प्रश्नकर्ता१: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, मैं पंजाब से हूँ। मेरा सवाल लो सेल्फ़स्टीम, प्रोकास्टिनेशन (कम आत्मसम्मान, टालमटोल) पर्सनल-प्रोफेशनल फ़्रन्ट (व्यक्तिगत-व्यावसायिक अग्रता) पर है।
आचार्य जी, फ़्रॉम लास्ट सो मैनी ईयर्स, आई एम लिसनिंग टू सो मैनी स्प्रिचुअल गुरूज़ एण्ड इन्सपिरेशन वीडियोज़ आई एम सीइंग (अन्तिम बहुत से सालों से मैं बहुत से आध्यात्मिक गुरुओं को सुन रहा हूँ और प्रेरक वीडियो देख रहा हूँ), बट डीपडाउन (परन्तु भीतर गहराई में) मुझे फ़ील (अनुभव) हो रहा है कि नथिंग इज़ गैटिंग चेन्ज्ड इनसाइड (भीतर कुछ भी नहीं बदल रहा है)।
तो मैं समझता हूँ, उसमें मेरी ही ग़लती है। इनसाइड (अन्दर) कुछ ऐसा होगा जैसे विवेक नहीं है या कुछ चीज़ें नहीं हैं और जैसे मैंने ओशो जी को सुना है। मुझे लगा थोड़ा–सा स्प्रिचुअल टच (आध्यात्मिक स्पर्श) आएगा, थोड़ा–सा मैं चेन्ज (परिवर्तित) होऊँगा लेकिन मैं वैसा-का-वैसा ही हूँ। उसमें कुछ बैड हैबिट्स (बुरी आदतें) भी इनवॉल्व (शामिल) हैं, मेरी लाइफ़ स्टाइल (जीवनशैली) को लेकर।
तो दो–एक महीने पहले मेरा एक फ़्रेन्ड (मित्र) थे, उन्होंने मुझे आपकी वीडियो दिखायी। वो ओशो सन्यासी हैं। तो मैंने आपको थोड़ा सुना, तो मुझे थोड़ा स्पार्क (चिंगारी) लगा। तो मैं लास्ट (पिछले) मौसम में आना चाहता था, बट आई कुड नॉट मेक इट (परन्तु मैं आ नहीं सका) तो मैं अभी इसमें आया हूँ।
तो होता क्या है, जैसे मैं कुछ काम करने की कोशिश करता हूँ, प्राइमरली, प्रोफेशनल फ़्रन्ट (प्राथमिक तौर पर, व्यवसायिक अग्रता) पर जैसे मेरा कोई प्रोजेक्ट (परियोजना) या कोई चीज़ है।
तो मेरे मन में एक विचार आता है, वृत्तियाँ कहती हैं कि अभी तो आचार्य जी की वीडियो देख लो या इसको सुन लो, यह ज़्यादा चीज़ अच्छी है इसके बाद थोड़ा काम कर लेना। करते–करते वो टाइम (समय) निकलता जाता है और शाम को और सुबह को जब कुछ भी कोई चीज़ करता हूँ, जो करनी नहीं चाहिए और अगले दिन उसके थोड़ा सा मनमुटाव रहता है कि यह चीज़ अच्छी नहीं है।
