प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे सेल्फ रियलाइज़ेशन (आत्मज्ञान), हम अपनेआप को जान लेते हैं, अपनी खामियों को जान लेते हैं या हम किस प्रकार सोचते हैं और उसकी जो कमियाँ है उनको इम्प्रूव (सुधार) करने की कोशिश करते हैं, तो वो क्या एक रास्ता है, अल्टीमेट (अंतिम) रास्ता, मोक्ष या आत्मज्ञान पाने के लिए?
आचार्य प्रशांत: तुम कह रहे हो कि 'क्या आत्मज्ञान का मतलब है अपनी खूबियों और खामियों इत्यादि को जानना? और पूछ रहे हो कि क्या उस रास्ते पर चलकर मुक्ति मिल सकती है?'
देखो, जब जाना जाता है, तब सिर्फ़ जाना जाता है, तब खूबी या खामी को नहीं जाना जाता, जब जाना जाता है, तब सिर्फ़ जाना जाता है। एक ओर तो तुम कह रहे हो कि मुझमें खामी है, तभी तो तुमने खामी को जाना और अगर तुममें खामी है तो तुम कैसे आश्वस्त हो कि तुमने जो निष्कर्ष निकाला है उसमें खामी नहीं है। इसीलिए खूबी या खामी का फ़ैसला तुम हमेशा बाद में करोगे, याद करके करोगे, घटना बीत गई उसके दो घंटे बाद स्मृति को लेकर विश्लेषण करोगे और फिर कहोगे कि ये जो मैंने किया इसमें मेरी खामी थी, गलत हो गया। जब भी कुछ घटना के बाद किया जाता है तो वो घटना की स्मृति भर के साथ किया जाता है, ठीक है न। और स्मृति को मन अपने रंगों में रंग लेता है।
तुम पर दो तरफ़ा चोट पड़ रही है, घटना बीत गई, घटना के बीतने के बाद तुम घटना का विश्लेषण कर रहे हो, पहली बात– घटना क्या थी, अब ये तुम्हें ठीक-ठीक याद नहीं। क्योंकि जो घटना घटती है, वो बहुत बड़ी होती है और मन उसके कुछ छोटे से हिस्से ही याद रखता है या याद रखना चाहता है, जो सबकुछ हुआ क्या वो तुम्हें याद रह सकता है? जो कुछ हुआ वो कभी तुम्हें पूरा याद नहीं रह सकता। न पूरा याद रह सकता है, न तुम पूरा याद रखना चाहते हो, तुम उसमें से अपने मतलब भर का याद रखना चाहते हो, ठीक है।
तो जब तुम कहोगे कि घटना के बीतने के बाद, मैं घटना का विश्लेषण कर रहा हूँ और उसमें से अपनी खूबी, खामी इत्यादि पता कर रहा हूँ, तो पहली चूक तो यहीं पर हो गई। कि तुम अब जिस घटना का विश्लेषण कर रहे हो वो घटना कभी घटी ही नहीं थी। हुआ कुछ और था, याद तुम्हें कुछ और है, स्मृति बहुत बड़ा धोखा है। न सिर्फ़ तुम कम याद रखते हो बल्कि तुम अपने अनुसार याद रखते हो। और इतना ही नहीं कि तुम सिर्फ़ घटना में से कुछ घटा देते हो, कुछ कम कर देते हो कि मैं पूरा नहीं याद रख पाया, खौफ़नाक बात ये है कि तुम घटना में से सिर्फ़ घटाते ही नहीं, कुछ जोड़ भी देते हो उसमें।
जो हुआ ही नहीं वो भी तुम्हें याद आ जाता है, घटना कुछ घटी थी उसका बहुत सारा हिस्सा तुम याद रखोगे ही नहीं क्योंकि याद रखा तो असुविधा होगी। और तुम वो भी याद रख लोगे जो घटा ही नहीं और उसको अपनी ओर से घटना में जोड़ दोगे और कोई तुम्हारी इस चूक को बता नहीं सकता, क्योंकि प्रमाण तो है नहीं कि क्या घटा और क्या नहीं घटा। अब तुम्हें जो याद है, तुम्हारे अनुसार वही घटना घटी थी।
