आत्मा की मन को सलाह || आचार्य प्रशांत, 'उड़ जा रे पंछी' गीत पर (2016)

Acharya Prashant

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आत्मा की मन को सलाह || आचार्य प्रशांत, 'उड़ जा रे पंछी' गीत पर (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पंछी को उड़ जाने की सलाह या नसीहत दी जाती है। तो यह उसके भीतर से आ रही है आवाज़ या बाहर से आ रही है?

आचार्य प्रशांत: जब भी कभी कोई भी, कुछ भी सलाह दी जाएगी; वो सलाह एक ही जगह से आएगी और उसको देने वाला भी एक ही होगा। हाँ, आपके कानों तक वो अलग-अलग माध्यमों से प्रतिध्वनित होकर पहुँच सकती है। आप तक वो कहाँ से पहुँच रही है, यह बात विशेष महत्व की नहीं है। जहाँ से भी आ रही है, वो स्रोत नहीं है। सत्य का स्रोत तो सदा एक ही होता है— सत्य स्वयं।

हाँ, आपकी परिस्थितियाँ क्या हैं, इस पर निर्भर करते हुए आप तक बात किसी ख़ास माहौल में, किसी ख़ास जगह से, किसी ख़ास भाषा में, किसी ख़ास तरीक़े से ही पहुँचेगी। उस तरीक़े का सत्य से या संदेश से कम लेना-देना है; आपसे ज़्यादा लेना-देना है।

यह आपकी विशेषता थी या आपकी सीमा थी कि आप बात को अन्यथा न सुन पाते, इसलिए उसे एक विशेष आवरण में, एक विशेष रूप में आपके सामने लाया गया। अन्यथा तो जो बात है वो सदा से ज़ाहिर है।

सत्य कोई बहुत लंबा-चौड़ा तो होता नहीं; बहुत-बहुत-बहुत छोटी सी बात होती है। और बात जब अतिशय छोटी हो जाती है तो उसे मौन भी कहते हैं।

लेकिन मुश्किल होता है कान वालों के लिए मौन को सुन पाना। तो फिर तरीक़ों की आवश्यकता पड़ती है, फिर गीतों की आवश्यकता पड़ती है, फिर ग्रंथों की आवश्यकता पड़ती है, फिर गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है। गीत हों, कि ग्रंथ हों, कि गुरु हों; वो सब कोई अपनी बात नहीं कहते, उसमें उनका व्यक्तिगत कुछ नहीं होता।

गीत यदि सार्थक है, ग्रंथ यदि पारमार्थिक है, तो अपने से आगे बढ़कर के कुछ कह रहा होगा। उसमें कहीं और की आवाज़ होगी। आप इस गीत को आत्मा का संदेश कह सकते हैं मन के प्रति। आज तक जो भी उचित गीत लिखा गया है, जो भी सार्थक बात कही गयी है, वो और कुछ होती ही नहीं; वो होती ही यही है—आत्मा बोल रही है मन से। कह गये न कबीर साहब— "मन को ही प्रबोधिये, मन को ही उपदेस।" उसके अलावा किसको समझाएँगे? और आत्मा के अलावा है कौन जो मन को समझा सके? हाँ, एक भूल हो जाती है कि कई बार मन का ही एक टुकड़ा दूसरे टुकड़े को समझाने की चेष्टा करने लग जाता है। तब न समझ होती है, न बूझ होती है; तब संघर्ष होता है, तब विवाद होता है। तब आप कहते हैं कि मैं आंतरिक कलह से जूझ रहा हूँ। यूँ लगता है जैसे मन में गृहयुद्ध चल रहा है। तब आपको कुछ समझ में नहीं आता, तब उहापोह बनी रहती है। तब तर्कों का सहारा लिया जाता है।

आप यदि जानने में उत्सुक हों कि कैसे जानूँ कि आत्मा समझा रही है या मन का ही एक हिस्सा है जो दूसरे हिस्से से बात कर रहा है, तो यही कसौटी है—देख लीजिए कि समझाने वाला तर्कों का सहारा ले रहा है या तर्कातीत कुछ कह रहा है। देख लीजिए कि बात में जो यथास्थिति है, उसे क़ायम रखने की चेष्टा है या उसे पूर्णतया बदल देने की। देख लीजिए कि यदि बदलाव कि बात भी हो रही है तो वो बदलाव सतही है अथवा गहरा, आंतरिक, मौलिक।

प्र: तर्कातीत का क्या अर्थ है? आपने जो अभी शब्द उपयोग किया कि मन बात कर रहा है या आत्मा, यह तभी पता चलेगा कि या तो तर्क से बात हो रही है या तर्कातीत। तर्कातीत का अर्थ क्या हुआ?

