आपकी गहरी दीवानगी का नाम है माया || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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आपकी गहरी दीवानगी का नाम है माया || आचार्य प्रशांत (2016)

आचार्य प्रशांत: एक लड़की थी, उसे प्यार था। जिससे प्यार था उसे प्यार से सत्या बोलकर पुकारती थी। प्रेम बहुत सुन्दर होता है, रसीला। पर प्रेम का अनुभव करते रहो इसके लिए ज़रूरी होता है कि कम-से-कम ज़रा सी दूरी बनी रहे प्रीतम से। एकदम ही विलय हो गया, एकत्व हो गया, जुड़ ही गये, फ़ना ही हो गये तो फिर प्रेम का अनुभव भी नहीं होता। प्रेम तभी तक है जब तक कम-से-कम बित्ते भर का फ़ासला हो, अन्यथा फिर आकर्षण नहीं रहेगा, फिर विगलन हो जाता है।

तो प्यार उसे प्यारा था, सत्या को चाहती थी और चाहत में ऐसा रस, ऐसा सुख था कि उस चाहत को क़ायम रखना चाहती थी, ज़ाहिर सी बात है। लेकिन चाहत बनी रहे इसके लिए ये भी ज़रूरी था कि दूरी बनी रहे। प्रेम का तो काम ही होता है दूरियाँ घटाना, दूरियाँ घटती गयीं, घटती गयीं और एक स्थिति ये आयी कि अब आख़िरी दूरी बची थी। वो जाने को थी और उस दूरी के जाने में प्रेम ही स्वयं बाधा बन गया। अब वो दूरी जाती यदि तो प्रेमी भी मिट जाते, दो बचते ही नहीं। कैसे कह पाती कि प्यार है? किससे कह पाती कि प्यार है? कह पाने के लिए भी शेष कौन रहता?

यहाँ पर आकर वो ठिठक गयी। सतत क़रीब आती रही थी, यहाँ पर कदम बँध गये उसके। अब उसने कहा, 'न, आगे बढ़ूँगी।' प्यार ही मिलन का दुश्मन हो गया। अब विरोध और घर्षण पैदा हुए। सत्या उसको खींच रहा है अपनी ओर। वह आगे बढ़ने से इनकार कर रही है और इनकार इसलिए नहीं कर रही क्योंकि सत्या पसन्द नहीं, इनकार इसलिए भी नहीं कर रही क्योंकि कहीं और जाना है, इनकार इसलिए कर रही है क्योंकि प्यार है।

बड़ी विचित्र विरोधाभासी सी स्थिति है, चूँकि प्यार है इसीलिए और आगे नहीं बढ़ सकते, चूँकि चाहते हैं तुमको इसीलिए तुम्हें खो नहीं सकते। तुम, तुम तभी तक हो जब तक हम, हम हैं। तुम्हें खो नहीं सकते, इसके लिए ज़रूरी है कि हम ख़ुद न खोयें। बड़ी विद्रूपता है इस स्थिति में।

तुम्हें चाहते हैं तो तुम्हें खोना नहीं चाहते। तुम तभी तक हो जब तक हम हैं, तुम क़ायम रहो उसके लिए ज़रूरी है हम बने रहें। पर हम यदि बने हुए हैं तो मिलन हो नहीं सकता क्योंकि मिलन का तो अर्थ ही है हमारा मिट जाना। अब फँस गये। कुछ दिनों तक ज़ोर आज़माइश चलती रही, सत्या उसे खींचता रहा। वो मिलन से बचती रही। पर ये ऊहापोह की स्थिति बहुत दिन तक नहीं चल सकती थी, फिर तो ऐसा हो गया कि मन ही खट्टा होने लग गया। किसी का आमन्त्रण बार-बार अस्वीकार करोगे तो माहौल में खटास तो आ ही जाएगी। वो बुलाये, ये इनकार करे। वो रिझाये, ये रूठे।

