथी पड़ पड़ जग मुआ।

आचार्य प्रशांत: कबीर ने तो फिर भी ढाई की बात करी थी। यहाँ उससे भी दो बटा पाँच में काम चल रहा है, एक में। वन। सो, कम्प्रेशन रेश्यो इज़ 40%, ढाई का एक कर दिया।

एक अलफ़ पढ़ो, छुटकारा है। इतना पढ़े जा रहे हो। अभी हमारी आज की तीसरी या चौथी कविता है, गीत है। किसी ने अगर एक भी ध्यान से सुन लिया हो तो! दिक्कत ये आएगी कि हमने एक में भी! ध्यान फिर ऐसा गहरा हो कि समाधि ही हो, उससे हल्का ध्यान नहीं चलेगा।

एक अलफ़ पढ़ो, और ये बड़ी प्रसिद्ध है। लोगों ने इसके हज़ार तरीके के मतलब निकाले हैं, कि बुल्ले शाह कह क्या रहे हैं। एक अक्षर में? तो फिर दुनिया भर के ग्रंथ क्यों लिखे गए हैं? दुनिया भर की बातें क्यों कही गई हैं, अगर एक अक्षर में सब हो जाना है तो? उस एक अक्षर का मतलब समझिए। क्योंकि एक क्षण में तो आप एक ही अक्षर पढ़ रहे होते हो ना? बुल्ले शाह उस क्षण की बात कर रहे हैं। उस अब की बात कर रहे हैं, वही अज। उसी में ध्यान से डूब गए होते तो इतना आगे जाना नहीं पड़ता। समझ रहे हो बात को? एक!

अहंकार को अच्छा नहीं लगता ना ये, एक अक्षर में हो जाएगा! मैं इतना छोटा हूँ? अजी बड़ी-बड़ी किताबें फेल हो गईं हमारे सामने। ये कह रहे हैं कि एक अक्षर में हो जाएगा।

श्रोता: ये वो वर्तमान में जीने की बात कर रहे हैं?

आचार्य प्रशांत: बस बस! उससे आगे कभी कुछ होता भी नहीं है। लेकिन वो चीज़ बड़े ध्यान की है, इतनी हल्की नहीं है कि बस वर्तमान में जीना। इसके आगे ये जो कुछ इन्होने कहा है, इसको पढ़ते ही मुझे ध्यान आता है ‘बृहदारण्यक उपनिषद्।’ पूरा का पूरा उसमें एक संवाद है, जो बिल्कुल ऐसा ही है। बिल्कुल यही ही है। कि ऋषि से पूछा जा रहा है कि कितने होते हैं? तो ऋषि बोल रहा है दस हज़ार। फिर थोड़ी बात आगे चलती है, पूछा जाता है, कितने? एक हज़ार। कितने? सौ। अंत में आ कर के, एक। या कि जैसे लाओ त्ज़ू, जो कहता है कि द टेन थाउजेंड थिंग्स इमर्ज फ्रॉम दैट नथिंग। वो और आगे है। कबीर ने कहा ढाई, इन्होंने कहा एक। और वो बोलता है?

श्रोता: नथिंग , शून्य।

आचार्य प्रशांत: क्लाउड पर ही सब कुछ सेव कर दिया। इतना ज़बरदस्त दबाव है, कि मेमोरी ही नहीं चाहिए! क्लाउड पर चलेगा काम। आ रही है बात समझ में?

उसी एक से दो, तीन, चार हुए, फिर लख, करोड़, हज़ार हुए। अब ये देखो संतों की भाषा है। अब ये मत कहना कि लख करोड़, और फिर हज़ार क्यों आ रहा है, वहाँ ऐसे ही चलता है। यहाँ पर जो थोड़ा गणनात्मक किस्म के लोग होंगे, वो कहेंगे, “नहीं लख करोड़ के बाद तो अरब आना चाहिए? हज़ार कैसे आ गया?” संत ऐसे ही चलते हैं, ये ही उनकी, सधुक्कड़ी भाषा ऐसी ही होती है। ऐसे जाते-जाते अचानक ऐसे आ जाती है। पता नहीं चलता।

श्रोता: तार्किक नहीं होती।

आचार्य प्रशांत: हाँ।

श्रोता: संत से ही संता बना होगा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य प्रशांत: संता संत ही है। अगर ध्यान से देखो तो। बिलकुल टेढ़ा ही है, संतों का हिसाब। कबीर बोलते हैं, “बरसे कंबल, भीगे पानी।”

“कबीरदास की उल्टी वाणी, बरसे कंबल भीगे पानी।”

“हिक अलफ़़ दा नुक़्ता न्यारा ए।” सब उसी का विस्तार है, वही न्यारा है, वही प्यारा है। वही दिख जाए, तो सारी बात है।

श्रोता:

क्यों पढ़ना ऐं गड्ढ किताबां दी, सिर चाना ऐं पड अज़ाबां दी, हुन होइउ शकल जलादां दी, अग्गे पैंडा मुश्कल मारा ए।

इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए।

आचार्य प्रशांत: ये जो गड्डी रख रखी है, ये क्यों पढ़-पढ़ के अपने सर पर बोझ बना रहे हो? ये अज़ाब है, अज़ाब माने, पहेली, अजूबा, जिसका कोई सर पैर ना हो — जटिलता। इसमें तुम्हें कुछ मिल नहीं जाएगा। और यही सब ज्ञान इक्क्ठा कर कर के तुम्हारी शक़्ल जो है, जल्लाद जैसी और हो गई है। प्रेम नहीं रहा है जीवन में। प्रेम नहीं रहा है।

और अक्सर देखा यही गया है, कि जो लोग जितना यहाँ पर बोझ रख के चलते हैं, उनके चेहरे उतने सख़्त होते जाते हैं। अहंकार उतना प्रगाढ़ होता जाता है। उतने ही ज़्यादा वो अड़ियल होते जाते हैं। झुकना उनके लिए असंभव होता जाता है। समझ रहे हो? बहाव उनके लिए मुश्किल हो जाता है। और ये उन लोगों के साथ ज़्यादा होता है, जो नए नवेले ज्ञान में प्रवेश करते हैं।

जो ज्ञान में डूब ही गया है, तो फिर वो सुकरात की तरह इतना जान जाता है, कि वो कुछ नहीं जानता। ये जो नए नवेले शुरूआती छोकरे होते हैं, इनको ज़्यादा जल्दी लगता है कि हम कुछ जान गए। और फिर उनकी शक़्ल कैसी हो जाती है? जल्लाद जैसी! कि हमें कुछ पता है। हमें कुछ पता है, हम जानते हैं कुछ। विनीत नहीं हो पाते, विनम्र नहीं हो पाते, विनम्रता नहीं आती। झुकना नहीं आता, जीवन में प्रेम नहीं आता, बल्कि जो सहजता थी वो और चली जाती है। कड़े पड़ जाते हैं, और कड़ा होना तो मौत का ही सबूत है।

हुन होइउ शकल जलादां दी, अग्गे पैंडा मुश्कल मारा ए।

ऐसी शक़्ल कर के तुम ज़िन्दगी जिओगे? आगे का रास्ता तुम्हारा बड़ा मुश्किल है। इस शक़्ल के साथ तुम ज़िन्दगी निकालोगे? हैं? टूटे हुए अंडे जैसी शक़्ल! इसके साथ ज़िन्दगी आगे निकलेगी? कोई रस नहीं, जैसे नारियल का खोपड़ा। इसके साथ ज़िन्दगी जिओगे तो कैसी जिओगे? कैसी होगी?