आचार्य: तर्कातीत का अर्थ हुआ कि वो उसमें आपको कोई लाभ नहीं दिखा पाएगा। वो उसमें आपको कारण नहीं समझा पाएगा। कारण यदि वह दे भी पाएगा तो वो बड़े गहरे और बड़े अकारण से होंगे। कारणों के नाम पर वो कुछ यही बातें बोल पाएगा कि उड़ जा क्योंकि मुक्ति है; उड़ जा क्योंकि यही सत्य है; उड़ जा क्योंकि प्रेम वहाँ है; उड़ जा क्योंकि उड़ना ही सरल है; उड़ जा क्योंकि उड़ना ही स्वभाव है—ये तर्कातीत बात हुई।

आप किसी को कैसे सिद्ध करोगे कि उड़ना स्वभाव है; ये तर्कातीत बात हुई। आप किसी से कैसे सिद्ध करोगे कि प्रेम की क़ीमत अन्य तमाम लाभों से ज़्यादा है; मुनाफ़ा नहीं दिखा पाओगे। जब हृदय बोलता है, जब आत्मा बोलती है तो साधारण मुनाफ़े नहीं गिनाती, साधारण लाभ नहीं गिनाती; वो ऊँचे-से-ऊँचे लाभ की बात करती है। मन उस ऊँचे लाभ को जानता नहीं इसीलिए यदि मन की भाषा में कहें—तो आत्मा का लाभ, लाभ से आगे की बात है, लाभातीत है। इसीलिए मैंने कहा तर्कातीत है।

वास्तव में फ़ायदा तो बहुत बड़ा है, जो मन को समझाया जा रहा है। वो फ़ायदों में फ़ायदा है, परम फ़ायदा है। पर मन जैसा है, उसको परम की क्या ख़बर! वो तो अपनी क्षुद्रताएँ और सीमाएँ जानता है। तो इसलिए जब उसे छोटा फ़ायदा बताया जाता है तब तो वह कहता है, 'फ़ायदा'; और जब इतना बड़ा फ़ायदा बता दिया जाता है, तो उसको लगता ही नहीं कि फ़ायदा है।

प्र: पर उसने कभी वो अनुभव ही नहीं किया?

आचार्य: वो अनुभव से आगे की बात है। वो अनुभव हो ही नहीं सकता। मन ऐसा है कि जैसे कोई भिखारी जो सदा दरिद्रता में रहा हो, उसको आप कहिए कि—बीस रुपए; उसे बात समझ में आएगी। उसे आप कहिए कि—सौ रुपए; वो प्रसन्न हो जाएगा। और उससे आप कहिए कि—हज़ार; वो फूल के कुप्पा हो जाएगा। आप उनसे कहिए—दस खरब; वो आपसे पीठ फेरकर चल देगा। वो कहेगा, 'मज़ाक़ करते हो!' आप उससे कहिए—दस खरब; वो आपकी ओर नहीं आएगा। हाँ, बीस रुपए, सौ रुपए, बहुत हो गया हज़ार रुपए; इतने तक उसका आना-जाना है। इतने तक उसका अनुभव है।

तो इसीलिए जब परम गति समझायी जाती है तो उसमें तर्कों का सहारा नहीं लिया जा सकता, उसमें तो बस कह दिया जाता है। कह दिया जाता है और फिर ये आशा की जाती है कि जिससे कहा गया है, उसके भीतर एक अनुगूँज उठेगी, एक रेजोनेंस (प्रतिध्वनि) होगा, एक अकारण अनुगूँज।

ये नहीं कि वजह मिल गयी है, ये नहीं कि उसको लगा है—'अच्छा, आज पाँच सौ का लाभ होने वाला है।' उसे लग भी नहीं रहा कि कोई लाभ है पर फिर भी उसके भीतर कुछ है जो कह रहा है, 'नहीं, फ़ायदा तो समझ में नहीं आ रहा लेकिन रास्ता यही उचित लग रहा है।'

क्यों उचित लग रहा है? हम बता नहीं पाएँगे, कोई पूछे तो समझा नहीं पाएँगे। किसी और को तो क्या, स्वयं को भी कोई तर्क दे नहीं पाएँगे। लेकिन ऐसा लग रहा है कि मिल गयी राह, मंज़िल स्वयं आयी है राह सुझाने।

प्र: क्या आत्मा की आवाज़ पर मन की आवाज़ भारी हो जाती है?

