प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर। मैं रूपेश कुमार, आइआइटी कानपुर से हूँ। सर, मेरा प्रश्न था कि भारतीय लोग जानने के प्रति उदासीन क्यों हैं? कि या तो हम लोग किसी भी एक मान्यता को फॉलो करना चाहते हैं। जैसे कि जो लोग कोई भी पूजा-पाठ टाइप या फिर जो भी हमारे घर में हम देखते आऍं हैं या फिर हम वही करना चाहते हैं या फिर हमने किसी नयी विचारधारा या फिर किसी नयी मान्यता या किसी नये व्यक्ति को पूरी तरह फॉलो करने लग जाते हैं, बिना ये जाने कि उसमें कितना सच है और कितना ग़लत। तो हम लोग कुछ भी नया जानने के प्रति उत्सुक क्यों नहीं हैं? और मानने के प्रति क्यों उतना वो रहते हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो, नया जानने की तो बात ही तब उठती है न जब पहले ये विनम्रता से स्वीकार किया जाए कि हमें अभी पता नहीं है, हमने जाना नहीं हैं। अगर आपने अपनेआप को आश्वस्त कर लिया है कि आप जान ही गये हैं तो फिर नये जानने की तो कोई बात उठेगी नहीं न। आपका जो प्रश्न है वो विशेषकर धर्म और परम्परा के सम्बन्ध में है क्या?
प्र: नहीं, सर। जैसे कि हम यहाँ आस-पास कुछ लोगों को देखते हैं तो वो या तो पार्टी टाइप होते हैं या फिर पूजा-पाठ टाइप। तो वो लोग एक ही तरह को फॉलो (अनुसरण) किये जाते हैं। कि बिना उस पर किसी भी नयी चीज़ को सोचे समझे बिना।
आचार्य: तो ये दो बताये, एक पार्टी टाइप, एक पूजा-पाठ टाइप। तो पूजा-पाठ वालों से शुरू करो। इनके साथ क्या हुआ है कि इन्होंने अपनेआप को जता लिया है कि जो अन्तिम सत्य है वो इनको पता ही है, क्योंकि इनके पुरखे बहुत महान थे। तो इनके पुरखे इनको सत्य की, जीवन की, ईश्वर की जो भी अवधारणा दे गये हैं और उस अवधारणा को इन्होंने जो भी समझा है। ये उसी को दोहराते रहें तो बिलकुल ठीक है। इनसे पूछोगे तो ये कहेंगे कि जो भी ऊँची-से-ऊँची बात थी वो अतीत में पहले ही कही जा चुकी है। जो भी अन्तिम सत्य खोजा जा सकता था वो खोजा जा चुका है, तो हम अब नया क्या जान लेंगे। आम भाषा में कहें तो नया क्या उखाड़ लेंगे।
हमारा अतीत इतना गौरवशाली है, और हमारे पुरखे इतने महान हैं कि उन्होंने अन्तिम बात हमको बता दी है पहले ही। और ये बात कहने में अहंकार को बड़ी सन्तुष्टि भी होती है, क्योंकि हमारे पुरखे हैं न। किसके पुरखे? हमारे पुरखे। सिर्फ़ पुरखे नहीं, हमारे पुरखे। तो जैसे हमें ये कहने में बड़ा सन्तोष होता है कि मेरी कार सबसे चमकदार, वैसे ही हमें ये कहने में बड़ा अहंकार होता है कि हमारे पुरखे सबसे ऊँचे। ठीक है? इसी तरीक़े से हम बोलते हैं फिर कि मेरा विचार सबसे ऊँचा या मेरा बच्चा सबसे होशियार या मेरा धर्म सबसे श्रेष्ठ। इन सब में साझा क्या है? ‘मैं’। मेरा है न? तो सबसे ऊँचा होगा ही।