जितनी क़रीबी थी वो भी मिटने लगी, दूरियाँ बढ़ने लगी। लड़की दूर होती गयी, होती गयी। जितना दूर होती जाए, प्रेम की कशिश उतनी हल्की पड़ती जाए। प्रेम भी क़रीब-क़रीब गुरुत्वाकर्षण जैसा होता है, दूरियाँ बढ़ने पर उसका ज़ोर कम हो जाता है। निकटता जितनी होती है आकर्षण उतना सघन होता है। दूरी बढ़ती गयी। लड़की के हृदय में प्रेम तो था ही, मुड़कर देखती थी कि सत्या बुलाये, बुला तो वह लगातार रहा ही था।

जितना दूर जाती थी उतना दुख पाती थी और दुख का ज़िम्मेदार सत्या को ठहराती थी, 'तूने क्यों ज़िद की पूर्ण मिलन की? तेरी उस ज़िद की वजह से मुझे दूर होना पड़ा। तुझे यक़ीन नहीं था क्या कि बिना पूरा मिले भी तेरी ही हूँ मैं? इतना क्या ज़रूरी था कि दूरी का आख़िरी अंश भी मिटा दिया जाए? तू क्यों बढ़ रहा था, मान क्यों नहीं सकता था?' ऐसे तर्क थे लड़की के।

दूर होती गयी, बार-बार मुड़कर देखती थी, लगातार याद करती थी। पर कभी मुड़कर के जाती नहीं थी। कहती थी, 'अगर वापस मुड़कर जाती हूँ तो ये प्रेम का अपमान है। जो ग़ैर होते हैं, बेगाने, उनसे सुलह की जा सकती है, तुम्हारे साथ कैसे सुलह कर लूँ, तुम्हें तो नितान्त अपना माना था।'

मन में उसके तर्क उठता था कि इतनी तुम्हारी हूँ कि तुम्हारे पास सीधे लौटकर नहीं जा सकती, इतनी तुम्हारी हूँ कि तुम्हारे पास सन्धि-प्रस्ताव लेकर जाना बड़ी ओछी बात होगी। इतनी तुम्हारी हूँ कि तुमसे दूर जाना ही सम्मान होगा हमारे प्रेम को। ये उसके प्रेम प्रकट करने का तरीक़ा था कि दूर जाती जाऊँगी। और समझाती थी अपनेआप को कि दूर जाने से कोई दूर हो थोड़े ही गयी, बैठे तो तुम हृदय में ही हो न! कहती थी, 'तुम आ करके मनाओ, तब मानेंगे।' समझ नहीं पाती थी कि मना तो वो लगातार रहा ही था, मना न रहा होता तो लड़की के हृदय में खिंचाव बचा कैसे रहता? जो मना रहा था वही तो हृदय में खिंचाव बनकर बैठा था।

रोती थी, तड़पती थी लेकिन इस ज़िद पर क़ायम थी कि मनाने के लिए आना तुमको पड़ेगा और कहती थी, 'आओगे तुम तब, जब तुम पाओगे कि फ़ासले बहुत बढ़ गये हैं। तो सत्या को बुलाने का एकमात्र जो उसे तरीक़ा समझ में आता था वो ये था कि फ़ासले और बढ़ाओ। फ़ासले जितने बढ़ेंगे, उतनी सम्भावना बढ़ेगी कि मेरा प्रेमी मुझे मनाने के लिए आ जाएगा।

स्थिति को देखिएगा, जिससे मिलने जाना है, उससे मिलने की ही ख़ातिर उससे दूर हुए जा रहे हो। तर्क ये है कि दूरी बढ़ाओगे तभी तो वो उठकर आएगा मनाने के लिए। और हम जा नहीं सकते क्योंकि हम तो तुम्हारे पास जा ही रहे थे, तुममें इतना धीरज क्यों न था कि तुम नाहक ज़िद न करते, तुमने क्यों कहा कि आओ अब तो पूर्ण संयोग हो जाए? क्यों इस हठ पर क़ायम थे कि फ़ासले का आख़िरी अंश भी मिटाना ज़रूरी है? और मिट जाता, आ तो रहे थे हम तुम्हारे पास, ज़रा धीरज रखते! अब जब तुमने ऐसे कर्म करें कि हमें दूर होना पड़ा, तो अब दायित्व तुम्हारा है कि तुम आ करके मनाओ। तुम आते चूँकि हमको दिखते नहीं तो हमें एक ही तरीक़ा दिखता है तुमको बुलाने का कि हम और दूर होते जाएँ।