एक आदमी के घर चोरी हो गई, उसे अपनी एक अगूॅंठी नहीं मिल रही है, वो ढूँढ़ रहा था घर में उसे मिली नहीं, वो थककर के बाहर आकर के अपने लॉन में बैठ गया। वहाँ उसका माली काम कर रहा है और वो कह रहा है ये माली आज मुझे चोरों जैसी निगाहों से देख रहा है, मैं तो निगाहें पढ़ना जानता हूँ, मैं तो आँख देखकर के बता देता हूँ कि दिल में क्या है। और मैं देख रहा हूँ कि माली मुझे आज तिरछी निगाहों से देख रहा है, इसके दिल में चोर है और माली घास काट रहा है तो मैं देख रहा हूँ कि वो घास दूर-दूर की काट रहा है, मेरे पास नहीं आना चाहता, ये मुझसे मुँह छिपा रहा है। और आज इसकी चाल भी बदली हुई है, हमेशा ज़रा इसकी चाल में सरलता होती थी, आज मैं देख रहा हूँ कि ये टेड़ा-टपरा चल रहा है।
तुम्हें पचास खोट दिख गईं हैं माली में। और तुम बिलकुल आश्वस्त हो कि तुम जो देख रहे हो वो हो रहा है, तुमने माली की निगाहें पढ़ लीं कि ये तो चोर है और ये मेरा बुरा करना चाहता है, बुरा इसने कर ही दिया है, थोड़ी देर मैं बैठे-बैठे तुम्हें याद आता है कि वो अगूँठी तुम तकिया के नीचे रख आये हो। तुम जाते हो, तुम उस अगूँठी को उठाते हो, तुम बाहर आते हो, माली बदल चुका है, तुम कहते हो ये तो सीधा-साधा आदमी है, वही कल वाला मेरा भोला, सरल माली। और अभी तक तुम्हें दिख गया था कि ये माली मुझे तिरछी निगाहों से देख रहा है और कोई तुमसे पूछता है कि सबूत क्या है तुम्हारे पास? तुम कहते हो सबूत हम समझा नहीं पाएँगे, हमारे दिल से पूछो। हमने देखा है कि ये हमें घूर रहा था, चोर था इसके दिल में।
अब देख रहे हो कि स्मृति तुमसे दो गलतियाँ करवा रही है, पहली– वो तुम्हें भुलवा रही है कि अगूॅंठी कहाँ हैं। पहली गलती क्या हुई?
प्रश्नकर्ता: भूल गए कि अँगूठी कहाँ हैं?
आचार्य प्रशांत: कि तुम भूल गए, घटना में से कुछ हिस्सा तुम्हें याद ही नहीं है, तकिये के नीचे अगूँठी तुमने ही रखी, लेकिन स्मृति धोखा दे गई, तुम भूल गए और उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक काम क्या कर रही है स्मृति? वो तुम्हें वो दिखा रही है जो है ही नहीं। और तुम्हें पक्का भरोसा है कि माली चोर है और वो तुम्हें तिरछी निगाहों से देख रहा है और वो तुम्हें धोखा देने के लिए तत्पर है। रोज़ तुम्हारे पास आता था, दुआ-सलाम करता था, आज दूर-ही-दूर बैठा हुआ है, मुँह चुरा रहा है, बात समझ रहे हो?
तो अपनेआप को स्मृति के माध्यम से जब भी देखना चाहोगे फँसोगे, चूक हो गई। हमने कहा- दो तल पर चूक होती है, पहली तो ये कि स्मृति धोखा है, कभी अपने पर यकीन मत करना कि तुम्हें जो याद है, वही हुआ था, ना। ये बात बहुत अज़ीब लगेगी, तुम कहोगे हम बुद्धू हैं क्या कि जो हुआ ही नहीं वो भी हमें याद आ रहा है और हमें साफ़-साफ़ याद आ रहा है कि ऐसा-ऐसा हुआ। वो हुआ ही नहीं। ऐसा ही होता है, अहंकार अपनेआप को बचाने के लिए झूठी स्मृति भी गढ़ता है, काम की चीज़ें पकड़ लेता है और काम की चीज़ों में बीच में जो रिक्त स्थान है, उन्हें वो ख़ुद ही भर देता है। क्यों भर देता है रिक्त स्थान? ताकि उसने जो कल्पना गढ़ी है, उसमें विश्वसनीयता आ सके।
