प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आवश्यकता और लालच में क्या अंतर है?
आचार्य प्रशांत: ऊँट का कूबड़ देखा है, उसमें वो क्या रखता है? कब के लिए? वज़न भी ऐसे ही बढ़ता है कि शरीर लालची है। शरीर क्या चाह रहा है? कल के लिए संचय कर लेना। तुम्हारी आवश्यकता अभी की है, आज की। जो आज की है वो क्या है?
प्र: आवश्यकता।
आचार्य: और जो कल का है, वो क्या है?
प्र: लालच।
आचार्य: बात आयी समझ में|
प्र: सर, यह तो प्रोग्रेस (प्रगति) ही नहीं हुई। लोग कल की नहीं सोचेंगे, कल्पना नहीं करेंगे तो प्रोग्रेस नहीं होगी।
आचार्य: ठीक है। प्रोग्रेस माने क्या होता है?
प्र: सफलता।
आचार्य : ठीक-ठीक बताओ न एक शब्द मत कह दो। प्रोग्रेस , प्रगति माने क्या? कब कहते हो कि प्रोग्रेस हो रही है?
प्र: अभी की जो परिस्थितियाँं हैं उससे आगे कि जो भी कंडिशन हो, वो अच्छी हुई।
आचार्य: कब कहते हो कि अच्छी हुई?
प्र: ख़ुशी।
आचार्य: ख़ुशी, कब कहते हो कि प्रोग्रेस हो रही है, तरक्की हो रही है? तरक्की का अर्थ क्या है?
प्र: जैसे ज़्यादा पॉजिटिव आ जाता हैं।
आचार्य: हाँ, तो कैसे? पॉजिटिव तो एक शब्द है। कैसे कहोगे कि तरक्की हुई?
प्र: आज से बेटर (अच्छा)।
आचार्य: बेटर माने क्या? मैं यही कह रह हूँ कि एक आदमी है, उसकी एक स्थिति है। और दो महीने बाद एक आदमी की आज एक स्थिति है और दो महीने बाद उसकी एक दूसरी स्थिति हो जाती है। तुम कैसे कहोगे कि इसकी तरक्की हुई है? हाँ, कैसे कहोगे? जो सीधी-सीधी बात है बताओ।
प्र: तुलना करके।
आचार्य: हाँ तुलना करके क्या? किस चीज़ पर, किस पैरामीटर पर तुलना कर रहे हो?
प्र: ख़ुशी पर।
आचार्य: क्या ख़ुशी पर कहते हो तरक्की हुई? ईमानदारी से बताओ। तुम्हें कोई ज्यादा खुश दिखता है तो तुम बोलते हो इसकी तरक्की हो गई है। तरक्की का अर्थ क्या है? कब बोलते हो, 'अच्छा बड़ी तरक्की हो रही है इसके घर में,' कब बोलते हो? सीधी-सी बात है — तुम्हारी प्रगति का एक ही अर्थ है कि पैसा आ गया है अब। और वो तुम छुपा रहे हो क्योंकि तुम ख़ुद भी जानते हो कि यह बड़ी बेवक़ूफ़ी की बात है।
प्र: सर, पैसा इधर से उधर, उधर से इधर जाता है, है तो एक ही चीज़ है न।
आचार्य: तुम मुझे बताओ प्रगति माने क्या?
प्र: सर, प्रगति का मतलब यह है कि हम आज से दस साल पहले लोगों के पास मोबाइल नहीं थे, अब मोबाइल हैं आज ज़ल्दी बात नहीं कर सकते हैं।
आचार्य: आज तुम खूब बात कर सकते हो किससे? किससे? कोई भी नाम बोल दो। माँ-बाप से, माँ-बाप से? जब मोबाइल नहीं था, तब क्या बेटे और बाप के सम्बन्ध आज की अपेक्षा ख़राब थे?
प्र: नहीं सर, बहुत अच्छे थे।
आचार्य: तो बात करने में क्या रखा है? क्या तुमने बात इसलिए की है कि सम्बन्ध और खराब हो जाऍं? तुम यह कैसे कह सकते हो कि आज तुम जब चाहो बात कर सकते हो यह तरक्की है।
प्र: सर, यह जो नयी टेक्नोलॉजी आयी है।
(आचार्य प्रश्नकर्ता को टोंकते हुए)
आचार्य: आगे मत भागो। जो अभी पूछा उस पर जवाब दो। तुम किसी से बात करते हो तो इसीलिए करते हो न कि उससे प्रेम है, एक सम्बन्ध है अन्यथा बात तो नहीं करोगे? तो वास्तविक चीज़ क्या है, प्रेम। असली चीज़ वो है अन्यथा बात का तो कोई अर्थ नहीं है न। क्या बेकार ही दीवारों से बात करते हो? क्या फालतू ही दीवारों से बात करते हो? नहीं न। बात का तो अर्थ ही यही है कि सम्बन्ध है, इस कारण बात है। तो प्रमुख क्या है? सम्बन्ध। तो मैं पूछ रहा हूँ तुमसे कि क्या सम्बन्ध बेहतर हुए हैं? या तुम दिनों-दिन सम्बन्ध को और गिरता हुआ देख रहे हो?
