आत्म-विचार से आत्म-बोध तक || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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आत्म-विचार से आत्म-बोध तक || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता: देखो, जो मैं कह रहा हूँ अगर वो पूरी तरह समझ में ना आए तो हैरान मत होना, ये बातें पूरी तरह समझने वाली हैं भी नहीं|

ये एक इशारे हैं, अगर इससे एक दिशा का बोध होता हो तो काफी है| ये विज्ञान नहीं है, गणित नहीं है कि जब तक सही जवाब आए, ठीक है| इस चीज़ में बहुत दिमाग मत लगाना, जितना दिमाग लगाओगे उतना उलझोगे| बस सीधे-सीधे इस में डूब जाओ, तो स्पष्ट हो जाएगा| इसको तुम तर्क कर के या काट-पीट के या विश्लेषण कर के समझ नहीं पाओगे|

हर जगह का अपना एक अनुशासन होता है| जो तुम पढ़ाई आमतौर पर करते हो, वहाँ पर बहुत ज़रूरी है कि तुम अपनी काटने वाली बुद्धि का प्रयोग करो क्योंकि वो पदार्थों की पढ़ाई है, तुमसे बाहर की किसी वस्तु की पढ़ाई है| अभी जो हो रहा है इसमें तुम उसी बुद्धि का प्रयोग करके कुछ भी समझ नहीं पाओगे| जो बुद्धि तुम्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग समझा देगी, वही बुद्धि अभी तुम्हारे रास्ते में बाधा बन जाएगी, इसीलिए उस बुद्धि को अलग रख दो| तुम उसी बुद्धि को अगर यहाँ लेकर आ गए हो, और वही तुम्हारा उपकरण है, तो तुम कुछ नहीं पाओगे| यहाँ तो कुछ और ही चाहिए |

सवाल पूछा है कि आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) क्या है? दो शब्द हैं, इनमें अंतर करेंगे तो दोनों ही स्पष्ट होंगे| आत्म-ज्ञान (सेल्फ-कौनशियसनेस) और आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस)| आत्म-ज्ञान (सेल्फ-कौनशियस) होने का अर्थ है तुम जो कर रहे हो दिन भर, तुम्हारी जो गतिविधियाँ हैं, तुम्हारे जो विचार हैं, उनके प्रति जागरूक हो जाना, ये है आत्म-ज्ञान (सेल्फ-कौनशियसनेस)| आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) का अर्थ है मन से मन को देखना| लेकिन वहाँ पर एक सीमा बंधेगी क्योंकि जिस मन को तुम देख रहे हो, जो संस्कारित, अनुकूलित मन है, उसी का तुम प्रयोग कर रहे हो मन को देखने के लिए, तो इसलिए तुम अकसर पाओगे कि आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) तुम्हारी बाधा बन गया है, तुम्हारा बंधन बन गया है|

तुमने इसीलिए लोगों को इस प्रकार कहते हुए सुना होगा कि बहुत आत्म-ज्ञानी(सेल्फ-कौनशियस) होने की ज़रूरत नहीं है| आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) का अर्थ है अपने ही बारे में विचार करना, मन अपने ही बारे में विचार कर रहा है| वो एक शुरूआती कदम के लिए ठीक है, क्योंकि शुरुआत तो वहीँ से करनी पड़ेगी, क्योंकि तुम बैठो और कहना शुरू करो, ‘ये मैंने दिन भर क्या किया, ये मेरा जीवन किधर को जा रहा है, ये मैं कैसे निर्णय ले रहा हूँ, इन निर्णयों के पीछे कौन है’, ये सब आत्म-ज्ञान की श्रेणी में आता है| तो आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) क्या है? अपने बारे में विचार करना| स्पष्ट है बात?

आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) है- अपने बारे में विचार करना, और वो हम सब करते ही हैं| ‘मेरा क्या होगा? ये करूँ की वो करूँ? मुझे किस दिशा जाना चाहिए? मैं कैसा लग रहा हूँ? समाज में मेरा क्या स्थान है? दूसरे मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं?’ ये सारे विचार किस श्रेणी के हैं? कहाँ आएंगे? आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) में| ठीक है? और ये हम सब अकसर करते ही रहते हैं, पर इसको हम पूरी ताकत के साथ नहीं करते|

जब अपने बारे में यही विचार पूरी शिद्दत के साथ किया जाता है, तो धीरे-धीरे विचार छटने लगता है, और एक स्पष्टता आने लगती है| प्रयोग तुम विचार का ही कर रहे हो, पर इतनी ताकत से प्रयोग किया, इतनी आतुरता है समझ जाने की, कि अब सोच धीरे-धीरे छटना शुरू हो जाएगी, और स्पष्टता आने लगेगी, और जब स्पष्टता आने लग जाती है तब विचार की कोई आवश्यकता ही नहीं है| विचार जैसा मैंने कहा कि छटने लग जाता है, जैसे बादल छटते हैं, और बात खुल जाती है, बिल्कुल स्पष्ट| ये स्थिति होती है आत्म-बोध की, ये सेल्फ-अवेयरनेस कहलाती है|

हम भूल करते हैं, हम अकसर आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) को आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) समझ लेते हैं| याद रखना आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) में अपने ही बारे में विचार करने वाला मन मौजूद है, अहंकार मौजूद है, वो अहंकार ही विचार कर रहा है, वही केंद्र है विचार का| तुम वहाँ बैठे हुए हो, और वहाँ बैठ कर अपने जीवन को देख रहे हो|

आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) में जो केंद्र था अहंकार का, वो केंद्र ही मिट गया| तो इसीलिए जो केंद्र आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) में मौजूद है वो केंद्र आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) में मौजूद ही नहीं है, ये दोनों बहुत अलग-अलग बातें हैं| आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियस) तो हर कोई होता है, तुम देखो चारों तरफ भीड़ को, वो बड़ी आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियस) है|

‘मेरी छवि कैसी बन रही है? मेरे कामों को सही समझा जा रहा है गलत समझा जा रहा है?’ ये सब आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) के लक्षण हैं| ‘मैं सौ लोगों के सामने बोलने जा रहा हूं, लोग क्या कहेंगे?’, ये सब क्या है? ये आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) है| इसमें कोई बुराई नहीं है अगर पूरी ताकत के साथ आत्म-ज्ञानी (सेल्फ-कौनशियस) हुआ जाए| पर हमारा आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) भी बड़ी छोटा-सा है, वो अहंकार का उपकरण ही बनकर रह जाता है क्योंकि हम यथार्थ जानना नहीं चाहते| हम इतने में ही खुश हैं कि दूसरों ने कह दिया कि हम ठीक तो, ‘हम ठीक’|

तो आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) का जो केंद्र है, वो अहंकार है, और आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) का जो केंद्र है, वो असली केंद्र है, वो तुम हो| आत्म-ज्ञान(सेल्फ-कौनशियसनेस) में बहुत सोचना पड़ेगा, और उलझाव रहेगा, और बेचैनी रहेगी| कभी ये सोचोगे, कभी वो सोचोगे, और निर्भर रहोगे सदा दूसरों पर|

आत्म-बोध (सेल्फ-अवेयरनेस) में सिर्फ खुला आकाश है, तुम दूसरों पर निर्भर नहीं हो और सोच की कोई ज़रूरत नहीं है| बस तुम शांत हो क्योंकि तुम समझ गए| ‘अब सोचना क्या हम तो, समझ ही गए, या यूँ कहें कि अब सोचना क्या, समझ में आ ही गई बात’|

जब तक बहुत सोचना पड़ रहा है, तब तक ये पक्का समझना कि बात अभी स्पष्ट हुई नहीं है| जैसे ही स्पष्टता आएगी वैसे ही मुद्दा ख़त्म हो जाएगा, मुद्दा है ही तभी तक जब तक उलझन है| विचार क्या होता है? विचार उलझन से निपटने का एक तरीका है| ज्यों ही सुलझी वैसे ही तुम सोचना ही बंद कर दोगे| ‘क्या करना है पांच साल बाद? अरे मुझे ये विचार ही नहीं आता’, इसका अर्थ ये नहीं है की मैंने तय कर लिया है कि क्या करना है| क्योंकि अगर तुमने तय किया होगा तो तुम्हारे योजना के बदलने की गुंजाइश होगी, सारी योजनाएं बदल सकती हैं| तुमने तय नहीं कर लिया, तुम्हें अब ये विचार ही नहीं आता| जब तुम्हें ये विचार ही नहीं आता तो समझ लेना तुमने कहाँ प्रवेश किया है| कहाँ पर? आत्म-बोध में| अब ये आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) का क्षेत्र है| अब तुम वहाँ पहुंच गए, तुम सोच ही नहीं रहे, विचार गया|