श्रोता: उसमें कोई रस नहीं होगा।

आचार्य प्रशांत: कोई रस नहीं होगा।

श्रोता: इतना दुखी होने वाली क्या बात है, जब ये सराईं ही है?

आचार्य प्रशांत: और क्या! सब सराईं है। हम नारियल पानी हैं। हम सराईं में रखे जाते हैं, हमें पीयो! बहुत आजकल फैशन है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

स्ट्रॉ डाल के पीयो हमको! और होता भी यही है। नारियल के खोपड़े के साथ और क्या करते हैं? पूरी दुनिया उसमें स्ट्रॉ डाल के पीती है उसको, वही हमारे साथ होता है। जहाँ जाते हैं, वहीं पीने वाले मौजूद हैं। और जब सब कुछ पी लिया जाता है, तो खोपड़े को? (हँसते हुए) तोड़ा जाता है, और जो मलाई वलाई होती है।

हँसी में मत उड़ा देना बात को। स्ट्रॉ घुसी ही हुई है, खोपड़े में। बिल्कुल जैसे एंटीना निकला हुआ हो एक।

श्रोता:

बण हाफ़िज़ हिफ़ज़ क़ुरान करें, पढ़-पढ़ के साफ़ ज़बान करें, फिर निअमत वल्ल ध्यान करें, मन फिरदा ज्यों हलकारा ए।

आचार्य प्रशांत: बड़े हाफ़िज़ बने, बड़े भक्त, बड़े पंडित बने, और पंडित बन के अधिक से अधिक क्या कर लिया? क़ुरान रट ली। अब क़ुरान रटने से अल्लाह मिलता होता तो बहुतों को मिल गया होता। ये तो काम मशीन भी कर सकती है। ये तो काम तोता भी कर सकता है। कबीर ने बड़े मज़े लिए हैं। इस मामले में नंबर एक, कबीर हैं, मज़े लेने में। कि ऐसों के मज़े लेने में जो लोग रट लेते हैं, और इस तरह का, उनको नहीं छोड़ते। “पाथर पूजे हरि मिले,” भेड़ पकड़ ली, बंदर पकड़ लिया, कबीर को सब दिखाई दे जाते थे, सारे जानवर, इन हरकतों में।

वही कह रहे हैं बुल्ले शाह कि बण हाफ़िज़ — हाफ़िज़ बन के, हिफ़ज़ क़ुरान करे — रट लिए हिफ़ज़, रट मारी है क़ुरान। पढ़ पढ़ के साफ़ ज़बान करे — तुम्हारा उच्चारण बड़ा साफ़ हो गया है, और जब उच्चारण की बात आती है, तो आप इसमें पंडितों को पीछे नहीं छोड़ सकते। दुनिया की कोई कौम इसमें ब्राह्मणों को पीछे नहीं छोड़ सकती। क्योंकि जो पूरा का पूरा शास्त्र है, वो था ही उच्चारण पर आधारित। श्रुति — सुनो। तो बड़ी साफ़ ज़बान होनी चाहिए थी। उच्चारण ऐसा हो कि उसमें कोई गलती न हो जाए। और फिर उच्चारण ही उच्चारण बचता था, और उसमें कुछ नहीं रह जाता था। बस उच्चारण है, उच्चारण बड़ा अच्छा करेंगे, बिल्कुल साफ़।

और आप अभी भी, आज भी कहीं पर वैदिक मंत्रों का पाठ चल रहा हो, उसको सुनें, तो उसका जो पूरा भाव, जो इंटोनेशन है वो ऐसा रहता है कि रोमांच हो जाए सुनने में। समझ में कुछ नहीं आएगा, पर उच्चारण ऐसा होगा कि क्या बोला जा रहा है! चार पाँच बैठे होंगे लाइन से और बिल्कुल सुर में सुर, ताल में ताल, मिला कर के!

श्रोता: और इसका वो भी होता है ना, साथ में एक्शन।

आचार्य प्रशांत: हाँ, साथ में एक्शन भी चल रहा होगा।

श्रोता: ये तो ऐसा बोलते हैं ना, कि आपको समझने की ज़रुरत नहीं है, वाइब्रेशन्स से हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: वाइब्रेशन से हो जाता है। तो वाइब्रेटर ले लो, और मुँह में डाल लो वाइब्रेटर और वो करता रहेगा वाइब्रेट। ये हम ने भी सुना है कि उससे वाइब्रेशन्स निकलते हैं।

उसके बाद? सारी क़ुरान रट ली, ज़बान बड़ी साफ़ कर ली, उसके बाद क्या किया? कि दुनिया भर में जितने आकर्षण हैं, जितने वस्तु हैं, जिसको ये नियमत कह रहे हैं, नियामतें हैं; नियामतें माने वरदान, जो दिया हुआ है। जो वस्तु हैं, जो उस स्रोत से निकले हैं, सारा ध्यान जा के उनमें चिपक गया है, और मन उन्हीं में जा के चिपक गया है जैसे हलकारा चिपक जाता है। मन जा कर के चिपक गया है।

तो, तुमने ज़िन्दगी भर जो क़ुरान रटी उसका नतीजा ये हुआ है, कि तुम और ज़्यादा सांसारिक हो गए, तुम्हारा मन व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति और ज़्यादा आकर्षित हो गया है। और ये कोई काल्पनिक चीज़ नहीं बोल रहा हूँ, अपने आसपास ऐसा होते देखते होंगे। कि जो लोग सबसे ज़्यादा धार्मिक हैं, वो सबसे ज़्यादा विलासता में डूबा जीवन बिता रहे हैं। आज की बात नहीं है, हमें लगता है आज ऐसा हो रहा है। कि हम कहते हैं, धर्म भ्रष्ट हो गया है।

श्रोता: मठों में जाईए, देखिए क्या विलासता है वहाँ की! और कहीं नहीं ढूँढ पाएँगे।

आचार्य प्रशांत: कैसे बुल्ले शाह को ज़िंदा छोड़े हुए थे सारे मुल्ले, अभी तो ये ही बड़ी मुश्किल की बात है। जिनके बारे में ये बोला जा रहा हो, अब और तो क़ुरान कोई रटता नहीं है, साधारण आदमी! मुल्ले मौलवी ही रटते होंगे? और कैसे उन्होंने छोड़ दिया इनको, वो भी औरंगज़ेब के ज़माने में? तभी समझ में आता है, हट्टा कट्टा इनको होना ही पड़ा होगा। रोज़ दो घंटा वर्जिश मारते होंगे। तभी बचे रह गए होंगे। नहीं तो कबके मार दिए गए होते!

