आप स्वयं को गुरु कहलाने में संकोच क्यों करते हैं? || आचार्य प्रशांत, गुरुपूर्णिमा पर (2020)

Acharya Prashant

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आप स्वयं को गुरु कहलाने में संकोच क्यों करते हैं? || आचार्य प्रशांत, गुरुपूर्णिमा पर (2020)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। गुरु पूर्णिमा पर आपको बहुत सारा धन्यवाद। आपके कारण मैंने ईशावास्य उपनिषद् पढ़ा, वैसे पहले बस में उपन्यास वगैरह ही पढ़ता था। सर, ये बताइए कि आपने अपनेआप को गुरु बुलवाने में इतना अनकम्फ़रटेबल (असुविधाजनक) क्यों रखा है? आप हमेशा खुद को गुरु बुलवाने में इतना अनकम्फ़रटेबल क्यों रहते हैं? कैसे-कैसे लोग गुरु बने हुए हैं और आप तो उनमें सबसे बेहतर लगते हैं मुझे। आप लगते तो गुरु ही हैं तो फिर मानते क्यों नहीं?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारी मर्ज़ी है कुछ भी बोल लो। मैं इसमें अब इतना आग्रह कर रहे हो तो, ठीक है, बोल लो (हँसते हुए)। तुम एक नाम जोड़ करके अपने लिए सुविधा बना लेते हो। उस नाम के साथ तुमने बहुत सारी छवियाँ और उम्मीदें, कहानियाँ जोड़ रखी हैं न। छवियाँ, उम्मीदें, कहानियाँ चाहे जिस तरफ़ की हों, जिस तरह की हों, जिसको लेकर हों उन्हीं से भ्रम और दुख उपजते हैं।

तुम्हारी एक दुनिया है, समझ रहे हो? अब ये (फूलों से सजी एक थाली हैं जिसके मध्य में बुझी हुई मोमबती है) तुम्हारी दुनिया है, इसके केन्द्र में तुम बैठे हो। ये क्या है? तो ये दुनिया है तुम्हारी, तो इसके केन्द्र में तुम बैठे हो, ये, बुझी हुई, ठीक है। और ये सब फूल पत्तियाँ हैं, जो तुमने इकट्ठा कर रखे हैं, ये तुम्हारा घर है। और ये शेष विश्व है, और इसमें ये है, वो है, पचास चीज़ें हैं। ठीक है?

इसी में ये जो जलती हुई दो-चार (मोमबतियाँ) हैं, इनको तुमने क्या नाम दे दिया? कि ये गुरु हैं। तो ये तुम्हारी दुनिया है, सवाल ये है कि इस दुनिया में तुमने ये जलती हुई मोमबत्तियों को नाम तो दे दिया है गुरु का। लेकिन इस दुनिया में तुम्हारी क्या हालत है? (दोहराते हुए) लेकिन इस दुनिया में तुम्हारी क्या हालत है? तुम बुझे हुए हो और तुम चाहते हो कि यही दुनिया कायम रहे।

इस दुनिया में भले ही तुमने एक छवि बना रखी है, कि ये छः जनें हैं जो जले हुए हैं बिलकुल। ये महागुरु हैं, ये गुरुदेव हैं, ये सद्गुरु हैं, वो — बोलो भाई कौन — परमगुरु हैं, वो पारगुरु हैं, वो...। तो ये तुम्हारी दुनिया है, जिसमें तुमने छः या साठ या छः सौ तुमने गुरु बैठा रखे हैं। उनके बीच में तुम हो ऐसे (बुझे हुए)। अब तुम चाहते हो कि इसी दुनिया में, ये जो तुमने एक ढाँचा, एक पैराडाइम (प्रतिमान) बना रखा है, इसी में तुम मुझे भी कहीं पर बैठा दो, फिट कर दो।

