आत्मा क्या है, और उसका अनुभव कैसे हो? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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आत्मा क्या है, और उसका अनुभव कैसे हो? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आत्मा क्या होती है?

आचार्य प्रशांत: पहले ये बताओ कि क्या आत्मा है! वो (आत्मा) प्रश्न का विषय नहीं होती।

अभी ये जैसे फटी–फटी आँखों से जिसको देख रहे हो न, आँखें तत्पर हो रही हैं जिसको एक बार देख लेने को, वो आत्मा है। आँखें तत्पर तो बहुत हैं, पर वो आँखों से दिखायी नहीं देगी; क्यों? क्योंकि वो आँखों के पीछे होती है, आँखों के आगे नहीं। प्रश्न तो आ गया, ‘आत्मा क्या है?’ पर उत्तर में वो मिलेगी नहीं; क्यों? क्योंकि वो प्रश्न के पीछे होती है, उत्तर में नहीं।

जिसको पाने के लिए ये सारा उत्पात, ये सारी धमाचौकड़ी मचा रखी है, उसका नाम आत्मा है। यही तो बात है, इसी में उसकी दिलकशी है, कि गोरी के रुख से पर्दा कभी उठता नहीं है; तभी तो उसमें इतना आकर्षण है।

प्र२: आचार्य जी, जैसे कभी-कभी हम बैठे हुए हैं, कोई विचार नहीं आया बीच में, और उस समय के लिए हमें कुछ ध्यान भी नहीं रहता कि क्या हुआ इस दौर में, या वो समय भी नहीं पता चलता कि कितना समय हो गया। तो वो जो स्थिति है, क्या उस स्थिति को ध्यान कहेंगे?

आचार्य: (ना में सिर हिलाते हुए) ये तो ध्यान था न, कि कुछ ध्यान नहीं रहा?

प्र२: नहीं, उसके बाद जैसे नींद से उठकर हमें लगता है कि रात को कुछ हुआ है, वैसा कुछ-कुछ।

आचार्य: जो स्थिति बीत जाए, वो दिन-रात का खेल थी, वो धूप-छाँव थी। (सामने की ओर इशारा करते हुए) अभी सूरज वहाँ था, यहाँ छाँव थी, अभी सूरज वहाँ गया तो अब छाया नहीं है यहाँ पर। जो भी स्थिति अनुभव में आए और फिर अनुभव मिट जाए, उसको बहुत गंभीरता से मत लेना; उसका सत्य से, आत्मा से कोई लेना-देना नहीं। हालाँकि अहंकार को बड़ा अच्छा लगता है ये कहना, कि पंद्रह मिनट के लिए मुझे समाधि का स्वाद मिला था; वृत्तियों का ही खेल है, प्रकृति का खेल है।

हवा का झोंका है, आया और चला गया। सारे अनुभव आते हैं और मिट जाते हैं। आत्मा, पहली बात तो अनुभव नहीं, और अगर उसे अनुभव कहना ही चाहते हो तो आत्मा वो अनुभव है जो अमिट है; जो न शुरू होता है, न ख़त्म होता है। इसीलिए समझाने वालों ने समझाया है कि आत्मा कोई अनुभव नहीं है, सत्य या आत्मा सारे अनुभवों का आधार है। सब अनुभवों के बीच जो बैठा है, सब अनुभवों से अस्पर्शित, सो आत्मतत्व है; वो अपनेआप में कोई अनुभव नहीं होता।

कह मत देना कि बीते शुक्रवार रात साढ़े ग्यारह से पौने बारह तक मुझे आत्मा के दर्शन हुए थे। इस तरह की बकवास बहुत चलती है आध्यात्मिक हलकों में, बचकर रहना! या कि सुबह-सुबह सात बजे बैठता हूँ ध्यान लगाने, तब सत्य से संपर्क बनता है। ये मूर्खता की बात है! वो मन का मौसम है। हाँ, मन के मौसम तुम बदल सकते हो, और कुछ मौसम हो सकता है कि तुम्हें ज़्यादा अनुकूल लगे, कुछ मौसम हो सकता है तुम्हारे लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद हों; पर मन के बदलते मौसमों को आकाश नहीं कहते। कुछ मौसम ज़्यादा अच्छे होते हैं और कुछ मौसम ज़रा प्रतिकूल होते हैं, मैं इससे इंकार नहीं कर रहा हूँ; लेकिन मौसम तो मौसम है और आसमान आसमान है।

मौसम बदलते रहते हैं, आसमान भी बदलता है क्या? जो अदले-बदले, सो मौसम-मात्र। ठीक है, उसके रंग-रूप देख लो, उसका रसपान कर लो, पर ये भूल मत करना कि तुमने रसपान को ही आसमान कह दिया। रस कितना भी मीठा हो, है तो अनुभव-मात्र ही न?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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