आचार्य प्रशांत: जब हम रत्न की बात कर रहे होते हैं और उसकी सफ़ाई करनी है क्योंकि वो मिट्टी में पड़ा था, मैला हो गया है, कीचड़ जम गया है, तो हम कीचड़ की बात ऐसे करते हैं जैसे कि वो कोई बात करने लायक़ चीज़ ही नहीं है। उसको तो जल्दी से हटाओ, फिर देखो कैसे रत्न जगमगाएगा। ठीक है न? बात का लहज़ा हमारा कुछ ऐसा रहता है। उस पूरी बात में ध्यान कीचड़ पर बहुत ही कम दिया जाता है, सारा ध्यान किस पर दिया जाता है? रत्न पर दिया जाता है। कीचड़ को तो यूँही दो-कौड़ी की अनावश्यक चीज़ मान लिया कि ये ज़बरदस्ती आकर के इसके ऊपर बैठ गयी थी। हट गयी, रत्न जगमगाने लग गया।
इस प्रकार की उपमा से प्रभावित होकर बहुत लोगों में छवि ये बैठ गयी है कि भीतर कोई रत्न बैठा हुआ है, वो रत्न ही आत्मा है और वही असली चीज़ है, उसी की चर्चा करनी है, वही समस्त अध्यात्म की विषय-वस्तु है, सब श्लोक उसी का प्रतिपादन करते हैं। और जो बाक़ी बाहर की हमारी परतें हैं, माने मन और शरीर, वो तो कीचड़ हैं, उनकी चर्चा क्या करनी!
भई! जब आपने रत्न का उदाहरण लिया तो उसमें आपने कीचड़ की कितनी बात करी? बस यही कहा कि कीचड़ तो वो चीज़ है जिसको जल्दी से झाड़ देना है, उसकी उपेक्षा कर देनी है, हट गया। उसके बाद आप रत्न हाथ में लेकर आनन्दित हो रहे हैं कि आहाहाहा! क्या जगमग-जगमग! तो वैसा ही जब आप एक आदर्श या नमूना अपने ऊपर लगा लेते हैं तो आप रत्न किसको बना देते हैं? भीतर की किसी आत्मा को। और कीचड़ की परतें क्या हो गयीं? मन और शरीर।
तो अब आप सारी बात किसकी करते हैं? आत्मा की, क्योंकि आत्मा रत्न है। मन और शरीर की आप बात ही नहीं करते, क्योंकि ये कोई बात करने की चीज़ है! फूँक मारकर उड़ाने वाली चीज़ है। गन्दी चीज़ें हैं, इनपर क्या ध्यान देना! क्या मन ख़राब करना इनकी चर्चा करके!
नहीं, उल्टा है। यहाँ तक ठीक है कि आत्मा के ऊपर मन और शरीर की परतें चढ़ी हुई हैं, लेकिन आत्म-साक्षात्कार का अर्थ आत्मा या हीरे का साक्षात्कार नहीं है भाई! आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है — मन और शरीर का साक्षात्कार। ये भेद स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है।
जब आप उदाहरण ले रहे थे हीरे का, तो उसमें आपको किसका साक्षात्कार करना है? हीरे का। वो बात उदाहरण तक ठीक है, क्योंकि हीरा अधिक-से-अधिक क्या है? पदार्थ ही तो है, उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। उदाहरण में आपने जिस वस्तु का इस्तेमाल करा है, वो एक पदार्थ है, भले ही बड़ा मूल्यवान पदार्थ हो। हीरा है, उसका साक्षात्कार किया जा सकता है, जैसे हर पदार्थ का। आत्मा थोड़े ही पदार्थ है, उसका साक्षात्कार कैसे कर लोगे?