बट ग्रेजुअली (पर धीरे–धीरे) मैं उसी में, चीज़ों में इन्वॉल्व (शामिल) हूँ, वही करता जा रहा हूँ। उससे क्या हो रहा है कि वो चीज़ें न कर पाने की वजह से मेरे में बहुत लो कॉन्फ़िडेन्स (आत्मविश्वास की कमी) आ गया है, प्रोफेशनल फ़्रन्ट (व्यावसायिक अग्रता) पर और मान लो, कोई भी चीज़ मैं करना चाहता हूँ तो आई वान्ट टू डू इट इन वेरी परफ़ेक्ट मैनर (मैं इसे बहुत एकदम सही ढंग से करना चाहता हूँ) जोकि हो नहीं पाता है।
तो चीज़ें बहुत डीप डाउन (गर्त में) चली गयी हैं। तो फिर उसके बाद मैंने संदीप जी से कॉन्टैक्ट (सम्पर्क) किया। मैंने आपकी वीडियोज़ देखीं तो वहाँ से मुझे यह थोड़ा सा यह चीज़ देखने और सुनने में आयी कि जैसे अगर मैं थोड़ा–सा स्पिरिचुअल टच (आध्यात्मिक स्पर्श) और आध्यात्मिक चीज़ें अपनेआप में लाऊँगा तो हो सकता है थोड़ा सा मैं चेन्ज (परिवर्तित) कर सकूँ।
और दूसरा मैं यह भी मानता हूँ कि मैंने इतने गुरूज़ (गुरुओं) को और चीज़ों को सुना है, इंटरनेशनल आथर्स (अंतर्राष्ट्रीय लेखकों) को—एन्थनी, रॉबिन्स। चीज़ों को देखा भी है, पहचानता भी हूँ लेकिन कर नहीं पाता हूँ, एंड ऑफ़ द डे (अंत में)।
तो यह भी मानता हूँ कि ग़लती मेरी ही कहीं-न-कहीं है लेकिन मैं कहाँ से स्टार्ट (आरम्भ) करूँ कि ये जो तीन–चार चीज़ें हैं, जैसे लो सेल्फ़स्टीम है, प्रोकास्टिनेशन है और पर्सनल, प्रोफेशनल लाइफ़ (निजी, व्यावसायिक जीवन) में इक्युलिबिरयम (साम्य) बने पर्टिकुलरी (विशेषतः)। इसमें मैं आपका मार्गदर्शन चाहूँगा।
आचार्य प्रशांत: नहीं, समझ में ही नहीं आ रहा मुझे। क्या कह रहे हैं आप? लो सेल्फस्टीम माने क्या? क्यों चाहिए हाई सेल्फस्टीम? क्या करोगे उसका?
प्र१: लो कॉन्फ़िडेन्स (कम आत्मविश्वास) कह सकता हूँ।
आचार्य: कॉन्फ़िडेन्स (आत्मविश्वास) क्यों चाहिए?
प्र१: जैसे कोई चीज़, कोई प्रोजेक्ट (परियोजना) करना है।
आचार्य: क्या करना है, कोई प्रोजेक्ट करना ही क्यों है, क्यों करना है।
प्र१: आचार्य जी, जो नॉर्मली (सामान्यतः) डे टू डे चोर्स (रोज़मर्रा के काम) रहते हैं करने के।
आचार्य: डे टू डे चोर्स क्यों उठाये हैं? अपनेआप तो नहीं आ गये।
प्र१: नहीं, जैसे मैं कुछ करना चाहता हूँ, तो..
आचार्य: कुछ माने क्या?
प्र१: सपोज़ करिए (मानिए), मुझे कोई प्रोजेक्ट ही तैयार करना है।
आचार्य: कौनसा प्रोजेक्ट तैयार करना है?
प्र१: अपनी कम्पनी ने कुछ मुझे एक वर्कआउट (कार्य) दिया गया है।
आचार्य: उस कम्पनी में काम क्यों कर रहे हो?