तुम आये कुछ बोलने के लिए, तुम किसी सभा को संबोधित कर रहे हो, और बोलने से पहले भी तुम सोच रहे थे कि क्या बोलूँ, बोलने के दौरान भी दूसरों की आँखों में झाँक रहे थे कि उन्हें बात पसंद आ रही है या नहीं, और बोलने के बाद भी सोच रहे थे कि क्या प्रभाव पड़ा, ये जो यहाँ बैठे थे श्रोता इन्होंने मेरे बारे में क्या छवि बनाई|

तो ये एक स्थिति है, और एक दूसरी स्थिति भी तुम्हारी हो सकती है| वो स्थिति जिसमें तुमने कोई योजना बनाई ही नहीं बोलने की, तुम आये उठ कर बिना विचार के, तुमने बोला बिना विचार के, नदी की तरह, तुम सोच नहीं रहे किधर को बह रहा हूँ, बस कहते जा रहे हो और शब्द बहते जा रहे हैं| और जब कह कर बैठ गए, तब भी तुम्हें विचार नहीं उठ रहा है कि भला बोला या बुरा बोला, मैंने जो बोला वो लोगों को अच्छा लगा या नहीं अच्छा लगा| तुम्हें ये ख्याल ही नहीं आ रहा| और जिस व्यक्ति को यह ख्याल ही नहीं आ रहा, उसको तुम क्या कहोगे? आत्म-बोधी(सेल्फ-अवेयर) क्योंकि वहाँ कोई जानकारी नहीं है| आत्म-बोध(सेल्फ-अवेयरनेस) कोई जानकारी नहीं है| यहाँ (मस्तिष्क की और इंगित करते हुए) जो लगातार चक्की चलती रहती है ना ‘मैं’, ‘मेरा’, ‘लोग’, ‘दुनिया’, जब इस चक्की का चलना बंद हो जाए, तो तुम बोध-युक्त हो, यही आत्म-बोध है, यही सेल्फ-अवेयरनेस है |

तो जीवन यात्रा है| दे देता है समाज तुमको एक प्रकार की सूचना, वो बड़ी आसान है, वो मिल जाती है, उधार की भी मिल जाती है, जानकारी है बस| कौनशियसनेस, ज्ञान, सूचना है एक तरह की| वहाँ से बोध में जाना, वहाँ से अवेयरनेस में जाना वो असली बात है| वो करके दिखाओ, इतनी ललक रहे तुम्हारे भीतर की मुझे उलझे-उलझे ही नहीं जीना है, मुझे यह मुद्दा ही ख़त्म करना है|

जीवन इसलिए नहीं है कि उसमें सौ गाठें रहें| सब सुलझ सकता है और बड़ी तीव्र उत्कंठा, बड़ी गहरी ललक चाहिए, तब सब सुलझता है, और साथ में यह श्रद्धा कि सब सुलझ सकता है| मात्र ललक भी काफी नहीं होती| हम में से बहुत ऐसे हैं जो हार मान के बैठे हैं की हो ही नहीं सकता| ‘दुनिया में आज तक किसी को स्पष्टता नहीं मिली है, तो हमें क्यों मिलेगी?’ नहीं ऐसा नहीं है, ये श्रद्धा की हो सकता है, जीवन नरक नहीं है, दुःख भोगने के लिया नहीं पैदा हुए, जीवन आनंद है, और मैं अधिकारी हूँ इसका, ऐसा हो सकता है|

फ़िर सब मामला खुल जाता है, बादल छठ जाते हैं, आकाश साफ़ हो जाता है और तुम मौज में हो जाते हो| मस्त, बोलना है तो बोल रहे हैं, सोचना कैसा? करना है तो कर दिया, उधेड़बुन कैसी? बड़ी कष्टकारी होती है न उधेड़बुन? मानते हो की नहीं? जो करना है उसमें कष्ट नहीं, पर उसके बारे में जो उधेड़बुन होती है वो कितना दुःख देती है| देती है या नहीं? और हम उधेड़बुन में ही तो लगे रहते हैं|