तुमने देखा है कि कोई दूसरी सीढ़ी चढ़ रहा है, तीसरी सीढ़ी चढ़ रहा है, फिर छठी और सातवीं सीढ़ी चढ़ रहा है। तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हारी स्मृति चौथी, पाँचवी, छठी सीढ़ी को रिक्त छोड़ देगी? ना। वो ख़ुद ही याद कर लेगी कि हाँ, दूसरी चढ़ी, तीसरी चढ़ी फिर चौथी, पाँचवी, छठी भी तो चढ़ी, वो हमने देखा। तो स्मृति ख़ुद ही अपनेआप को विश्वसनीय बनाने के लिए किस्से गढ़ लेती है, जो हुआ ही नहीं वो तुम्हें याद आ जाएगा कि हुआ, स्मृति पर मत चलना। पहली भूल स्मृति है और दूसरी भूल है तुम्हारा विश्लेषण। जैसा कि हमने कहा कि अगर तुम जानते ही हो कि तुममें खामी है तो तुम्हारे विश्लेषण में खामी नहीं होगी क्या? पर तुम बहुत उत्सुक रहते हो ये तय करने को कि मेरी कमज़ोरी क्या है और मेरा बल कहाँ हैं। मुझमें भला क्या है, मेरा बुरा क्या है। तुम इतना जानते ही होते भला-बुरा, तो तुममें कुछ भी बुरा बचता क्यों? इसीलिए जानना कभी घटना के बाद न हो, बैठकर के याद कर-करके आत्मज्ञान नहीं होता। अतीत की स्मृतियों में डूबे रहकर के आत्मज्ञान नहीं होता। आत्मज्ञान तत्काल-तत्क्षण होता है, उसी समय।
चोर को रंगे हाथों पकड़ा तो पकड़ा, बाद में उसके तुम किस्से गढ़ो और कविताएँ गाओ तो चोरी तो हो चुकी। चोर को रंगे हाथों पकड़ा तो पकड़ा, बाद में उसे याद करके चाहे तुम कविता कहो और चाहे छाती पीटो, चोरी तो हो चुकी। आत्मज्ञान ठीक उसी समय है, जब घटना घट रही है, बाद में याद किया तो कहलाती है, ‘स्मृति।' और उसी समय देख लिया तो कहलाता है ‘ध्यान।' बाद में याद किया तो कहलाती है ‘स्मृति’ और स्मृति के साथ हज़ार झंझट हैं, अभी उनकी चर्चा करी हमने। स्मृति के भरोसे मत जीना। स्मृति ऐसे-ऐसे धोखे देती है, तुम मासूम हो, तुम्हें पता ही नहीं चलेगा, तुम्हें यही लगता रहेगा जीवनभर कि ये माली चोर है और जीवनभर तुम उसके दुश्मन बने रहोगे।
उसी समय जाना तो जाना। पर उसी समय जानने के लिए आवश्यक है कि तुम स्मृतियों से, विचारों से, चिंताओं से मुक्त रहो। हमारा खेल बड़ा अज़ीब चलता है हम हमेशा छूटी हुई गाड़ी के पीछे दौड़ते हैं, जब गाड़ी खड़ी थी तो हम उस गाड़ी के पीछे दौड़ रहे थे जो छूट गई थी, अब वो तो छूटी ही और जब तक उसको छोड़कर के खड़ी गाड़ी के पास आए, तब तक वो भी चल दी, अब हम उसके पीछे दौड़ रहे हैं, ये भी छूटी। और अगली खड़ी थी और उसके पास आये तो वो भी छूटी, हम ऐसे जीते हैं। हम हमेशा छूटती गाड़ियों के पीछे दौड़ते रहते हैं और हमें ले जाने के लिए कोई-न-कोई गाड़ी वर्तमान में लगातार खड़ी हुई है, पर उस पर हमारा ध्यान नहीं हैं। हमारा ध्यान सदा उस गाड़ी पर है जो…
प्रश्नकर्ता: छूट चुकी है।
आचार्य प्रशांत: उसकी चिंता करो, मर्सिया पढ़ो, सिर धुनो। और ये न देखो कि उसको रो-रोकर के तुम गवाए दे रहे हो उसको जो सामने प्रस्तुत है, खड़ा हुआ है। आत्मज्ञान है, खड़ी हुई गाड़ी में बैठ जाना। जो सामने है उसको देख लो और आत्मज्ञान में बिलकुल नहीं पता चलता कि हममें क्या खोट है और क्या खूबी। आत्मज्ञान में बस पता चलता है, ये बात तुम्हें अज़ीब लगेगी तुम कहोगे कि कुछ तो पता लगेगा न, ज्ञान है तो ज्ञान का विषय तो होगा? ना, आत्मज्ञान में कोई विषय नहीं होता, आत्मज्ञान में जो विषयी होता है, वही विषय बन जाता है, समझो। आमतौर पर जब ज्ञान होता है तो ज्ञान होता है बाहर की किसी वस्तु का और ज्ञाता कौन होता है? तुम। और आत्मज्ञान में जो ज्ञेय है, जो विषय है ज्ञान का वही कौन हो गया? तुम। तो ज्ञाता और ज्ञेय दोनों तुम ही हो गए, तुम ही जान रहे हो, किसको जान रहे हो?