प्र१: अर्निंग्स (कमाई) के लिए, लिविंग (जीवनयापन) के लिए तो कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा आचार्य जी।
आचार्य: जहाँ कुछ-न-कुछ करना है फिर वहाँ कुछ-न-कुछ चलता भी रहता है ज़िन्दगी में। यह कुछ-न-कुछ ही तो सारी बीमारी है न, इसके साथ कुछ-न-कुछ लगा रहेगा।
आदमी कुछ भी काम पकड़ ले, फिर कहे उसको मुझे कॉन्फ़िडेन्टली (आत्मविश्वासपूर्वक) करना है तो वो ज़्यादा बड़ी दिक़्क़त है ऐसा कॉन्फ़िडेन्स।
सही काम अपने साथ समुचित आत्मविश्वास लेकर आता है इस सीमा तक कि फिर आपको आत्मविश्वास की ज़रूरत ही नहीं पड़ती है। ये कॉन्फ़िडेन्स शब्द ही भूल जाते हो आप।
आप अगर अभी वहाँ खड़े हो, जहाँ आप कह रहे हो कि हर बंदे को कुछ-न-कुछ तो करना होगा, कोई प्रोजेक्ट है जो मुझे करना है, मुझे उसमें कॉन्फ़िडेन्स चाहिए तो जो हालत आपकी है फिर वो सबकी है और आपसे बदतर हालत उनकी है, जो कुछ भी करते रहते हैं कॉन्फ़िडेन्स के साथ।
आप अपनी समस्या को ही नहीं ठीक समझ पा रहे हो। काम कोई हल्की चीज़ नहीं होती कि कुछ भी कर लिया। काम का चयन जीवन में सबसे केन्द्रीय बात होती है और सही काम अपने साथ अपना कॉन्फ़िडेन्स ख़ुद लेकर आता है क्योंकि आपको पता है कि वो काम सही है। वो कॉन्फ़िडेन्स काम करने के दौरान नहीं आता, वो कॉन्फ़िडेन्स काम करने से पहले ही आ चुका होता है।
आप कुछ भी कर रहे हैं, यूँही रैन्डम (यादृच्छिक) तो उसमें आ कहाँ से जाएगा आत्मविश्वास। वो तो चीज़ ही रैन्डम है।
ये सब गहरी बीमारी के सतही लक्षण हैं। आत्मविश्वास की कमी, संकल्प की कमी, ऊर्जा की कमी ये सब। असली बीमारी गहरी होती है पर गहरी बीमारी का इलाज़ भी गहरा होता है। वो हम करना नहीं चाहते, तो हम गहरी बीमारी को सतही इलाज़ दे देते हैं। उसके लिए बहुत सारा सेल्फ़ हेल्प (अपनी मदद) का साहित्य पड़ा हुआ है। वो आपको बिलकुल बता देगा कि कैसे कॉन्फ़िडेन्स अप इन थ्री स्टेप्स (तीन चरणों में विश्वास बढ़ाएँ)।
उसका जो ऑथर (लेखक) होगा, वो उसके कवर पेज (मुखपृष्ठ) पर होगा, ऐसे ही होगा, ऐसे करे हुए (तीन ऊँगलियाँ उठाकर दिखाते हुए) और उसके चेहरे से कॉन्फ़िडेन्स चू रहा होगा, आपको भी आ जाएगा।वो पूरा जॉनर (क्षेत्र) ही एग्ज़िस्ट करता (अस्तित्वमान) है, आपको ग़लत काम करवाते रहने के लिए सुविधा के साथ। वो कभी आपसे नहीं पूछेंगे कि जो कर रहे हो, वो कर ही क्यों रहे हो। कहेंगे, 'हमें नहीं पता, तुम क्या कर रहे हो। बी जॉयफ़ुल इन व्हाटएवर यू डू’ (तुम जो भी करते हो, उसमें प्रसन्न रहो)।
यह व्हाटएवर यू डू (तुम जो भी करो) क्या होता है और हमें बड़ा मज़ा आता है। मतलब मैं कुछ भी कर रहा हूँ, उसमें मैं जॉयफ़ुल (प्रसन्न) हो सकता हूँ! हाँ, बिलकुल हो सकते हो। व्हेरएवर यू आर, व्हाटएवर यू आर डूइंग (तुम जहाँ भी हो, जो भी कर रहे हो)। व्हेरएवर यू आर (तुम जहाँ भी हो)— गटर में हो।
पहला सवाल तो यह है कि वहाँ हो क्यों। उसके बदले गुरुजी तुमको बता रहे हैं — यू कैन बी जॉयफुल इवन इन योर गटर (तुम अपने गटर में भी प्रसन्न रह सकते हो)। वो तुमसे यह नहीं कह रहे कि तू जॉय (प्रसन्नता) वग़ैरह छोड़, बेकार की बातें। बाहर निकल पहले मूढ़।
वो तुमको जॉय सिखा रहे हैं वहाँ। एक दूसरा आकर तुम्हें सिखा रहा है — हॉव टू लाई इन द गटर कॉन्फ़िडेन्टली (गटर में आत्मविश्वासपूर्वक कैसे पड़े रहें)। तुम गटर में हो क्यों, बताओ तो?