आचार्य: नहीं, आत्मा कोई आवाज़ देती नहीं है, आत्मा मात्र होती है। मन की भी जितनी आवाज़ें हैं, वो भी आत्मा के विरुद्ध, उसके विरोध में नहीं होती हैं। मन की भी जितनी आवाज़ें हैं, होती वो इसीलिए हैं क्योंकि मन को आत्मा में लय हो जाना है; मन और कहीं शांति पाता नहीं।

तो अपने मन से यह धारणा निकाल दें कि मन जैसे आत्मा का विरोधी हो, कि मन की मंशा कुछ और हो। हम हों, आप हों, यहाँ कोई भी बैठा हो, दुनिया का कोई व्यक्ति हो, चाहते सब यही हैं कि चैन से जियें। ये चैन से जीने की ख़्वाहिश ही मन का आकर्षण है आत्मा के प्रति। आत्मा ही चैन है। हर व्यक्ति चैन चाहता है, इसी से स्पष्ट है कि मन सदा आकर्षित तो आत्मा की ओर ही है। और कहीं जाने की वो चेष्टा करेगा क्यों!

फिर दिक़्क़त कहाँ हो जाती है? गड़बड़ कहाँ हो जाती है? गड़बड़ यहाँ हो जाती है कि मन अपने अनुसार पहुँचना चाहता है, अपने तय किये हुए रास्तों से, अपनी सोच से। आत्मा तक पहुँचने के लिए वो आत्मा का निर्देश नहीं मानता, वो अपनी चतुराई का सम्बल लेता है। मन की हालत ऐसी है कि जैसे आप किसी अनजानी जगह पर जाएँ और जिससे मिलने जा रहे हैं, उससे न पूछें कि बता दो तुम तक आने का रास्ता क्या हुआ। वही सबसे सरल तरीक़ा है न?

आप किसी दूर इलाके में गये हैं पहली बार, कोई पहाड़ी जगह है जहाँ तक कोई राजपथ जाता नहीं है। जहाँ तक पहुँचने के लिए कोई दिशा-निर्देश लगे नहीं हैं। जहाँ तक पहुँचने के लिए आप किसी और से भी सलाह ले नहीं सकते कि आने-जाने वाले पथिक हैं उनसे पूछ लें।

तो सरलतम, श्रेष्ठतम तरीक़ा क्या है पहुँचने का? जिसके पास पहुँचना है, उसी से पूछ लो कि भाई, 'तुम्हारे यहाँ आ रहे हैं और इस जगह पर खड़े हैं, तो बता दो कि कैसे आएँ आगे?'

यही है न?

पर अगर आप अपनी ही अकड़ में खोये हुए हैं, आप अपने ही अहंकार में गुम हैं, आप जिस तक पहुँचना चाहते हैं आपका अहंकार आपको उसके सामने भी अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर नहीं करने देना चाहता—भाई, अगर हमने फ़ोन करके रास्ता पूछा तो ज़ाहिर हो जाएगा न, क्या? कि हमें रास्ता नहीं पता। तो हम जिस तक जा रहे हैं, हमें जिसकी ओर आकर्षण है, हमें जिससे प्रेम है, जिस तक हमें पहुँच जाना है; हम उस पर भी प्रकट नहीं होने देना चाहते कि हम अज्ञानी हैं।

तो हम फिर क्या करेंगे? हम फ़ोन करके उससे नहीं पूछेंगे, क्योंकि फ़ोन करके पूछने पर तो साबित हो जाएगा कि हम अज्ञानी हैं। अहंकार को चोट लगती है। हम कहेंगे, 'हम ख़ुद ही आ जाते हैं।' वो तो तैयार बैठा है बताने के लिए। तुम पूछ भर लो, वो तो तैयार बैठा है बताने के लिए। पर तुम कह रहे हो, 'नहीं, हम ख़ुद ही पहुँच जाएँगे।'

अब वो बात तुम्हारे अनुभव के बाहर की है, क्योंकि अनुभव तो सदा अतीत से आता है। तुम पहले कभी वहाँ गये नहीं, तो तुम्हें क्या पता रास्तों का? तो तुम रास्ते भटक रहे हो, भटक रहे हो, इधर-उधर घूम रहे हो; यही मन है।

मन की भी चेष्टा सदा आत्मा तक पहुँचने की ही है, पर पहुँचना वो अपने तरीक़ों से चाहता है, अपनी बुद्धि के अनुसार। मन को सत्य पर नहीं भरोसा है, उसे बुद्धि पर भरोसा है, इंटेलेक्ट पर। मन कहता है, 'हम आ जाएँगे। तुम चलो, हम आ रहे हैं।'