साक्षात्कार फिर किसका करना होता है? साक्षात्कार करना होता है माया का, मन का। आत्म-साक्षात्कार का मतलब ये नहीं होता कि तुम अपने भीतर देखोगे और जगमग-जगमग आत्मा को पाओगे।
बहुत ध्यानी लोग इस तरह का अनुभव बताते हैं, ख़ुद को ही धोखा देते हैं। इस तरह का आडंबर और आत्म-प्रवंचना अध्यात्म में बहुत प्रचलित है, कि हम तो आत्म-साक्षात्कार करते हैं और भीतर से हमारे प्रकाश की किरणें उठती हैं। बल्कि कई तो आध्यात्मिक धाराएँ हैं, संगठन हैं जो बाक़ायदा चित्र ऐसे बनाते हैं कि एक व्यक्ति है जो किसी योग-मुद्रा में बैठा हुआ है और उसके भीतर से प्रकाश की किरणें विकीर्ण हो रही हैं। और तत्काल आपको लगता है कि ज़रूर हीरे-जैसी कोई आत्मा यहाँ हृदय के आसपास कहीं स्थित है, और देखो उससे चारों तरफ़ प्रकाश विकीर्ण हो रहा है। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।
देखा है कि नहीं देखा है, वो ध्यानी बैठा हुआ है ऐसे आसन मारकर और आँखें बन्द करके और भीतर से प्रकाश उठ रहा है? और जहाँ वो चित्र देखा नहीं, कि बहुत सारे ध्यानियों को प्रकाश उठने ही लग जाता है, वो कहते हैं, 'हमें भी हुआ, एकदम सतरंगी था।'
नहीं, ख़ुद को देखने पर कभी आपको कोई हीरा, कोई रत्न दिखायी देने से रहा। जिनको ख़ुद को देखने पर हीरे और रत्न दिखायी देते हैं, उनकी तो साधना की अभी शुरुआत ही नहीं हुई, वो तो अभी बच्चों के खेल खेल रहे हैं।
ख़ुद को देखने का मतलब है — अपने विकृत और कुत्सित रूप को देखना, अपनी वृत्तियों को देखना, अपने आन्तरिक छल-कपट को देखना। और क्या है देखने के लिए? ख़ुद को देखने का कौनसा आप दिव्य अर्थ निकालकर बैठे हुए हैं? और बड़े रूमानी तरीक़े से बात की जाती है, जब भी ख़ुद को देखने का कोई प्रसंग आता है तो ऐसे ही बात की जाती है कि मैं जा रहा था, ऐसा हुआ, वैसा हुआ, और फिर मैंने ख़ुद से ख़ुद को देखा। जैसे न जाने किसको देख लिया हो, कौनसी बड़ी सुन्दर चीज़ देखने को मिल गयी!
तुम हो क्या ख़ुद? ख़ुद माने मल-मूत्र तो हो, और क्या हो? टट्टी देखकर शायरी आ जाती है तुम्हें? तो फिर इसमें इतना ज़्यादा कवि-भाव कैसे उठ आया, कि मैंने ख़ुद को देखा और आहाहाहाहा! क्या बात थी! जो कोई ख़ुद को देखेगा वो भौंचक्का रह जाएगा, क्योंकि अपनी कारगुज़ारियों से, अपने भीतर के दानव से तो तुम ख़ुद भी पूरी तरह परिचित नहीं हो भाई! जो देखेगा ख़ुद को, वो हैरान रह जाएगा, उसको समझ में नहीं आएगा कि ये दिख क्या गया है, ये क्या बैठा है मेरे भीतर।
तुम्हें क्या लग रहा है तुम्हारे भीतर कोई अति-सुन्दर और प्रकाशित और दिव्य और शीतल और आनन्दप्रद सत्ता बैठी हुई है? हाँ, आप ऐसा मानना चाहेंगे, क्योंकि ऐसा मानना अहंकार को बहुत अच्छा लगता है। भीतर बैठा हुआ अहंकार है।
समझो पूरा गणित। भीतर कौन बैठा है? अहंकार। और आप जब कह रहे हो, 'जो मेरे भीतर बैठा है, आहाहाहा! मैंने आँख बन्द करी और आत्म-साक्षात्कार किया, और जो भीतर बैठा है वो कितना सुन्दर था! कितना पवित्र और क्या पावन था!' तो वास्तव में आप सुन्दर और पावन किसको बोल रहे हो? अहंकार को बोल रहे हो, क्योंकि भीतर तो वही बैठा है। अहंकार खुश हो रहा है, कह रहा है, 'बिलकुल! आत्म-साक्षात्कार बहुत अच्छी बात होती है, और करो, सबको कराओ।'
जो सही में ख़ुद को देखते हैं, उन्हें वितृष्णा हो जाती है, घृणा उठती है। इसीलिए तो सचमुच ख़ुद को देखने वालों की तादाद इतनी न्यून है।
कौन देखे अपनेआप को, अपने झूठे चेहरों और नक़ाब के बिना? बाहर-बाहर आपको आदमी की जितनी विकृतियाँ और कुरूपताएँ दिखायी देती हैं वो तो फिर भी नैतिक मापदंडों के कारण बहुत दबी हुई और छुपी हुई अभिव्यक्तियाँ हैं। भीतर जो बैठा है वो बाहर तो पूरी तरह अभिव्यक्त होने भी नहीं पाता, क्योंकि बाहर सामाजिक वर्जनाएँ हैं, नैतिक क़ायदे हैं। आपको पूरी छूट मिल जाए, बाहर किसी क़िस्म के दंड का या वर्जना का भय न रहे, फिर देखिए अपना पाशविक रूप, फिर देखिए कि भीतर किस-किस तरह के जानवर बैठे हुए हैं, क्या-क्या निकलेगा भीतर से!