अब भारत में हुआ क्या है कि हमारे पुरखे वास्तव में श्रेष्ठ थे। सब पुर्खे नहीं, उनमें से कुछ गिने-चुने। ऋषि-मनीषी, कवि, वैज्ञानिक वो श्रेष्ठ थे। और सचमुच वो कुछ हमें बहुत ऊॅंची बातें विरासत में छोड़कर गये भी हैं, लेकिन धर्म का क्षेत्र कुछ ऐसा है कि वहाँ आप दूसरों का पकाया हुआ नहीं खा सकते, वहाँ हर व्यक्ति को अपना स्वयं ही पकाना पड़ता है। दूसरे अधिक-से-अधिक आपको कुछ दिशा या निर्देश दे सकते हैं। पकाना तो स्वयं ही पड़ता है। क्योंकि वो चीज़ ऐसी है जिसमें जानने भर से बात नहीं बनती, जानने वाले को बदलना पड़ता है।
अगर सिर्फ़ जानने जैसी बात होती जैसा विज्ञान में होता है कि भई किसी ने आपको ज्ञान दे दिया और आपने उस ज्ञान को जान लिया तो आप भी ज्ञानी कहला गये, वैज्ञानिक हो गये। तो, तो फिर भी चलो बात बनती। अध्यात्म में ऐसा नहीं होता। अध्यात्म में जो जानने वाला है उसको स्वयं ही मिटना पड़ता है, विगलित होना पड़ता है। हर व्यक्ति जो अध्यात्म में निकलता है आगे वो शुरुआत अपनी शून्य से ही करता है। हो सकता है पुरखे बहुत महान रहे हों, लेकिन आप फिर भी शुरुआत शून्य से करोगे। महानता विरासत में नहीं मिल सकती।
धार्मिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में महानता विरासत में नहीं मिल सकती। विरासत में ग्रन्थ मिल सकते हैं, विरासत में ज्ञान मिल सकता है, पद्धतियाॅं भी मिल सकती हैं, महानता तो स्वयं ही अर्जित करनी पड़ती है। लेकिन ये बात हमारा अहंकार स्वीकारता नहीं है। वो कहता है कि पुरखे महान थे, और हम बस पुरखों की दी हुई पूजा पद्धति को दोहरा रहे हैं तो हम भी महान हो गये न। अब अगर नया जानने की कुछ कोशिश करेंगे तो वो तो बात हो जाएगी कि जैसे हम ख़ुद ही नये सवाल उठा रहे हों। हम नये सवाल क्या उठाएँ? सवाल जितने भी उठाये जा सकते थे उनका उत्तर तो अतीत में दिया जा चुका है, तो हम कोई नया सवाल नहीं उठाऍंगे। नया सवाल ख़तरनाक होगा। नये सवाल का मतलब होगा अतीत पर ही प्रश्न चिह्न लगाना। हम कोई नया सवाल नहीं उठाऍंगे।
हमारे पुरखे महान थे, हम भी महान हैं। क्यों? क्योंकि उन्होंने जो हमें बताया, हम उसका पालन कर रहे हैं। अब बात ये है कि आप अगर स्वयं महान नहीं हो तो दूसरे महान लोगों की बातें समझ ही नहीं सकते, उनका पालन कैसे कर लोगे? (हॅंसते हुए) आप क्या सोचते हो कि गीता की एक प्रति घर में रख लेने से आप कृष्ण सरीखे हो गये या अर्जुन जैसे हो गये? न। आप क्या सोचते हो आप गीता का रोज़ पाठ भी कर लेते हो तो भी आप में कुछ बोध आ गया? न। गीता तो उसके लिए है जो अर्जुन की तरह निर्मम और निर्मोही हो सके। वो आपने करा नहीं। जो निर्ममता अर्जुन ने दिखाई वो तो आपने दिखाई नहीं तो आपको गीता कहाँ से समझ में आ जाएगी? पर आप कहते हो नहीं मैं भी महान हूँ, और मुझे कोई सवाल करने की ज़रूरत नहीं है, सवाल-जवाब का कुछ अब स्थान बचा ही नहीं है। सब मुझे पता है।
समझ में आ रही है बात?
