आशा बचाती है अतीत के कचरे को || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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आशा बचाती है अतीत के कचरे को || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

आगि जो लागि समुद्र में, धुआँ न परगट होय

की जाने जो जरि मुआ, जाकी लाई होय ।।

~कबीर

वक्ता: बड़े-बड़े समुद्र हैं, जो हमसे बाहर लहराते हैं। और एक समुद्र हमारे भीतर भी लहराता है – मन का समुद्र। बाहर के समुद्रों में आग लगती हुई आपने शायद न देखी हो, लेकिन भीतर का समुद्र तो लगातार जलता ही रहता है। इसी भीतर जलते समुद्र का नाम ‘संसार’ है।

“की जाने जो जरि मुआ, जाकी लाई होय”

संसार को दो ताकतें कायम रख रही हैं। जैसे घर्षण के लिए दो पक्ष चाहिये, तो आग लगे, इसके लिए ज़रुरी है कि दो पक्ष हों। पहली ताकत वो, जो जलाए हुए है। दूसरी वो, जो बुझाने की कोशिश कर रही है। देखने में आपको विपरीत लगेगा, आपको लगेगा कि जो बुझाने वाली ताकत है, वो जलाने वाली ताकत के समर्थन में कैसे है; बिल्कुल है। भूलियेगा नहीं कि आग पैदा करने के लिए जब आप दो पत्थरों को रगड़ते हैं, तो उनको एक दूसरे के विपरीत रगड़ते हैं।

संसार जल रहा है, और जल ही जाए, भस्म हो जाए। सारे झंझट से छुटकारा मिले। पर उसका जलना कायम है, क्योंकि आपने आग बुझाने की ठान रखी है। आग बुझाओ न; तो भस्मीभूत हो जाए। कोई भी चीज़ कितनी देर जलेगी? जलकर अपने आपको को ही नष्ट कर लेगी। पर हम आग बुझाए जाते हैं।

कबीर कह रहे हैं, “*जाने जो जरि मुआ*”, जर कर के, हम ख़त्म होने को हम राजी नहीं, संत कुछ भी कहते रहें। वो कहते रहें कि, “जलने ही दो न, ख़त्म हो जाने दो,” पर हम उसके लिए राज़ी नहीं हैं। हमारी दुनिया में आग लगी है, पर हम कभी आशा का दामन छोड़ते ही नहीं। हम यह कभी कहते ही नहीं कि, “जब इतना जलती है, तो जल ही जाने दो न”। हम कहते हैं, “न, आगे क्या पता अच्छे दिन हों। आग को बुझा देंगे”। और बुझाने-बुझाने की कोशिश में हमने इस आग को सातत्य दे दिया है। अब ये लगातार जलती रहेगी।

मियाँ-बीवी लड़ते हैं, और स्पष्ट ही हो जाता है कि इनका मिलन ही भूल थी, कि बेहोशी में प्रणय-निवेदन कर दिया था, कि बेहोशी में शादी हो गयी थी, बिल्कुल दोनों को स्पष्ट रहता है कि यह मिलन कभी होना ही नहीं चाहिए था, साफ-साफ़। उस क्षण में तुम जाकर दोनों से ये पूछो, तो दोनों कहेंगे, “हाँ, बात तो बिल्कुल ठीक है। यह भूल थी, गलती थी”।

लेकिन अब वो उसे जल नहीं जाने देंगे। वो उसको ज़बरदस्ती बुझाएँगे। राख ही नहीं हो जाने देंगे। वो उसको बुझाएँगे, ताकि कल वो फिर लड़ सकें, और कल फिर अपनी ज़िंदगियों पर फ़िर अफ़सोस कर सकें। “जो जल रहा है,” कबीर पूछते हैं, “उसको क्यों नहीं जल जाने देते? दिख रहा है, कि नष्ट होना जिसकी क़िस्मत है, उसे नष्ट ही क्यों नहीं हो जाने देते?” पर नहीं, आशा, और भय। भय अपरिचित का, कि यह नष्ट हो गया तो पता नहीं बचेगा क्या।

लोग पढ़ाई कर रहे होते हैं, चार साल, पाँच साल का उनका पूरा कार्यक्रम होगा। सच तो यह है कि पाँच साल के कार्यक्रम में उन्हें दूसरे महीने में ही यह स्पष्ट हो गया होता है कि वह गलत जगह आ गये हैं। समुद्र में आग लग चुकी है, अंतर्मन धू-धूकर जल रहा है।

जब दिख ही गया, तो जल ही जाने दो न। बाहर आ जाओ। पर नहीं, वो पाँच साल तक आशा के दम पर रुके रहेंगे, नष्ट नहीं होने देंगे। ऐसा होता है कि नहीं? हिम्मत ही नहीं है। एक बार दिख भी जाए कि जो है वो नकली है, तब भी हम मरते हुए को मरने नहीं देते।