वो सबकुछ जो गड़ा बैठा है भीतर, और बाहर निकलने की राह खोज रहा है, उसको देख लेना बिना बेहोश हुए, बिना वमन किये, बिना भय के मारे क़दम पलटे, ये कहलाता है आत्म-साक्षात्कार।
जब तुम्हें दिखायी दे कि कितने घटिया आदमी हो तुम, तब समझना कि आज कोई आध्यात्मिक घटना घटी है तुम्हारे साथ।
और तुमको पता चले कि आहाहा! मैं तो प्रेम का पंखी हूँ, इश्क़ का जुगनू हूँ, और इस तरह की तुम्हारी धारणा बने अपने बारे में, तो समझ लेना अभी तुम्हारी टुन्न वाली शायरी ही चल रही है, अभी सत्य से बहुत दूर हो तुम, तुम शायरी कर लो पहले। बात समझ में आ रही है?
आत्म-साक्षात्कार का — ये बात मैं दर्जनों बार पहले बोल चुका हूँ, आज फिर ज़ोर देकर बोल रहा हूँ क्योंकि कितना भी मैंने बोला होगा, समझ में तो किसी को आ नहीं रही — आत्म-साक्षात्कार का ये अर्थ बिलकुल नहीं है कि आप खड़े हो गये, आप कौन हैं? अहंकार, और आपके सामने खड़ी हो गयी हीरे जैसी जगमग-जगमग आत्मा और आप उसको देख रहे हैं और कह रहे हैं, 'वो मैं हूँ।' अगर वो आप हैं तो इधर जो खड़ा होकर देख रहा है वो कौन है? यह कितनी विचित्र बात है!
पर आत्म-साक्षात्कार का आपका जो मानसिक मॉडल (प्रतिरूप) है, वो कुछ ऐसा ही है कि मैंने ख़ुद को देखा। 'ये मैं हूँ और मैं ख़ुद को देख रहा हूँ। वहाँ मैं खड़ा हुआ हूँ और मैं बिलकुल ऐसे जगमगा रहा हूँ जैसे दिवाली में घर हो जाता है, चीनी झालर लटकी हुई है मेरे ऊपर से लेकर नीचे तक।' अगर वो तुम हो, तो जो देख रहा है वो कौन है? आत्मा का साक्षात्कार अगर तुम कर रहे हो, तो साक्षात्कार करने वाला कौन है? ये सब सवाल हम नहीं पूछते, क्योंकि बड़ी असुविधा रहती है।
'सवाल ऐसे पूछने ही नहीं चाहिए, ये आचार्य जी फँसाते रहते हैं, गड़बड़ सवाल पूछ देते हैं। सारा मामला सुलट गया होता है, ये आकर के बाल की खाल निकाल देते हैं। तभी तो हम इनको पसन्द नहीं करते। हमें जब बिलकुल पक्का भरोसा बैठ जाता है कि हम ही हैं वो झिलमिल-झिलमिल आत्मा जो मधुर गीत गा रही है, "झिलमिल सितारों का आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा", तभी ये बीच में आकर खड़े हो जाते हैं, सब बादल-वादल छँटा देते हैं और कोई कड़वी बात बोलकर के मज़ा ही किरकिरा कर देते हैं।'
ध्यानियों को, योगियों को और ख़ासतौर पर ऐसे लोगों को जिनका आत्म-साक्षात्कार हो चुका है, उनको तो मुझसे ज़बरदस्त दिक्क़त है। वो कहते हैं, 'ये नमूना! इसका ख़ुद तो हुआ नहीं है, ये ख़ुद ही बोलता है। जब इसका ख़ुद हुआ नहीं है तो कम-से-कम जो हमारा हो चुका है, उस पर तो ये कीचड़ न उछाले।' मैं क्या करूँ, मेरा तो काम ही यही है!
तो आत्म-साक्षात्कार में कभी आपको कुछ बहुत अच्छा सा देखने को मिल जाए, कि आपने आँख बन्द करी और आपने देखा कि भीतर आप ही ब्रह्मा बनकर बैठे हुए हैं, तो समझ लीजिएगा कि ये बचपन की किसी फैंसी-ड्रेस कंपटीशन का कोई दृश्य अभी बसा हुआ है आपके दिमाग में। वो भी घटिया तरीक़े की फैंसी-ड्रेस , ब्रह्मा बने हैं। यहाँ लगाये हैं एक मुँह, दो मुँह, तीन मुँह और एकाध गिरने को तैयार है, मंच पर ही गिर गया।
बात बहुत महीन है। जिस चीज़ को ग़ौर से देख लिया, हटकर देख लिया, एक हाथ की दूरी बनाकर देख लिया, उससे मुक्ति तत्काल हो गयी। इसका मतलब ये नहीं है कि दोबारा बन्धन नहीं आ सकता, दोबारा बन्धन आ सकता है, पर उस वक़्त की मुक्ति पूर्ण है। बात समझ में आ रही है?
