प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। एक छोटी सी कन्फ़्यूज़न थी कि अब तक मैं समझता था कि जिसको हम लोग जीवात्मा कह रहे थे वो आत्मा है। और जिसको हम आत्मा कह रहे थे वो परमात्मा है, जिसे हम सत्य कहते थे। ये मेरी अपनी समझ थी।
तो मुझे अभी तक ऐसा लगता था कि जो जीवात्मा है, वो वास्तव में परमात्मा या उस सत्य का अंश ही है। इसी वजह से हम उसको ऐसे देखते है। तो फिर ये कन्फ़्यूज़न बढ़ गया क्योंकि मुझे लगता था कि जीवात्मा जो है वही परमात्मा का अंश है। और इसी वजह से सभी जीव जो हैं वो आपस में जुड़े हुए हैं।
आचार्य प्रशांत: अच्छा, अंश माने हिस्सा?
प्र: जी सर।
आचार्य: किसी चीज़ का हिस्सा कर सकें इसके लिए वो चीज़ क्या होनी चाहिए?
प्र: होनी चाहिए।
आचार्य: चीज़ होनी चाहिए। और मटेरियल (भौतिक) होनी चाहिए, फाइनाइट (सीमित) होनी चाहिए। सिर्फ़ फाइनाइट का ही हिस्सा करा जा सकता है न। दो होते हैं जिनके हिस्से नहीं हो सकते— शून्य और इन्फिनिटी (असीम)। इनके आप डिवीज़न नहीं कर सकते न।
प्र: ठीक है।
आचार्य: तो मतलब जिसका हिस्सा हो सके, जिसका अंश निकल सके। उसे निश्चित रूप से क्या होना होगा?
प्र: फाइनाइट।
आचार्य: और फाइनाइट तो क्या होती है? फाइनाइट क्या होती है— जहाँ सब ससीम होता है, लिमिटेड होता है। वो क्या होता है? प्रकृति। तो अगर हम कहें परमात्मा का अंश है कुछ तो हमने परमात्मा को भी क्या बना दिया?
प्र: फाइनाइट।
आचार्य: प्रकृति का ही बना दिया। तो ये सब बातें बहुत परिपक्वता नहीं है। हालाँकि ये आम प्रचलन में और संस्कृति में चली हैं। कि जीवात्मा परमात्मा का अंश होती है इत्यादि, इत्यादि। वेदान्त इन सब बातों से बहुत आगे की बात करता है।
प्र: तो जिसमें हम प्रकृति और पुरुष की बात करते हैं। उसमें जो पुरुष है वो परमात्मा का नहीं है। क्योंकि परमात्मा का अंश हो ही नहीं सकता।
आचार्य: उसका कोई अंश नहीं।
प्र: जी, जी।
आचार्य: उसका कोई अंश नहीं है। उसका कोई अंश नहीं है। वो अविभाज्य है। ऋषियों ने उसके लिए शब्द दिया है — वो अखण्ड है। अखण्ड मने जो टूट नहीं सकता। जो टूट नहीं हो सकता तो अंश कहा से आएगा। वो अविभाज्य है। और अगर उसका अंश करते हो तो कोई छोटी चीज़ नहीं निकलती।
भाई, बोलने वाले मालूम है क्या उपमा देते हैं? वो कहते है परमात्मा सागर जैसा है, जीवात्मा बूँद जैसी है। वो कहते हैं, परमात्मा सागर है, जीवात्मा बूँद है। नहीं। भूलिए नहीं कि उपनिषद् आप को क्या बताते हैं। बोलते हैं, “अगर तुम उसका अंश भी निकालोगे तो वो भी पूर्ण ही होगा। पूर्ण से अगर उसका अंश निकालोगे तो वो भी क्या होता है— पूर्ण।“ “पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते।“ और पूर्ण से अगर पूर्ण को भी निकालो तो क्या बचता है—"पूर्णमेव अवशिष्यते।“
तो पूर्ण का अंश अपूर्ण नहीं हो सकता। परमात्मा का अंश जीवात्मा नहीं हो सकता। पूर्ण का अंश भी अगर कुछ होगा तो क्या होगा?