आप मिले होंगे ऐसे लोगों से। कोई नयी जगह होगी, कोई नया काम होगा, आप उन्हें समझाना चाहेंगे; वो कहेंगे, 'नहीं, नहीं, देख लेंगे, कर लेंगे।' कोई फ़िसलन भरी सड़क होगी, आप उनसे कुछ बोलना चाह रहे हैं, वो कहेंगे, 'न, पता है'। तो आप भी फिर मर्यादावश चुप हो जाते हैं कि इनका दिल कौन तोड़े। बताएँगे तो इन्हें यही लगेगा कि हम इनके साथ ज़बरदस्ती कर रहे हैं।

और थोड़ी देर में आवाज़ आती है 'धड़ाम'। फिर आप बताना चाहते हैं। वो कहते हैं, 'नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, ज़रा जूते फ़िसलन भरे थे। और जूते भी हम थोड़े ही ऐसे पहन रहे थे। वो सुबह-सुबह बीवी ने ज़बरदस्ती जूते पहना दिए पुराने, हमारी कोई ग़लती नहीं। हम तो सब जानते हैं। रास्ता भी पता है, मंज़िल भी पता है, क़दम रखने के एहतियात भी पता हैं।' फिर आप कहेंगे, 'देखो, ऐसे नहीं, थोड़ा इधर से मुड़कर आओ।' वो कहेंगे, 'हाँ-हाँ, उधर से मुड़ ही तो रहे थे।' आप फिर चुप हो जाएँगे कि भाई को जब इतना ही पता है, तो इन्हें कोशिश कर ही लेने दो।

आत्मा की भी यही विवशता है। आत्मा बोध है। पर बोध कभी दोहरा बोध थोड़े ही होगा; बोध तो बोध होता है। जब आप तनकर के कह देते हैं कि बोध तो है, तो आत्मा कहती है, 'देखूँ..!' और थोड़ी देर में फिर आवाज़ आती है 'धड़ाम'। अब ये जो धड़ाम-धड़ाम की आवाज़ें हैं, यही हमारा जीवन है।

बताने वाला तैयार खड़ा है बताने के लिए; हमारा दावा है कि हम जानते हैं। हमने बताने वाले को भी दुनियावी सलाहकारों की श्रेणी में रख दिया है।

हम कहते हैं, 'दुनिया में हमें आज तक जितने तथाकथित शुभचिंतक मिले, सब उल्टे-पुल्टे ही थे, और सबने बताने के दाम माँगें। जिससे भी मदद ली, उसने गला पकड़ा। जिसको भी क़रीब आने दिया, उसी ने नुक़सान पहुँचाया। तो हम क्यों किसी की मदद लें? हम क्यों किसी को क़रीब आने दें? और वो भी किसी से आख़िरी मंज़िल के बाबत सलाह लेना तो आत्मघातक हो जाएगा, क्योंकि वो ऊँची-से-ऊँची बात है। और इतनी ऊँची सलाह कोई मुफ़्त में तो दे नहीं सकता।' ये मन का तर्क है।

मन का तर्क है कि मेरी आख़री मंज़िल, मेरा परम लक्ष्य है, मेरी उच्चतम चाहत है; उसके बारे में कोई सलाह मुझे मुफ़्त में क्यों देगा? ये दुनिया तो ऐसी है जिसमें किसी ने अगर अंगूर के दाम भी बताए, तो किसी-न-किसी रूप में उसका भी पारिश्रमिक ले ही लिया। मुफ़्त तो हमने कुछ मिलते देखा नहीं, तो यह आत्मा क्या बला है; ज़रूर दाल में कुछ काला है। ये क्यों मुफ़्त सलाह दिए जाती है! हम नहीं लेते सलाह।

चेष्टा हम सबकी वहीं जाने की है। जब वहीं जाना ही है, जब मान ही लिया कि वो जगह आप की वर्तमान जगह से ज़्यादा सुंदर है, ज़्यादा विश्रामपूर्ण है; तो फिर उस जगह के सामने अभी से क्यों नहीं सिर झुका देते? उसके सामने सिर झुकाने का संकल्प तो वैसे भी आपने कर ही लिया है न। वो संकल्प न होता तो वहाँ जाने की क्यों सोचते? वो जगह अगर आपको रुचती नहीं तो उस जगह के लिए इतने बेचैन क्यों होते? और जब मान ही लिया है कि वो जगह इतनी प्यारी है, तो अब उसके सामने अकड़ कैसी? उसी से पूछ लो न।

मन का आत्मा से वास्तव में कोई विरोध नहीं है। दुनिया में जिस भी तरफ़ आप नज़र फेरें, वहाँ जिसको भी जो कुछ भी करता पाएँ, आप यही पाएँगे कि वो कर विश्राम और शांति के लिए ही रहा है; पर अपनी अक्ल लगाकर। जो कोई घोर मूर्खतापूर्ण काम कर रहा हो, जो कोई घोर अशांतिपूर्ण काम कर रहा हो, आप उससे भी उसका तर्क और तुक पूछेंगे, तो यही कहेगा कि शांति की ख़ातिर कर रहा हूँ।