श्रोता:

बुल्लाह बी बोहड़ या बोया सी, ओहो बिरछा वड्डा जां होया सी, जद बिरछा ओह फ़ानी होया सी, फिर रह गया बीज आकाश ए।

आचार्य प्रशांत: ये जो आज इतना बड़ा दिखाई दे रहा है, बुल्ले शाह कह रहे हैं, कि ये भी कभी बीज रूप में रहा होगा, कभी बोया भी गया होगा। ये जो इतना बड़ा पेड़ आज दिखाई दे रहा है, ये जो पूरा विस्तार नज़र आ रहा है, ये हमेशा से नहीं था, ये समय के साथ आया है, क्रमविकास की देन है। बुल्ले शाह कह रहे हैं, इसका बीज है। और जब ये नहीं रहेगा, इसका बीज तब भी रहेगा!

जब ये सब कुछ, जो समय का है, समय ही जब इसको खा जाएगा, तब भी वो बचेगा जो समय का नहीं था! एक बात समझिएगा, जो समय का नहीं था, वो उसको जन्म देता है जो समय का है। इन दोनों में कड़ी है, पुल है। ये दो अलग-अलग दुनिया नहीं है, पदार्थ और आध्यात्मिक। ये दो अलग-अलग दुनिया नहीं है। अभी हमने कहा था कि समय में जान सकते हैं वो जो? समय के पार है। कड़ी है ना दोनों में? पुल है ना? उसे तरीक़े से, जो समय के पार है, वो उसको जन्म देता है तो समय के? भीतर है। उसी की बात बुल्ले शाह यहाँ पर कर रहे हैं।

कि सब जब फ़ना हो जाएगा, जब सब कुछ फ़ानी हो जाएगा, तब भी, आकाश में वो बीज बचेगा। स्पेस में वो बीज तब भी बचेगा। समझ रहे हैं? किस आकाश की बात हो रही है? इस आकाश की नहीं! ये तो प्रकृति का हिस्सा है, ये भी फ़ना हो जाना है। उसी चेतना के आकाश में, तब वो बीज तब भी बचेगा। चेतना ही है, और कुछ नहीं है। चेतना ही है। वो तब भी बचेगा। और फिर पैदा होगा। यही चक्र है।

श्रोता: वही जो हमने किया था, कि मनुष्य जो है, वो मनुष्य से मनुष्यतीत होने की यात्रा है।

आचार्य प्रशांत: हाँ। एक अलफ़ पढ़ो, छुटकारा ए। एक अलफ़।” अगला?

श्रोता:

इक टूणा अचम्भा गावांगी, मैं रुट्ठा यार मनावांगी।

इह टूणा मैं पढ़ पढ़ फूंका, सूरज अगन जलावांगी।

अक्खी काजल काले बादल, भवां से आंधी लियावांगी।

सत समंदर दिल दे अंदर, दिल से लहर उठावांगी।

बिजली होकर चमक डरावां, बादल हो गरजावांगी।

इश्क़ अँगूठी हरमन तारे चाँद से कफ़न बनावांगी।

लामकान की पटड़ी ऊपर बैहकर नाद बजावांगी।

लाए सवां मैं शौह गल अपने, तद मैं नार कहावांगी।

आचार्य प्रशांत: मज़ा आ रहा है पढ़ने में?

“इक टूणा अचम्भा गावांगी, मैं रुट्ठा यार मनावांगी।”

कौन है रूठा यार?

श्रोता: भगवान?

आचार्य प्रशांत: और वो नहीं रूठ गया है, उसका नहीं है काम रूठना। वो कुछ नहीं करता, वो महा अकर्ता है। उसका काम नहीं है कि वो रूठ गया, तुम मनाने जाओ तो मान वान जाए। ठीक है?

रूठना मनाना तो सब मन में चलता है। जब रूठा यार मनाने की बात हो रही है, तो यही कहा जा रहा है कि प्रार्थना है कि मेरा रूठना बंद हो जाए तुझसे।

वो कहाँ रूठना है? उसे कहाँ रूठना है? सूफ़ियों में ये प्रचलन है, उसको अपना यार मानने का। वो रांझा है, मैं हीर हूँ। रांझे हीर का जो प्रतीक है, वो बुल्ले शाह ने भी खूब इस्तेमाल किया है, जम के इस्तेमाल किया है।

“इक टूणा अचम्भा गावांगी” – जो कुछ भी करना पड़े, अचम्भा माने बिल्कुल इधर उधर की बात। ऐसी बात जो अचिंतनीय हो, सोची ना जा सकती हो। सब कुछ करुँगी, दुनिया के सारे अचम्भों से हो गुज़रूंगी, पर उसे मनाऊँगी ज़रूर। उसे मनाने का मतलब है उसको पाऊँगी ज़रूर। उसको नहीं पाया तो ज़िन्दगी बर्बाद ही गई। मैं रूठा यार मनाऊँगी। समझ रहे हो बात को? सूफ़ियों में मन को हमेशा स्त्री के रूप में प्रयुक्त किया गया है, और अच्छा ही है। समझो बात को। सांख्य योग में भी प्रकृति क्या है?

श्रोता: स्त्री।

आचार्य प्रशांत: और मन क्या है? मन प्रकृति का ही हिस्सा है। तो मन को हमेशा स्त्री रूप में ही चित्रित किया गया है सूफ़ियों में। और उनके अपने कारण हैं। उनसे पूछो तो कहेंगे, मन की सारी हरकतें स्त्रियों वाली ही हैं – चंचलता है, शक़ है, दुर्बलता है, चालाकी है। तो उसको हमेशा स्त्री रूप में ही चित्रित करते हैं। लेकिन साथ ही साथ, मन इतना भी चालाक नहीं है कि उसको जो पाना है उसे वो पा ले। तो मन की चालाकी में भी एक तरह का भोलापन है। जैसे कोई बच्चा हो, जो बहुत चालाक बन रहा हो लेकिन उसकी चालाकी भी इतनी चालाक नहीं है, कि उसको जो इच्छित वस्तु है, वो मिल जाए।

श्रोता: अपने ही खिलौने छुपा के भूल जाते हैं ना बच्चे ?