तो तुम तैयार हो, तुम कह रहे हो कि मार्केट में एक नया-नया आया है, जैसा कि तुम यूट्यूब पर कमेंट भी लिखते हो कई बार, तो छः थे, चलो अब सात कर लेते हैं। तुमने कर लिया सात, नतीजा ये निकलेगा, तुम तो, ऐसे के ऐसे (बुझे) ही रह जाओगे न और यही तुम चाहते हो, कि मुझे भी तुम इनमें ही शामिल कर दो, ताकि तुम्हें ऐसा (बुझा हुआ) बना रहने में पूरी सुविधा रहे। मेरे इरादे थोड़े खतरनाक हैं, मैं वहाँ कोने में बैठने को राज़ी ही नहीं हूँ, मैं तो घर में घुसकर चला आता हूँ। तो इसलिए मैं कहता हूँ, मुझे गुरु वगैरह मत बोलो क्योंकि गुरु वगैरह बनाकर के तुम मुझे भी अपने संसार की परिधि पर बैठा दोगे, वहाँ कोने में। मुझे आना है बिलकुल केन्द्र में, मुझे ये नहीं करना है कि मैं वहाँ बैठकर के अपना ही डंका बजाता रहा हूँ, मियाँ मिट्ठू बनता रहूँ अपने मुँह। कि पूरे में अन्धेरा है, बीच में एक लौ जल रही है, ‘आ हा हा हा! क्या पवित्र पावन लौ है!’ उसका नाम है गुरुदेव। ये साल के तीन-सौ-पैंसठ दिन हैं, जिनमें गुरुदेव की उपस्थिति नहीं, गुरु पूर्णिमा वगैरह आये तो जाकर के थोड़ा उधर देख आये, अच्छा! वहाँ लौ जल रही है, क्या पवित्र लौ है, आ हा शिखा!

वो बहुत बेकार ढाँचा है, तुम समझ रहे हो? उसे ढाँचे में तुमने जिसको व्यवस्थित कर लिया, उसे ढाँचे में तुमने जिसको समायोजित कर दिया, माने क्या कर दिया? फिट कर दिया, वो अब तुम्हारे किसी काम का नहीं रहा। तुम्हें कुछ ऐसा चाहिए, तुम्हें कोई ऐसा चाहिए, जो तुम्हारे ढाँचे से बाहर का हो, जो तुम्हारे ढाँचे में बिलकुल टूट-फूट मचा दे, जो तुम्हारी इस मेज़ को (मेज़ की ओर संकेत) ही ऐसे उठाकर उलट दे।

तुम्हें तो मज़ा ही आ रहा है, तुम यहाँ अपना सोये पड़े हो आराम से। जगने का ठेका तुमने किसको दे दिया है? ये जो पाँच-सात गुरु लोग बैठे हैं, इनको बोल दिया, ‘आप जगे रहो, जले रहो। हमारा काम है फूलों के बीच में सोना’। ये देखो, चारों तरफ़ फूल ही फूल हैं, ये प्रकृति के फूल हैं और इनके बीच में तुम बुझे हुए हो बिलकुल।

तो अगर इन सबको तुम गुरु बोलते हो, और तुम इन्हीं को तो गुरु बोलते हो न, तो मुझे इनकी निष्फलता में भागीदार नहीं होना। ये निष्फल गये हैं, ये व्यर्थ गये हैं, इसका प्रमाण क्या है बताओ? ये (बुझी हुई मोमबत्ती को हाथ में उठाते हुए)।

तुम्हारी ये हालत इस बात का प्रमाण है न कि तुम्हारे ये जितने गुरु चल रहे हैं दुनिया में, ये सब तुम्हारे लिए व्यर्थ गये हैं। अगर इनमें कोई दम होता, तो तुम ऐसे फूके हुए क्यों होते? और तुम मुझे इन्हीं की श्रेणी में रख देना चाहते हो क्योंकि तुम्हें ऐसा ही रहना है। मैं तुम्हें ऐसा रहने नहीं देना चाहता। तो ये अभी मेरे तुम्हारे बीच रस्सा-कस्सी चल रही है। तुम मुझे गुरु बनाना चाहते हो, मैं बना नहीं चाहता। तुम मुझे गुरु बनाकर के बिलकुल कचरा-कबाड़ कर देना चाहते हो, मैं कचरा-कबाड़ हो गया तो मैं तुम्हारे काम का नहीं रहूँगा। तुम्हें ये बात समझ में नहीं आती।

ये सब, फिर पूछ रहा हूँ, ये सब तुम्हारे काम के होते तो तुम्हारी ये हालत होती? तुम मुझे गुरु कह रहे हो, मैं पहला गुरु हूँ क्या तुम्हारा? मैं पहला बन्दा हूँ क्या जिसको तुमने गुरु शब्द से नवाज़ा है? तुमने तो आज से पहले दर्जनों, सैकड़ों को गुरु कह रखा है न? कह रखा है न? तो अगर किसी को गुरु कह देने से, तुम्हें कोई फ़ायदा होना होता तो आजतक हो गया होता। मतलब साफ़ है, तुमने जहाँ किसी को गुरु बनाया, तहाँ वो तुम्हारे लिए व्यर्थ हो गया। मुझे भी तुम व्यर्थ और बेअसर कर देना चाहते हो इसीलिए गुरु कहना चाहते हो।