‘ये पहनूँ कि वो, ये पढूं कि वो, इससे मिलूं कि उससे, इस दिशा जाऊं कि उस दिशा जाऊं, यहाँ रुकूँ कि वहाँ बैठूं, इससे संबंध जोडूं या उससे प्रीत बढ़ाऊँ’, ये उधेड़बुन ही तो नरक है| और क्या होता है नरक? कि मन में लगातार एक संग्राम चल रहा है, समझ में ही नहीं आ रहा किधर को जाएँ, दस पक्ष बने हुए हैं मन में, और दसों पक्ष आपस में लड़े जा रहे हैं| वो एक ग़ज़ल है न है न, ‘एक तरफ उसका घर और एक तरफ मैंकदा’, मैं कहाँ जाऊँ होता नहीं फैसला| ‘घर जाऊँ कि मैंकदा जाऊँ, माँ के पास जाऊँ कि बीवी के पास जाऊँ, पढूँ कि खेलूँ, देश में कमाऊँ या विदेश में’, ये जो उधेड़बुन है ये निकलती है गहरी अस्पष्टता से, यही निकलती है अहंकार से, और हम लगतार उधेड़बुन में ही रहते हैं| ये सूचना का, ज्ञान का, कौनशियसनेस का हिस्सा है|

श्रोता १: लेकिन सर इस लड़ाई के बिना हमें सही रास्ता मिलेगा कैसे?

वक्ता: तुम इस लड़ाई को पूरा लड़ो| मैं दोहरा रहा हूँ, गहरी उत्कंठा हो कि इसको पूरा लडूंगा, आधा-अधूरा नहीं|’ तुम इस लड़ाई को अनमने होकर लड़ते हो, तुम्हें इस लड़ाई में अगर छोटी-मोटी जीत मिल जाती है तो तुम संतोष मना लेते हो कि काम हो गया| मैं कह रहा हूँ उसको पूरा लड़ो, तुम कहो कि हम जड़ तक जायेंगे, हमें आख़िरी विजय चाहिए| ये नहीं है कि एक तात्कालिक समाधान मिल गया तो हमारा काम हो गया, ऐसे नहीं|

तुम पूछो, ‘केंद्रीय समस्या क्या है? ये जो सारी खिचपिच है इसकी जड़ क्या है? और मैं इसी जड़ को ही काट दूँगा|’ वहाँ तक जाओ और जब वहाँ जाते हो, तब फिर मज़ा है, फिर तुम उलझे-उलझे से नहीं रहते, परेशान-परेशान से नहीं| फिर तुम्हारा ही एक हिस्सा दूसरे हिस्से से लड़ नहीं रहा होता, फिर दुनिया तुम्हारी दुश्मन नहीं होती, फिर तुम संकोच से, आत्म-ग्लानि से, इन सबके पार पहुँच जाते हो| डरा-डरा सा जीवन नहीं रहता फिर, फिर चेहरा चमकता है, जीवन चमकता है| (वक्ता मुस्कुराते हैं)

विचार तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है, विचार बड़ी कीमती चीज़ है| ये नहीं कहा जा रहा है कि तुम विचार को तिरस्कृत कर दो| अब तुम्हें विचार में उतरना ही नहीं है क्योंकि तुम कितनी भी कोशिश कर लो, सोचते तो तुम रहते ही हो|है या नहीं? ज़रा न सोच कर दिखाओ| मुश्किल है, न सोचना भी एक सोच बन जाएगी|

तो इसलिए मैं तुमसे कह रहा हूँ कि पूरी ताकत से सोचो, बुद्धि और किसलिए दी गई है| तथ्यों को देखो और उनमें गहराई से प्रवेश करो, और कहो कि मानूंगा नहीं जब तक पूरी बात नहीं समझ आ जाती| ‘नहीं, ऐसे नहीं, पूरी बात’, और लगातार प्रश्न चिन्ह लगाओ, और जैसे ही तुम ये काम पूरी जान के साथ करते हो, वैसे ही कोहरा छटने लगता है| तुम पाते हो कि तुम एक गाँठ सुलझाने निकले थे, एक प्रश्न का उत्तर पाने निकले थे, पर समाधान ऐसा मिल गया है जो एक की जगह कई प्रश्नों को साफ़ कर दे रहा है| ‘बात तो मुझे बस एक जाननी थी, पर जान कुछ ऐसा लिया जो बहुत दूर तक जाता है, कि जैसे शरीर की कोई एक बीमारी का इलाज ढूँढने निकले और उससे कुछ ऐसा मिल जाए जो उसे पूरा संपूर्ण स्वास्थ्य दे दे| एक बीमारी से मुक्ति नहीं, संपूर्ण स्वास्थ्य| पर तुम एक बीमारी की भी जड़ तक तो पहुँचो |