हममें से कोई ऐसा नहीं है, जिसे वो पल उपलब्ध न हुए हों, जब तथ्य साफ़-साफ़ उसके सामने न खड़े हो गये हों। हममें से कोई ऐसा नहीं है, जिसे यह साफ़-साफ़ न दिखाई दे रहा हो कि दुनिया जल रही है। लेकिन दिक्कत यह है कि उसी दुनिया के साथ हमारा साझा है, एका है। अगर हम दुनिया को जल जाने देंगे, तो हमें भी जल जाना पड़ेगा। हम और दुनिया अलग-अलग नहीं हैं। हम अपने आपको दुनिया से अलग कुछ जानते ही नहीं, तो हम दुनिया को जलने नहीं देंगे।

पत्नी को दिख रहा होगा कि यह रिश्ता जल रहा है, इस पति के साथ, पर वो उसे जलने नहीं देगी। क्योंकि अगर वो रिश्ता जला, तो ‘पत्नी’ भी जल जाएगी। यदि विवाह का रिश्ता नहीं रहा, तो ‘पत्नी’ भी कहाँ रही। और उसको पता ही नहीं है कि ‘पत्नी’ के अलावा उसकी पहचान क्या है । ‘कोहम’ प्रश्न का कोई उत्तर मिला नहीं, तो वो कभी आग लगने ही नहीं देगी।

*बिरहिनि ओदी लाकड़ी, सकुचे और धुँधुआय । छुटि पड़ौं या बिरह से ,* *जो सिगरी जरि जाय ॥*

कबीर बार-बार कहते हैं, “जैसे ओदी लाकड़ी ,” गीली लकड़ी। सुलग रही है, सुलग रही है, और सुलगने से ज़्यादा कष्टप्रद कोई स्थिति हो नहीं सकती। कबीर बार-बार कहते हैं, “क्यों सुलगे जा रही है। पूरी ही जल जा न”।

*छुटि पड़ौं या बिरह से*, जो सिगरी जरि जाय ॥

“तू जल क्यों नहीं जाती पूरी”। पर हम अपने आपको जलने भी तो नहीं देते। हम ‘ओदी लकड़ी’ की तरह हैं, सुलगे जा रहे हैं, सुलगे ही जा रहे हैं। हमारा पूरा जीवन बस उसी सुलगने की कहानी है। हम ऐसे ज्वालामुखी हैं, जो सुलगता जा रहा है, सुलगता जा रहा है, पर जिसमें विस्फोट कभी होता नहीं।

सुलग तो रहे ही हो, विस्फोट कभी होता नहीं। सुलगते-सुलगते ही मरोगे। आग कहीं है नहीं, धुआँ ही धुआँ है। गीली लकड़ी देखी है कभी? प्रकाश कहीं नहीं है, ज्योति कहीं नहीं है, आग कहीं नहीं है, बस धुआँ ही धुआँ है। आँखों में पड़ रहा है, और आँसू आ रहे हैं।

लकड़ी को जल जाने दो, जब जानते हो अच्छे से कि आग लगी हुई है। या तो जानते न होते। “नहीं सर ‘उम्मीद’ बड़ी बात है, क्या पता कल सूरज दक्षिण से निकले, क्या पता कल तारे टूट-टूटकर ज़मीन पर गिरें। हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। अरे! कैसे जल जाने दें? यही तो हमारा घर-बार, संसार है। यह जल गया, तो फिर क्या बचेगा?”

यह सब जल जाएगा, तो तुम बचोगे।

कल ही था। तुम्हारे यहाँ कि एक लड़की ने सवाल पूछा, बिलकुल यही प्रश्न था: “साफ़ दिख रहा है मुझे कि जीवन में कोई है, जो महत्त्व नहीं देता। धोखे ही दिए जा रहा है। लेकिन उसके बाद भी जब वो जीवन में लौटकर आता है, मैं उसे स्वीकार क्यों कर लेती हूँ? मैं हर बार तय करती हूँ कि इस बार गया तो गया। पर जब भी लौटकर आया है, मैंने अपनाया है। क्यों?”