तो मैं इसलिए कहता हूँ, गुरु वगैरह मत बोलो, साधारण व्यक्ति ही जानो, बेहतर सुन पाओगे। गुरुओं से तो बात करने का भी एक तरीका होता है, कौनसी बात कर सकते हैं, कौनसी नहीं कर सकते हैं, क्या सवाल पूछ सकते हैं, क्या नहीं पूछ सकते हैं। कौनसे सवाल पूछ सकते हो गुरु से? जो बिलकुल एकदम काम के न हो तुम्हारी ज़िन्दगी के, वो सवाल पूछा करो। जैसे कि यहाँ से कितने प्रकाशवर्ष दूर देवदूतों का गाँव है? और उस देवदूतों के गाँव में अप्सराओं को आने की मनाही है या नहीं है? इस तरीके के तुम्हारे सवाल होते हैं। ऐसे सवाल जिनका तुम्हारी ज़िन्दगी से कोई ताल्लुक न हो। गुरुओं का काम ही यही है इन सवालों के जवाब देना और बड़े बढ़िया! ऐसे जवाब देना कि मन्त्रमुग्ध हो जाओ, ‘क्या जवाब दिया है गुरुदेव ने!’ कि मरने के बाद प्राण, बायें नथुने से निकलता है, कि दायें नथुने से निकलता है, कि मुँह से निकलता है कि कान से निकलता है या शरीर के और दरवाज़ों से निकलता है? शरीर में हर जगह सेंसर (संवेदक) लगा दो। गज़ब!

और इस तरह के विषयों पर गुरुदेव बिलकुल दनदनाकर बोलते हैं। खास निपुणता रखते हैं, बस विषय ऐसा होना चाहिए कि जिसका तुम्हारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से कोई ताल्लुक न हो। और तुम्हारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के सवालों को मैं लेता हूँ, तो तुमको दिक्कत हो जाती है। तुम कहते हो, ‘आप तो गुरु हैं न’ — आप लोगों की टिप्पणियाँ आती हैं उन्हीं से उद्धरित कर रहा हूँ — ‘आप तो गुरु हैं न तो वो रीना का और सिम्पी का जो सवाल आया था, वो आपने क्यों लिया? वो पूछ रही थी कि ब्रेकअप हो गया है, बॉयफ्रेंड याद करता होगा क्या? ये कोई सवाल है? आपको शोभा नहीं देता, इस तरह के सवाल लेना, आप इन्हें धुत्कार दिया करिए। ये सब टिक-टॉक वाले लड़के लड़कियाँ, ये आपको ऐसे सवाल क्यों भेजते हैं फ़िजूल? और इन्होनें भेज भी दिया तो आप इनका जवाब क्यों देते हैं?’

नहीं, मैं इन सवालों का जवाब न दूँ, मैं तुम्हारे सवालों का जवाब दूँ न? और तुम्हारा सवाल क्या है? कि मेरे भीतर से जो कमल खिल रहा है, वो बताइए। ‘कब मेरा छप्पर फाड़कर बाहर आएगा?’ मैं इस सवाल का जवाब दूँ? अरे! वो टिक-टॉक वाले होंगे, इंसान हैं कि नहीं हैं? और इसी देश के लड़के लड़कियाँ हैं, हमारी ज़िम्मेदारी हैं वो। अब उनके पास इसी तरह के सवाल होते हैं तो मैं क्या करूँ? उन सबको ठुकरा दिया करूँ कि मैं तुम्हारा कोई सवाल नहीं लूँगा? तो मैं कितने सवाल ठुकराऊँ?

और ये बात अठारह-बीस साल वालों की ही नहीं है, यहाँ तो अड़तीस साल वाले, अड़लातीस साल, अट्ठासी साल वाले भी आते हैं तो उनके पास सवाल यही होता है, ‘वो वासना, थोड़ा-सा बताइएगा, सताती बहुत है।’ अब मैं कहूँ, ‘नहीं, छी छी छी! शू-शू! गन्दा सवाल, गन्दा सवाल!’ मैं गुरु हूँ न गुरु और गुरु तो बस अच्छा सवाल लेते हैं कि पंजीरी कैसे बनानी है! और ताँबे के लोटे में चरणामृत तैयार करें या काँसे के लोटे में। और पूर्णिमा है आज, तो पूर्णिमा के दिन किस दिशा को मुँह करके मूत्र त्याग करना चाहिए।

ये सब सवाल तुम चाहते हो कि गुरुदेव लें क्योंकि ये सब तो शास्त्रीय सवाल हैं तुम्हारे हिसाब से। जीवन से सम्बन्धित कोई सवाल गुरुदेव लें ही नहीं और लें तो फिर ऐसे लें कि उनकी खिल्ली उड़ा दें बस, (हँसने का अभिनय) ‘हा हा हा हा हा!’ तुम सवाल पूछो, गुरुदेव लगे हँसने, कि ये तो क्या बेकार का सवाल पूछ रहे हो, जा बच्चा, तू पहले जा, कोई बड़ा सवाल लेकर आ।