आचार्य प्रशांत: हाँ। तो मन को बिल्कुल स्त्री रूप में लेते हैं वो। जिसमें भोलापन भी है, कमनीयता भी है, डर भी बहुत है, ईर्ष्या है, और समर्पण की भावना भी है। याद रखिए, समर्पित भी मन ही हो सकता है। और समर्पण का जो गुण है, वो भी परंपरागत रूप से स्त्रियों के साथ ही जोड़ा गया है।

तो मन को, अपने आप को, हम मन ही हैं; अपने आप को सूफ़ी हमेशा स्त्री रूप में ही देखता है। और उसको, पति रूप में, पुरुष रूप में देखता है। ठीक है?

“इह टूणा मैं पढ़-पढ़ फूंका” सूरज अगन जलावांगी।”

टूणा माने शब्द। ऐसी आग जलाऊँगी, ऐसी ऊर्जा पैदा करुँगी, जैसी सूरज की होती है। ये जो शब्द है, किस शब्द की बात कर रहे हैं? वही, इक अलफ़। वही शब्द, वही नाम, वही नाद, वो मुझ में इतनी ऊर्जा पैदा कर देगा, कि तू मुझे उपलब्ध हो ही जाएगा, तुझे पा ही लूँगा। याद रखिए, साधना के लिए, तपस्या के लिए, बड़ी ऊर्जा चाहिए। कृष्णमूर्ति कहते हैं, अटेंशन इज़ नॉट ईज़ी इन दैट सेंस, अटेंशन रिक्वायर्स ट्रेमेन्डस एनर्जी। और जगत की सारी ऊर्जा का स्रोत वही है, क्या? सूरज।

तो अच्छा ही है कि बुल्ले शाह ने सूरज को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया है। क्या कह रहे हैं बुल्ले शाह? कि ध्यानस्थ हो कर के ऐसी ऊर्जा उभरेगी मुझ में, कि तुझ को पा लूँगी। बिलकुल तुझे पा लूँगी।

श्रोता:

“अक्खी काजल काले बादल भवां से आंधी लियावांगी। सत समंदर दिल दे अंदर दिल से लहर उठावांगी।”

आचार्य प्रशांत: देख रहे हैं, ये बिलकुल दीवानगी की बातें? आँख का काजल, काला बादल! आँख का काजल काला बादल! भवों से आंधी लाऊँगी। जैसे पंखा, पंख हिलाओ, तो हवा बहती है?

वैसे ही भवों है, पंख। इनसे आंधी लाऊँगी। ये सिर्फ़ काव्य प्रतीक नहीं हैं, ये सिर्फ़ कवियों की बातें नहीं कर रहे। जैसे कवि कहते ना कि तेरी आँखों की झील, और ये सब। सिर्फ़ वैसी ही बातें नहीं हैं। बात थोड़ी उससे आगे की है, अभी देखेंगे।

“सत समंदर दिल दे अंदर” – दिल के अंदर ही सारे! और वहीं से ऐसी लहर उठेगी कि तुझे पा लेगी।

अर्थ इसका क्या है, इसको समझेंगे। सारे जो इन्होंने प्रतीक उठाए हैं, वो शारीरिक हैं। आँखों का काजल, भौंह, दिल के भीतर से उठने वाली लहर। अर्थ ये है, कि इसी शरीर से…

सारे प्रतीक शारीरिक लिए गए हैं। कहा जा रहा है, कि इन्हीं का उपयोग कर के तुझे पा लूँगी। उसका अर्थ समझ रहे हैं? अर्थ ये है, कि जगत के ही इस्तेमाल से उसको पाया जा सकता है, जो जगत से न्यारा है। इसी आँख के इस्तेमाल से, इसी कान के इस्तेमाल से, इसी मन के इस्तेमाल से, उसको पाया जा सकता है जो मनातीत है, जो इन्द्रियातीत है। बस यही कह रहे हैं वो। समझ रहे हो? वो ये नहीं कह रहे हैं कि वो मुझ पर रीझ जाए, मेरी आँखें इतनी सुंदर हैं!

श्रोता: अगर कमरे से बाहर निकलना है, तो कोई बाहर से नहीं आएगा।

आचार्य प्रशांत: भीतर ही चलना पड़ेगा, यही कह रहे हैं वो।

श्रोता:

बिजली होकर चमक डरावां, बादल हो गरजावांगी।

इश्क़ अँगूठी हरमन तारे चाँद से कफ़न बनावांगी।

लामकान की पटड़ी ऊपर बैहकर नाद बजावांगी।

लाए सवां मैं शौह गल अपने, तद मैं नार कहावांगी।

आचार्य प्रशांत: तो ये सब इरादें हैं, बुल्ले शाह के। बिजली होकर चमक डरावां, बादल हो गरजावांगी। बिजली बन कड़कूँगी, सब सांसारिक घटनाएँ हैं ये। बिजली की कड़क में उसे देखूँगी। बादल हो गरजूँगी। बादल को देखूँगी नहीं, बादल हो गरजूँगी।

इश्क़ अँगूठी हरमल तारे – इश्क़ की अँगूठी में, जैसे जड़ी बूटी होती है ये; इश्क़ की अँगूठी में ये सारे तारे सेंक लूँगी। पूरी सृष्टि में तुझे ही पाऊँगी। “चाँद से कफ़न बनावांगी।” आदि से अंत तक जो भी कुछ हो रहा है, पैदा होना, जवानी में आना, आशिक़ी, दुनिया भर की घटनाएँ, और फिर मृत्यु। इन सब में, तुझे ही पाऊँगी। इन सब में तुझे ही पाऊँगी। और उसको पाने का और कोई तरीक़ा है भी नहीं। उसको पाने का और कोई तरीक़ा है भी नहीं।

“लामकान की पटड़ी ऊपर, बैहकर नाद बजावांगी” – लामकान। पर ये पक्का है कि एक सांसारिक जगह ही है, जहाँ पर बैठ कर के, नाद बजाऊँगी। नाद का अर्थ ये है, वो आवाज़ जो संसार से परे है। संसार में ही बैठ कर, संसार की ही पटड़ी पर बैठ कर के, वो आवाज़ सुनूँगी जो संसार की नहीं है। संसार में ही रह कर के आवाज़ वो सुनूँगी, जो संसार की नहीं है।

“लाए सवां मैं शौह गल अपने, तद मैं नार कहावांगी।” – अपने शौहर को गले लगा कर सो जाऊँगी, और तभी मैं नारी कहला सकती हूँ। और बड़ी मीठी बात कही है। और फ़रीद बिल्कुल यही बातें करते हैं। अभी रविवार को जब फ़रीद से मिलेंगे तब तो! अपने शौहर को गले लगा कर सो जाऊँगी, और तभी मैं नारी कहला सकती हूँ।