तो मैंने कहा कि तुम डरती हो। डरती हो कि – यह न मिला तो पता नहीं फिर क्या मिले। श्रद्धा नहीं है अपने ऊपर। कहती हो, “अधजला ही सही, पर कुछ तो है। जैसा भी है, संसार कायम तो है। इसको जल जाने दिया, तो आगे पता नहीं क्या…”।

अज्ञात का भय है।

“नहीं तो आगे पता नहीं क्या हो। जो है, सो है तो सही। इसे छोड़ कैसे दें?” और अस्तित्व का नियम ही यही है कि – जब तक तुम व्यर्थ को छोड़ोगे नहीं, तब तक जो सार्थक है, वो तुम्हारे जीवन में उतरेगा नहीं। और तुम कहते हो, “सार्थक अभी उतरा नहीं है, तो हम व्यर्थ को छोड़ें कैसे?” तुम्हारी यह माँग कभी पूरी नहीं होगी।

तुम एक असंभव शर्त रख रहे हो। यह शर्त कभी मान्य नहीं होगी। तुम कहते हो, “पुराने को तब छोड़ेंगे, पहले नया लाकर दो। गारंटी होनी चाहिए। नए को जाँच लेंगे, परख लेंगे, तब पुराने को जलने देंगे”।

होता कुछ और है। जब पुराना जल जाता है, तब नया उतरकर आता है। यही तो परीक्षा है। यहीं पर तो श्रद्धा चाहिए।

यही निवेदन है आप सब से – जो जा रहा है, उसे जाने दें, व्यर्थ पकड़ कर न रखें। शरीर का भी यदि कोई अंग ज़हरीला हो जाता है, तो उसे काट दिया जाता है। और अस्तित्व आपकी सहायता कर रहा है, वो खुद ही असत्य को जला मारता है। जो असली होता, वो जलता क्यों? कभी यह बात आपकी बुद्धि में नहीं आई? संसार में दम होता, तो इतना धुआँ क्यों होता? रिश्ते में अगर जान होती, तो इतनी खींचातान क्यों होती? यह आपको दिखाई नहीं दिया कभी? जानते हो, सब अच्छे से जानते हो, पर काफ़िर हो।

जब आपसे कहा जाता है, “हमारा स्वभाव आनंद है, और मुक्ति हमारा स्वभाव है, और प्रेम हमारा स्वभाव है,” तो क्या यह कहा जाता है कि क्षण, दो क्षण का प्रेम, और उसके बाद गाली-गलौच और डंडे-बाज़ी? प्रेम का तो अर्थ ही है न अखंड प्रेम। तो अगर रिश्ता ऐसा है जिसमें गाली-गलौच है, तो आपको दिख नहीं रहा है कि इसमें स्वभाव से हटकर कोई काम हो रहा है, नकली है? जब कहा जाता है कि आनंद स्वभाव है, तो क्या ये कहा जाता है कि वो आनंद कभी-कभी हफ़्ते में दो –चार पल के लिये मिलेगा? या ये कहा जाता है, “अक्षुण्य धारा आनंद की”?

आनंद स्वभाव है – इसका क्या अर्थ है? कि निरंतर, अजस्त्र। और जब आप पाएँ कि संसार में कहीं कोई आनंद नहीं, और जो आनंद की थोड़ी-बहुत झलक मिलती भी है, वो बस इतनी-सी है, तो क्या समझ नहीं जाना चाहिये कि भूल हो रही है?

मामला बहुत सीधा है। जहाँ बहुत कष्ट मिल रहा हो, वो खेल ही नकली है। और देखो देने वाले ने कैसी नियामत दी है, कि जो नकली होता है, उसे वो ख़ुद ही जला देता है। जिस रिश्ते को होना नहीं चाहिये, उसमें तनाव पैदा हो जाते हैं, वो जलने लगता है। ‘जलने लगता है’ मलतब नष्ट होने लगता है। जिस रिश्ते को होना नहीं चाहिये, वो अपने आप ही नष्ट होने लगता है। पर तुम उसके समर्थन में खड़े हो जाते हो। तुम कहते हो, “न, नष्ट कैसे होने दें? दुनिया क्या कहेगी?”

अरे उसमें तनाव है ही इसलिए क्योंकि उसे होना ही नहीं चाहिये था। वो कृत्रिम है। अन्यथा उसमें तनाव क्यों होता? उसमें सतत आनंद होता। पर तुम कहोगे, “ज़िंदगी का मतलब ही यही है, कुछ खट्टा, कुछ मीठा। आनंद लगातार रहेगा, तो कोई मज़ेदार बात नहीं है। बीच-बीच में दो जूते तुम मारो, दो जूते हम मारें। अरे! तभी तो खट्टा-मीठा, नमकीन स्वाद आता है। यह कोई रिश्ता है कि प्रेम ही प्रेम बरस रहा है? बीच-बीच में तुम हमारा मुँह नोचो, हम तुम्हारा मुँह नोचें। हम तुम्हारी टांग तोड़ें। तुम हमारे बाप को गरियाओ, हम तुम्हारी माँ के गुण गाएँ। यह सब होना चाहिए। यही सब तो ‘जीवन ’ कहलाता है। कभी धूप, कभी छाँव, इसी को तो हमने महिमामंडित किया है, ‘गौरवशाली जीवन’”।