यही तुम्हारी साज़िश है, कि इनको भी बिलकुल चढ़ाओ अब चने के झाड़ पर, ताकि ये ज़िन्दगी से सम्बन्धित फिर कोई समस्या हल ही न कर पाएँ। बना दो इनको मठपति। नाम कुछ बड़ा-सा इतना विभूषित कर दो कि ये इनका नाम है, इतना बड़ा नाम बता दो कि फिर उनके आगे आदमी को खुद ही शर्म आये, जीवन की कोई असली समस्या रखने में। हैं न? इतना बड़ा इनका नाम है! ‘श्री श्री एक-हज़ार-आठ देवाय आचार्यो नमः’।

अब कैसे फिर बताओ, बेचारा अजितेश, वो अपना लेजेंडेरी (प्रसिद्ध) सवाल पूछेगा? पूछ पाता? कर ही नहीं पाता, अब वो तो जब इसने मुझे थोड़ा-सा निकट का पाया अप्रोचेबल (सुलभ), तो जान लगाकर के, जोर लगाकर के — पाँच-छः बार मना किया गया था, ‘कुछ पूछना नहीं, कुछ पूछना नहीं।’ — तो भी कभी दरवाज़े से घुसकर, कभी खिड़की से कूदकर इसने पूछ ही मारा सवाल। और फिर आगे जो हुआ, वो इतिहास है।

वो भी ये क्यों कर पाया? क्योंकि मैं कोई मुकुटधारी गुरु नहीं था। अभी मैं यहाँ बैठा होता पन्द्रह-बीस तरह की माला पहन करके और इतना बड़ा मुकुट लगाकर के और इधर से दो लोग चँवर ढल रहे होते और दो इधर लगे होते और पाँच-सात इधर पाँव में लोट रहे होते, तो वो भी कहता कि नहीं नहीं ये तो गुरुदेव हैं, यहाँ इस तरह की बातें थोड़े ही करनी हैं।

हमने अपनी ज़िन्दगी के दो खाने बना रखे हैं, दो कक्ष, दो कमरे। एक है वो जिसको हम सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करते हैं, वहाँ गुरु वगैरह सब आते हैं, वहाँ अच्छी-अच्छी बातें चलती हैं। और दूसरा है हमारी ज़िन्दगी का तहखाना, जहाँ हमने सब अपना गन्दा-गन्दा माल इकट्ठा कर रखा है, जो हम किसी गुरु वगैरह के आगे प्रदर्शित करते ही नहीं। और हमारी ये व्यवस्था खूब मस्त, बढ़िया चल रही है।

चल रही है न?

एक तो रखो ज़िन्दगी की चौपाल, बैठक, अतिथि कक्ष, जिसमें सब बाहर वाले लोग शामिल हों, जिसमें सब अच्छी-अच्छी ही बातें होती हैं। कि लोग आये हैं, बैठे हैं और रामचरितमानस का पाठ हो रहा है, गीता के श्लोक उद्धरित किये जा रहे हैं, विष्णु सहस्त्रनाम बताए जा रहे हैं, ये सब चल रहा है। ऊपर बढ़िया-बढ़िया बातें और सबको पता है कि कौनसी बात यहाँ नहीं करनी है। कौनसी बात नहीं करनी है? वो जो असली तहखाना वाली बात है वो यहाँ नहीं करनी है।

तुम्हारी ये जो साज़िशी दुनिया है, ये रची ही तुमने इसलिए है ताकि तहखाने की कभी सफ़ाई न होने पाए। और मेरा काम है तहखाने में घुसना, मैं सेंधमार हूँ, तुम बार-बार मुझे ऊपर बैठाना चाहते हो, ज़रा-सी तुम्हारी नज़र इधर-उधर होती है, मैं नीचे घुस जाता हूँ। मैं कहता हूँ, ‘वहाँ क्या है वो बताओ’। जो तुम मुझे दिखा रहे हो, वो देखने में मेरी रूचि ही नहीं, मैं देखूँगा वो जो तुम छुपा रहे हो।’

गुरु तुम बनाकर के मुझे दिखाना ही अच्छी-अच्छी चीज चाहते हो और मुझे मालूम है कि अच्छा-अच्छा तो तुम्हारे जीवन में ज़्यादा कुछ है नहीं। तुम मुझे अगर अच्छी-अच्छी चीज़ें दिखा रहे हो और बता रहे हो, प्रश्न भी अच्छे-अच्छे, शुद्ध-शुद्ध ही पूछ तहे हो तो तुम षड्यन्त्र कर रहे हो; ऊपर-ऊपर मेरे खिलाफ़, अन्दर-अन्दर अपने खिलाफ़। अगर अपनी बेहतरी चाहते हो तो वो तहखाना साफ़ करो। सारी ज़िन्दगी वहाँ जमा है, असली बातें करो।

समझ में आ रही है बात?