प्रश्नकर्ता: ख़ुद को ही।
आचार्य प्रशांत: तुम ही को। तो उसका कोई विषय नहीं होता, तुम्हीं विषय हो। तुम ही विषय, तुम ही विषयेता | तुम्हीं ने जाना और तुम्हीं को जाना। बात समझ रहे हो? तो फिर कैसे कहोगे कि क्या जाना? कुछ कह नहीं सकते। बस जानते हो, बस जानते हो। अगर तुमने कुछ जाना तो तुमने विचार किया और जब तुमने बस जाना, तब तुम साक्षी हो गए। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूँ बार-बार कि तुम बस सुनो। ये मत देखो कि क्या सुना, क्या समझा, बस सुनो। बस सुनना और बस जानना। बड़ी एक सी बातें हैं।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भजन को समझकर गाने में भी क्या वही चीज़ होती है?
आचार्य प्रशांत: समझकर गाओ तो अच्छा है, बिना समझे गाओ तो भी अच्छा है। गाना आवश्यक है, डूबना आवश्यक है। अक्सर जब तुम्हें शब्दों के अर्थ पता रहते हैं तो मन को मिठाई देने में सरलता हो जाती है, शब्दों के अर्थ नहीं पता हैं तो मन क्या करेगा? मन बार-बार किसी बिगड़ैल बच्चे की तरह सवाल उठाएगा। क्या सवाल उठाएगा? ये क्या गा रहे हो? क्या मतलब है इसका? तुम इतने भोंदू हो कि बिना मतलब समझे गा रहे हो? तो ये उद्दंड बच्चा है, ये बीच में नाहक समस्या खड़ी करेगा। अरे ! बताओ-बताओ पता तो है नहीं, गाए जा रहे हो, ऐसे-ऐसे करेगा। तो उसको चुप कराने के लिए, उसके मुँह में मिठाई डालने के लिए शब्दों के अर्थ पता कर लो पर वास्तव में उन अर्थों में कुछ नहीं रखा है। उन अर्थों से तुम तर नहीं जाओगे, उन अर्थों से पार नहीं हो जाओगे, वो तो शब्द हैं, शब्दकोष में सारे ही शब्द होते हैं, उनसे तुम तर गए क्या?
तो फिर भजन क्यों गाते हो? शब्दकोष ही पढ़ लो, भजन तो छोटा है शब्दकोष बहुत बड़ा है, वहाँ सब शब्द हैं। भजन की बातों का, भजन के बोलों का अर्थ जानना आवश्यक है, क्यों आवश्यक है, समझ गए न? ताकि मन उपद्रव न करे और मन जब उपद्रव करे, तुम उसके मुँह में मिठाई डाल दो कि ले खुश रह। अगर तुम्हारा मन इतना सहज, श्रद्धावान हो गया है कि सवाल उठाए ही न तो फिर तुम्हें अर्थ जानने की भी कोई ज़रूरत नहीं। तब किसी भी भाषा का भजन हो, तुम बस डूब जाओ उसमें। और तुम ये परवाह भी मत करो कि भजन है या क्या है। पर हमारा मन ऐसा सहज विश्वासी होता नहीं इसलिए आवश्यक है कि तुम पूछ-पूछकर, समझ-समझकर, एक-एक शब्द का अर्थ जान लो ताकि फिर जब मन आपत्ति उठाए तो तुम कहो कि क्यों आपत्ति उठा रहा है, देख! इसका ये अर्थ है और बहुत अच्छा अर्थ है। तो फिर मन को चुप होना पड़ेगा, तो अब मन चुप हो गया। मन चुप हो गया, तुम डूब गए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, रोज़ सुबह जब हम प्रार्थना करते हैं तो वहाँ बोलते हैं कि 'हे राम! मुझे मुझसे बचा!' तो जब ये मैं बोलती हूँ तो एक अज़ीब सी क्राइ फॉर हेल्प (मदद के लिए पुकारना।) वाली फीलिंग (अनुभव) होती है तो जब हम बोलते हैं– 'मुझे मुझसे बचा।' तो क्या हम सिर्फ़ प्रार्थना ही कर सकते हैं, ख़ुद से बचाने के लिए? या फिर हम भी कुछ कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: तुम यही कर सकते हो कि अपने कर्म के प्रति सतर्क रहो। कर्म तो लगातार हो ही रहे हैं न, अब यहाँ बैठी हो, ये किया, सवाल किया। अभी थोड़ी देर में उठोगी, जाओगी, वो सब करोगी। है न? सब कर्म हैं। ये जो भी कर्म हैं इनके प्रति होशमंद रहो। कर्म की धारा रुक नहीं सकती, तुम ये नहीं करोगे तो वो करोगे, जब तक साँस चलेगी तुम करते ही रहोगे, कर्म किसी क्षण नहीं रुक सकता, तुम सो रहे हो, तब भी नहीं रुकता है। तो बस जो हो रहा है तुम उसके प्रति सतर्क रहो, उसमें ऐसे न बह जाओ कि जैसे किसी बेहोश को नदी बहा ले जाती है।
प्रश्नकर्ता: हमारे सबसे बड़े दुश्मन क्या हम ख़ुद ही हैं?