उससे ज़्यादा मुक्त कोई नहीं जिसे साफ़-साफ़ दिख रहा है, तत्क्षण दिख रहा है, बन्धन के पल में दिख रहा है कि वो कितना ज़्यादा बेड़ियों की गिरफ़्त में है; बाद में नहीं, अभी। कुछ करते ही, कुछ सोचते ही, बल्कि कुछ करने से भी आधा क्षण पहले, कुछ सोचने से भी आधा क्षण पहले, कि विचार आने ही वाला है, उससे पहले ही तुम्हें दिख जाए कि विचार कहाँ से आ रहा है। कि कर्म तुम करने ही वाले हो, उससे ठीक ज़रा सा पहले तुम्हें दिख जाए कि तुम कहाँ से करने वाले हो, कौन करवा रहा है तुमसे, कर्ता कौन है, कर्ता का स्वामी कौन है। मुक्त हो गये तुम, यही तो मुक्ति है।
तुम कर जाते, तुम करने से बच गये। तुम बोल जाते, तुम सोच जाते, तुम बदल जाते। तुम वही हो जाते जो तुम्हारे भीतर बैठा अहंकार तुम्हें कर देना चाहता था, तुम बच गये क्योंकि तुमने देख लिया। जैसे पटरी पर खड़े हो तुम और ट्रेन चढ़ी आ रही है, चढ़ी आ रही है, और चढ़ जाए तुम पर उससे आधा पल पहले तुमने देख लिया। बच गये न? जिसने देख लिया वो बच गया, जिसने नहीं देखा वो पच गया। बचते हो या पचते हो, ये इसी पर निर्भर करता है कि आधा क्षण पहले भी ट्रेन को देख लिया कि नहीं देख लिया। पटरी से हटना कोई समय थोड़े ही लेता है, या लेता है? एक झटके में फाँद जाओगे, बस दिखनी चाहिए कि आ रही है।
बात समझ में आ रही है?
इसी तरीक़े से श्रवण होता है। जब तुम कहते हो, 'आत्म-साक्षात्कार किया या आत्म-दर्शन किया', तो उसका मतलब ये नहीं है कि आत्मा को देख लिया। उसका मतलब ये है कि ट्रेन को देख लिया। ट्रेन क्या है? माया। इसी तरीक़े से श्रवण होता है। दर्शन माने ट्रेन को देख लिया। श्रवण माने भी ये नहीं कि भीतर से आत्मा की आवाज़ उठ रही थी, वो सुन ली। श्रवण माने ट्रेन की सीटी सुन ली। ट्रेन को देख लो तो भी फाँद जाओगे, और आधा क्षण पहले ही कान में इंजन की सीटी पड़ गयी तो भी बच जाओगे।
तो दर्शन और श्रवण दोनों का मतलब समझ लो। ईश्वर का दर्शन कुछ नहीं होता, 'माया' है जो दिखायी देती है और जिसको देख लेनी चाहिए। इसी तरीक़े से कोई आसमानों की आवाज़ नहीं है, कोई आकाशवाणी नहीं होने वाली जो तुम्हें सुनायी पड़ेगी। तुम्हें तो बस ये सुनायी पड़ जाना चाहिए कि गुरु चेता रहा है। इंजन की सीटी किसलिए होती है? चेताने के लिए। तो श्रवण इसी बात का करना होता है। गुरु की आवाज़ इंजन की सीटी जैसी है, कि बेटा! अभी तुम कचरे जाने वाले हो। ऐसा थोड़े ही है कि और कोई बहुत दिव्य बात है। ये उपनिषद् पूरा क्या है? ये सीटी ही तो है, सीटी है। माया का बस चले तो इंजन-ही-इंजन हो उसमें, सीटी न हो।
गुरु कौन है? जो माया के माथे पर बैठ गया है सीटी बनकर, कि तू जा रही है उसको कचरने, जब तक तू उस तक पहुँचेगी, उससे पहले ही मैं बज जाऊँगा, कि उस तक आवाज़ पहुँच जाए। क्यों? क्योंकि ध्वनि की गति इंजन की गति से ज़्यादा है। तो माया पहुँचेगी, उससे पहले गुरु पहुँच जाएगा आवाज़ मारकर। माया को तो पूरा इंजन लेकर जाना पड़ेगा, गुरु इंजन पर ही चढ़कर बैठ गया है, माया पर ही। और वो वहीं से आवाज़ मार देता है, 'आ रही है! आ रही है!' अब तुम न सुनो तो तुम्हारी मर्ज़ी। ये श्रवण है।
श्रवण में, इस चक्कर में मत रहना कि गुरुदेव तुमको बहुत मीठी-मीठी और ऊपरी बातें बताएँगे, कि आहाहाहा! आकाश-लोक है और वहाँ तुम्हें पहुँचना है और वहीं पर तुम्हारी असली आत्मा है। तुममें और आकाश-लोक में जो सम्पर्क सूत्र है वो तुम्हारी मुंडी से निकलता है। और ऐसे यहाँ (अपने सिर की ओर इशारा करते हुए) हाथ फेरो तो तुम्हें गड्ढा सा दिखायी देगा, बिलकुल कमल की नाल है। गुरुदेव ये सब बता रहे हों तो जान लेना कि अभी तो इनके मुँह से माया ही बोल रही है। बात समझ में आ रही है?