प्र २: क्या ये कह सकते हैं कि जब हम किसी को गुरु बनाते हैं तो अपनी अच्छी-अच्छी छवि तो उनके आगे प्रदर्शित करते ही हैं उनसे ये भी अपेक्षा रहती हैं कि वो भी अच्छे-अच्छे ही बने रहें।

आचार्य: ये तो एक आपस में वही है, ‘तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊँ। तू गुरु का किरदार निभा और मैं चेला बन जाऊँ।’ और हम दोनों बिलकुल वही करेंगे जो पारम्परिक रूप से गुरु-चेले करते आये हैं। गुरुजी अपना ज्ञानदान देंगे और सब जो दुनिया की उज्जवल और उच्चतम बातें हैं वो करेंगे और चेला हुँकारा मारेगा, (हुँकारे का अभिनय करते हुए) ‘हूँ! हूँ!’

और गुरुजी को भी अपनी सीमा और मर्यादा पता है, उन्हें पता है कि चेला मुझे डेढ़ घंटे से ज़्यादा झेल सकता नहीं, जब डेढ़ घंटा पूरा होगा तो गुरुजी अब खुद ही कहेंगे, ‘अच्छा! अब जा’। क्योंकि उन्हें पता है कि अब चेले को खुजली मच रही है, अब उसके दूसरे प्राकृतिक काम करने का वक्त आ रहा है, ज़्यादा इसको अगर रोका चेले को, तो फिर गुरु की मर्यादा ही भंग करेगा ये। तो इसको उतना ही खींचो, जितना ये चलेगा। इसको उतना ही श्लोक सुनाओ, उतना ही ज्ञान दो, जितना ये बर्दाश्त करेगा क्योंकि ज़िन्दगी के हैं दो हिस्से।

मेरा जो हिस्सा है, वो बस इतना ही है कि मैं इसको थोड़ा बहुत ऊपर-ऊपर का ज्ञान दे दूँ, मुझे शिष्य ने ये अनुमति ही नहीं दी है कि मैं उसकी ज़िन्दगी के तहखाने में घुसकर के मूल गन्दगी की सफ़ाई करूँ। तो ये गुरु का और शिष्य का आपसी समझौता होता है, इस समझौते में दोनों को सुविधा रहती है।

गुरु सम्माननीय बना रहता है और चेले को भी ऊपर-ऊपर से नैतिक बने रहने की सुविधा। चेला भी कहता है, ‘नहीं, मेरी ज़िन्दगी पूरी गन्दी थोड़े ही है, तहखाना होगा, लेकिन देखो न मुझे गुरुजी से भी तो गुरुजी से भी तो प्रमाणपत्र मिला हुआ है कि मैं अच्छा चेला हूँ। मैं पूरा गन्दा थोड़े ही हूँ, मैं बीच-बीच में गुरुजी के पास जाया करता हूँ और वो मुझे अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं तो मैं बोलता हूँ — (हुँकारा भरने का अभिनय करते हुए) ‘हूँ!’ मैं इतना गन्दा नहीं हूँ।’

तो चेले को भी अपनी गन्दी ज़िन्दगी चलाये रहने में खूब सुविधा हो जाती है। गन्दी ज़िन्दगी चलाओ और महीने में एक बार गुरु के सामने जाकर बैठ जाओ और खुद को ही प्रमाणपत्र दे दो कि मैं तो पूरे तरीके से गन्दा आदमी नहीं हूँ, मैं थोड़ा-बहुत अच्छा हूँ। गुरुजी भी खुश हो जाते हैं। चेला महीने में एक बार आता है और अपनी जो मानसिक गन्दगी है, उसको धोने के एवज में कुछ दान-दक्षिणा रख जाता है। गुरुजी भी कहते हैं, ‘ठीक है। तुझे एक चरित्र प्रमाणपत्र चाहिए, वो मैं दे दूँगा, महीने में कुछ रख जाया कर यहाँ पर।’ और यही गुरुजी जिस दिन असली बात करनी शुरू कर दें, चेला नज़र नहीं आएगा उसके बाद। तो खेल ही यही चल रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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