प्र: गिरता हुआ देख रहे हैं।
आचार्य: जो मोबाइल तुम्हारे हाथ में आया है, उसका प्रयोग करने वाला कौन है, तुम? उसका ठीक वही प्रयोग होगा न जैसे तुम हो? कोई भी टेक्नोलॉजी को प्रयोग कौन करता है? आदमी। और जैसा आदमी होगा, वैसे ही उसका प्रयोग होगा। ठीक है, तुम नंबर डायल करोगे पर उस पर बात करने वाला कौन है? तुम। और तुम क्या बातें करते हो? और ठीक-ठीक बताना कि क्या इन बातों के बिना काम नहीं चलेगा? और क्या जब यह मोबाइल नहीं था। तब इन बातों के बिना मज़े में काम नहीं चलता था?
प्र: टाइम ज़्यादा लगता था।
आचार्य: बातें हो ही नहीं रही, टाइम भी नहीं लग रहा। मैं कह रहा हूँ, आज जो बातें तुम मोबाइल पर करते हो, तब हो ही नहीं पाती थी। पर न हो पाने से क्या सम्बन्ध और बेहतर नहीं थे? तो यह प्रगति है वास्तव में क्या?
प्र: दुर्गति है।
आचार्य: दुर्गति है।(हँसते हुए) वापस आते हैं, प्रगति का तुम्हारे लिए एक ही अर्थ है, 'पैसा'। और इस बात को ईमानदारी से स्वीकार करो कि तुम मानते ही तभी हो कि कुछ प्रगति हुई, खुशहाली आयी, तरक्की हुई जब तुम देखते हो कि घर में एक मंजिल और जुड़ गयी, लोगों के कपड़े नए हो गये और जैसा तुमने कहा कि टू-व्हीलर, फोर-व्हीलर बन गया। तो तुम बोलते हो प्रगति हो रही है| भाई, इनका घर बड़ी प्रोग्रेस कर रहा है। या फलाने आदमी की तनख्वाह बढ़ गई तो तुम बोलते हो कि यह प्रोग्रेस कर रहा है। यही कहते हो न बेटा। प्रगति का यही अर्थ है न। दूसरा अर्थ बता दो फिर?
प्र: परिवर्तन।
आचार्य: अभी बैठे हो आराम से, आराम से? तो इधर झूलो, उधर गिरो और पीछे जाओ, आगे आओ। बोलो परिवर्तन कर रहे हैं| करो न।
प्र: सर, एक लड़का बड़ा हुआ थोड़ा बाहर चाय बेचने लगे तो, आज ऐसा ही युग है।
आचार्य: कैसा युग है?
प्र: मतलब हटकर करना।
आचार्य: किससे हटकर करना? और क्यों हट कर करना? मैं तुमसे इतनी सीधी बात कर रहा हूँ, कि वो तुम्हें पच नहीं रही| मैं कोई टेढ़ी बात करूँ तो वो तुम्हें समझ में आ जाएगी। मैं तुमसे बहुत सीधी-सी बात पूछ रहा हूँ, वो तुम्हें नहीं समझ में आ रही। तुमने मुझसे पूछा, 'आवश्यकता और लालच में अंतर क्या है?' मैंने कहा, जो आज की है वो आवश्यकता, जो कल की हो वो लालच। तो तुम कह रहे हो कि प्रगति ही नहीं होगी ऐसे तो। मैं कह रहा हूँ प्रगति माने क्या? तुम बता नहीं पा रहे हो। और मैं जानता हूँ, तुम जब कहते हो प्रगति तो उसका एक ही अर्थ है।
प्र: क्या?
आचार्य: लालच। और यह नहीं समझ रहे हो तुम कि जहाँ लालच आया वहीं क्या आयी? गुलामी। ज़ोर देकर बोला न मैंने कि तुम्हारा लालच ही तुम्हें ग़ुलाम बनाता है। पर तुम ग़ुलाम बनने के लिए ऐसे मचले जा रहे हो, ऐसे बेताब हो रहे हो। पालतू कुत्ते ऐसे होते है, उनकी आदत लग गयी है गुलामी की, उन्हें खुला भी छोड़ दो तो वापस भागते हैं। अपने ही दुश्मन हो, बेटा। बहुत शौक़ है जन्म गंवाने का?
प्र: सर कैसे समझा जाए कि ज़िंदगी क्या है?