आत्मा का इस लोक में, समय में और स्थान में अस्तित्व नहीं होता। हम माने पड़े हैं कि होता है। यही समझाने के लिए तो बुद्ध को बार-बार बोलना पड़ा था, 'अनस्तित्व! अनस्तित्व! अनात्मा! अनात्मा! अनत्ता! अनत्ता!' हम जिन चीज़ों को बोलते हैं कि ‘हैं', उन चीज़ों के अर्थ में आत्मा नहीं है, बाबा! ये कलम है (कलम उठाते हुए)। ये कलम है क्योंकि इसका आकार है, इसका वज़न है, स्थान में इसका अस्तित्व है, इस समय में इसकी मौज़ूदगी है। जिस अर्थ में ये कलम अस्तित्ववान है, उस अर्थ में आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है।
तो अस्तित्व फिर किसका है, बाबा? माया का। माने जब भी तुम देखोगे तो किसको देखोगे? माया को, क्योंकि वही तो अस्तित्वमान है। आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता। आप कहेंगे, 'ये क्या बात है? हमें तो बताया गया है कि आत्मा-मात्र का अस्तित्व है, सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्मा का अस्तित्व है। अन्दर भी आत्मा है, बाहर भी आत्मा है।' वो बातें हटाओ न! उनको समझना हो तो अलग से आना, कि अन्दर भी आत्मा है और बाहर भी आत्मा है, इसका मतलब क्या है।
आत्मा का जब भी उल्लेख हुआ है, वर्णन हुआ है, अधिकांशतः नकार की भाषा में हुआ है। लेकिन तुम नकार की भाषा की जगह विधायक, सकार की भाषा का उपयोग करना चाहते हो। तुम नकारने में यक़ीन नहीं रखते, क्योंकि डर लगता है कुछ छूट जाएगा, कुछ कट जाएगा। तो तुम सकारात्मक भाषा का इस्तेमाल करना चाहते हो। तो तुम कहना चाहते हो, 'वहाँ भी आत्मा, यहाँ भी आत्मा, इसकी आत्मा, उसकी आत्मा, इधर-उधर, दायें-बायें, ऊपर-नीचे, सर्वत्र आत्मा-ही-आत्मा।'
ये सब बाद में कहना, इससे पहले ये कहो कि समय और स्थान ये दोनों आत्मा से उद्भूत हैं। ये आत्मा में हैं, आत्मा इनमें नहीं है। कुछ याद आया, श्रीमद्भगवद्गीता? हे अर्जुन! "ये सब दिशाएँ, ये सब भूत, प्रकृति के ये सारे गुण, ये मुझसे हैं और ये मुझमें हैं। लेकिन अर्जुन, मैं इनमें किसी में भी नहीं हूँ।"
बात समझ में आ रही है?
आत्मा से है सब विस्तार और सारा समय, आत्मा से है। वो आत्मा से है और वो आत्मा में है, पर आत्मा उसमें नहीं है। ये खम्भा आत्मा में है पर इस खम्भे के अन्दर आत्मा नहीं है। और ये बहुत सूक्ष्म अन्तर है, जिसको ये नहीं समझ में आया, उसकी यात्रा आगे बढ़ेगी ही नहीं। समझ में आ रही है बात? तो जिस अर्थ में ये कलम हमें अस्तित्वमान लगती है, आत्मा अस्तित्वमान नहीं है। समझे?
बुद्ध जैसा ही कोई तत्वदर्शी होता है जो इस राज़ को समझता है। मेरी दृष्टि में बुद्ध से बड़ा वेदान्ती ढूँढना मुश्किल है। हम कहते यही हैं कि बुद्ध ने तो बहुत मायनों में वेदों का खंडन किया। बात उल्टी है, बुद्ध वेदों को जितना समझे, उतना समझने वाला दूसरा नहीं था। और बिलकुल सही बात कह रहे थे वो, वेदान्त-सम्मत बात कह रहे थे वो।
लोगों ने आत्मा को नदी-पहाड़ बना रखा था, लोगों ने आत्मा को भी इधर-उधर की चीज़ बना रखा था, कि वो भी तो कोई चीज़ ही है, या मन का कोई विषय ही है आत्मा। बुद्ध को फिर कहना पड़ा, 'न बाबा! जो तुम सोच रहे हो, वो वो नहीं है।' तो उनकी पूरी भाषा ही फिर नकार की रही, काटने की रही। वो बोलते थे, 'मुझे सत्य से मतलब नहीं, मुझे तो असत्य हटाना है। चिकित्सक हूँ मैं। स्वास्थ्य क्या होता है, स्वास्थ्य जाने, मेरा काम तो बीमारी हटाना है।' बीमारी माने यही सब जो हमारी उल्टी-पुल्टी धारणाएँ हैं। समझ में आ रही है बात?