वो दूर होती गयी, होती गयी, होती गयी और अब इतनी दूर हो गयी है कि उसे सत्या की आवाज़ आनी भी क़रीब-क़रीब बन्द हो गयी है। लगता उसको आज भी यही है कि प्रेम उसे सत्या से ही है, मुड़-मुड़कर के आज भी देखती है। चाहती सत्या को ही है पर उसके चाहने का तरीक़ा बड़ा विचित्र हो गया है, कहती है, 'चूँकि तुम्हें चाहती हूँ इसीलिए तुमसे और दूर और दूर चली जाऊँगी, जितना तुमसे दूर जाती हूँ उतना ज़्यादा प्रमाण देती हूँ कि कितनी तुम्हारी हूँ। चूँकि तुम्हारी हूँ इसीलिए तुमसे दूर जाना ज़रूरी है।'

'तुम तक पहुँचना है इसीलिए तुमसे विपरीत जा रहे हैं, तुम्हें पाना है इसलिए तुम्हें खोये दे रहे हैं, तुम्हें चाहते हैं इसीलिए तुम से अलगाव आवश्यक है। तुम इतने अपने हो कि तुमसे खुलकर के अपनी बात कहते हैं तो परायापन लगता है। तुम इतने अपने हो, तो तुम स्वयं ही जान लो न हमारे जी की बात। तुमसे कुछ कहेंगे नहीं। चाहते रहेंगे, दुख भोगेंगे, गहराई से समर्पित तुम्हीं को रहेंगे। पूजा करेंगे तुम्हारी, पर तुम्हारे सामने नहीं पड़ेंगे, छुप-छुपकर देख लेंगे।'

लड़की का नाम 'माया' था, प्रेमी का नाम ज़ाहिर ही है, 'सत्य' प्रेमी था। अब कहिए कौन है माया?

श्रोता: सर, मन में इच्छा तो यही है, चाहती तो सत्य को ही है, लेकिन डरती है कि अगर सत्य से मिली तो विलय हो जाएगी, उसका वजूद ख़त्म हो जाएगा। सत्य से वो अलग हो जाएगी, माया रहेगी ही नहीं।

आचार्य: न काम, न क्रोध, न राग, न द्वेष। छोड़िए किताबी बातें, आपके भीतर जो सत्य को और शान्ति को लगातार पुकार रहा है उसी का नाम माया है। जो आपकी ज़िन्दगीभर की आशिक़ी है उसी का नाम माया है। जो आपकी गहरी दीवानगी है उसी का नाम माया है। क्यों, सत्य को चाहना क्यों है माया? शान्ति की तलाश क्यों है माया? इतनी प्यारी होकर भी इतनी मुरझायी सी क्यों है माया?

श्रोता१: वो उस इच्छा को बनाये रखना चाहती है, उसके साथ एक नहीं होना चाहती।

श्रोता२: जो आलरेडी (पहले से ही) अवेलेबल (प्राप्त) है, उसे ढूँढने के लिए दूर भागती है।

आचार्य: देखो, कागज़ी जवाब मत दो कि जो पहले ही उपलब्ध है उसे ढूँढने के लिए दूर भागती है। ये कहानी किसी दूसरे की नहीं है, हमारी-तुम्हारी ही है। प्यार हम सबने किया है और जो चाहा है वो मिला किसी को नहीं है।

श्रोता१: सर, ऐसा लग रहा है मैं ही हूँ माया।

श्रोता२: सर, क्योंकि वो ख़ुद मिटना नहीं चाहती, ख़ुद बने ही रहना चाहती है क्योंकि उसे पता है कि मैं अगर मिली तो कहीं-न-कहीं मैं फिर रहूँगी नहीं।