आचार्य प्रशांत: जब सबकुछ तुम ही कर रहे हो तो तुम्हारा जो भी बुरा हो रहा है उसका ज़िम्मेदार कौन है?
प्रश्नकर्ता: हम ख़ुद।
आचार्य प्रशांत: तुम ही हुए न। और वो बात ज़्यादा त्रासद इसलिए हो जाती है क्योंकि ये दुश्मनी आवश्यक नहीं थी, कोई ज़रूरी नहीं था कि तुम अपने दुश्मन बनो, कोई ज़रूरी नहीं था कि तुम जैसे कर रहे हो वैसे ही करो, कोई ज़रूरी नहीं था कि तुम्हारे भीतर जो कर्ता बना बैठा है, वही कर्ता रहे, जो वास्तविक करतार है, वो भी कर्ता हो सकता था, पर तुमने उसपर भरोसा ही नहीं किया। तुममें दोनों बातें पर्याप्त और एक जैसी मात्रा में हैं, पहली बात– करतार पर अश्रद्धा। और दूसरी बात– ख़ुद पर अकड़ और भरोसा। ये दोनों ही बड़ी पर्याप्त हैं तुममें। इतनी हैं कि बड़े-से-बड़े जहाज़ डुबो दें, तुम्हारी तो छोटी सी नाव है।
जितना तुम्हें असली पर अविश्वास है, उतना ही तुम्हें अपने पर भरोसा है। ज़रा सा घटनाएँ तुम्हारी उम्मीद के ख़िलाफ़ होती नहीं तो देखा है कैसे चिहुँकते हो? तुम्हारे सामने तो परमात्मा भी खड़ा हो तो उसे भी तुम्हारी उम्मीदों के अनुसार चलना पड़ेगा, नहीं तो नाराज़ हो जाओगे उसपर, तुरंत नाराज़ हो जाओगे।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पता ही नहीं है परमात्मा हैं।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें बता दिया जाए परमात्मा हैं, तुम कहो ठीक है, परमात्मा हैं, बड़े आदमी हैं, कोई बात नहीं लेकिन, हो सकता है कि उनका रुआब जानकर, बड़ा जानकर तुम अपनी नाराज़गी व्यक्त न करो लेकिन दिल-ही-दिल में रूठ तो जाओगे कि परमात्मा आऍं और तुमको नहीं पहले बैठाया, तो कहोगे कि ये देखो इतना भी इन्हें अदब नहीं आता, लेडीज़ फर्स्ट। (पहले महिला) कहने को परमात्मा हैं। अरे! तुम परमात्मा से कोई सवाल पूछो कहो मिल गए हैं, परमात्मा हैं तो, और वो ज़वाब दे दें और वो ज़वाब तुम्हारे अनुकूल न हो, तुम्हें पसंद न आए, तुम देखना, कैसे तुम मुँह बिसुरोगे, ये पता नहीं क्या ज़वाब दे रहे हैं? देखते नहीं हो, जब चिल्लाते हो– हे भगवान! ये तूने क्या किया? जैसे उसने कुछ गलत कर दिया हो। यही तो कहते हो कि तूने कुछ गलत कर दिया, हे भगवान! ये तूने क्या किया?
प्रश्नकर्ता: और हम ये भी तो पढ़ते है कि सब करा-धरा भगवान का ही है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, पर सब करा-धरा भगवान का दो तरीक़े से होता है, एक तो ये कि भगवान स्वयं करें, वो हम उन्हें करने की इजाज़त नहीं देते और दूसरा ऐसे कि भगवान की माया करे, वो होता है। जब तुम सीधे-सीधे अपनेआप को परम के हाथों सौंप देते हो, तो इसमें तुम्हारे लिए आनंद है, शांति है। और जब तुम अपनेआप को परमात्मा के हाथों नहीं सौंपते, तब भी किसी और के हाथों तो सौंपते ही हो, तब तुम अपनेआप को जिसके हाथों सौंपते हो उसका नाम है, माया। वही माया तुम्हारे भीतर अहंकार बनकर बैठती है।
माया में तुम्हारे लिए न आनंद है, न शांति है अपितु दुख है। जब तुम अपनेआप को माया को सौंपते हो तो खुश हो जाते हो, सोचते हो चलो भगवान से बच गए। तुम ये भूल जाते हो कि माया भी किसकी है? भगवान की ही है। तो ये तुमने बड़ा गलत काम कर लिया। जिससे बचना चाहते थे उससे बचने का तो कोई तरीक़ा नहीं, तो बच पाए भी नहीं। किससे बचना चाहते थे? परमात्मा से। उससे बच तो पाए नहीं। माया के हाथों भी अगर खिलौना बने तो किसके हाथों पड़े? परमात्मा के ही हाथों पड़े। पर अगर सीधे-सीधे परमात्मा को ख़ुद को सौंप देते तो आनंद पाते और माया के हाथों अपनेआप को सौंप दिया तो दुख पाओगे। तो कर तो सब कुछ परमात्मा रहा है, सवाल ये है कि क्या तुम्हें ये स्वीकार है कि वो सब कुछ करे, तुम्हें ये स्वीकार ही नहीं होता न कि वो सब कुछ करे, तुम अपनी चलाना चाहते हो, वास्तव में तुम्हारी कभी चलती नहीं, लेकिन अपनी चलाने की कोशिश में तुम अपने लिए दुख खूब जुटा लेते हो। बात समझ रहे हो?
