आठ अरब लोग, इनमें असली कौन? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी बॉम्बे के साथ (2020)

Acharya Prashant

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आठ अरब लोग, इनमें असली कौन? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी बॉम्बे के साथ (2020)

प्रश्नकर्ता: दुनिया की इस आठ-अरब की आबादी में आत्मस्थ आदमी की पहचान कैसे हो?

आचार्य प्रशांत: तो गौरव, आत्मस्थ आदमी की पहचान तुम्हें करनी क्यों है? आत्मस्थ आदमी की पहचान तुम करना चाहते हो, इसका मतलब आत्मस्थ आदमी कुछ खास होता होगा! तुम ये तो कहते नहीं, कि “आठ-अरब की आबादी में साधारण, सामान्य, औसत आदमी की पहचान कैसे हो?” ये कहते हो क्या? आत्मस्थ आदमी कुछ विशेष होता होगा न? तो आत्मस्थ आदमी तुम्हें पहचानना है। इतना मैं माने ले रहा हूँ कि तुम्हारा अभी ये दावा तो नहीं होगा कि तुम ही आत्मस्थ हो।

विशेष है आत्मस्थ आदमी, और आत्मस्थ आदमी को पहचानना एक विशेष काम होगा, तभी तुम मुझसे सवाल पूछ रहे हो, नहीं तुमने खुद ही कर लिया होता। विशेष कौन है? आत्मस्थ आदमी, तभी तो तुम उसे पहचानना चाहते हो? और आत्मस्थ आदमी को पहचानना कोई विशेष ही काम होगा, तभी तुम सवाल पूछ रहे हो। तो विशेष काम को विशेष आदमी करेगा या औसत आदमी करेगा? विशेष आदमी; लेकिन तुम हो औसत आदमी, मैं समझता हूँ इतना तो तुम भी मानते होगे। तो तुम कह रहे हो कि “वो जो खास आदमी है, आत्मस्थ, एक औसत आदमी भी उसे पहचान लेगा।” और उसको पहचानना कैसा काम है? विशेष काम है। तुम कह रहे हो, “वो विशेष काम, विशेष आदमी को पहचानने वाला, एक बहुत साधारण आदमी कर लेगा।“ भाई, अगर साधारण आदमी भी ये विशेष काम कर ले जाता है, तो फिर विशेष रूप से आत्मस्थ होने की ज़रूरत क्या है, तुम तो जैसे हो, तुम वैसे हो कर भी इतने हुनरमंद हो कि तुम विशेष काम कर ले जा रहे हो। ये बड़े-से-बड़ा विशेष काम है, आत्मस्थ आदमी को पहचानना, ये तो कोई विशेष आदमी ही कर सकता है न काम?

उल्टा अगर तुमने पूछा होता तो बात ज़्यादा तुक की होती। उल्टी बात क्या होती? कि “आत्मस्थ आदमी क्या साधारण आदमी को पहचान सकता है?” हाँ बिल्कुल सही बात है, क्योंकि वो विशेष है, उसके पास एक खास काबिलियत होगी, तो वो सब साधारण आदमियों को पहचान जाएगा, वहाँ वो दूध-का-दूध, पानी-का-पानी कर लेगा। लेकिन तुम देखो क्या कह रहे हो, तुम कह रहे हो, “वो जो बहुत खास है, मैं खास न होते हुए भी उसको कैसे पहचान सकता हूँ?” भाई, अगर तुम खास न होते हुए भी उसको पहचान गए, तो फिर किसी को खास होने की ज़रूरत ही क्या है, फिर तो तुम ही खासमखास हो, फिर तो तुम ही सबसे बड़े हो!