गले लगाने का क्या अर्थ है? कि मन स्रोत में डूब गया। और सो जाने का क्या अर्थ है? शांत हो गया। और नारी होने का क्या अर्थ है? कि मन ने वो कर लिया, जिस ख़ातिर मन होता है। किस ख़ातिर मन होता है? कि अपने स्रोत में डूब जाए।

तो बुल्ले शाह कहते हैं, मैं नारी, मेरा फ़र्ज़ यही, मेरा धर्म यही, मेरी नियति यही, कि अपने पिया को समर्पित हो जाऊँ, उसको गले लगा कर के सो जाऊँ। विलीन हो जाऊँ उसमें, ख़त्म हो जाऊँ, फ़ना हो जाऊँ। तब मैं नार कहावांगी। आया मज़ा? डर लग रहा है! “मैं रुट्ठा यार मनावांगी।”

श्रोता:

“रांझा जोगीड़ा बन आया नी वह सांगी सांग रचाया नी।

इस जोगी दे नैन कटोरे बाज़ा वांगु लैंदे डोरे मुख वेखियां दुःख जावण छोड़े इन्हां अक्खियां लाल लखाया नी।

इस जोगी दी कीनी निशानी कन्न विच्च मुन्दरां गल विच्च गानी सूरत उसदी यूसुफ सानी उस अलफ़ों अहद बनाया नी।

रांझा जोगी ते मैं जुगिआनी उसदी ख़ातर भरसां पानी ऐवें तां पिछली उमर विहाणी उस हुण मैनूं भरमाया नी।

बुल्ला शौह दी हुण गत पाई पीत पुरानी मुड़ मचाई एह गल कीकण छपे छुपाई लै तख़त हज़ारे नूं धाया नी।”

आचार्य प्रशांत: क्या हैं पहली पंक्तियाँ?

श्रोता: “रांझा जोगीड़ा बन आया नी, वह सांगी सांग रचाया नी।”

आचार्य प्रशांत: ‘रांझा’ मतलब वही पति, वही आखिरी, वही आत्म, वही पिया, वही परमात्मा, उसी को रांझा कहते हैं, बुल्ले शाह। वो जोगी बन के आया है। अब मज़े की बात देखिएगा! अभी तक लगातार बुल्ले शाह कहते रहे हैं, उसी का नूर सब में है। उसी का नूर? सब में है, लगातार है।

अब बुल्ले शाह कह रहे हैं, “वो जोगी बन के आया है। जोगी बन के आया है।” दोनों ही बातें ठीक हैं। उसी का नूर, कुत्ते में भी है, पत्थर में भी है, और सूअर में भी है। लेकिन अगर इस जगत में कोई है, जिस पे उसका नूर बिल्कुल साफ़ साफ़ परिलक्षित होता है, वो जोगी है। वो सन्यासी है। ठीक बात है बिल्कुल, उसी का नूर ज़र्रे-ज़र्रे में है। लेकिन जिसके चेहरे पर साफ़-(साफ़ दिखाई देता है, उसका नाम है? सन्यासी।

तो बुल्ले शाह कह रहे हैं कि रांझा, जोगी बन कर आया है। रांझा जोगी बन कर आया है। या ऐसे भी कह सकते हैं, कि जोगी वही है, जिसने अब अपने आप को रांझा जान लिया है। जो जान गया है कि मैं रांझे के अलावा कुछ हूँ ही नहीं। वही जोगी है, वही सन्यासी है। सन्यास का अर्थ ये नहीं है कि वो घूम रहा है, इधर-उधर कुछ। जिसने अपने आप को जान लिया है, आत्म रूप में, परम रूप में, वही। या अगर कोई बुद्ध बैठा हो यहाँ पर तो वो कहेगा, जिसने अपने आप को ‘कुछ नहीं’ जान लिया है। जिसने अपने आप को कुछ नहीं जान लिया है वो भी रांझा। और जिसने अपने आप को परम जान लिया है, वो भी रांझा। जिधर से देखना है उधर से देखो।

संसार की दृष्टि से देखो, तो जिसने जान लिया कि ये संसार का जो कुछ है, वो मैं कुछ नहीं, वो रांझा। और परम की दृष्टि से देखो तो जिसने जान लिया कि मैं सब कुछ, तो वो रांझा। दृष्टियों का अंतर है बस। इधर से देखो तो सन्यासी, या स्वामी, उधर से देखो तो भिक्षु। देखिए ना, हिंदू लोग, स्वामी बोलते हैं, राजा। उनकी दृष्टि से देखो, बुद्ध की, तो भिक्षु। हिंदू की दृष्टि से देखो तो वो जिसके पास सब कुछ है। उनकी दृष्टि से देखो तो वो जिसके पास कुछ नहीं है। और एक ही बात है।

श्रोता: कई लोग साधु बोलते हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, और वो एक ही है। जिनको कुछ ना चाहिए; कबीर ये भी कहते हैं कि, वो शाहन के?

श्रोतागण: शाह।

आचार्य प्रशांत: तो कबीर भी, कभी तो कहते हैं उसके पास कुछ नहीं और कभी कहते हैं, वो शाहों का शाह है। और दोनों ही बातें बिल्कुल ठीक हैं। और वही बात तो तुमने कही थी ना, कि जिनके पाँव में

श्रोता: पैरों में कई ताज पड़े हैं।

आचार्य प्रशांत: उनकी शक़्लें दरवेशों जैसी हैं। बिल्कुल, दोनों बातें हैं। अब या तो उनको तुम राजों का राजा मान लो, या यही मान लो कि बिलकुल भिखारी हैं। और दोनों ही बातें ठीक होंगी।

वह ‘स्वांगी’, ‘सांगी’ से अर्थ है स्वांग। जो स्वांग रचाते हैं। स्वांग शब्द को सीधे-सीधे माया समझ लीजिए। कि उसने ये माया रचा रखी है। उसने ये माया रचा रखी है, कि वो जोगी का रूप ले कर के आया है।

भारत में, जोगियों के प्रति, और जोगी शब्द के मूल में है ‘योग’ है ‘योग’; भारत में योगी के प्रति जो सम्मान रहा है, जिस दृष्टि से उसे देखा गया है, वो अभूतपूर्व है। और कहीं होती भी नहीं है। असल में सन्यास की अवधारणा ही भारत के अलावा और कहीं कभी रही भी नहीं। भक्ति बहुत जगह रही है, सन्यास की बात कहीं नहीं रही है। समझ रहे हैं? इसीलिए बुल्ले शाह भी कह रहे हैं कि वो रांझा जोगी बन के आया है। कुछ भी और कह सकते थे, पर जोगी ही कहा है।

श्रोता:

“इस जोगी दे नैन कटोरे” बाज़ा वांगुं लैंदे डोरे मुख वेखियां दुख जावण छोड़े इन्हां अक्खियां लाल लखाया नी।”

आचार्य प्रशांत: ‘नैन कटोरे’, काहे के कटोरे हैं? भीख के कटोरे?