आचार्य: सत्य इतना प्यारा है कि उसे प्यार करते रहना चाहते हो। प्यारा है क्योंकि विशाल है, अनन्त है। उसकी बाहें इतनी बड़ी, इतनी आकर्षक, इतनी सुडौल कि एक बार गये उसके आगोश में तो बाहर आ नहीं पाओगे। एक बार रख दिया उसके छाती पर सिर तो हटा नहीं पाओगे। और ये जानते हो तुम क्योंकि तुम्हें अनुभव होता है उस खिंचाव का। उस खिंचाव का अनुभव ही तुम्हें बता देता है कि जाना है उसी की ओर और यदि जाते रहे तो मिट जाएँगे, दोनों बातें एक साथ। जाना तो उसी की ओर है पर यदि अपने को जाने की अनुमति देते रहे तो मिट जाएँगे।

और ऐसा नहीं कि मिट जाने से हमें कोई डर है, ऐसा नहीं कि बने रहने में हमें कोई स्वार्थ है, बात बस इतनी सी है कि यदि मिट गये तो तुम्हें प्यार कैसे करेंगे! तुम्हें चाहते रहें उसके लिए भी तो ज़रूरी है कि हम बने रहें।

तो फिर जो सीधे-सीधे होता है, सामने होता है, आप उसे पाने के तरीक़े लगाते हो। आप कहते हो, 'होगे तुम सामने, पर तुम्हें पाने के लिए तुमसे विपरीत जाना पड़ेगा, होगे तुम प्रथम पर तुम्हारी अपेक्षा दूसरी चीज़ों को, दूसरे कामों को वरीयता देनी पड़ेगी। क्यों तुम्हें पीछे धकेल रहे हैं? क्योंकि चाहते हैं तुम्हें। क्यों तुम्हें दसवीं वरीयता दी है? क्योंकि तुम प्रथमों में प्रथम हो। तुम्हारी तुलना दूसरों से हो ही नहीं सकती, तुम अतुलनीय हो। तुमको पैमाना बनाकर अगर दूसरों को तौलने लग गये तो खेल ही ख़त्म हो जाएगा।'

'तुम इतने बेहतर हो दूसरों से कि दूसरे किसी आयाम में हों, किसी और देश के हों। तुम इतने बेहतर हो दूसरों से कि दूसरों से यदि तुम्हारी प्रतिस्पर्धा करा दी, तो खेल शुरू ही नहीं होने पाएगा।' कि जैसे छोटे-छोटे बच्चे हों जिन्होंने अभी पैरों पर चलना सीखा हो और वो आपस में दौड़ लगा रहे हों और उनके बीच में कोई वयस्क धावक आ जाए जो मैराथन दौड़ता हो। आवश्यक हो जाता है फिर उस धावक को उस दौड़ से हटा देना क्योंकि यदि वो दौड़ में रहा आया तो दौड़ कैसी!

'इतने बेहतर हो तुम कि तुम यदि हमारी ज़िन्दगी में रहे आये, तो हमारी ज़िन्दगी में फिर और कुछ बच ही नहीं सकता। इतना कर्षण है, इतनी मधुरता है तुम्हारी पुकार में कि यदि तुमको सुन लिया तो फिर और किसी को सुन ही नहीं पाएँगे, तो ज़रूरी है कि तुमको सुनें न।'

'इतना सत्य है तुम्हारी बात में कि यदि तुम पर ध्यान दे दिया तो आइन्दा किसी पर ध्यान दे नहीं पाएँगे। इस बात पर भी ध्यान नहीं दे पाएँगे कि तुम कितने सुन्दर हो। तो हम तुम पर अभी ध्यान देना नहीं चाहते। इतना मोहक है तुम्हारा होना कि देखते हैं तुम्हें तो अवाक् रह जाते हैं और यदि अवाक् रह गये तो ये भी कैसे कहेंगे कि प्यार है तुमसे! फिर तो शब्द ही नहीं फूटेंगे मुँह से, अवाक् हो गये। हम चाहते हैं बार-बार दोहराना, हम गाना चाहते हैं कि हम तुम्हें चाहते हैं। तुम्हारे प्रेम-गीत बहुत पसन्द हैं हमको, हम अवाक् होना नहीं चाहते।'