तो अब समझो कि शोक-आदि दूर करने का क्या मतलब हुआ। तुम देखोगे जब, तो जिसको देख लिया उससे मुक्त हो गये। कैसे मुक्त हो गये देखते ही? क्योंकि अगर माया देख रही होती तो माया को पहचान नहीं पाती। देखने का मतलब ही है न, कि देखा, ठीक से देखा। देखने का ये मतलब थोड़े ही है कि खम्भे को देखा और लगा कि पेड़ है। तो अगर सच देखा, तो देखने वाला कौन है फिर? जिस क्षण में तुम देख गये, उस क्षण में तुम कौन हो? जिस क्षण में तुम सच देख गये, कि माया का सच क्या है, माया को चीर गये तुम, ठीक उस क्षण में तुम कौन हो? तुम सच ही हो गये। ये है देखने की कीमिया।
वास्तविक दर्शन छोटी बात नहीं होता है, इसीलिए बार-बार कहा गया है, 'देखो! देखो!' सीइंग! (देखना)। समझ रहे हो बात को? झूठ, झूठ को नहीं पकड़ सकता, ये सूत्र समझ लेना। अन्धेरा, अन्धेरे को नहीं पकड़ सकता। किसी चीज़ को पकड़ने के लिए कुछ ऐसा चाहिए जो उससे बिलकुल अलग हो। बात आ रही है समझ में?
'अरे! अरे! पानी बह रहा है, चलो पानी को पकड़ते हैं।'
'किसका उपयोग करके?'
'पानी का।'
'पकड़ लोगे?'
इसको ‘दृग-दृश्य विवेक' भी कहते हैं। ‘दृग-दृश्य विवेक'! तो वास्तव में जब तुमने देखा, तो देखी जा रही वस्तु से तुम पूर्णतया भिन्न हो गये। दृश्य अलग है और दृग अलग है, दृग माने आँख। जिसने बिलकुल साफ़-साफ़ देख लिया या सुन लिया, उसने देखी जा रही वस्तु या सुने जा रहे विषय से एक भिन्नता, आयामगत भिन्नता स्थापित कर ली। तो जिसने अपने भीतर के कचरे को देख लिया, वो कचरे से भिन्न हो गया।
जिसने अपने भीतर के शोक को देख लिया — और हमारे भीतर शोक-ही-शोक है, तभी तो हमें इतना सुख चाहिए। कभी सोचा नहीं तुमने, हर आदमी क्या माँग रहा है, दुख कि सुख? सुख माँग रहा है। सुख कब माँगेगा आदमी? जब दुख में होगा। तो हमारे भीतर बहुत शोक है। इसीलिए तो जो मुक्त हो जाता है उसकी सुख की चाह बहुत कम हो जाती है, शून्य हो जाती है। और ये मुक्ति का लक्षण होता है कि आदमी जैसे-जैसे मुक्त होने लगता है वैसे-वैसे वो सुख माँगना या उत्तेजना माँगना, प्रसन्नता माँगना कम कर देता है।
दुख तुम्हारा जितना बढ़ेगा, सुख की तुम्हारी तड़प उतनी बढ़ेगी, तुम उतना ज़्यादा लालायित होकर भागोगे मनोरंजन की ओर।
प्रक्रिया सीधी नहीं है। देखा है तुमने माया को और एक हो गये तुम आत्मा के साथ। उल्टा हिसाब मत बैठाना, कि आत्मा के साथ एक होने के लिए आत्मा को देखना पड़ेगा। नहीं, आत्मा को नहीं देखना पड़ेगा, आत्मा देखी जा ही नहीं सकती। आत्मा के माध्यम से तुम देखोगे माया को। आत्मा आँखों के सामने नहीं है कि तुम उसे देख लोगे, आत्मा आँखों के पीछे होती है। केनोपनिषद् याद है न, "कहाँ से आ रही हैं आँखें बाहर को जाने के लिए? कहाँ से आ रही है वाणी जगत में फैलने के लिए?" आत्मा बैठी है पीछे, वहाँ से आ रही है।
तो जब आत्मा आँखों के पीछे होती है, तब आँखों के सामने की माया को तुम पकड़ लेते हो। और अगर आत्मा आँखों के पीछे है, माया को तुमने पकड़ लिया, तो तुम आत्मा से एक हो गये हो। इस वक़्त तुम किसके कहने पर चल रहे हो? आत्मा के। वो तुमको पीछे से अनुशासित कर रही है, प्रकाशित कर रही है, इसी कारण सामने की माया को तुम साफ़-साफ़ कह पा रहे हो कि ये माया ही है।