सवाल की दिशा देखो अपनी गौरव! तुम ये नहीं कह रहे हो कि “मैं आत्मस्थ कैसे हो जाऊँ?” तुम निशाना साध रहे हो, ये एक प्रकार की आक्रामकता है। तुम कह रहे हो, “वो जो आत्मस्थ आदमी है, मैं उसे पहचान कैसे लूँ?” थोड़ा कहानी को आगे भी बढ़ाओ - करोगे क्या पहचान कर के, ऑटोग्राफ़ लोगे? तुम्हें क्या पता आत्मस्थ होना क्या है? कोरी अपनी तुम जिज्ञासा, बल्कि कौतूहल के लिए आत्मस्थ आदमी की बात छेड़ रहे हो क्या? आठ-अरब की आबादी, तुम्हें कैसे पता इसमें कोई आत्मस्थ है भी कि नहीं है और कितने आत्मस्थ हैं? यूँ ही, तुक्केबाजी?

सवाल ये होना चाहिए कि “क्या है आत्मा, और मैं उससे क्यों दूर हूँ?” और मेरी जो ये दूरी है आत्मा से, जब मिट जाती है तो मैं कहलाता हूँ आत्मस्थ। अपने बारे में बात करने की जगह हम निशाना साध रहे हैं वो तथाकथित आत्मस्थ आदमी पर। वो निशाना नहीं साधा जा सकता! आत्मस्थ आदमी अति-विशेष होने के बाद भी निर्विशेष होता है, बाहर-बाहर से तुम्हें कुछ पता नहीं चलेगा। और जैसे अभी तुम हो, तुम बाहरी लक्षणों के अलावा कुछ पहचानते नहीं! तुम्हें तो अगर अपने दोस्त को, अपने परिवार जनों को, अपने माँ-बाप या अपनी पत्नी को भी पहचानना है तो बोलो कैसे पहचानते हो? कोई तरीका है तुम्हारे पास पहचानने का? मान लो तुम्हारे जिगरी दोस्त का कद बदल दिया जाए, चेहरा बदल दिया जाए, आवाज़ बदल दी जाए, शरीर बदल दिया जाए, तुम उसे पहचान लोगे? बोलो! अरे छोड़ो भाई, तुम्हें खुद को ही पहचानने में दिक्कत हो जाएगी; अगर किसी दिन सो कर के उठो और तुम्हारा मन बदल गया हो, स्मृति बदल गई हो, चेहरा बदल गया हो, शरीर बदल गया हो, तुम खुद को नहीं पहचान पाओगे।

तो तुम तो हर चीज़ को बाहर-बाहर से ही पहचानते हो न? तो आत्मस्थ आदमी को भी पहचानने के लिए तुम मुझसे कह रहे हो कि “कुछ बाहर के लक्षण बता दीजिए कैसा होता है। उसके छत्तीस दाँत होते हैं क्या? उसकी ज़बान बीच से फटी हुई होती है क्या? उसके खोपड़े में कोई तीसरी आँख होती है? उसकी मूँछ का बाल लाल होता है?” क्योंकि तुम इसके अलावा मुझे बताओ किस तरीके से पहचानोगे किसी को भी? जो तुम्हारा निकट-से-निकट हो, मैं कह रहा हूँ जिगरी-से-जिगरी, उसका भी अगर शरीर और आवाज़ बदल दी जाए, और मस्तिष्क में उसके जो स्मृति-कोष है वो बदल दिया जाए, तो तुम उसे भी नहीं पहचान सकते; पहचान सकते हो? हमने तो कहा, “खुद को भी नहीं पहचान सकते,” तो तुम आत्मस्थ आदमी को क्या पहचानोगे!

कोशिश करोगे बाहरी लक्षणों का कुछ मिलान करने की, कहोगे, “देखो, आत्मस्थ आदमी वो होता है जो या तो बाल बहुत लंबे कर के चलता है या बाल घुटा कर चलता है।“ अब ऐसे अगर करोगे तो आत्मस्थ या तो अनुपम (स्वयंसेवी) हैं या राघव (स्वयंसेवी) हैं। ल्यो, लक्षणों का तो हो गया मेल-मिलान। लंबे बाल वाला खोज रहे हो, साधु- टाइप कोई, तो वो उधर (एक तरफ़ इशारा करते हुए) हैं, और घुटे बाल वाला खोज रहे हो कोई, बौद्ध-भिक्षु जैसा, तो वो इधर (दूसरी तरफ़ इशारा करते हुए) हैं। आत्मस्थ दोनों में से कोई नहीं है, कतई नहीं है, मैं देता हूँ लिख कर। पर तुम तो आ जाओगे झाँसे में, कहोगे, “यही है, इन्हीं दोनों में से कोई है।“