'तो तुम्हारे प्रेम-गीत तो गा लेंगे पर तुम्हारे प्रेम-पाश में नहीं पड़ेंगे, तुम्हारे बाँह-पाश में नहीं पड़ेंगे। दूर-दूर बैठकर तुम्हारे गीत गाएँगे, एक विरहणी की तरह, क्योंकि तुम्हारे निकट आने का तो अर्थ होगा मेरे होठों का सिल जाना, अब गीत गाएगा कौन! गीत बने रहें तो ज़रूरी है कि दूरी भी बनी रहे, हम दूरी बनाकर रखेंगे।'

माया से ज़्यादा सत्य को कोई चाहता नहीं। माया से ज़्यादा सत्य से कोई दूर नहीं, चाहत की दूरी है। चाहना तो दिलासा देता है कि एक दिन मिल जाएगा प्रेम। चाहना तो प्रलोभन है और उसके बाद की सान्त्वना, 'तुम्हें चाहते हैं, आ रहे हैं तुम्हारी तरफ़, मिटा रहे हैं दूरियाँ।'

मैं विनय करता हूँ कि जो लोग दूरियाँ मिटाने में उत्सुक हों, वो दूरियाँ बनाने में भी बड़े उत्सुक रहेंगे। ये बात थोड़ी अटपटी लगेगी, पर इसको समझिएगा। आप यदि दूरियाँ मिटा रहे हो तो आपके करने के लिए क्या है? दूरियाँ मिटाना। मिट ही गयीं दूरियाँ तो आप तो बेरोज़गार हो जाओगे। मिट ही गयीं दूरियाँ तो आपके करने के लिए बचा क्या? तो आप दूरियाँ मिटाते तो चलोगे, मिटाते तो चलोगे, मिटाते तो चलोगे, पर कभी मिटने नहीं दोगे। मिट ही गयीं तो हम भी मिट जाएँगे।

माया को हमारी भर्त्सना, हमारा तिरस्कार, हमारी घृणा नहीं चाहिए; माया को हमारी मदद चाहिए। माया क्या परेशान करेगी आपको, माया से ज़्यादा परेशान और कोई नहीं। माया क्या शिकार करेगी आपका, माया ख़ुद अपनी शिकार है। माया कहाँ आपको सत्य से दूर लिये जा रही है, वो तो ख़ुद सत्य की दीवानी है। देखते हम ऐसे हैं माया को ज्यों कोई दुश्मन हो हमारी। सन्तों ने भी कह दिया ठगिनी-डाकिनी। ठगिनी यदि वो है तो उसने स्वयं को ही ठगा है, डाकिनी यदि वो है तो उसने अपने ही घर पर डाका डाला है।

कहिए, हैं तैयार आप माया की मदद करने के लिए? हैं? माया से नफ़रत करने का मतलब जानते हैं क्या होगा? अपने से नफ़रत करना। हम ही हैं माया। अपने से नफ़रत करके आप क्या मदद करेंगे अपनी? मदद तो प्रेम में होती है, माया की मदद करनी है तो माया से प्रेम करना होगा, माया की मदद करनी ज़रूरी है क्योंकि माया हम ही हैं। माया का केन्द्रीय तर्क क्या है? कहिए, माया का केन्द्रीय तर्क क्या है?

श्रोता१: तुम्हें प्यार करते रहना चाहिए।

श्रोता२: सत्य से अलग नहीं हो सकते।

श्रोता३: बचे रहने के लिए दूरी आवश्यक है।

आचार्य: तुम्हें चाहते रहें, तुम्हें निहारते रहें, तुम्हारे आशिक़ बने रहें।

श्रोता: लेकिन हस्ती नहीं मिटानी।

आचार्य: 'तुम्हारे आशिक़ बने रहें।' दिक्क़त बस इतनी है कि इस छोटे से वाक्य में आशिक़ी से ज़्यादा महत्वपूर्ण बने रहना हो जाता है। 'तुम्हारे आशिक़ बने रहें। बने रहें, मिटें न।' डर है उसको कि मिट गये तो प्रेम भी तो ख़त्म ही हो जाएगा न।