आपको पूरे लम्बे–चौड़े डायाग्नोसिस की ज़रूरत है। आप संस्था से जिनसे सम्पर्क में हैं, उनसे पूरी बात करिए। ठीक है?
एक ग़लत जीवन के सौ तरीक़े के दुष्परिणाम होते हैं। वो दुष्परिणाम इसलिए नहीं होते कि आप उन दुष्परिणामों को मिटाने लग जाएँ। वो दुष्परिणाम इसलिए होते हैं ताकि आप ग़लत जीवन को मिटाएँ। लक्षणों को मिटाने से बीमारी का इलाज़ नहीं हो जाता। लक्षण तो शुभ होते हैं। लक्षण इसलिए होते हैं ताकि बीमारी का पता लग जाए। लक्षण बीमारी नहीं होते न या लक्षण ही बीमारी हैं?
ब्रेन कैन्सर है, सिरदर्द होता है। आप बिलकुल सिरदर्द की गोली खाकर के सिरदर्द हटा सकते हो पर वो सिरदर्द आपका दोस्त था। वो आपके लिए शुभ था। वो आपको बताने आया था कि कुछ बहुत भारी गड़बड़ है अन्दर। शूटिंग द मैसेन्जर (संदेशवाहक को मारना)। जो आपको बताने आया था, आपने उसको अपना दुश्मन समझ लिया।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी।काफ़ी स्पष्टता हुई है लेकिन कुछ चीज़ों में वैचारिक मतभेद देखते हुए, जैसे कि गीता की बात करते हैं। अर्जुन खड़ा है और भगवानश्री कहते हैं कि तू क्षत्रीय धर्म को निर्वाह कर और थोड़ा आगे चलते हैं गीता में, तो वही श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि सब धर्मों को छोड़ दे और मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सब पाप से मुक्त कर दूँगा।
ऐसे ही मैं आपको देखता हूँ, आप कहते हो कि सबकुछ आपको ही करना है और फिर कहीं मैं आपको देखता हूँ, यह कहते हुए कि आप अगर कर ही सकते तो कब का कर गये होते।
ऐसे ही मैं आचार्य रजनीश को देखता हूँ, तो वो बहुत सारी विधियाँ देते हैं और लास्ट (अन्त) में कहते हैं, 'मैं तो विधियों का गोरखधंधा करता हूँ। मैं तो गोरखनाथ से थोड़ा आगे निकल गया।'
तो थोड़ा मैं जब मैं पढ़ता हूँ, कुछ अपने अन्दर करने की कोशिश करता हूँ, तो यह पाता हूँ कि कई चीज़ें विरोधाभासी हैं। तो थोड़ा सा दिमाग़ में झँनझँनाहट सी होती है कि यह क्या है।
यह स्टेप (चरण) हैं उसके? जैसे पहले विद्या दी फिर उनको नकारा गया। जैसे पहले आपने कहा कि पहले अपना करो, उसके बाद फिर वो समर्पण आएगा। क्या वो है?
आचार्य: संजय को मेरी ओर आना है। संजय तुम किस दिशा में चलोगे अपनी? तुम्हें मेरी ओर आना है, तो तुम किधर को चलोगे? अरे! मेरी दिशा तो ठीक है, उसका नाम क्या है? दायें, बायें, ऊपर, नीचे, किधर को? बायें को चलोगे।
प्रणय को मेरी तरफ़ आना है। तुम किधर को चलोगे? हाँ, दायें को चलोगे। यह तो विरोधाभास हो गया! अब क्या करें?
और तुम्हें मेरी बात समझ में आ गई तो तुम्हें फिर मेरी ओर आना ही नहीं है। यह और प्रबल विरोधाभास हो गया! एक को कुछ बताया गया, इधर को चलो। एक को बताया गया उसके विपरीत चलो और एक को कहा गया कि तुम्हें चलने की ज़रूरत ही नहीं है। अब क्या करें?
नहीं समझ में आ रही बात?