होगा तो वही जो उसके विधान में हैं, पर तुम्हें उसका विधान मंज़ूर कहाँ हैं? तुम्हें तो अपना विधान चलाना है, ये जो तुम्हें अपना विधान चलाना है, इसी को माया कहते हैं। अपना विधान चलाना चाहोगे तो तुम्हारा चलेगा? चलेगा नहीं, लेकिन चलाने की कोशिश में दुख पाओगे, यही मूर्खता है, यही माया है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी-कभी हम कुछ गलत कर देते हैं, इसको हम बदल नहीं पाते, न हमारे पास मौका होता है, सिर्फ़ पछतावा रहता है और वो कई बार हमारी ज़िंदगी में ठहराव सा ला देता है, हमें आगें नहीं बढ़ने देता, घूम-घूमकर वही सोचते हैं, उसी पर अटके रहते हैं, वहाँ से निकलने के लिए क्या करना चाहिए? कैसे निकल सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: गाड़ी छूटी जा रही है, पीछे से देख रहे हो गाड़ी छूट गई, वो जा रही है, पीछे से दिख रहा है, पछता रहे हैं कि छूट गई। इस वक़्त जो वास्तव में तुम्हारे साथ गलत हो रहा है, वो क्या है? वो ये कि वो गाड़ी छूट गई या ये कि जो गाड़ी खड़ी है वो भी छूट रही है? तुम कह रहे हो मैंने अतीत में कुछ गलतियाँ कर दीं, कह तो ऐसे रहे हो जैसे अभी कोई गलती नहीं कर रहे, कह तो ऐसे रहे हो जैसे जितनी गलतियाँ थीं वो तुम अतीत में चुका आए, अपनी गलतियों का पूरा भंडार तुमने अतीत में ही खाली कर दिया और अब करने के लिए कोई गलती नहीं बची है। अतीत में तुमने दो गलतियाँ करीं होंगीं, अभी तुम चार कर रहे हो, तुम्हारा ध्यान उनकी ओर ज़रा भी नहीं है, क्यों नहीं उनकी ओर ध्यान है?
क्योंकि तुम खोए हुए हो अतीत के पछतावों में, अतीत की गलतियाँ याद कर-करके तुम्हें दिख ही नहीं रहा है कि ठीक अभी तुम कितनी बड़ी गलती कर रहे हो। जो अभी गलतियों से खाली हो गया हो, वो आज़ाद हो गया हो, वो अतीत की बात करे, तो ठीक, भली बात। पर ठीक जिसके सामने अभी पचास गलतियाँ खड़ीं हों, वो पीछे की गलतियों की बात कैसे कर सकता है? बोलो? गोल कीपर याद कर रहा है कि पिछला गोल कैसे खाया था। अरे! मैच ख़त्म हो गया है क्या? ज़वाब दो? मैच खत्म हो गया है? जब तक साँस चल रही है, मैच चल रहा है और गोल कीपर क्या खड़ा याद कर रहा है? पिछला गोल कैसे खाया था, बड़ी गलती कर दी।
प्रश्नकर्ता: अगला भी खाएगा ऐसे ही।
आचार्य प्रशांत: ( हाँ में सिर हिलाते हुए ) तू पछताना ही चाहता है तो पछताने को एक गोल और मिलेगा, तू अभी और पछता फिर एक गोल और मिलेगा। तेरा पछताने में ही रस है न? तो तुझे पछताने के लिए पर्याप्त कारण दिए जाएँगें। मैच ख़त्म हो गया है? तो पिछले गोल की क्यों याद कर रहे हो कि खा लिया, पिछला गोल हो गया, पिछला गोल हो गया। यहाँ किसी भी क्षण फिर से गोल हो सकता है | वो देखो वो लेकर चला आ रहा है फॉरवर्ड, वो फिर मारेगा गोल। और तुम खोए हुए हो पुराने ख़्वाबों में।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा कि सतर्क रहें। तो जो हो रहा है उसके प्रति या जो हम कर रहें हैं उसके प्रति?