जो सस्ते प्रेमी होते हैं वो बने इसलिए रहना चाहते हैं कि बने रहेंगे तभी तो अपने दूसरे तमाम काम कर पाएँगे। अभी तो ज़िन्दगी में बहुत कुछ हासिल करना है, ये बचा है, वो बचा है, तो वो इसलिए बने रहना चाहते हैं। जो माया जैसे परम प्रेमी होते हैं, वो इसलिए बने रहना चाहते हैं कि बने रहेंगे तभी तो? कि बने रहेंगे तभी तो? तभी तो प्यार कर पाएँगे।

हमारे जीवन में कैसे मौजूद है माया? मौजूद ऐसे है कि यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा है जो सत्य को जानता न हो, यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा है जो सत्य से ज़्यादा कुछ भी और जानता हो, यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा है जो सत्य से ज़्यादा कुछ भी और मानता हो, यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा है जो सत्य से ज़्यादा किसी और को चाहता हो। चाहिए हम सबको वही, चाहत सबकी वही है लेकिन फिर भी उससे एक न होने के बहाने हम सबके पास हैं और बैठते हम कुछ यूँ अबूझ बनकर हैं, अनजान, भोले जैसे कि हमें सत्य का पता न हो।

सारी आध्यात्मिकता ही सत्य को जानने की और पाने की तलाश बनकर रह गयी है और मेरी दृष्टि में ये शुरुआत ही ग़लत है। आप आध्यात्मिक होने की बात करके तलाश कर किसकी रहे हो? आप किसको बता रहे हो कि आप उसे जानते नहीं जिसे आप खोजने निकले हो? जो माया के आँचल में है, जो माया के हृदय में है, माया उसे खोजने निकले, तो प्रपंच ही तो कर रही है? जो आपके सामने है, जो सम्मुख है, जो इतना क़रीब है कि उससे सम्मुख कहना भी ग़लत होगा, आप उसे खोजने निकलें तो ये आत्म-प्रवंचना के अतिरिक्त और क्या है?

हममें से हर कोई किसी तलाश में है। तलाश का अभिप्राय यही होता है कि दूरी है। और दूरी है नहीं, प्रत्येक दूरी सिर्फ़ जटिल मन का प्रक्षेपण होती है। जानते हैं दूरी कैसी होती है? दूरी ऐसी होती है कि आपको सामने पहुँचना है, एक क़दम आगे बढ़ाना है और वहाँ पहुँचने के लिए आप पूरी पृथ्वी घूमकर आयें। और आप ठीक कह रहे हैं कि आप चल इसलिए रहे हैं क्योंकि अन्तत: आपको वहीं पहुँचना है जहाँ आप हो। लेकिन वहाँ आप सीधे-सीधे सरलता से नहीं पहुँचना चाहते, वहाँ आप बहुत सारी विधियाँ और कर्तृत्व लगाकर के पहुँचना चाहते हो।

आप कहते हो, 'ये करेंगे और वो करेंगे तब न हासिल होगा।' माया चाहे तो सीधे जाकर लिपट जाए सत्य से, पर सीधे वो लिपटेगी नहीं। वो तरीक़े आज़माती है। वो कहती है, 'रूठूँगी, रूठूँगी तो तुम मनाने आओगे।' वो कहती है, 'दूरी बढ़ाऊँगी, दूरी बढ़ाऊँगी तो तुम्हें दर्द होगा, तुम्हें दर्द होगा तो तुम अपना आसन छोड़कर के हमारे पास आ जाओगे।' माया चाहती है सत्य अपना आसन छोड़ दे। माया भूल गयी है कि सत्य का आसन तो माया के हृदय में ही है, छोड़ कैसे देगा!

माया को इससे ज़्यादा किसी बात की दरकार नहीं कि तुम भी तो दिखाओ न कि तुम हमें चाहते हो, हम तो खिंचे आ रहे थे तुम्हारी ओर, तुम क्यों नहीं अपने स्थान को ज़रा छोड़ सकते? अरे, तुम भी तो उठो, तुम भी तो प्रदर्शित करो कि हमें कितना चाहते हो। तुम भी तो दो-चार क़दम बढ़ाओ हमारी ओर।