श्रोता: प्रेम के।

आचार्य प्रशांत: अरे, सूफ़ी हैं। तो काहे के कटोरे होंगे?

श्रोता: नारियल के।

आचार्य प्रशांत: सूफ़ी का, नारियल से क्या संबंध है? सूफ़ी, नारियल कैसे?

(श्रोतागण हँसते हैं)

काहे का कटोरा? अरे यार, इतने तुम सूफ़ियों के गाने सुन चुके हो, इतनी बार चर्चा हो चुकी है, सूफ़ी, क्या कटोरे में? सूफ़ी तो परमात्मा को भी साक़ी बोलता है। क्या होगा कटोरे में?

श्रोता: शराब।

आचार्य प्रशांत: हाँ। सूफ़ी तो परमात्मा को भी साक़ी बोलता है, जो मुझे मदहोश कर दे, वही परमात्मा है। तो इस जोगी के नैन कटोरे , इसकी आँखों में शराब है। मैं इसको बस देखता हूँ, आँखें चार करता हूँ, और मुझे भी कुछ हो जाता है। नशा चढ़ जाता है। और वास्तव में सन्यासी वही है, जिसके पास आप जाएँ, जिसकी आँखों में आँखें डालें, और आप भी नशे में आ जाएँ। जो कुछ सोच कर गए हों, जितनी आपकी चालाकी हो, जितनी आपकी कुटिलता हो, वो सब बिल्कुल गायब हो जाए, और आप भी झूमना शुरू कर दें। तो वही है। और वो नहीं, तो फिर नहीं।

“इस जोगी दे नैन कटोरे” – बड़ी बड़ी आँखों की बात नहीं हो रही, कटोरे के बराबर आँख है। नैन कटोरे, मतलब आँखें?

श्रोता: नशीली।

आचार्य प्रशांत: हाँ। सूफ़ी जिस अर्थ में नशे को इस्तेमाल करते हैं, उसको समझिएगा। नशा दो तरह का हो सकता है, एक वो जो आपको मन से नीचे गिरा दे, दूसरा वो जो मन से ऊपर ले आ दे। सूफ़ी, ये दूसरे नशे की बात करते हैं। इसको भी बड़ा गलत समझा गया है। यही कारण है, कि आज जो कट्टरपंथी मोर्चे हैं इस्लाम के, वो सूफ़ियों के बड़े ख़िलाफ़ हो गए हैं।

दो ही तीन बातें हैं, सूफ़ियों की जो बड़ी चुभती हैं। जो देवबंदी और वहाबी लोग हैं, उनको। एक तो वही कि ये पीने पिलाने की इतनी बात क्यों करते हैं? फिर, ये इतना ज़्यादा नाचने-गाने की क्यों बात करते हैं? संगीत इतना क्यों है? फिर ये, कि एक सच्चे मुसलमान के लिए, एक ही जगह होनी चाहिए पूजा की, मस्ज़िद। मज़ारें और ये सब क्या चल रहा है? कि मज़ारों पर जा रही हैं औरतें, और बच्चा पैदा होने की दुआएँ माँग रही हैं। समझ रहे हो?

और वो बात गलत समझी गई है। सूफ़ियों ने ख़ुद जिस अर्थ में शराब का प्रयोग किया, वो बात बिल्कुल अलग थी, वो प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया गया था। वो किंगफ़िशर की शराब की थोड़े ही बात कर रहे हैं! कि खोलो, और हेवर्ड्स फाइव थाउज़ेंड अंदर। कोई सूफ़ी नहीं ये सब करता। और करता भी है, तो बिल्कुल भाव अलग होता है। पर उसको समझा अभी कुछ और जा रहा है।

ये सूफ़ियों की शराब और आम शराब में ये अंतर है।

“बाज़ा वांगुं लैंदे डोरे” – तीखी हैं आँखें। जैसे बाज़ के साथ, तीखापन उसी से उठ रहा होता है ना? वैसे ही। इन्होंने मुझे घेर लिया है, ये सब जान जाती हैं। इसकी जो नशीली आँखें हैं, इनमें होश बहुत है। आम तौर पर जब तुम नशे में जाते हो, तो कैसे हो जाते हो?

श्रोता: बेहोश।

आचार्य प्रशांत: और इसकी नशीली आँखों में गहरा होश है, बाज़ जैसी तीव्रता के साथ, गहराई के साथ। ये सब जान जाती हैं। ये आँखों में आँख डालता है, और सब जान जाता है। रांझा, जोगी बन के आया है।

श्रोता: “मुख वेखियां दुःख जावण छोड़े, इन्हां अक्खियां लाल लखाया नी।”

आचार्य प्रशांत: लाल, हीरे के लिए इस्तेमाल होता है, हीरे जवाहरात, लाल, वैसे ही। ‘लखाया’ माने, दिखाया। लक्ष्य कराया। यही जो आँखें हैं, किसकी आँखें? जोगी की आँखें। इन्हीं आँखों ने मुझे उसके दर्शन करा दिए हैं, वो जो लाल है, जो क़ीमती है। इन आँखों ने मुझको उसके दर्शन करा दिए हैं।

“मुख वेखिया दुःख जावण छोड़े” – इसी मुँह को देखता हूँ, तो सारे दुख तिरोहित हो जाते हैं। किसका मुख? जोगी का, रांझा। कुछ है, उसकी शक़्ल पे ऐसा, कि दुख बचता नहीं है। दिखाई देने लग जाता है, कि सारे दुख झूठे हैं। उसका होना इस बात का प्रमाण है, उसका होना इस बात का प्रमाण है, कि दुख से मुक्ति संभव है। उसका होना इस बात का प्रमाण है, कि बेहोशी में कितना गहरा होश है।

श्रोता:

“इस जोगी दी कीनी निशानी” कन्न विच्च मुन्दरां गल विच्च गानी सूरत उसदी यूसुफ़ सानी उस अलफ़ों अहद बनाया नी।”

आचार्य प्रशांत: ये जो “अलफ़ों अहद” कहा जा रहा है, थोड़ी सी तकनीकी बात हैं, समझना पड़ेगा। ख़ुदा का नाम है ये, अहद। ख़ुदा का नाम है ये, सिफ़ाति नाम है, ख़ुदा का नाम है ये, अहद। क्या निशानियाँ हैं उस जोगी की? “इस जोगी दी कीनी निशानी, कन्न विच्च मुन्दरां गल विच्च गानी” – मुन्दरां, अंगूठी के लिए मुद्रिका शब्द इस्तेमाल होता है, वही है मुन्दरां। गले में माला डलि हुई है बस ये समझ लो, ये उसकी निशानी है। क्या निशानी है? कानों में कुण्डल, बाली। कानों में उसके बालियाँ हैं, कुण्डल हैं, और गले में उसके माला है।