देखो अपनी बीमारियों को| पूछो अपने आप से, ‘मैं दुविधा में क्यों रहता हूँ, कोई भी निर्णय लेने के लिए मैं दूसरों पर क्यों निर्भर रहता हूँ|’ और ये बीमारी है या नहीं? बार-बार पूछना क्यों पड़ता है दूसरों से कि ये करूँ या वो करूँ? तुम्हारी ही नहीं, हर उम्र हर जगह के लोगों की ये बीमारी है| इससे पूछा, उससे पूछा, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा, और जिससे जो सुना वही ठीक लगा| पूछो कि ये बीमारी क्यों है, और अगर मात्र इस बीमारी का भी तुमने ठीक-ठीक हल ढूँढ लिया तो संपूर्ण स्वास्थ्य मिल जाएगा तुमको, और जो तुम्हारी रोज़मर्रा की समस्याएं हैं जो मन पर छा जाती हैं, उनका हल मिल जाएगा|

मैं बहुत छोटी-छोटी बातों की कह रहा हूँ, ‘मैं कोई योजना बनाता हूँ उस पर चला क्यों नहीं पाता?’ ये कितनों के साथ होता है? मेरी योजनाएं असफल क्यों हो जाती हैं? तुम बहुत सस्ते में छोड़ देते हो| तुम कहते हो, ‘चलो असफल हो गए, कोई बात नहीं|’ मैं बोल रहा हूँ मत बोलो ‘कोई बात नहीं’, पैनी निगाह से पकड़ो कि बार-बार होता क्या है| ये मेरे जीवन की क्या कहानी चल रही है |

दूसरा सवाल पूछता हूँ| कितनों के साथ ऐसा होता है कि कुछ है जो अभी बहुत आकर्षक लगता है, वो कोई वस्तु हो सकती है और कोई व्यक्ति भी हो सकता है, कि कुछ अभी तो बहुत आकर्षक लग रहा है, पर कुछ ही समय बाद आकर्षण गया? अभी इतना आकर्षण कि जान देने को भी तैयार हो, और कुछ समय बाद कहते हो कि इसमें तो कुछ था ही नहीं, व्यर्थ ही इसके पीछे भागे, समय नष्ट किया, पैसे नष्ट किये, ऊर्जा नष्ट की, ऐसा कितनों के साथ होता है?

तुमने कभी पूछा अपने आप से कि ये क्यों होता है ऐसा मेरे साथ बार-बार, कि आकर्षण आता है और मुझे बहा कर ले जाता है? और अगर तुम पूछ नहीं रहे हो, तो ये तुम्हारी आदत बन जाएगी| ये एक श्रृंखला बन जाएगी, एक मूल विषय बन जाएगा कि ये वो है जिसके साथ बार-बार ऐसा होता है| हर साल इसके साथ ऐसा ही होता है, हर छह महीने होता है ऐसा इसके साथ |

(मौन)

तो यही सब कुछ जो लगातार चल रहा है उसके पास आओ, उसे चुनौती दो, उसको समझो, और समझकर फिर उसके पार हो जाओ| मैं नहीं कह रहा हूँ कि सोचो मत, मैं ये नहीं कह रहा हूँ की निर्विचार हो जाओ, क्योंकि ऐसे निर्विचार हुआ नहीं जा सकता|

मैं तो कह रहा हूँ कि विचारणा की अपनी शक्ति का पूरा प्रयोग करो, वो शक्ति तुम्हें उपलब्ध है, मिली हुई है| उसका पूरा प्रयोग करो, और फिर शायद धीरे-धीरे शांति में, निर्विचार में तुम उतर सको |

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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