इसको हम कैसे कहते हैं? कि, “जिस घर में चार बर्तन होते हैं, वहाँ आवाजें तो होती ही हैं?” क्या बात है? ”चार बर्तन होंगे, तो आपस में टकराएँगे, आवाजें तो होंगी ही। तकरार से प्यार बढ़ता है, दूरियों से नज़दीकियाँ बढ़ती हैं। और बहुत लालच नहीं करना चाहिए, कि आनंद ही आनंद मिले। यह तुम्हारे लोभ का सबूत है, हर समय आनंद माँगते रहते हो”।

“आनंद नहीं मिलेगा। अभी जूता मिल रहा है न, जूता खाओ, लालच न दिखाओ। और ज़्यादा मुक्ति मिल गयी, तो दस्त लग जायेंगे। दस साल में दस मिनट के लिए मिलेगी मुक्ति, तब विदेश में एनुअल वेकेशन (वार्षिक अवकाश) मना आना। उससे ज़्यादा मुक्ति ठीक नहीं होती, पचेगी नहीं तुम्हें”।

हमारी हालत ख़राब हो जाती है, यह कल्पना मात्र करने से, कि अनंत आनंद हो सकता है, कि असीमित मुक्ति हो सकती है। हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते। हम कहते हैं, “खटपट तो होनी ही चाहिए”।

कबीर आपसे कह रहें हैं, “शीतलता, शीतलता ही है। शीतलता में जलन के लिए कोई स्थान नहीं है”। पर हम जलने के इतने अभ्यस्त हो गए हैं, कि शीतलता हमें अब बेगानी लगती है। जलना स्वभाव-विरुद्ध है। जो जलता हो उसे फिर, जल ही जाने दो। संघर्ष न करो। जो सहजता से हो, वही भला है। जो संबंध कायम रखने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़े, उस संबंध को ख़त्म हो जाने दो। जो मंज़िल हासिल करने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़े, संघर्ष करना पड़े, समझ लो कि वो मंज़िल तुम्हारे लिए नहीं है।

साधो सहज समाधि भली ,”

सहजता ही समाधि है। वो यह नहीं कह रहे हैं कि कई तरह कि समाधियाँ होती हैं, जिसमें से ‘सहज समाधि’ भली है। न, सहजता ही समाधि है। जो सहजता से होता हो, वही ठीक है। जहाँ यह ज़्यादा लगाई-बुझाई होती हो, वहाँ से बाहर आओ। “हमें नहीं चाहिए”।

कबीर कहते हैं, “जो बिना माँगे मिल जाए, अर्थात बिना कोशिश के, बिना यत्न के, वो दूध है। और जिसके लिए बहुत कोशिश करनी पड़े वो खून है। वहाँ हिंसा है, वहाँ रक्तपात है”। वो कहते हैं, “जिसमें ऐंचातान है, उससे बचो। जो सहजता मिल जाए वही ठीक। जिसमें खींचातानी करनी पड़े, रोज़-रोज़ के झंझट हों, मारा-मारी हो, उसस बचो”।

मैं जब अपने पिछले जन्म में था, कंसल्टेंट , तब एक जगह पर गया था। वहाँ पर एक बी-हैग प्रोजेक्ट चल रहा था। और ‘बी-हैग’ का मतलब था- *बिग हर्री ऑडीशियस गोल*। उस संस्थान के जो जनाब सीईओ थे, उन्होंने पूरी और्गनाईजेशन (संस्थान) को, हजारों लोगों को, ‘बी-हैग’ दिया था कि ये करके दिखाएँगे – *बिग हेरी ऑडीशियस गोल*। अरे! शान्ति से होता हो तो कर लो, और नहीं होता हो, तो घर जाओ। यह क्या है, *ऑडीशियस गोल(*साहसी लक्ष्य)?

यहाँ एक सज्जन बैठे हैं, इनके एक डायरेक्टर थे। इन्होंने उनको रेटिंग दे दी- मीट्स एक्सपेक्टेशन (उम्मीद पर खरा उतरे), ओर वो ख़फा हो गये। क्यों? “अरे! एक्सीड्स एक्सपेक्टेशन (उम्मीद से ज़्यादा) होना चाहिए, खींचातान होनी चाहिए न। जो उम्मीद की थी, हम उम्मीद को पार कर गए। बड़े मेहनतकश थे। इतनी जान लगाई, इतना खून जलाया, कि तुम सोच भी नहीं सकते”।

बिन माँगे मिले सो दूध है, माँगे मिले सो पानी। कहें कबीर सो रक्त है, जामें खींचातानी।।

और हमने खींचातानी को ही गौरवान्वित कर रखा है। “ऑडीशियस गोल – जो हो न रहा हो, हम करके दिखाएँगे। तभी तो अहंकार से सीना फुलाएँगे, कि हमने करके दिखाया – बिग हेरी ऑडीशियस गोल”

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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