तो पूजा-पाठ वाले इस तरह से कोई नया सवाल उठाने से बिलकुल बचते हैं। उनको ये लगता है आप नया सवाल उठाओगे तो ये कुछ नास्तिकता जैसा हो जाएगा। वो ये नहीं समझते हैं कि आस्तिकता का अर्थ ही यही होता है ‘जिज्ञासा’। जो जिज्ञासा नहीं कर सकता, जो खुले सवाल नहीं पूछ सकता, जो निर्भीक होकर के ऊँची-से-ऊँची चीज़ पर भी प्रश्न खड़ा नहीं कर सकता वो आस्तिक है ही नहीं।
जब आप बोलते हैं ‘आस्तिक’ तो उसका अर्थ होता है वो जो चेतना की मुक्ति की सम्भावना में विश्वास रखता हो। पूछा गया क्या चेतना मुक्त हो सकती है? जिसने कहा, ‘हाँ’, वो आस्तिक। जिसने कहा, ‘नहीं’ (वो नास्तिक)। इस भौतिक जगत के अलावा कुछ होते ही नहीं है तो चेतना मुक्त कहाँ से हो जाएगी। वो नास्तिक। तो आस्तिकता का अर्थ ही है लगातार प्रश्न करना, जिज्ञासा करना, जानने को उत्सुक रहना, यही तो आस्तिकता है।
तो क्यों जाने? अगर जानना ख़तरनाक है। क्यों जाने? अगर जानने में श्रम लगता है। क्यों जाने? अगर जानने में अहंकार को अपने चोट पड़ेगी। तो इसलिए जो पूजा-पाठ वाले लोग हैं वो आम तौर पर सवाल-जवाब बर्दाश्त नहीं करते। ज़्यादा सवाल-जवाब करोगे तो कहेंगे धर्म का द्रोही है तू, और नास्तिक है तू, और बदतमीज़ है तू। निकल बाहर।
अब आते हैं उन पर जिनको धर्म से लेना-देना नहीं। जिनको तुमने कहा पार्टी वाले लोग। (हॅंसते हुए) एक तरफ़ पूजा वाले लोग एक तरफ पार्टी वाले लोग। ये जो पार्टी वाले लोग हैं इनका अपना अलग धर्म चलता है। इनके धर्म का नाम ही है पार्टी। इनको लगता है पैदा किसलिए हुए हैं? पार्टी वास्ते। इनको लगता है इसी में सुख मिल जायेगा। अब भीतर-ही-भीतर इनको अच्छे से पता है कि वो पार्टी करके मिल कुछ रहा नहीं है। जानते हैं ख़ूब। लेकिन जितनी देर पार्टी चलती है उतनी देर के लिए ही सही पर कुछ उत्तेजना तो मिल जाती है। और उस उत्तेजना में ऐसा लगता है जैसे दुख चला गया।
समझ रहे हो?
एक नशा सा छा जाता है, और जब नशा छाता है न तो आदमी की तकलीफ़ें थोड़ी देर के लिए लगता है चली गयीं। लेकिन जानते हैं भीतर-ही-भीतर कुछ चला नहीं जाता, पार्टी ख़त्म हो जाती है। पार्टी ख़त्म हो जाती है। धम-धम-धम जो म्यूज़िक बज रहा था वो भी रुक जाता है। सूरज उग आता है। आँखें फिर चुन्धिआने लगती हैं। हैंगओवर (अत्यधिक नशा) बचता है, बस।
ये बात जानते हैं ये कि पार्टी से इनको वो आनन्द तो मिल नहीं रहा है जो जीवन का परम् लक्ष्य होता है। लेकिन पार्टी में इनको थोड़ी देर का रोमांच तो मिल गया था। अब आप जाकर इनसे सवाल करोगे कि भाई ये तुम पार्टीबाज़ी करते हो तो तुम्हें मिलता क्या है? तो ये चाहेंगे नहीं कि आप इनसे बहस करो। ये आपको टरका देंगे। ये आपकी बात को अनसुना करेंगे, ये आपका मज़ाक उड़ा देंगे। क्योंकि अगर वो इस सवाल-जवाब में आगे बढ़ते हैं तो उनकी पोल खुलेगी। पता चलेगा कि ये पार्टीबाज़ी व्यर्थ जा रही है। पता चलेगा कि पार्टीबाज़ी थोड़ी देर का सुख देती है उससे आगे का बहुत नहीं देती है।