और माया देखती है सत्य की ओर, उसे दिखायी देता है कि वो तो अपने सिंहासन पर ही आरूढ़ है और वहाँ से हिलना ही नहीं चाहता। वो कहती है, 'तुम तो बड़े अहंकारी हो, तुम तो अपने ही अपनी चलाते हो, हम तो तुम्हारे लिए हज़ारों मील का फ़ासला तय करके आ गये और तुम हो कि ठीक वहीं बैठे हो जहाँ तुम बैठे थे सदा से। तुम अचल। तुम क्यों अचल रहो, हम ही क्यों तुम्हारे लिए चलते रहें? माना कि तुम श्रेष्ठतम हो, माना कि तुम कुछ ग़लत कर ही नहीं सकते, पर हमारी ख़ातिर, हमारी ख़ातिर, अरे! ज़रा सा तो दिखा दो कि तुम हमें चाहते हो। दो-चार क़दम तो हमारी ओर आ जाओ, छोटे हो जाओगे क्या?' ये तर्क है माया का, तुम उठो, आओ हमारी ओर।

माया जटिलता का नाम है और जटिल मन हम सब का है। जटिलता की परिभाषा समझ रहे हैं? जो अभी हो सकता है, जो होने के लिए तैयार बैठा है, उसके लिए योजना बनाना, कहना कि अभी तो उम्र नहीं है मेरी या कहना कि अब तो उम्र ज़्यादा हो गयी मेरी। जो सम्भाव्य ही नहीं, सम्मुख है, उसको दूर देखना, यही माया है। कहना कि पहले ज़रा पढ़ाई पूरी कर लूँ फिर वो सारे काम करूँगा जिनमें जीवन का रस है, ये माया है। कहना कि ज़रा कुछ पैसे इकट्ठा हो जाए फिर और प्रेमपूर्ण हो पाऊँगा, फिर पत्नी के साथ ज़्यादा समय बिता पाऊँगा, ये माया है। कहना कि मैं जानता हूँ कि मेरे सारे विषाद और विक्षेप स्थितियों की वजह से हैं और जब मैं स्थितियाँ सुधार लूँगा, तब मेरा मन शान्त हो जाएगा, ये माया है। हर वो तर्क जो सत्य से आपकी दूरी को सही साबित करता हो, माया का तर्क है।

और माया को दोष मत दीजिएगा, माया को यही लगता है कि वो तर्क सही हैं। इसीलिए कह रहा हूँ मदद करिए उसकी। समझाइए उसको कि तेरे तर्क सही नहीं हैं। ज़रा सा समझाने की देर है, वो पिघल जाएगी, वो तो पिघलने के लिए तैयार ही बैठी है। जानते हैं दिक्क़त क्या होती है? दिक्क़त ये होती है कि सत्य से जितना दूर होते जाते हो — अपनी नज़रों में, हो तो सकते नहीं, वो तो बैठा है तुम्हारे दिल में — सत्य से जितना दूर होते जाते हो, उतना ज़्यादा तुम्हारे कानों में वो आवाज़ें पड़ती जाती हैं जो तुम्हें सत्य की ख़िलाफ़त सिखाती हैं।

एक आवाज़ आपकी भी हो जाए मदद की, जो बोले, 'क्यों ध्यान दे रही हो इन सब बेकार की आवाजों पर? किन लोगों से, किन तर्कों से अपनेआप को घिरने दिया है तुमने, किनकी बातें सुन रही हो? और इनकी बातें तब सुनती थी जब सत्य के आलिंगन में थी? तब ये कहाँ थे? आज ये तुम्हारे सहायक, दोस्त हितैषी बनकर सामने आ रहे हैं, ये हितैषी नहीं हैं। हितैषी नहीं हैं इसका प्रमाण ही यही है कि आज तुम्हारे सामने आये हैं जब सत्य से तुम्हारी दूरी है।'

ये तुम्हें मिले ही तब हैं जब तुम सत्य से दूर हो गयी हो, इसका अर्थ क्या है? कि ये कहाँ पर हैं? ये स्वयं सत्य से दूर हैं इसीलिए तुम्हें मिले ही तब जब तुम सत्य से दूर हो गयी। आज ये तुमको मिले हैं और ये तुम्हें बड़े अद्भुत तर्क देते हैं। तुम तो हृदय पर चलती हो, बहुत तुम विचार कर नहीं पाती। इनके तर्कों में धार होती है और जितना तुम इनके तर्कों को सुनती हो, उतना तुम आश्वस्त होती जाती हो कि इनकी बात ठीक ही है।