सेनाओं को युद्ध के पीछे का तर्क दिया जाता है कि एक बढ़िया युद्ध से पच्चीस साल की शांति निर्धारित हो जाती है। तो इसीलिए युद्ध आवश्यक है—शांति की ख़ातिर। जो युद्ध भी कर रहे हैं, उनसे पूछो क्यों कर रहे हो तो क्या कहेंगे? शांति के लिए कर रहे हैं। कोई आपसे नहीं कहेगा कि युद्ध की ख़ातिर लड़ते हैं, कि लड़ने के लिए लड़ते हैं। वह भी आपसे यही कहेगा, 'लड़ लें अच्छे से, फिर शांत हो जाएँगे।'

मन का यही ढर्रा है। उसको जिधर जाना है उससे उल्टी बात करता है। वो अकाल तक पहुँचना चाहता है, काल का सहारा लेकर। वो शांति तक पहुँचना चाहता है, अशांति का सहारा लेकर। वो निकटतम तक पहुँचना चाहता है, विधियों और तरीक़ों का सहारा लेकर। वो अचिंत्य तक पहुँचना चाहता है, चिंतन का सहारा लेकर। मन बेचारे की यही दुविधा! वो जिस आयाम में स्वयं को व्यतीत करता है, वो उस आयाम से आगे कुछ देख नहीं सकता। वो उसी आयाम का प्रयोग करके किसी दूसरे आयाम में पहुँच जाना चाहता है; ये हो नहीं सकता।

ये ऐसी ही बात है कि जैसे आप इस कमरे में बंद हों और आपको पहुँचना है आकाश तक; और आप जीवनभर दौड़ते रहें, दौड़ते रहें, दौड़ते रहें कमरे के भीतर। कोशिश आप पूरी कर रहे हैं, मेहनत में कोई कमी नहीं। थकान भी आप पूरी झेलेंगे, पर कमरे के भीतर दौड़-दौड़कर, दौड़-दौड़कर आप आसमान तक नहीं पहुँच पाएँगे।

हाँ, कमरे के भीतर दौड़ने वाले से आप पूछिए कि तुम क्या कर रहे हो? तो कहेगा, 'बेईमान नहीं हैं हम। तुम बताओ, हमने कोशिशों में कहाँ कमी छोड़ी? देखते हो, कितना थक गये हैं, पसीना-पसीना हैं। दीवार में कोई स्थान नहीं जहाँ पर हमने सिर न मारा हो। जितनी खिड़कियाँ हैं, जितने दरवाज़े हैं, कोई ऐसे नहीं जो हमने खटखटाये न हों। हमने हर कोशिश करी है, हमने सब प्रयोग करे हैं। तो हमारी नीयत पर उँगली मत उठाना।'

आपकी नीयत पर कोई उँगली नहीं उठा रहा। हम तो बस ये कह रहे हैं कि आपकी आपके प्रेमी से वफ़ादारी नहीं है। नहीं तो आसमान तक पहुँचने का रास्ता आसमान से ही पूछ लेते; दीवारों से नहीं। दीवारें कभी नहीं आपको बताएँगी आसमान तक कैसे पहुँचना है। और हम सबकी विडंबना यही है, हम सलाखों से मुक्ति का रास्ता पूछते हैं।

प्र: मैं तो अभी भी यह जानना चाहूँगा कि इस अहंकार को कैसे छोड़ें? इससे कैसे बाहर आयें?

आचार्य: जब बहुत चोट लग जाती है, या जब खिड़की के बाहर कोई उड़ता हुआ पक्षी दिखता है तो भीतर वाला कहता है, 'बस, बहुत हो गई बेईमानी'।

हम किसको साबित किये जाते हैं कि नीयत हमारी पाक-साफ़ है? सच्चाई यह है कि जिन्हें उड़ना है वो तो उड़ रहे हैं; हम दीवारों से रास्ता पूछे जाते हैं। हम दीवारों का ही साधन करके दीवारों को भेदने की चेष्टा किये जाते हैं। तथ्य यह है कि दीवारों की सुविधा की हमें लत लग गयी है। हम दौड़ तो रहे हैं भीतर-भीतर, पर बाहर जाने का हमारा वास्तव में कोई इरादा नहीं है। कोई विधि थोड़े ही चाहिए; साफ़दिली चाहिए, ईमानदारी चाहिए।

क़ैद में रखती हैं पक्षी को दीवारें, लेकिन भूलिए नहीं कि उसे सुविधा भी बहुत देती हैं और सुरक्षा का अहसास देती हैं। जिस दिन आप सुरक्षा की तलब छोड़ देंगे, उस दिन आसमान आपका है। हम में से जो भी अपनेआप को बंधक अनुभव करते हों, वो अच्छे से जान लें कि बंधन, बंधन बनकर कभी नहीं आते; बंधन सुरक्षा बन कर आते हैं। आपको सुरक्षा की ख़्वाहिश है इसीलिए आप बंधन में हैं। विधियाँ मत पूछिए; अपनी ख़्वाहिश को देखिए। क्या विधि चाहिए आपको!