देखो, पार्टी को पार्टी के स्थान पर रखना चलता है। आप किसी दिन वहाँ पर चले गये। और आपने कहा दुनिया में इतनी चीज़ें हैं चलो यहाँ पर जोर का संगीत बज रहा है। ठीक है? लोग खा-पी रहे हैं, चलो वो ठीक है, लेकिन ये सोचना कि वो पार्टी आपको जीवन में किसी तरह आपकी मुश्किलों से आज़ादी दे देगी। पार्टी आपकी ज़िन्दगी ही बन जाए। पार्टी बस वही थोड़ी होती है कि रात में खा-पी रहे हो, नाच-गा रहे हो। पार्टी का मतलब है अपनेआप को रोमांच देकर, उतेजना देकर सन्तुष्ट करने की कोशिश करना। इसको कहते हैं पार्टीबाज़ी।
अब उनके पास और कोई तरीक़ा ही नहीं है अपनेआप को सन्तुष्ट करने का। भले ही वो जान जाऍं कि वो सन्तुष्टि क्षणभंगुर होती है, लेकिन उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है। आप उनसे बहस करोगे तो पोल खुलती है। पता चलता है कि भीतर कितना अवसाद है और खालीपन है। तो वो आप से कोई बात नहीं करेंगे। आप बात करोगे, उन्हें चोट लगेगी। क्योंकि आप उन्हें दिखा दोगे कि इससे तुम्हें जो कुछ भी मिल रहा है वो बहुत थोड़ा सा है, और चाहते हो तुम बहुत ज़्यादा। इतने थोड़े से बात बनती नहीं है, लेकिन फिर भी तुम यही सब करते जाते हो। कभी दिन की पार्टी, कभी रात की पार्टी, कभी शहर की पार्टी, कभी गाँव की पार्टी, कभी हिल स्टेशन (पहाड़ी इलाक़ा) की पार्टी, कभी ऑफिस की पार्टी।
और पार्टी में सौ लोग जमा हों वो भी ज़रूरी थोड़े ही है। आप कहते हो मैं बैठकर के आइपीएल देखा करता हूँ रोज़। वो भी आपकी एक व्यक्तिगत पार्टी ही है कि बैठ गये हैं और एक-एक करके मैच आते जा रहे हैं। हर साल देखते जा रहे हैं। और क्या कर रहे हो तुम? ज़िन्दगी के सही और आवश्यक मुद्दों से आँखें चुरा रहे हो, ये कर रहे हो, और क्या कर रहे हो? ये भी पार्टीबाज़ी ही है। तो इस तरह न इधर वाले सवाल-जवाब में, जिज्ञासा में, सही संवाद में रुचि रखेंगे न उधर वाले। ऐसा इंसान जो सचमुच सच्चाई में उत्सुक हो, बहुत कम मिलता है। बाक़ी तो सब हम झूठ के सौदागर होते हैं। और सबने अपने-अपने तरीक़े से झूठ पकड़ रखे होते हैं। हिन्दू का एक झूठ है, मुसलमान का एक झूठ है; स्त्री का एक झूठ है, पुरुष का दूसरा झूठ है; जो नौकरी शुदा है उसका एक झूठ है, बेरोजगार का दूसरा झूठ है। सब लेकिन जी झूठ में ही रहे हैं।
जिज्ञासा ही धर्म के केंद्र में है। रिलिजनस कोर (धर्मों का मूल)। जानना। मैं समझना चाहता हूँ। क्यों समझना चाहता हूँ? क्योंकि न समझना ही तो मेरा दुख है। और दुख से आज़ादी चाहिए। मैं समझना चाहता हूँ। अज्ञान ही तो केन्द्रीय दुख है। मैं समझना चाहता हूँ। ज्ञान चाहिए। और ज्ञान माने ये नहीं कि बाहर से कुछ आ गया, रट लिया। ज्ञान माने जो भीतर बैठा हुआ है उसको जान गया। और उसको जानना ख़तरे की बात होती है। वो जो भीतर बैठा है उसको जानो तो वो मिटता है। तो जानने की तैयारी माने मिटने की तैयारी। जानना इतना ज़रूरी है, दुख से मुक्ति इतनी आवश्यक है कि उसके लिए ‘मैं’ मिटने को तैयार हूँ। ऐसा बन्दा चाहिए।
प्र: जी, आचार्य जी। धन्यवाद।
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=GvNoHPTnCks