ये बहुत अजीब बात है। लेकिन ये बात इनफाइनाइट (अनन्त) पर ही लागू होती है। अगर मैं अनन्तता के इन्फिनिटी के सौ हिस्से कर दूँ तो वो सौ हिस्से भी क्या होंगे?
प्र: अनन्त होंगे।
आचार्य: तो सागर और बूँद वाला रिश्ता झूठा है। जहाँ कहीं भी आपने पढ़ा हो, सुना हो कि परमात्मा सागर जैसा है, जीवात्मा बूँद जैसी है। ये बात बिलकुल बच्चों वाली है, अपरिपक्व बात है ये।
परमात्मा अगर अनन्त है। तो अनन्तता के कितने भी हिस्से कर लो वो अनन्त होते हैं। उपनिषद् इसको इसीलिए किसी साधारण सूत्र या श्लोक की तरह नहीं रखते। उपनिषद् इस बात को सीधे-सीधे शान्ति पाठ बताते हैं। ताकि ये दर्जनों उपनिषदों में दोहराया जाए कि पूर्ण से पूर्ण को निकाल दो तो भी अपूर्ण नहीं मिल जाएगा तुमको। पूर्ण से अपूर्ण की रचना सम्भव ही नहीं है। पूर्ण से तुम कुछ भी करके अपूर्ण की रचना नहीं कर सकते। अगर तुम्हें अपूर्ण दिखाई दे रहा है तो मतलब माया है। पूर्ण नहीं है।
प्र: ठीक है सर।
आचार्य: अभी आप लोग अगर गा सकते, गाते। (भजन टीम को सम्बोधित करते हुए) इतना बढ़िया होता शान्तिपाठ ये अभी अगर गा देते। चलिए गा नहीं सकते तो कम से कम कोई है जो आ करके एक बार सबको सुना दे। क्या हुआ राजदीप (एक श्रोता), आओ।
श्रोता: ईशावास्योपनिषद शान्ति पाठ।
आचार्य: बहुत उपनिषदों का हैं। मात्र ईशावास्य का ही नहीं। बहुत उपनिषदों का।
प्र: ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
आचार्य: ठीक है? जो है वो बस पूर्ण है। पूर्ण के अलावा कुछ नहीं है।
और पूर्ण से पूर्ण ही उदित होता है। और पूर्ण से पूर्ण को अगर हटा दोगे तो पूर्ण ही शेष बचेगा।
समुद्र से बूँद वाला रिश्ता नहीं है। वो रिश्ता कहीं सुनो तो ठुकरा दीजिए। पूर्ण से कुछ भी कर लो अपूर्ण नहीं निकलेगा। ठीक है? इन सब शब्दों को याद रखा करिए।
अवयव माने होता है हिस्सा। तो ऋषियों ने पूर्ण के लिए कहा है, वो अनवयव है। अन-अवयव। उसके हिस्से नहीं हो सकते। खण्ड माने भी होता है हिस्सा। तो उन्होंने कहा, वो अखण्ड हैं। माने उसके हिस्से नहीं हो सकते। अटूट कहा। अचल कहा। अचिन्तय कहा। अविभाज्य कहा। असीम कहा। उन्होंने जितने तरीकों से हो सकता था हमें बता दिया कि उसके बारे में कोई कल्पना मत करना। व्यर्थ की कहानियाँ मत चलाना।
और जो ये बात है कि जीवात्मा, आत्मा, परमात्मा इसको एकदम स्पष्ट करे लेते हैं। आत्मा और परमात्मा एक ही के दो नाम हैं। जब कोई बोले आत्मा का परमात्मा में मिलन होता है। तो वो कहना यही चाह रहा है कि मन का आत्मा में मिलन होता है। नोट कर लीजिए।
मिलन की बात तो ठीक है। यहाँ तक तो ठीक है कि मिलन की बात करी। पर अक्सर आप सुनते होगे कि आत्मा परमात्मा में मिल गयी। जो सही है सबसे पहले उसको ऊपर लिखिए।
सबसे ऊपर लिखिए कि जो बात है और जो उसको कहने का सही ढँग है, वो क्या है। दो ही होते हैं जिनका आपस में मिलन हो सकता है।
कौन है दो?