बेड़ियों ने आपको नहीं जकड़ रखा; आपने बेड़ियों को पहन रखा है। स्वयं पहन रखी हैं बेड़ियाँ और मुक्ति का रास्ता पूछते हो? ये क्या सवाल है? इसका क्या उत्तर दिया जाए? बेड़ियाँ सोने की भी हो सकती हैं। बेड़ियों के कई अच्छे-अच्छे नाम भी हो सकते हैं, कंगन इत्यादि-इत्यादि।

प्र४: डर का क्या मतलब है? असुरक्षा का भाव और डर का?

आचार्य: बहुत कुछ है जो मिल रहा है।

श्रोता: मन पहुँचना भी चाहता है (आसमान की ओर), और वहाँ से निकलना भी नहीं चाहता है (पिंजरे से)।

आचार्य: यही तो उसकी विडंबना है न! वह जैसा है वैसा रहते हुए पहुँचना चाहता है।

प्र: बदलना नहीं चाहता।

आचार्य: वह जैसा है वैसा रहते हुए वहाँ तक पहुँच जाना चाहता है जहाँ कोई भेद शेष नहीं रहते। जहाँ सब एक हैं। पर मन कहता है, 'नहीं, मैं तो अपनी विशेषता, अपनी व्यक्तिगत सत्ता क़ायम रखूँगा और वहाँ तक पहुँचूँगा।'

और उसके पीछे भी उसका तर्क है, वह कहता है, 'अगर मैं ही नहीं रहा तो वहाँ पहुँचने के मज़े कौन लेगा? मान लो वहाँ पहुँच भी गये और वहाँ पहुँच कर पाते हैं कि हम ही नहीं बचे, तो यह पहुँचा कौन? फिर पहुँचने का फ़ायदा क्या? अरे भाई, पहुँचकर के यह पता भी तो चलना चाहिए कि पहुँचे हैं। और पता चलने के लिए तो हमारा होना ज़रूरी है।'

अब यह मन ने शर्त लगा रखी है। इस शर्त के कारण वो बेचारा कभी पहुँचने ही नहीं पाता। मन की शर्त कुछ ऐसी है कि जैसे किसी अंधे की आँखों का ऑपरेशन होता हो और वो कहे, 'ऑपरेशन तो तभी होगा जब हम देखेंगे कि कैसे हो रहा है ऑपरेशन। ऑपरेशन तो हम तभी होने देंगे जब पहले हम देखेंगे कि कैसे हो रहा है। हम भी तो देखने का आनंद लेना चाहते हैं न अपनी आँखों की चिकित्सा का!'

अब उसका न कभी ऑपरेशन होगा, न कभी ज्योति आएगी। उसने एक असंभव शर्त रख दी है। अंधा कह रहा है कि जब मैं देखूँ कि मेरा ऑपरेशन कैसे हो रहा है, मात्र तब होने दूँगा। बात हास्यास्पद लगती है न? ये शर्त हम सबने रखी हुई है। हम कहते हैं कि बदल दो हमें, पर हमारी शर्तों के अनुसार। आपकी तो पहली शर्त ही यही होती है कि मैं बदलूँगा नहीं।

प्र: हमें बदलने का स्वभाव रखना पड़ेगा; तभी हो पाएगा?

आचार्य: आप जो भी करेंगे, अपने मुताबिक़ करेंगे। समर्पण का मतलब होता है कि होने दें। और ज्यों ही, जब भी यह बात सामने आती है, चेहरे बिलकुल गंभीर हो जाते हैं कि 'हाँ, हम ज़रा विचार करके आपको बताएँगे। ये समर्पण वग़ैरह का आपने जो मुद्दा छेड़ा है; सोचते हैं सोचते हैं, जल्दी क्या है!'

प्र५: जिस मंज़िल की बात हो रही है, उस पर भी शक पैदा होता है। है भी वहाँ कुछ या नहीं?

आचार्य: शक क्यों पैदा हो रहा है?

प्र: छोड़ दूँ और वहाँ भी कुछ न मिले?

