आत्म-ज्ञान क्या है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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आत्म-ज्ञान क्या है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्नकर्ता: आत्मज्ञान क्या है?

आचार्य प्रशांत: विचार और कर्म। जिसको हम सेल्फ़ (आत्म) कहते हैं वो विचार और कर्म के अलावा कुछ और नहीं जानता। वो विचार और कर्म ही है। तो सेल्फ़ अवेयरनेस (आत्म जागरूकता) का क्या अर्थ हुआ?

अगर तुम्हें नहीं बोलना तो मैं भी नहीं बोलूँगा। (उत्तर की प्रतीक्षा करते हैं। श्रोताओं से पूछते हैं व उन्हें उत्तर देने के लिए प्रेरित करते हैं) अगर सेल्फ़ का अर्थ है विचार और कर्म, तो सेल्फ़ अवेयरनेस का क्या अर्थ हुआ?

श्रोतागण: देखना।

आचार्य: देखो कि तुम क्या सोचती रहती हो दिनभर और देखो कि तुम क्या करती रहती हो दिनभर और करने में कहना शामिल है। “मनसा, वाचा, कर्मणा” तीन होते हैं — मैंने दो कर दिये — करने में कहना शामिल है। तो देखो कि मन में क्या उठ रहा है और देखो कि शरीर दिनभर क्या रहा है — यही है सेल्फ़ अवेयरनेस। इसके अलावा सेल्फ़ अवेयरनेस कुछ नहीं है। उसको कोई हौव्वा मत बना लेना।

सेल्फ़ अवेयरनेस बड़ी साधारण सी चीज़ है कि मैं दिनभर क्या सोचता रहता हूँ और मैं दिनभर, चौबीस घंटे क्या करता रहता हूँ — कोई मेरे सामने से गुज़र जाता है तो क्या विचार आता है। एक्ज़ाम (परीक्षा) का नोटिस लग जाता है, मेरे क्या विचार आता है। प्लेसमेन्ट (रोज़गार स्थानन) की बात उठ जाती है, मुझे क्या विचार आता है। घर में कोई ऐसे ही चर्चा चल रही है, मेरे क्या विचार आता है। टी.वी. पर कोई कार्यक्रम आ रहा है, मैं उसको किस दृष्टि के साथ देखता हूँ। मैं किसी को अगर ज़ोर से बोल दे रहा हूँ, तो क्यों बोल दे रहा हूँ। मैं अगर क्लास में घुसती हूँ और आकर के एक ख़ास सीट पर कहीं पीछे-वीछे बैठ जाती हूँ, तो मैं क्यों ऐसा करती हूँ।

और हमारी आदत होती है, हम में से कई लोगों की आदत होती है कि वो क्लासरूम में आते हैं तो सबसे पहले कहाँ बैठते हैं?

श्रोतागण: पीछे।

आचार्य: यही सेल्फ़ अवेयरनेस है कि यार मैं पीछे वाली ही सीट क्यों पकड़ता हूँ।

समझ रहे हो बात को?

कोई ख़ास व्यक्ति सामने आता है हम नाराज़ हो जाते हैं, कोई दूसरा व्यक्ति सामने होता है बहुत तेज़ी से भागते हैं, कोई तीसरा सामने आता है हम दुम दबाकर भाग लेते हैं — आत्मज्ञान यही है। आत्मज्ञान का अर्थ है मन का ज्ञान। मेरा मन क्या कर रहा है, क्या कह रहा है। ‘शाम को पाँच बजते ही मेरी क्या हालत होती है, कॉलेज में हैं और पाँच का घंटा बज गया, अब मेरी क्या हालत होती है।’ यही मोमेंट है, यही क्षण है आत्मज्ञान का, जग जाओ बिलकुल — अरे! घंटा बजता नहीं है, मैं भी बजना शुरू हो जात हूँ।

‘कौनसी बातें हैं जो मुझे निराशा में ढकेल देती हैं, कौनसी बातें हैं जो मुझे उत्साह दे देती हैं, कौनसी बातें हैं जो क्रोध दे देती हैं, क्या कुछ ख़ास लोग हैं मैं जिनकी बहुत ज़्यादा परवाह कर रहा हूँ, अगर मैं एक ख़ास तरह की नौकरी करना चाहता हूँ तो क्यों, मैंने जीवन में क्या लक्ष्य बना रखे हैं’ — यही आत्मज्ञान है।

आत्म की, सेल्फ़ की जितनी गतिविधियाँ हैं उनको जानना ही आत्मज्ञान है। और आत्म की गतिविधियाँ हमने कहा दो हिस्सों में आ जाती हैं?

श्रोतागण: देखना और करना।

आचार्य: तो आत्मज्ञान कोई बहुत बड़ी कलाकारी नहीं है कि किसी गुरुजी के पास के जा रहे हो, ‘आत्मज्ञान चाहिए।‘ जो कर रहे हो वही देख लो — सड़क पर चल रहे हो, आत्मज्ञान; खाना खा रहे हो, आत्मज्ञान; पढ़ रहे हो, आत्मज्ञान; सो रहे हो, आत्मज्ञान। यही बस।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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