आचार्य प्रशांत: ( ना में सिर हिलाते हुए ) कुछ हो नहीं रहा होता, मात्र उतना ही होता तुम्हें पता चलता है, जो तुमसे सम्बन्धित है। तो जो कुछ भी तुम कह रहे हो कि हो रहा है वो वास्तव में तुम्हारा सृजन है, निर्माण है, कर्तृत्व है। तुमने किया है, कुछ भी हुआ नहीं है। तुम्हें ऐसा लग सकता है कि स्वत: हुआ। स्वत: नहीं हुआ, हवा चल रही है, वहाँ पर कपड़ा है वो डोल रहा है, तुम्हें क्या लग रहा है वो घटना सिर्फ़ हो रही हैं? नहीं वो हो भर नहीं रही है, तुम उसमें साझीदार हो। और प्रमाण इसका ये है कि इतना कुछ हो रहा था उसमें तुम्हें सिर्फ़ यही नज़र आया है कि कपड़ा डोल रहा है। कुछ भी होता नहीं, तुम निरपेक्ष भाव से कुछ नहीं देख पाते, तुम जो भी घटना कहते हो कि घट रही है उसमें तुम शामिल हो, भले ही वो घटना तुमसे बहुत दूर घट रही हो।
वहाँ पर्वत शिखर पर एक चिड़िया उड़ रही है तो तुम्हें क्या लग रहा है? ये बात सिर्फ़ पर्वत की और चिड़िया की है, उन दोनों की आपसी बात है? नहीं, इसमें तुम भी शामिल हो। तुम शामिल न होते तो तुम्हारा उसपर ध्यान कैसे जाता? तुम्हारा उससे कोई लेना-देना है, तुमने उसको देखा है और उस घटना को अर्थ दिए हैं, तुम न होते तो वो घटना न घटती। और प्रमाण इसका दिए देता हूँ, तुम कहो कि पर्वत पर चिड़िया बैठी है और ये कहें कि पर्वत पर चिड़िया बैठी है, दोनों एक ही बात नहीं कह रहे। अगर वो घटना व्यक्ति निरपेक्ष होती तो दोनों ने एक ही बात कही होती न, वहाँ पर्वत के शिखर पर चिड़िया बैठी है, ये बात तुम कहो और ये बात वो कहें तो दोनों अलग-अलग बातें कह रहे हो।
अलग-अलग कैसे कह रहे हो? क्यों? क्योंकि वहाँ जब है तो है– पर्वत, चिड़िया और प्रतीक। (एक श्रोता का नाम), तो पहली घटना हुई– पर्वत, चिड़िया और प्रतीक। और जब ये कहते हैं कि पर्वत पर चिड़िया बैठी है तो घटना का नाम है– पर्वत, चिड़िया और वैभव। (दूसरे श्रोता का नाम) अब हो गए न अलग-अलग, अब अलग-अलग हो गए न। अगर सिर्फ़ पर्वत और चिड़िया होते इधर (प्रतीक की ओर इशारा करते हुए) और पर्वत और चिड़िया ही होते उधर भी। (वैभव की ओर इशारा करते हुए), तो दोनों घटनाएँ एक होतीं, पर एक कभी होती नहीं हैं। तुम्हारे लिए (प्रतीक की ओर इशारा करते हुए) पर्वत पर बैठी चिड़िया का जो अर्थ है और तुमने जो देखा, वो घटना उससे बिलकुल अलग है, जो इन्होंने (वैभव की ओर इशारा करते हुए) देखी। जो इन्होंने देखा और जो इन्होंने अर्थ किया वो बिलकुल अलग है उससे जो तुमने देखा और तुमने अर्थ किया। तो कभी कुछ होता नहीं हैं, हमेशा हम उसको कर रहे होते हैं।
प्रश्नकर्ता: जब कुछ कर रहे होते हैं तो कभी एक चीज़ नहीं होती है, बहुत सारी चीजें साइमलटेनियसली (एक-साथ) चल रही होतीं हैं, तो फिर सतर्क रहने का मतलब? सतर्क तो हम किसी एक चीज़ के लिए ही रह सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: जिससे तुम्हारा मतलब है बस वही हो रहा होता है, तुम उसी के प्रति सतर्क रहो। जिससे तुम्हारा मतलब नहीं, जिसमें तुम शामिल नहीं वो हो ही नहीं रहा है। क्या अभी गंगा बह रही हैं? नहीं बह रही हैं क्योंकि उनसे तुम्हारा अभी कोई मतलब नहीं, अभी बह ही नहीं रहीं, सिर्फ़ वही हो रहा है जिससे तुम्हारा मतलब है। क्या अभी अमेरिका और रूस में कुछ हो रहा है ठीक इस पल? नहीं, कुछ भी नहीं हो रहा। क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि उससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं है, ये बात तुम्हें अज़ीब लगेगी, पर इसे समझो। अभी न गंगा बह रहीं हैं, न अमेरिका और रूस में कुछ हो रहा है, वहाँ तभी कुछ होता है, जब तुम्हारा उससे कुछ अर्थ, कोई प्रयोजन होता है, अन्यथा कुछ नहीं होता। दुनिया बस उतनी ही है जितनी तुम्हें दिख रही है, पता लग रही है, जितने से तुम्हारा सरोकार है, तुम बस उतने के प्रति सतर्क रहो। बाक़ी से जब तुम्हें लेना-देना ही नहीं तो काहे की सतर्कता?