आचार्य: शक इसलिए पैदा होता है न क्योंकि आप सुरक्षित होना चाहते हैं? संदेह इसीलिए होता है न क्योंकि आप चाहते हैं न कि आपकी सुरक्षा पर कोई आँच न आए? अगर आपको अपनी कोई परवाह न हो, तो आपको कभी शक होंगे? शक इसीलिए होते हैं न ताकि सब ठीक-ठाक रहे? तो आप देख नहीं रहे हैं कि ठीक-ठाक रहना ही तो स्वभाव है। शक भी यही सिद्ध करता है कि आपको स्वभाव की चाहत है।

प्र: सुरक्षा में रहना अस्वभाव है?

आचार्य: परम सुरक्षा स्वभाव है। आप जिसको सुरक्षा बोलते हैं, क्या वो कभी आपको आश्वस्त कर पाती है कि आप सुरक्षित हैं? आप जिसको सुरक्षा बोलते हैं, वो तो कितनी भी बढ़ जाए, रहती असुरक्षा ही है।

कोई है यहाँ पर जो सुरक्षा महसूस करता हो? सुरक्षा यदि आप महसूस कर रहे होते, तो उसका प्रमाण होता असुरक्षा में कूद पड़ने की आपकी लालसा। असुरक्षा के प्रति पूरे खुलेपन का भाव। जो पूर्णतया सुरक्षित हो गया, अब उसे असुरक्षा से डर नहीं लगेगा। पर हमें तो असुरक्षा से बड़ा डर लगता है। हम सुरक्षा को असुरक्षा का विपरीत मानते हैं। सुरक्षा असुरक्षा का विपरीत नहीं होती; सुरक्षा असुरक्षा में डूब जाने का साहस होती है। असुरक्षा को हटाकर के सुरक्षा नहीं आती; सुरक्षा है असुरक्षा की गहराइयों में डूब जाने की श्रद्धा, साहस। कितनी भी असुरक्षा हो; हम प्रस्तुत हैं—ये सुरक्षा है। कितनी भी असुरक्षा हो; हम प्रस्तुत हैं, हमारा कुछ बिगड़ नहीं सकता, हम मिट नहीं सकते—ये सुरक्षा है।

हम में से ऐसा शायद ही कोई हो जो असुरक्षा के क्षण में संकुचित न हो जाता हो। जो अपना खुलापन बरकरार रख पाता हो, और वही सिद्ध करता है कि हमारी सुरक्षा खोखली है। हमने जितने भी आयोजन किए हैं अपनेआप को सुरक्षित करने के, वो सब असफ़ल हो गए हैं। हाँ, बहाने मिल गए हैं, ख़ुद को बहला लिया है।

जैसे कोई बहुत बड़ा दैत्य हो और उसका सामना करने के लिए आपको बच्चों की बंदूक मिल गयी हो। गोली पिचकारी समान है और आप उसको देख-देखकर ख़ुद को बहलाते रहते हो कि जब होगा हमला तो हमारे पास हथियार मौजूद हैं।

ऐसे हैं सुरक्षा के हमारे सारे इंतज़ाम, जैसे टैंक के सामने आप चिकपिटी छोड़ते हो। दिवाली पर आती है, देखी है? बच्चे उनकी रील लेकर घूमते हैं (श्रोतागण हँसते हैं)। और आपके सामने खड़ा हुआ है टैंक। और आप वो सुरक्षा का इंतज़ाम करते हैं। वो चिकपिटी क्या है? वो चिकपिटी हमारे रिश्ते हैं, हमारा बैंक बैलेंस है, हमारा इंश्योरेंस (बीमा) है, हमारी धारणाएँ हैं।

प्र: हाउ टू ओवरकम रेजिस्टेंस (प्रतिरोध से कैसे बाहर आएँ)?

अचार्य: क्या पता नहीं है कि हाथ में क्या है और सामने क्या है?

प्र: सर, रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) आता है। इट्स ह्यूज (यह बहुत बड़ा है)।

आचार्य: देखो, अगर बात समझ गए हो तो ठीक अभी दिख गया होगा न! अब तुम मुझे समझाओ कि दिखने के बाद अनदेखा कैसे करते हो?

प्र: जब तक कोई चीज़ अनुभव नहीं होती तो उसे कैसे जानें? क्योंकि हमें सिर्फ़ अपने अनुभव से ही पता चलता है।

आचार्य: क्या रोज़ अनुभव नहीं हो रहा है कि हमारे सारे अनुभव डर के और खोखलेपन के हैं?

प्र: कभी-कभी होता है।

आचार्य: जब होता है तब क्या करते हो? मान लो कभी-कभी ही प्रतीत हुआ; क्या करते हो?