उनकी बात नहीं ठीक है, तुम्हारा और उनका स्थान मिल रहा है। वो जहाँ से बोल रहे हैं ठीक वहीं पर खड़ी होकर के तुम सुन रही हो, इसीलिए तुम्हें उनकी बात ठीक लग रही है। वो कहाँ से बोल रहे हैं? वो सत्य से दूरी बनाकर बोल रहे हैं। तुम कहाँ से सुन रही हो? तुम सत्य से दूरी बनाकर सुन रही हो। जहाँ से बोला जाएगा जब वहीं से सुना जाएगा तो बात में दोष दिखायी कहाँ देगा?

उसके पास जाएँ और कहें, समझाएँ उसे कि तुम्हारे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं। इतना कुछ जो तुम कर रही हो, भूल मत जाना कि कर इसीलिए रही हो कि वो मिल जाए और वो तुम्हें मिला हुआ है, तुम्हें बस स्वीकारने की ज़रूरत है। देरी बस इसलिए हो रही है क्योंकि तुम मिलने के रास्ते बना रही हो और किसी रास्ते की कोई ज़रूरत नहीं है। भूल जाओ सारे रास्तों को, आँख बन्द करो, आवाज़ दो और तुम उसे यहीं पर पाओगी।

आँख तुमने खोल रखी है, तुम्हें दुनियाभर के तमाम विक्षेप दिखायी देते हैं, मन को तुमने चलने दिया है। मन का तो काम है तर्क उठाना, मन को कहो, 'थम!' वो थमना ही तो सत्य है। मन थमा नहीं कि तुम्हें दिखायी देगा कि वो अभी भी बगल में ही है तुम्हारे।

क्यों इंतज़ार करते हो कि जब दिवाली आएगी तब उत्सव मनाएँगे, राम प्यारे हैं यदि तो दीवाली का इंतज़ार क्यों? लेकिन तर्क तुम्हारा ये है कि देखिए, हम इतना प्यार करते हैं राम से कि दिवाली पर घर को सजाएँगे। मैं पूछ रहा हूँ, इतना ही प्यार करते हो तो दीवाली पर ही क्यों? ये माया का तर्क है कि एक ख़ास दिन आएगा, एक ख़ास दिन आएगा। ऐसी ही होती हैं हमारी दिवालियाँ। जिस दिन नौकरी लग जाएगी, जिस दिन मेरा घर बन जाएगा, जिस दिन ब्याह होगा, जिस दिन तरक़्क़ी होगी, जिस दिन सूरज पश्चिम से निकलेगा, उस दिन हम अपनेआप को हक़ देंगे आनन्द का, ये है माया, उस दिन की तलाश।

'और यदि अभी वो दिन नहीं आ रहा तो इसमें दोष सत्य का है, सत्य अक्खड़ है, घमंडी है, हठी है, अपनी जगह से उठकर के मुझे लेने नहीं आ रहा। आज यदि विरह है तो उसके ज़िम्मेदार तुम हो सत्य, हम नहीं। अरे! हम तो आ ही रहे थे तुम्हारी ओर, तुम ही तुले हुए थे कि और आओ, और आओ। चूँकि ज़िम्मेदार तुम हो इसीलिए अब तो तुम अगर हमें मनाने भी आओगे तो हम और रूठेंगे और जितना विलम्ब तुम कर रहे हो हमें मनाने में, उतना ज़्यादा हम दूर होते जा रहे हैं और उतना ज़्यादा हमारा मानना अब दुष्कर होता जा रहा है।'

एक वक़्त ऐसा भी आता है जब दूरियाँ इतनी बढ़ जाती हैं कि सत्य अपरिचित ही लगने लगता है। इतना घिर जाते हो दूसरों से कि जब प्रेमी सामने आता है तो उसके लिए दरवाज़ा बन्द कर देते हो। दरवाज़ा बन्द हो चुका है, दरवाज़े पर आहट करिए, आपकी दस्तक की बहुत ज़रूरत है माया को।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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