और अगर आत्मा आँखों के पीछे नहीं होती तो मालूम है तुम्हें कहाँ दिखायी देती? आँखों के आगे। और आत्मा अगर आँखों के आगे दिखायी दे, मतलब समझ लेना कि आँखों के पीछे कौन है? माया। और बहुत लोग हैं जिन्हें आँखों के आगे आत्मा दिखायी देती है, वो कहते हैं, 'सत्य का अभी मैं दर्शन करके आ रहा हूँ।' ये जितने सत्य के दर्शन करने वाले हैं, समझ लेना कि दृष्टा कौन है इनका। कौन है जिसने इन्हें सत्य का दर्शन करा दिया? माया ने।
और जब भीतर माया होती है न, तो बाहर आनन्दस्वरूपा आत्मा को देखना तुम्हारे लिए ज़रूरी भी हो जाता है, पूछो क्यों, क्योंकि भीतर तो है माया, तो माने भीतर क्या है? शोक, कष्ट। तो आनन्द तुम्हें दिखायी ही कहाँ पड़ेगा? बाहर। भीतर तो है नहीं। तो फिर तुम कहोगे, 'आहाहाहा! वो रही आत्मा, कितनी सुन्दर है! सच्चिदानन्द है बिलकुल।' मजबूरी है भाई! दूर ही दिखायी देगी, बाहर कहीं। आ रही है बात समझ में?
आत्म-साक्षात्कारी वो नहीं है जिसे सत्य दिखता है; आत्म-साक्षात्कारी को सर्वत्र पसरा हुआ झूठ-ही-झूठ दिखता है।
लेकिन घबराइए नहीं, झूठ देखकर के उसमें वो प्रतिक्रिया नहीं उठती जो आमतौर पर हममें और आपमें उठती है। हम और आप झूठ देखते हैं तो हमारी प्रतिक्रिया क्या होती है? हम घिना जाते हैं, हम कहते हैं, 'झूठ! झूठ! गन्दा! गन्दा! कचरा! बदबू देता है।' आत्म-साक्षात्कारी जब झूठ को भी देखता है तो मुस्कुरा देता है, वो कहता है कि लीला तो ये उसी की है जो आँखों के पीछे बैठा है। कहता है, 'वाह रे तुम्हारी करतूत!'
तो उसको झूठ से घिनाना नहीं पड़ता, क्योंकि वो आन्तरिक रूप से स्वच्छ है। उसको पता है कि बाहर का जो कचरा है, जो गन्दगी है, उसका कुछ अब बिगाड़ नहीं सकते, क्योंकि उसने देख लिया। देख लिया हूँ तो मुक्त हो गया हूँ, अब ये मेरा कुछ बिगाड़ थोड़े ही सकता है। हाँ, जिसका अभी ये कुछ बिगाड़ सकता है, मैं उसकी रक्षा कर दूँगा। मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता। इसका आशय समझते हो? इसका आशय ये है कि आत्म-साक्षात्कारी, माने वो जिसने माया का दर्शन कर लिया, अब वो कचरे में कूदने से घबराएगा नहीं, बल्कि वो अधिकांशतः कचरे में ही पाया जाएगा, क्यों? क्योंकि उसे कचरे से अब डर नहीं लगता। समझ में आ रही है बात?
वो अकेला है जो अब अधिकारी हो गया है कचरे में प्रवेश करने का। वो अकेला है जिसको अब मलिन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वो भीतर से निर्मल हो गया है। तो अब वो निडर होकर के हर तरह की गन्दगी में प्रवेश कर जाता है। बाहर-बाहर से उसमें गन्दगियाँ लग भी जाती हैं, दाग-धब्बे लग भी जाते हैं। जो मूर्ख लोग हैं, वो ये भी कहेंगे, 'देखो, गन्दा तो हो गया।' बाहर से गन्दा हो गया है, भीतर उसके जो है उसको तुम छू नहीं सकते। वो निर्दोष है बिलकुल, कोई उसके भीतर विकार प्रवेश नहीं कर सकता। समझ में आ रही है बात?