प्र: नहीं, बहुत बार होता है।

आचार्य: मान लो पाँच सौ बार हुआ। मुझे किसी एक बार का वृतांत दो। मान लो अभी हुआ।

प्र: तब हम तैयार होते हैं, तब हमें संदेह नहीं होता। लेकिन फिर वापस आ जाते हैं।

आचार्य: अब वापस कैसे आये? एक बार दिख गया कि ये चिकपिटी है; उसके बाद फिर कैसे समझा लेते हो अपनेआप को कि एके फोर्टी सेवेन (एक तरह की बंदूक) है? मैं वो समझना चाहता हूँ। एक बार दिख गया कि ये क्या है; उसके बाद कैसे बोलते हो कि रॉकेट लॉन्चर है, एंटी टैंक मिसाइल है, कैसे?

प्र: मन शक पैदा कर देता है कि शायद हो ही न!

आचार्य: अरे, तो चलाकर देख लो। इतनी भी क्या बेईमानी है। प्रयोग करके देख लो न। और ऐसा तो नहीं है कि स्पष्ट होता नहीं; इतना भी अबोध हम में से कोई नहीं है। पता हम सबको है। हम सब जानते हैं कि यह सारे आयोजन झूठे हैं। प्रमाण दूँ? तुम्हें न पता होता कि तुम्हारे आयोजन, तुम्हारे सारे बंदोबस्त खोखले हैं, तो तुम डर में नहीं जीते।

अगर मुझे पता है कि मैंने अपनी सुरक्षा के लिए जो इंतज़ाम किए हैं, वो इंतज़ाम असली हैं, तो क्या मुझे डर शेष रह जाएगा? मैं कहूँगा, 'अब तो मैंने पक्का बंदोबस्त कर लिया है, मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता।' पर हमें तो डर है।

डर का होना ही ये साबित करता है कि हम जानते हैं कि जिन आधारों पर हमने जीवन खड़ा किया है, वो आधार हमें सुरक्षा नहीं देते। अन्यथा आप डरते क्यों, जानते तो सबकुछ हो। अब तुम मुझे समझाओ कि जानते हुए भी अनजान कैसे बने रहते हो?

प्र: उसका और भी सबस्टीट्यूट (विकल्प) क्या है? मतलब वही है जो है।

आचार्य: जान गए; अब अनजान कैसे हो? ये बताओ।

प्र: कि सही आधार क्या है, ये नहीं पता?

प्र६: कैन ईट बी मोमेंट्री (क्या यह क्षणिक हो सकता है)?

आचार्य: जानना भी हो नहीं सकता बिना सही आधार के। और जिसको आप कहते हैं कि सही आधार को जानना है, वो आप यही चाह रहे हैं कि उस सही की भी आपको कोई परिभाषा दे दी जाए, कोई नाम इत्यादि दे दिया जाए, कोई उसका वर्णन कर दिया जाए, कोई चित्र खींच दिया जाए। और अगर यह अपेक्षा ही अनाधिकृत हो तो?

प्र: क्योंकि आप मान लेते हो कि आप कर्ता भी हो और भोक्ता भी।

आचार्य: वो भी दिख गया कि आप कुछ भी नहीं हो। क्या वो सब भी ज़िंदगी आपको रोज़ नहीं बता रही है कि झूठ है? आपने जो भी कुछ मान रखा है, ईमानदारी से बताइएगा, ज़िंदगी क्या उसे रोज़ ही झूठ साबित नहीं कर देती है?

तो जवाब तो आपको देना है कि सारी मान्यताएँ रोज़-रोज़ झुठला देती है ज़िंदगी। आप जो कुछ भी लिखते हैं, लहरें आती हैं और रेत पर लिखी-लिखायी साफ़ कर जाती हैं। दिखता नहीं है क्या? सबको दिखता है। कोई क्या बोले? आप बोलिए, आप में इतनी दृढ़ता कहाँ से आती है? इतनी गहरी ज़िद्द आप लाते कहाँ से हैं?

प्र: नेवर गिविंग अप वाला (हार कभी नहीं मानने वाला)।

आचार्य: बिलकुल। पूरब में एक कहावत चलती है, 'मार जाए पर लजाईत नाही।' रोज़ पिटाई होती है, लाज तब भी नहीं आती। (श्रोतागण हँसते हैं)

आप बताइए कि आप इतने ज़बरदस्त कैसे हैं, मैं सीखना चाहता हूँ। हमने तो यही जाना कि ज़िंदगी जब सबक सिखाए तो सीख लो। सिर झुका दो, प्रतिरोध व्यर्थ है। आप बताइए कि आप अभी तक कैसे उसके विरोध में खड़े हुए हैं?

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