अरे! विरोधाभास किसके लिए? आप स्वयं विरोधाभाषों के एक पिंड हैं। आप एक थोड़े ही हैं, आप बहुत सारे हैं। कभी आपको कुछ कह कर सम्बोधित किया जाता है, कभी कुछ कहकर। कभी कहते हैं गुडाकेश, कभी कहते हैं कौन्तेय। यह तो विरोधाभास हो गया! और फिर बीच में कहीं कोई पार्थ भी निकल आता है। यह क्या गड़बड़ हो गई?
आप एक नहीं हो न, आप बहुत सारे हो। तरीक़े–तरीक़े से आपको समझाना पड़ता है नहीं तो अठारह अध्याय क्यों लगते क्योंकि आपके भीतर सब ऐसे हिस्से हैं जो एक–दूसरे के विरोध में खड़े हैं। इसीलिए एक हिस्से से जो बात कही जाती है —संजय से जो बात कही जाती है — वो बात दूसरे हिस्से से कही गई बात से बिलकुल विरोध में होती है लेकिन दोनों बातों का लक्ष्य एक ही होता है—इधर आ जाओ, निकट आ जाओ।
और कोई तीसरा होगा, जिसे कहा जाएगा — तुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं। तुम्हें जिसके पास जाना है, वो तुम्हारे ही भीतर बैठा हुआ है। न दायें जाना है, न बायें, न ऊपर, न नीचे। तुम तो थम जाओ।
अब जो वेदान्त नहीं समझेगा, उससे यही चूक हो जाएगी। आप सोच रहे हैं कि बात में कुछ बात है। बात में नहीं बात है। आपको याद रखना है कि बात किसके लिए है। आप बात में कोई वस्तुनिष्ठ सत्य तलाश रहे हैं। बात में सत्य थोड़े ही होगा। बात आपके लिए है ताकि आप सत्य की ओर जा सको।
आप एक होते, तो आपसे एक ही बात कही गई होती। बल्कि यदि आप एक होते, तो आपसे कोई बात नहीं कही गई होती क्योंकि सब बातों का आशय, लक्ष्य यही है कि आप एक हो जाओ।
आप एक नहीं हो, आप बिखरे हुए हो, आप टूटे हुए हो और अहम् आप कभी इस टुकड़े से जोड़ लेते हो, कभी इस टुकड़े से जोड़ लेते हो, कभी इस टुकड़े से जोड़ लेते हो।
कभी अर्जुन को ले जाना है, उसके धर्म की ओर। उसका धर्म है अभी युद्ध। कभी अर्जुन को ले जाना है, उसके धर्म की ओर यह याद दिलाकर के कि उसकी माता का सम्मान दाँव पर लगा हुआ है तो किस नाम से सम्बोधित करेंगे अर्जुन को, कौन्तेय। कभी अर्जुन को ले जाना है युद्ध की ओर यह याद दिलाकर के कि उसकी जाति का सम्मान दाँव पर लगा हुआ है तो क्या बोलेंगे, 'तुम क्षत्रिय हो। याद करो।' और फिर एक बिन्दु आता है, जहाँ पर अर्जुन अर्जुन ही नहीं रह जाते। वहाँ फिर कुछ याद दिलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती फिर बस रण होता है।
इससे दो बातें समझना कि हम कितने हठी अहंकार के होते हैं और समझाने वाले की कैसी करुणा होती है कि वो सौ तरीक़ों से समझाता है और जब वो सौ तरीक़ो से समझाता है तो हम कहते हैं, 'ये देखो, अभी दायाँ आने को बोल रहे थे, अब बायें आने को बोल रहे हैं।'
अभी तो यहाँ दो थे। मान लो, यही, संजय है। मैं इसको बोलूँ, 'बेटा आ जा। बायें आ जा।' और यह मुझसे ही छुपने के लिए कहाँ भाग जाए, उधर (एकदम बायें) कि यहाँ तो मैं पकड़ा गया, यहाँ पकड़ा गया और बोल रहे हैं, 'चल बायें आ जा।‘
तो नीचे–नीचे सट्ट से चूहे की तरह उधर पहुँच जाए और जब वहाँ पहुँच जाए, तो मैं बोलूँ, 'चल अब दायें आ जा।' तो बोले, 'यह देखो, इन्हें ख़ुद तो पता है नहीं कि दायें भेजना है कि बायें। ये मुझे क्या सिखायेंगे बाबा जी, पहले तय कर लो, दायें कि बायें?'