प्रश्नकर्ता: उसमें भी बहुत सारी चीज़ें हैं।
आचार्य प्रशांत: उसमें बहुत सारा नहीं होता, वो छोटा पल एक होता है, जिसमें तुम एक चीज़ से जुड़े होते हो और उसके तुरंत बाद एक अगला पल आ जाता है, जिसमें तुम अगली चीज़ से जुड़े होते हो, पर एक समय में जुड़े तुम एक ही चीज़ से होते हो। दिक़्क़त बस ये है कि जिससे तुम जुड़े होते हो उससे जुड़ने का समय, उससे जुड़ने का कालखंड तुम्हारा बहुत छोटा होता है। मन के बहुतक रंग हैं पल-पल बदल देता है, पर एक क्षण में एक ही रंग होता है और एक क्षण से मेरा आशय एक सेकंड नहीं हैं, पल, सेकंड का भी करोड़वाँ हिस्सा है।
प्रश्नकर्ता: तो ये सतर्कता को जानने के लिए हमें थोड़ा अज़म्पशन (मान्यता) नहीं करना पड़ेगा कि हम अलग हैं? यहाँ तो हम पहले से ही डूबे हुए हैं।
आचार्य प्रशांत: तुम डूबे हुए हो ये अज़म्पशन (मान्यता) कैसे किया? मैं डूबा हूँ ये अज़म्पशन नहीं हैं, ये तो यथार्थ है और मैं अलग हूँ ये अज़म्पशन है, तालियाँ। (व्यंग करते हुए) देखो मन की हालत। मैं डूबा हुआ हूँ, मैं लिप्त हूँ, इसमें कोई मान्यता नहीं है। इनके अनुसार ये तो यथार्थ है, तथ्य है। और मैं अलग हूँ, ज़रा निरपेक्ष हूँ, थोड़ा तटस्थ हूँ। ये इनके अनुसार क्या है? मान्यता है, अज़म्पशन है, अज़म्पशन तो झूठ होता है। देख रहे हो हालत मन की? बात उल्टी है। तुम लिप्त हो ये तुम्हारी मान्यता है ये अज़म्पशन है, तुम अलग हो, तुम साक्षी हो। ये सत्य है, ये मान्यता नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे अभी बात करते-करते चिड़िया, पर्वत ऐसे-ऐसे तो मन वहाँ भटक जाता है, उसको कैसे?
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं कर सकते, देखो कि चला जाता है और इससे…
प्रश्नकर्ता: जैसे आप बोल रहे थे तो बीच में मन वहाँ चला गया पर्वत पर, आपकी बात कुछ सुनी, कुछ नहीं सुन पाया।
आचार्य प्रशांत: जिस क्षण मन पर्वत पर गया और तुमने देखा कि अरे! ये तो पर्वत पर जाकर बैठ गया, वो क्षण है जब बिज़ली कौंधेगी और तुम जान जाओगे कि ऐसे जी रहा हूँ मैं।
प्रश्नकर्ता: वो तो हो जाता है कि वापस आ जाता हूँ।
आचार्य प्रशांत: बहुत है, वापस आने की भी चेष्टा इत्यादि न करो। जो हुआ है वही शिक्षा से इतना भरपूर है कि उसके बाद तुम्हें अब कोई निर्णय लेने की ज़रूरत नहीं। मैं निर्णयों से बड़ा घबराता हूँ क्योंकि जहाँ तुमने निर्णय ले लिया वहीं तुमने खेल ख़त्म कर दिया, उसके आगे तुम कहते हो अब कुछ जानने की ज़रूरत ही नहीं, हो गया निर्णय। और जानने की ज़रूरत बहुत है। बिज़ली का कौंधना तुम्हें इतनी भी गुंजाइश नहीं देता कि तुम निर्णय ले पाओ या ले पाते हो, ले पाते हो क्या? तो बस वैसे ही होता है, जानना।
दिख तो गया कि बिज़ली कौंधी, पर सोच नहीं सकते उस बारे में। ऐसा हुआ (चुटकियों में) और वैसा हुआ तो ही जाना।