वो एक हो गया है, उसी बात को यहाँ पर ‘अद्वितीय' कहा गया है। अगली बात कही गयी है, 'कृतकृत्य हो जाता है।' कृतकृत्य माने वो जिसके पास अब कुछ करने के लिए शेष नहीं बचा, उसको कहते हैं 'कृतकृत्य'। जो करना था सब कर लिया, माने जो अपने लिए करना था, कर लिया। 'मेरे पास अब व्यक्तिगत तौर पर करने के लिए कोई प्रयोजन शेष नहीं है, मैं कृतकृत्य हुआ। मेरे व्यक्तिगत कर्मों का बही-खाता अब बन्द हो चुका है।'
तो माने क्या? वो कुछ करेगा नहीं? अभी तो हम कह रहे थे कि वो कचरे में लोटता है, अभी कह रहे हैं कृतकृत्य हो गया है। ये दोनों बातें एक कैसे हुईं? अब उसके पास यही काम बचा है कि वो कचरे में लोटेगा; अपनी ख़ातिर नहीं, दूसरों के लिए। ये तो अजीब बात है! जो अपनी ख़ातिर काम करते हैं वो ख़ुद को बचाये-बचाये घूमते हैं और जिनको अब अपने लिए कुछ करना नहीं, वो कचरे में लोटते नज़र आते हैं।
आप कहेंगे, अजीब बात है! तुझे अब अपने लिए कुछ करना नहीं, तो तू इतनी तकलीफ़ क्यों उठा रहा है? गन्दा हो रहा है, यहाँ कचरे में लोट रहा है। तकलीफ़ होगी, बीमारी होगी, घाव लगेंगे, गाली और खाएगा, लोग कहेंगे, 'ये आ गया गन्दा आदमी।' वो कहेगा, 'अब हम और करें क्या? हम तो हो गये हैं कृतकृत्य। अपने लिए तो अब हमें नहाना भी नहीं है, नहाएँगे भी तो अब दूसरों की ख़ातिर, कि भाई दूसरों को कहीं हमसे इतनी दुर्गंध न आये कि वो हमारी बात ही सुनने को तैयार न हों। तो दूसरों के सामने जब पड़ेंगे तो नहा लेंगे और कुछ वेशभूषा ऐसी कर लेंगे कि दूसरे भाग न जाएँ घिनाकर। अपने लिए क्या करना है, हमारा तो खेल ख़त्म हो गया। हम निवृत्त हो गये हैं। कहीं को भी चल सकते हैं, कहीं को भी जा सकते हैं। कुछ लेना-देना बचा नहीं है, सबका हिसाब चुकता कर दिया, सारे कर्मफल निपटा दिये हैं।'
बात समझ में आ रही है?
इससे ज़्यादा मौज़ की हालत हो नहीं सकती जीने की, कि कृतकृत्य हो जाओ और कृतकृत्य होकर के सब तरह के कृत्यों में डूब पड़ो। कृतकृत्य माने मुझे जो करना था वो मैंने कर लिया। तो इसका मतलब क्या है, अब कोई कृत्य नहीं करूँगा? न, कर्ता अब बचा नहीं, अब तो कृत्य-ही-कृत्य है। जब तक कर्ता था तब तक कृत्य करता था, कर्ता को निपटाने के लिए।
अब कर्ता निपट गया तो अब क्यों कृत्य करता हूँ? वैसे ही, जैसे इधर से उधर कोई जानवर डोले। खरगोश आप छोड़ दें यहाँ हॉल में, वो इधर-उधर भाग रहा है, कोई उसके पास ख़ास कारण नहीं है। खरगोश के पास तो फिर भी हो सकता है कोई कारण हो, कृतकृत्य के पास बिलकुल ही कोई कारण नहीं होता है व्यक्तिगत। जैसे कोई बच्चा हो, वो कुछ नहीं कर रहा, नाच रहा है।
अभी ये केवल महाराज (एक श्रोता को इंगित करते हुए) के साथ हफ़्ते भर पहले उधर पीछे वाले पार्क (उद्यान) में गये थे, तो वहाँ वो छोटी-छोटी लड़कियाँ नाच रही थीं, कोई वजह नहीं, कुछ नहीं, ऐसे ही अपना नाच रहे हैं। उनके पास तो मैं कह रहा हूँ, फिर भी हो सकता है कि कोई वजह हो छोटी-मोटी, कृतकृत्य आदमी तो नाचता है बिलकुल बेवजह। इसीलिए बड़ा ख़तरनाक होता है वो।
अगर उसके पास वजह होती, तो वजह का ही इस्तेमाल करके तुम उसको रोक लेते। जिसके पास कुछ भी करने के लिए कोई वजह है, तुम उसकी कलाई मरोड़ सकते हो। वजह माने जानते हो न, क्या होता है? लालच। वजह माने उद्देश्य, कामना। तुम उसकी कामना पकड़ लोगे, कहोगे, 'देख! गड़बड़ करेगा तो तेरी कामना मसल दूँगा।' और वो हाय-हाय कर रहा है, तुमने उसकी कामना भींच रखी है ऐसे (हाथ से भींचने का इशारा करते हैं)।
कृतकृत्य आदमी के पास कुछ है ही नहीं जिसे तुम भींच सको, वो हवा हो गया है।
मौज आ रही है?
श्रोतागण: जी।
आचार्य: ट्रेन भी आ रही है। ख़बरदार रहना! बहुत मौज में मत आ जाना।