वापस जाइए — अहम् और आत्मा। तो सबसे ऊपर लिखिए कि अहम् और आत्मा। मिलन बस इन दो का हो सकता है। इन दो के अलावा कोई है नहीं तो काहे का मिलन होगा। प्रकृति से तो क्या ही मिलन करोगे। तो इन दो के अलावा तो कुछ है नहीं। तो अहम् और आत्मा इनका मिलन होता है। ठीक है?
अहम् के आस-पास जो पूरा संसार रचित होता है उसको मन बोल देते है। तो अहम् के नीचे आप ब्रैकेट में मन लिख दीजिए, मन। तो अगर कभी मिलन की बात आती है तो वास्तव में बस इन दोनों के मिलन की बात है। किन दोनों के? अहम् और आत्मा के या आप कहीं पढ़ लेंगे मन और आत्मा के। वो एक ही बात है— अहम् और आत्मा का मिलन या मन और आत्मा का मिलन।
और आत्मा क्या है?
अहम् का न रहना। तो अहम् और आत्मा के मिलन का भी इतना ही अर्थ है कि अहम् अब नहीं रहा। मिलन का और कोई नहीं अर्थ है। मिलन माने ऐसी चीज़ नहीं है कि यहाँ से फुदकते-फुदकते अहम् गया और वहाँ आत्मा खड़ी थी। और दोनों नाचने लगे। ठीक है।
ये मिलन ऐसा है जिसमें एक ही बचता है। ये मिलन ऐसा नहीं है कि दो गले मिल लिए और दोनों बचे हुए हैं। ये मिलन ऐसा है जिसमें एक की मौत होनी है इसीलिए तो मिलन हम करते नहीं। लेकिन हमको जो साधारण संस्कृति में मिलन से सम्बन्धित बातें सुनने को मिलती है, वो क्या है? आत्मा का परमात्मा से मिलन हो गया।
तो उसके नीचे लिखिए आत्मा-परमात्मा।
तो अगर कोई बोल रहा है आत्मा-परमात्मा का मिलन हो गया। तो कहना यही चाह रहा है कि अहम् का आत्मा से मिलन हो गया। लेकिन इस व्यक्ति ने एक बड़ी मूलभूत गलती कर दी है। और वो मूलभूत गलती अगर आप समझ गए तो आप अपने पूरे मनोविज्ञान को समझ जाएँगे। इसने मूलभूत गलती ये करी है कि ये किसको आत्मा बोल रहा है? अहम् को आत्मा बोल रहा है। ये गलती करी है। और यही अहम् की बड़ी-से-बड़ी, गन्दी, काली कामना होती है कि वो खुद को क्या बोल पाये?