“सूरत उसदी यूसुफ सानी” – यूसुफ जैसी उसकी सूरत है। यूसुफ जैसी उसकी सूरत है, बड़ा ही सुन्दर दिखाई देता है। और सुन्दर वैसा नहीं है, कि गोरा है, कि चिट्टा है। ये सुंदरता सत्यम् शिवम् सुंदरम् वाली सुंदरता है। कि उसके चेहरे से सत्य दिखाई पढ़ता है, ये वो सुंदरता है। ये नहीं है कि चेहरे पर वो करा के आया है, फेशियल और ये सब, तो इसीलिए बड़ा सुन्दर लग रहा है।

श्रोता:

“रांझा जोगी ते मैं जुगिआनी” “उसदी ख़ातर भरसां पानी” “ऐवें तां पिछली उमर विहाणी” “उस हुण मैन्नू भरमाया नी।”

आचार्य प्रशांत: “रांझा जोगी ते मैं जुगिआनी,” मैं उसकी प्रियतमा हूँ। मैं उसी जोगी की जोगन हूँ। “उसदी ख़ातर भरसां पानी” – उसकी ख़ातिर कुछ भी करुँगी, पानी भी भरूँगी। उसके लिए कुछ भी करुँगी। उसी का नाम साधना है। उसके लिए जो कुछ भी करना है, इसी का नाम साधना है, और उसके लिए कुछ भी करुँगी।

“ऐवें तां पिछली उमर विहाणी” – ऐवें ही बीत गई, क्या? पिछली उमर। कौन सी उमर? जब उसको जाना नहीं था। समय व्यर्थ ही गया, जब उसको जाना नहीं था। एक-एक दिन जो उसकी निकटता में नहीं बिताया, वो एक व्यर्थ ही दिन था। उसका कोई उपयोग नहीं रहा जीवन में, वो बस समय था, कट गया ऐसे ही।

“उस हुण मैन्नू भरमाया नहीं” – भरमाया शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं, भरमाया से ऐसा लगता है जैसे भ्रमित किया हो। पर अर्थ यही है कि उसने मुझे पूरी तरीक़े से वश में कर लिया है। उसने मुझे पूरे तरीक़े से अपने वश में कर लिया है। अब मैं पूरी तरह उसकी हो गई हूँ, मन अब मेरा नहीं रहा! मन किसका हो गया है? उसका हो गया है, उसका। और वो जो उसका है, याद रखिए कोई अलग नहीं है। वो जो उसका है, वो मेरे ही भीतर बैठा हुआ है। बस ये भाषा भक्ति की है, तो इसमें अहम् की जगह तुम प्रयोग किया जा रहा है। मैं की जगह, तू प्रयोग किया जा रहा है।

श्रोता :

“बुल्ला शौह दी हुण गत पाई पीत पुरानी मुड़ मचाई एह गल कीकण छपे छुपाई लै तख़त हज़ारे नूं धाया नी।”

आचार्य प्रशांत: तख़त हज़ारा तो इनके गुरु का, क़ादरी साहब का, इनायत क़ादरी साहब का जो आश्रम था उसको तख़त हज़ारा कहते थे। कह रहे हैं, कि अब मैं उस तरफ़ जा रहा हूँ। तो, बुल्ला शौह दी हुण गत पाई – बुल्ला शाह की अब यह गति हुई है, “पीत पुरानी मुड़ मचाई” – बड़ी प्यारी बात कही है, बहुत प्यारी। प्रीत पुरानी है, अब दोबारा धधक उठी है। नई प्रीत नहीं है। मन तो हमेशा से तुम्हारा है। बस आग उसमें नई है, पुरानी लपटें। समझ रहे हैं बात को? ये कोई नई घटना नहीं है, जीवन में जो घट रही है। बस कुछ था जो भूले बैठा था, वो दुबारा याद आ गया है। उसी स्रोत से निकला हूँ मैं। वो एक नया कैसे हो सकता है, वो तो हमेशा ही मेरे साथ रहा है। ये प्रीत पुरानी ही है।

“तुमसे मिलकर ना जाने क्यों, और भी कुछ याद आता है।” बिल्कुल वही है, प्रीत पुरानी। “तुम से मिलकर ना जाने क्यों और भी कुछ याद आता है। आज का अपना प्यार नहीं है, बरसों का ये नाता है।” मिले आज हो, प्यार हमेशा से था। मज़ा आया?

श्रोता: वो भूली दास्ताँ, लो फिर याद आ गई।

आचार्य प्रशांत: “फिर” याद आ गई। कुछ नया नहीं है इसमें, कुछ नया नहीं हो रहा है। लता मंगेशकर गाए तो मज़ा नहीं है, आप गाए तो मज़ा है। —

श्रोता: “तुमसे मिलकर और भी कुछ याद आता है। आज का अपना प्यार नहीं है, बरसों का ये नाता है, नाता है,” (गाते हुए)।

आचार्य प्रशांत: अब ये बहुत अच्छा सामान्य नियम है उन सब के लिए जो आत्म साथी खोज रहे हैं – जिससे मिल कर और भी कुछ याद आए, तो वहीं समझ लीजिए कि कुछ है। आज का अपना प्यार नहीं है, बरसों का ये नाता है, नाता है

(श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता: कुछ नहीं है।

आचार्य प्रशांत: और भी कुछ से क्या मतलब है राहुल?

श्रोता: इसके लिए मिलने की क्या ज़रुरत है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, याद मन को आएगा और मन तो इन्द्रियों में ही जीता है। मन को तो जब दिखेगा या सुनाई देगा, तभी याद आएगा।

श्रोता: हाँ, तो शारीरिक मिलने की ज़रुरत नहीं है।

आचार्य प्रशांत: ज़िक्र भी काफ़ी है। ये जो ‘ज़िक्र’ शब्द है ये सूफ़ियों का बड़ा प्यारा शब्द है। वो कहते हैं, उसकी बात करो, ज़िक्र करो बार-बार उसका। कथा बाँचो उसकी। कथा बाँचो। बार-बार उसकी बात करो।

श्रोता: वो गाना है, “तेरा ज़िक्र है, या इत्र है, जब-जब करता हूँ, महकता हूँ”

आचार्य प्रशांत: हाँ। ये ‘ज़िक्र’ साधारण शब्द नहीं है। ये सत्संग है।

श्रोता: अच्छा इसमें एक चीज़ है, कि पहले का जो जानता था जब मैं जानता नहीं था, बेकार था। अगर हमेशा ही जानते होते तो कैसे सराहते।

आचार्य प्रशांत: ये एक प्रेमी बोल रहा है, जिसने अभी-अभी पाया है। आप जो बोल रहे हैं, वो ज्ञानी बोल रहा है। प्रेमी कह रहा है, जिसने अभी-अभी पाया है, वो कह रहा है, इसको पा के ऐसा लग रहा है, कि पुराना सब व्यर्थ है। तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले? तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले?