आत्मस्थ आदमी को अगर तुम मानोगे (कि) “वो तो मनमौला होता है, ऐसे ही अपना इधर-उधर घूमता रहता है, अपनी मर्ज़ी पर चलता है, मनचला जैसा,” क्योंकि बताया गया है ऐसा। अगर अवधूतों की, अघोरों की बात करो, तो वहाँ तो ऐसा ही है, कि वो किसी नियम, कायदे, अनुशासन पर नहीं चलते। जहाँ मिला वहीं सो गए, जो मिला वही खा लिया। बहुत दिन तक कुछ खाने को नहीं मिला, कोई बात नहीं। और अगर कभी बहुत भूख लगी तो चोरी से भी कोई परहेज़ नहीं; कहीं से गए, कुछ उठा लाए, बोले, “सब उसी का है, चोरी क्या?” तो अगर ये छवि बनाओगे, तो ऐसे ही कोई फुटकर, दो-कौड़ी का कोई अपराधी घूम रहा होगा, जेबकतरा, वही तुमको लगेगा कि आत्मस्थ आदमी है, “ये भी जहाँ मिलता है वहीं घुस जाता है। कभी कुछ उठा लेता है, कभी कहीं सो जाता है।“ और दूसरी तरफ़, अगर तुम ये छवि बनाओगे कि आत्मस्थ आदमी अति-अनुशासित होता है, तो फिर जितने तुमको फौजी मिलेंगे, उन सबको तुम कहोगे कि “यही तो हैं सब मुक्त पुरुष! इनके अनुशासन की क्या बात है! फौजी सावधान! कड़क! एक-साथ, आवाज़ के साथ बूटों की कड़क आवाज़ आती है।“ फिर से गच्चा खा गए!

तो कैसे जानें आत्मस्थ आदमी को? सवाल ही व्यर्थ है। खुद आत्मस्थ हो जाओ, फिर सब-कुछ समझ में आएगा; पूरी दुनिया में क्या है, क्या चल रहा है, सब स्पष्ट हो जाएगा। जब तुम्हें सब स्पष्ट हो जाएगा, सब दिखाई देने लगेगा, उसी स्थिति को कहते हैं आत्मस्थ हो जाना। और जब तुम्हें सब दिखाई देने लगेगा, तो फिर ये भी दिखाई देने लगेगा कि कौन भ्रमित है और कौन नहीं। तो दूसरों के बारे में जानने से पहले अपनी आँखें साफ़ करने की कोशिश करो। अपनी ही आँखों में धूल पड़ी हो, बालू पड़ी हो, तो दूसरों पर ज़्यादा सवाल-जवाब करना लाभप्रद नहीं होता, या होता है? अपने ऊपर काम करो।

ये बहुत शुभ लक्षण है कि तुम्हारे मन में आत्मस्थ व्यक्ति का प्रश्न उठा है, बहुत शुभ लक्षण है, लेकिन ये प्रश्न अगर अपनी तरफ़ नहीं मुड़ा तो विफल हो जाएगा। ये प्रश्न शुभ तो है, पर सार्थक तभी हो पाएगा जब ये अंतर्मुखी हो जाए। ये प्रश्न तुमने दूसरों की तरफ़ उछाल दिया, कि “वो आत्मस्थ है कि नहीं, वो है कि नहीं, वो है कि नहीं,” तो फिर ये प्रश्न तुम्हें कुछ लाभ नहीं देगा। अपने-आप से पूछो! मन हो तुम, और मन को जिस बिंदु की ओर, जिस शांति की ओर जाना है, उसी का नाम होता है आत्मा। तुम जब शांत हो गए, तुमने जब सब तरह के विचलनों की मूर्खता देख ली, तुमने जब सारे बंधनों के लालच से पीछा छुड़ा लिया, तो तुम आत्मस्थ हो गए; उसके बाद दुनिया की सारी सच्चाई अपने-आप तुम्हारे सामने खुल जाती है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=Fc31b4U660c

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