प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये जो कुछ भी आप कर रहे हैं इसमें भी, क्या इसमें आपका कोई स्वार्थ है? और अगर है, तो क्या स्वार्थ है?
आचार्य प्रशांत: देखो, स्वार्थ तो पूरा-पूरा है, मैं क्यों कहूँ कि इसमें मेरे लिए कुछ नहीं है? तुम्हारे लिए किताबें पब्लिश (प्रकाशित) होती हैं, विडियो पब्लिश होते हैं, ये सब करता हूँ तो एक उद्देश्य मिला रहता है ज़िन्दगी को, दिनभर लगातार करने के लिए व्यस्तता बनी रहती है, जितनी सम्भाल पाता हूँ उससे ज़्यादा व्यस्तता बनी रहती है।
अभी ये करना है, अभी ये करना है, अब क़िताब छपने जा रही है उसको देख लो, ‘चलिए आचार्य जी नीचे आइए, सत्र है, लोग आ गए हैं, रिकॉर्डिन्ग होगी’। तो कुछ-न-कुछ रहता है जो दिन को भरे रहता है, जीवन को भरे रहता है। तुम लोग नहीं होते, तुम्हारे सवाल नहीं होते तो करने के लिए मेरे पास कुछ होता भी नहीं फिर।दिनभर करूँगा क्या? अपना तो कुछ है नहीं व्यक्तिगत, जो निपटाना है। व्यक्तिगत तो अपना जो कुछ निपटाना था वो कब का निपट गया।
तो यही स्वार्थ है, बड़ी बढ़िया व्यस्तता दे रखी है तुम लोगों ने। सोते-सोते भी काम का ही ख़्याल रहता है। पता नहीं चल रहा समय बीतता जा रहा है और समय का इससे अच्छा, इससे सुन्दर सदुपयोग क्या हो सकता है जो अभी मैं कर पा रहा हूँ। और वो मैं तुम्हारी ही बदौलत कर पा रहा हूँ। तुम लोग नहीं होते, तुम पास नहीं आते, तुम अपने सवाल नही लाते तो मैं जो कुछ भी बताना चाहता हूँ, देना चाहता हूँ वो मैं बताता किसको? देता किसको? इस नाते तो वास्तव में, मैं तुम्हारा आभारी हूँ।
तुम्हें मुझसे कुछ मिल रहा होगा, मेरी उम्मीद है कि तुम्हें मुझसे कुछ मिल रहा हो लेकिन मुझे भी तुमसे बराबर का तो मिल ही रहा है, हो सकता है ज़्यादा मुझे तुमसे मिल रहा हो।क्योंकि एक सार्थक जीवन से ज़्यादा बड़ी तो कोई चीज़ होती नहीं जो किसी को मिल सके। किसी को भेंट देनी हो तो सबसे ऊँची भेंट होती है कि उसे तुम एक सार्थक जीवन दे दो।अब तुम लोगों ने अपनी मौजूदगी से मुझे एक सार्थक जीवन दे रखा है तो तुमने ही मुझे बहुत बड़ी भेंट दी है। देने वाले तुम हो, मैं तो एक तरह से लेने वाला हुआ, है न?
तो यही स्वार्थ है कि मन लगा रहता है और मन को कहीं-न-कहीं तो लगना ही है। उसे ऊँची-से-ऊँची जह पर, ऊँचे-से-ऊँचे काम में लगाओ, यही अच्छा है, धन्यवाद।