आप जो बोल रहे हैं, ज्ञानी की बात है। आप कह रहे हैं, देखो पहले की जो पूरी यात्रा थी, वही तो यहाँ लेकर के आई है ना? अगर वो पहले की यात्रा न होती तो यहाँ तक कैसे पहुँचते? ये प्रेमी बोल रहा है। इसपर भी एक और गाना है। कि “वो लड़की है, वो मुझसे दिन रात इसी पर लड़ती है, कि तुम मुझे क्यों नहीं मिले पहले, ये कह के रोज़ झगड़ती है।”

अब यही मज़ा है ना कि जब आप गाने सुने, और हर गाने में, वही दिखाई दे। अब लता मंगेशकर जब वो गा रही होंगी, “तुमसे मिल कर ना जाने क्यों,” तो वो तो वैसे ही गा रही होंगी, कि वो कोल्हापुरे और मिथुन चकर्वर्ती नाच रहे हैं। पर मज़ा तब है जब आप उसको सुने तो आपको सही में कुछ और याद आ जाए। यही जीने का मज़ा है।

श्रोता: उस दिन हम कॉकटेल गाने सुन रहे थे, जितना उस दिन उस गाने में मज़ा आया, “जे मैं तेन्नु बाहर ढूँढा, अंदर कौन समाया?”

आचार्य प्रशांत: ये तो बुल्ले शाह ही तो हैं ये।

श्रोता: मेरी आँख में आँसू ही आ गए। ये पूछ रहे थे, तेरे को हुआ क्या? मुझे आज तक नहीं पता चला कि इस गाने में ये चीज़ है।

आचार्य प्रशांत: हमें कुछ नहीं पता, कि किस में क्या चीज़ है। एक दिन ऐसा भी हो सकता है, वो बिस्कुट देख के आँख में आँसू आ जाए। ख़तरनाक दिन होगा।

श्रोता: असल में शुरू-शुरू में जब हर जगह वही दिखाई देने लगता है, तो डर लगता है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, हाँ। किसी किसी दिन तो मुझे निशीथ को देख के आँसू आ जाते हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अब ये कारण दूसरा है, पर! बात देखिए मज़ाक की नहीं है, समझो। जब कुछ हो रहा हो, और उसमें कुछ और ही दिखाई दे, तब समझना कि हो गया।

और ये गानों में होगा बहुत जल्द ही। क्योंकि संगीत में वो बात है। आप प्रेमी के लिए गा रहे होते हो और हर प्रेमी रांझा ही होता है। अगर ठीक ठीक देखा जाए तो। अगर प्रेम सच्चा है। अगर प्रेम वही प्रेम है जो प्रेम होता है। बाकी अंड-मंड प्रेम है तो फिर कुछ भी हो सकता है। फिर तो आप कुत्ता, सुअर, किसी को भी रांझा बोल दो, उसमें फिर कुछ रखा नहीं है।

तो संगीत में ये सबसे पहले होगा। कला में सबसे पहले होगा। आप कविता पढ़ रहे हो, आप पेंटिंग देख रहे हो, आप मूर्ती देख रहे हो, और अचानक आपको कुछ ऐसा दिखाई दे जाएगा, जो उस कविता से, मूर्ती से पार का है। दूर का है, आगे का है। कि आप प्रकृति को देख रहे हो। पहाड़ को देख रहे हो, किसी जानवर को देख रहे हो, और आपको कुछ ऐसा दिख जाएगा, जो पार का है। और फिर समझिएगा कि कुछ देखा। उस दिन समझिएगा कि कुछ देखा। वरना अंधों का ही जीवन है।

नंदू को देखो, आँख में आँख डाल के और कुछ और दिख जाए, तब तो समझना कि कुछ देखा, नहीं तो अंधे हो। नहीं तो अंधे हो। समझे बात को? ये देखने का फार्मूला बता रहा हूँ बिल्कुल, याद रखना। जिसको देखो, उसके आगे का कुछ दिख जाए, तो समझना कि देखा। नहीं तो सिर्फ़ अगर उसका रूप देख लिया, शरीर देख लिया, उसका नाम देख लिया, आकार देख लिया, तो कुछ नहीं देखा। जिसको देखा, उसके पार देखा, तो समझो कि देखा।

तो, “पीत पुरानी मुड़ मचाई, एह गल कीकण छपे छुपाई” – अब कैसे छुपाऊँगा इसको? ये इश्क़ कहाँ छुपने का? साधारण इश्क़ ही नहीं छुपता, ये इश्क़ कहाँ छुपेगा? अब कहाँ छुपने का है? अब तो ये डंका बजाएगा। अब तो पूरी दुनिया को दिखेगा, हम आशिक़ हैं। अब नहीं छुपने का ये। अब ये कानाफूसी वाला इश्क़ नहीं है। अब ये चिल्लाने वाला इश्क़ है, वो बात करता है। अब ये वो नहीं है धीरे से, कान में, स्वीट नोथिंग्स।

श्रोता: जब प्यार किया तो डरना क्या।

आचार्य प्रशांत: चलो, गाओ।

(सभी मिल कर गाते हैं)

श्रोता: आपने जैसे बोला कि उसका डंका बजता है ना, जब आपको शुरू में वो रियलाइज़ेशन होता है। कई बार, रियलाइज़ेशन होता है, पर आपकी कंडीशनिंग बहुत भारी होती है, तो आप उसको व्यक्त नहीं कर पाते हो शुरू में।

आचार्य प्रशांत: अरे सब उसी में एक्स्प्रेस हो जाता है, डंका बजने का मतलब यही है कि, एक-एक हरकत में दिखाई देता है, चेहरे पर दिखाई देता है। जिन्होंने कहा है कि, इश्क़ और मुश्क़ छुपाए नहीं छुपते। उन्होंने यही कहा है, आँखों में नशा आ जाता है सब दिखाई पड़ता है। ये टीनेज लव में भी हो जाता है। इस इश्क़ की तो बात छोड़िए ये जो 15 साल क छोकरों को होता है, उसमें भी हो जाता है। सब कुछ पता चल जाता है कि बेटा कुछ चल रहा है। तेरा सही-सही बता कुछ हो रहा है, ऐसे ही बता देता हूँ मैं। आज बात है इसमें क्या है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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