श्रोता: आत्मा।
आचार्य: क्योंकि आत्मा सत्य होती है। अहम् झूठ होता है। झूठ को एक ही बात की तो बेकरारी होती है, क्या? कोई मुझे सच बोल दे, मैं ही सच हूँ।
तो हमने ने क्या करा है अपनी प्रचलित संस्कृति में कि हमने अहम् को आत्मा बोलना शुरू कर दिया है। कोई आकर आपके अहंकार को चोट डाल जाता है। देखा है, लोग क्या बोलते है, ‘मेरी आत्मा पर चोट लगी है!’ चोट लगी कहाँ है? अहम् पर। हमने अहम् को आत्मा बना दिया और ये कितनी गन्दी बात करी हमने। और ये चलता जा रहा है, चलता जा रहा है। लोग ऐसे ही बात करते हैं अभी भी। धर्म गुरु भी ऐसे ही बात करते हैं जैसे आत्मा कोई आपके अन्दर की चीज़ हो।
कोई आकर बोलता है मेरी आत्मा कलंकित हो गयी। कोई आपको सिखाता है अपनी आत्मा पर संस्कारों की छाप मत पड़ने देना। ये पागलपन की बात नहीं है। आत्मा तो अनन्त है। अनन्त पर कौनसी छाप पड़ेगी और कौन डालेगा? आत्मा तो अद्वैत है। जो अद्वैत है उसके ऊपर कौन आएगा संस्कारों की छाप डालने? ये सब जो छाप पड़ती है किस पर पड़ती है?अहम् पर। लेकिन हम घोषित करना चाहते है की हमारा अहम् ही तो आत्मा है।
और अगर अहम् को ही आत्मा मान लिया तो असली आत्मा कभी मिलेगी? जो बीमारी को स्वास्थ्य समझ ले वो कभी स्वस्थ हो पाएगा? तो बस खेल खराब। समझ में आ रही बात ये। तो एक तो ये होता है आत्मा परमात्मा वाला चलता है।
ऐसे ही एक चलता है जीवात्मा- परमात्मा वाला। वो भी लिख लीजिए। तो जो लोग जीवात्मा के परमात्मा से मिलन की बात कर रहे हैं। उनमें भी जो जिसको जीवात्मा बोल रहे है वो अहम् ही है। और जिसको परमात्मा बोल रहे हैं वो आत्मा ही है।
अब आप बताइए आत्मा को परमात्मा बोलने की ज़रूरत क्या आ जाती है? भाई, आत्मा को परम आत्मा क्यों बोलना पड़ता है? ताकि अहम् को आत्मा बोल सको। ये साज़िश देखो। ये जो आपको धर्म के नाम पर कराया जा रहा है, ये साज़िश है पूरी-पूरी। आत्मा को परमात्मा बोलो ताकि छूट मिल जाए। भई, आत्मा शब्द तो अब वेकेन्ट (रिक्त) हो गया न। जिसका नाम बस आत्मा है, आकाश, उसको क्या बोल दो?
श्रोता: परमात्मा।
आचार्य: और यही बात फैल गयी है। जितने गाने सुनोगे उसमें आप परमात्मा, परमात्मा। आत्मा बोल के तो कोई गाता भी नहीं है। उसको परमात्मा क्यों बना दिया? ताकि इसको (अहम् को) आत्मा बना सको। ये कितनी गन्दी चीज़ करी हमने। वो जो है वो परमात्मा नहीं है, वो आत्मा ही है। हाँ, तुम आत्मा के साथ ही परम जोड़ना चाहो तो अलग बात है। जोड़ लो। कोई बात नहीं। लेकिन हमने उसको परमात्मा इसीलिए कर दिया है ताकि इसको आत्मा कह सके। हम स्वयं को आत्मा कहलवाना चाहता है।
आगे से आप किसी को इस तरह की बात करते सुने कि तुम्हारी आत्मा या तुम्हारी संस्कारित आत्मा या ऐसे कि मैं तुमसे आत्मा से प्यार करता हूँ। अब ये जो है वो प्यार कहाँ से हो रहा है?
श्रोता: अहंकार।
आचार्य: लेकिन कहा क्या जा रहा है?
श्रोता: आत्मा।
आचार्य: जबकि आत्मा का प्रेम-व्रेम करने से कोई मतलब है नहीं। प्रेम तो सदा कौन करेगा करेगा? अहम् ही करेगा। सन्त में भी प्रेम कौन कर रहा है? अगर कोई सन्त भी प्रेम के गीत गा रहा है तो भी उसके भीतर कौन है जो प्रेम कर रहा है? अहम् ही प्रेम कर रहा है। हाँ, वो सदमुखी अहम् है, वो आत्ममुखी अहम् है। है तो अहम् ही।
परमात्मा शब्द की कोई आवश्यकता नहीं है। आत्मा पर्याप्त है। अहम् और आत्मा। भगवद्गीता को भूलिएगा नहीं। अहम् और आत्मा। अहम् है जिसको आत्मा तक जाना है। परमात्मा इत्यादि भी बोलने की कोई आवश्यकता नहीं।