आचार्य: अच्छा नहीं समझे जीवन क्या है तो कोई समस्या है? नहीं समझे कि जीवन क्या है तो कोई समस्या है? अभी यहाँ बैठे हो, हम बातचीत कर रहे हैं तो पूछना ज़रूरी है, जीवन क्या है? कोई समस्या है? शांति से बैठे हो तो उसमें क्या समस्या है तुमको? काम चल रहा है न। तुम्हें समस्या क्या है? बताओ।
प्र: एक जैसे कि फील्ड है सर| दो से तीन लोग तो फील्ड के उस पार जा सकते हैं। कहीं किनारे नहीं जा सकते है और जबकि उन्हें एक ही फील्ड से जाना है। और पूरे फिल्ड में माइंस बिछे हुए हैं, पता नहीं किसी को कि फिल्ड में माइंस बिछे हैं, कहाँ-कहाँ माइंस बिछे हुए हैं। पैर रखेंगे ब्लास्ट हो जाएगा, तो किसी तरीक़े से उनका एक दोस्त किसी तरीक़े से क्रॉस करते हुए, इग्नोर करते हुए उस पार चला जाता है। किसी दिन दोस्त से पूछेंगे, बोलेंगे कि अगर आपको उस पार जाना है तो कौनसा रास्ता अपनाएँगे? अधिकतम लोग यही कहेंगे कि हम भी यही रास्ता अपनाऍंगे क्योंकि अगर इधर-उधर जाऍंगे तो काम बनेगा नहीं। लोग यही रास्ता अपनाऍंगे।
आचार्य: रास्ता अपनाने की बात तो बेटा तब आती है न, जब उधर जाना आवश्यक हो।
प्र: लोगों को वहीं तो जाना है सर, उनका फिक्स है।
आचार्य: लोगों को वहाँ क्यों जाना है? समझो न इस बात को। चीनी बच्चे को क्यों पसंद आती है वो घोषणा, जो हमने शुरू में ही बात करी थी। लोगों को नहीं जाना है, लोगों के मन में यह बात?
प्र: बैठा दी गयी है।
आचार्य: तुम्हारी सोच, एक ग़ुलाम सोच है। तुमने ख़ुद नहीं सोचा कुछ, तुम्हारे माहौल ने तुम्हारे भीतर यह बात भर दी है कि कहीं जाना है, प्रगति करनी है, उस पार जाना है। किसी पार जाने की कोई आवश्यकता है नहीं। किसी पार नहीं जाना है। यह नासमझ लोग हैं, जिन्होंने अपनी नासमझी तुम्हें भी हस्तांतरित कर दी है। जैसे एक बीमार आदमी अपने वायरस हर जगह फैला दे। ज़रा ध्यान से देखो न, उन्हें इधर पार, उस पार और सत्तर पार करके उन्हें क्या मिल गया है।
जाकर ध्यान से उनके जीवन को देखो कि तुम्हें क्या मिल गया यह सब करके जो मुझे शिक्षा दे रहे हो। उदास तुम रहते हो, बेचैन तुम रहते हो, हिंसात्मक तुम हो, दूसरों से तुलना में तुम जुटे रहते हो, बात-बात में डर तुम जाते हो, दुनियाभर के अहंकार तुममें है और तुम मुझे शिक्षा दे रहे हो कि मैं भी तुम्हारी ही तरह हो जाऊँ। जो लोग यह शिक्षाऍं देते हैं एक बार यह तो देख लो कि उनके जीवन का क्या हश्र हुआ है। तुम्हें कोई आनंद, कोई उड़ान दिखायी देती है, उनके जीवन में? या तुमको सिर्फ़ बोझ और उदास आँखें दिखायी देती हैं, और एक दौड़ दिखायी देती है, बेचैनी दिखायी देती है, डर दिखायी देता है। ध्यान से देखना और उसके बाद पूछना कि इस आदमी का जब अपना यह हाल है तो इससे मुझे क्या मिल सकता है? मैं इसकी बात क्यों सुन रहा हूँ? ठीक कह रहा हूँ कि नहीं कह रहा हूँ?
इतनी जल्दी से आदर्श क्यों बना लेते हो कि इसकी बात सुननी है और उसकी ओर देखना है| और एक आदमी उस पार पहुँच गया। अरे! किस पार पहुँच गया?
प्र: सर, फिर तो सब सन्यासी बन जायेंगे न।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: ख़तरा! भागो! न तुम संसारी को जानते हो, न तुम सन्यासी को जानते हो। थोड़ा-सा साफ़ आँखों से दुनिया की ओर देखो। अभी यह तुम्हारे लिए सिर्फ़ शब्द हैं| ध्यान से देखो, जल्दी से भागना मत शुरू कर दो। एक निरर्थक जीवन जीकर के कुछ पाओगे नहीं और लोग बड़ी हताश मौत मरते हैं कि इतनी दौड़ लगायीहासिल कुछ नहीं हुआ।
'उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाए थे चार दिन। दो आरज़ू में कट गये, दो इंतज़ार में।'
~ बहादुर शाह ज़फ़र