गोरखधंधा विधियों में नहीं होता। गोरखधंधा अहंकार का नाम है। वो उलझा हुआ है भीतर। वो इतना उलझा हुआ है कि गोरखनाथ जैसे महान सन्त के साथ उसने एक व्यर्थ का शब्द जोड़ दिया, गोरखधंधा।
कहने को तो एक बात भी नहीं है क्योंकि सत्य किसी बात में नहीं आता लेकिन सत्य तक आप पहुँच सकें, इसके लिए आपको हज़ार बातें बोलनी पड़ती हैं। एक बात भी बोली नहीं जानी चाहिए क्योंकि किसी भी बात में कोई सत्य नहीं होता। सत्य कैसे समायेगा किसी बात में। बात साधन की तरह होती है, उपकरण की तरह होती है। बात में सत्य नहीं होता, बात आपको सत्य तक लाने के लिए होती है।
आप बस में बैठकर नैनीताल जा रहे हो, तो बस के अन्दर पहाड़ थोड़े ही है या बस में घुसोगे, कहोगे, 'बताओ, कहाँ है, झील कहाँ है? झील कहाँ है?’
अरे! बस में सीट होगी, झील थोड़ी होगी! कह रहे हो, 'झील चाहिए बस के अन्दर, नाव भी चाहिए, सब कुछ करेंगे।'
बस साधन है, साध्य नहीं है। कोई भी वाक्य, कोई भी श्लोक, कोई भी विधि साधन है, साध्य नहीं है।
प्र३: पाद्य प्रणाम आचार्य जी।मैंने आपका एक वीडियो देखा था, जिसमें आप कहते हैं कि मीरा भी आपके अन्दर हैं और श्रीकृष्ण भी तो इसका मुझे तात्पर्य ज़्यादा समझ नहीं आया और दोनों का मिलन कैसे हो सकता है?
आचार्य: अहंकार जो शुद्ध होना चाहता है, उसका नाम है मीरा और अहंकार की शुद्धतम अवस्था को कहते हैं श्रीकृष्ण।
मीरा आपका यथार्थ हो सकती हैं, श्रीकृष्ण आपकी सम्भावना हो सकते हैं।
अहंकार जो अधोगति की ओर जा रहा है, जो अवनति की ओर जा रहा है उसका नाम रख लीजिए, मान लीजिए — कंस या दुर्योधन, श्रीकृष्ण के सन्दर्भ में और अहंकार जो श्रीकृष्ण की ओर जा रहा है, उसका नाम आप रख लीजिए — मीरा चाहे अर्जुन। और श्रीकृष्ण माने क्या? चेतना की शुद्धतम अवस्था।
प्र३: आचार्य जी, जो आपने बोला था कि इनका मिलाप हो सकता है, अन्दर, आन्तरिक।
आचार्य: उसका अर्थ यह है कि आप पूरी तरह शुद्ध हो सकती हैं। मीरा का श्रीकृष्ण से मिलन माने चेतना का अधिकतम शुद्ध हो जाना।
प्र३: एक और था, जो कि प्रार्थना में आता है। हे राम! मुझे मुझसे बचा लो। उसका मुझे थोड़ा सा स्पष्ट करें, आचार्य जी।
आचार्य: अभी हम कल अमृतबिंदु उपनिषद् के किस श्लोक की बात कर रहे थे?
मनैव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
मन ही मनुष्य के बन्ध और मोक्ष का कारण है।
हम स्वयं अपने सबसे बड़े दुश्मन हैं तो हे राम! मुझे मुझसे बचा।मैं अपनेआप को कहीं का नहीं छोड़ूँगा। मेरा बाहर कोई दुश्मन नहीं क्योंकि बाहर कोई है ही नहीं। मैंने जितना नाश अपना करा है, उतना कोई बाहर वाला क्या किसी का करेगा।
प्र३: अशुद्ध मन की बात हो रही है।
आचार्य: हाँ।
प्र३: जी, धन्यवाद।
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