आप ही भगवान हैं? || आचार्य प्रशांत, स्वामी विवेकानन्द पर (2022)

Acharya Prashant

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आप ही भगवान हैं? || आचार्य प्रशांत, स्वामी विवेकानन्द पर (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपको सादर प्रणाम। मैंने एक लेख पढ़ा था स्वामी विवेकानंद जी के ऊपर जिसमें उनका एक वक्तव्य था कि यू आर नीयरली गॉड इफ यू नो योर सेल्फ़ देट यू आर अ सोल (तुम अपनेआप को यदि आत्मा जानते हो, तो तुम ब्रह्म ही हो)। तो मुझे लगा कि यह तो बहुत आसान है। जबकि ऐसे लोग जो हुए हैं, उनको तो बहुत सारे पापड़ बेलने पड़े, बहुत सारा संघर्ष करना पड़ा वहाँ तक पहुँचने के लिए। तो बस इसी के ऊपर निवेदन है कि कुछ मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: देखिए, जब हमें कहा जाता है, विशेषकर ज्ञान मार्ग में, वेदांत में कि जानना पर्याप्त है तो हमको ऐसा प्रतीत होता है जैसे काम बहुत आसान है। जैसे अभी स्वामी विवेकानंद को उद्धृत करते हुए कहा कि यू आर नियरली गॉड, जस्ट नो योरसेल्फ़ टू बी द सोल । यहाँ पर सोल से आशय आत्मा से है, और गॉड से आशय ब्रह्म से है — 'तुम अपनेआप को यदि आत्मा जानते हो, तो तुम ब्रह्म हो ही।'

ब्रह्म होना या ब्रह्मस्थ होना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, स्वामी जी के शब्दों में, बहुत आसान है। जो स्वयं को जीव या अहंकार नहीं, अपितु आत्मा जान ले, वह ब्रह्म हो गया। तो उन्होंने कहा कि तुम अपनेआप को आत्मा जान लो, तुम ब्रह्म हो गए। हमको लगा कि काम बहुत आसान है। इतना ही तो करना है कि कह दे कि हमने अपनेआप को आत्मा जान लिया; काम आसान है। और जैसा अभी प्रश्नकर्ता ने कहा कि जो ज्ञानी हुए हैं, साधक हुए हैं, उन्हें तो बड़े पापड़ बेलने पड़े हैं। हमें बताया जाता है कि उन्होंने अनगिनत वर्षों तक साधनाएँ करीं, त्याग किये, स्वाध्याय किया; तब जाकर के उनके ज्ञान-चक्षु खुले, कुछ बात बनी।

कहाँ एक ओर हमें यह पता है कि बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, और बीस-चालीस साल लगते हैं; किंवदंती कहती है कि कई जन्म लग जाते हैं और कहाँ यहाँ स्वामी जी ने बता दिया कि बस जान लो कि तुम आत्मा हो और तुम्हारा काम हो गया। तो यह सुनकर के हमें आशा भी बँधती है और आश्चर्य भी होता है। आशा यह बँधती है कि काम आसान है, जल्दी से हो जाएगा और आश्चर्य यह होता है कि काम इतना आसान हो कैसे सकता है। हमसे पहले जो आए, उनके लिए तो यह काम बड़ा मुश्किल रहा है, हमारे लिए इतना आसान कैसे हो सकता है?

मैं बताता हूँ कि चूक कहाँ हो रही है, ध्यान से समझिए! ज्ञानमार्ग में जानना सर्वोपरि है, बल्कि जानना ही सबकुछ है। और जानना होती है बड़ी सूक्ष्म घटना, बहुत सूक्ष्म घटना; उसका कोई सीधा-सीधा, प्रत्यक्ष, भौतिक प्रमाण होता नहीं। और उसको बहुत आसानी से सत्यापित भी नहीं किया जा सकता, जाँचा-परखा नहीं जा सकता कि जानते हो या नहीं। उदाहरण के लिए, मेरे हाथ में यह तौलिया है (तौलिया हाथ में उठाकर), यह बात बहुत आसानी से जाँची जा सकती है, सत्यापित भी की जा सकती है और झुठलाई भी जा सकती है। ठीक है न? बिलकुल पता चल जाएगा कि हाथ में तौलिया है या नहीं।

मेरे हाथ में तौलिया है या नहीं, यह बहुत आसानी से जाँचा जा सकता है। मेरी अपनी आँखें भी गवाही दे देंगी और मैं अगर आमादा हूँ स्वयं से झूठ बोलने पर तो आप मुझे आकर बता देंगे, ‘भाई प्रशांत, क्यों नाहक घमंड भरी बातें करते हो तुम्हारे हाथ में (तौलिया नीचे रखने के बाद) कोई तौलिया नहीं है और तुम कह रहे हो कि मेरे हाथ में तौलिया है।’ तो बात खुल जाएगी। ज्ञान सूक्ष्म बात है, तौलिया बहुत स्थूल है। स्थूल में सुविधा है, सूक्ष्म में भ्रम का ख़तरा है।

आप कह सकते हैं कि मेरे मन में ज्ञान है और आप अपनेआप को बिलकुल आश्वस्त कर सकते हैं कि आपके मन में ज्ञान निश्चित रूप से है। इतना ही नहीं, आप दूसरे लोगों को भी आश्वस्त कर सकते हैं कि आपके पास ज्ञान निश्चित रूप से है, स्वयं को ही नहीं। हाथ में तौलिया है, इस बात को लेकर के बहुत झूठ बोलना मुश्किल होगा; मन में ज्ञान है, इसको लेकर के झूठ बहुत सफ़ाई से, निरंतर, लगातार बोला जा सकता है, पकड़े जाएँगे नहीं।

बात समझ रहे हैं?

तो ज्ञान को इसलिए हमने बहुत साधारण चीज़ बना लिया है। हर व्यक्ति अपनी नज़र में ज्ञानी है। लेकिन हर व्यक्ति के हाथ में तौलिया नहीं हो सकता, तौलिया पोल खोल देगा। स्थूल का प्रमाण सहज होता है न, स्थूल का प्रमाण इंद्रियाँ ही दे देती हैं। हम इंद्रियगत जीवन ही जीते हैं, तो स्थूल का प्रमाण सीधे मिल जाता है। आप कहते हैं, आपका वजन चालीस किलो है; वज़न नापने की मशीन अभी बता देगी कि क्यों झूठ बोल रहे हो।

ज्ञान का कोई प्रमाण बहुत आसानी से उपलब्ध होता नहीं है, विशेषकर आध्यात्मिक ज्ञान का, जिसे विद्या कहते हैं। जो सांसारिक, भौतिक ज्ञान है, उसका प्रमाण तो फिर भी मिल जाता है। अभी आप यहाँ बैठे हुए हैं, कॉलेज का परिसर है। तो कॉलेज की परीक्षाएँ होती हैं, वहाँ बात खुल जाती है कि किसको कितना भौतिक ज्ञान है। आपके सामने एक प्रश्न पत्र आ जाएगा, आप उत्तर नहीं दे पाएँगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि आपको भौतिक ज्ञान नहीं है। आपको मशीनों का ज्ञान नहीं है, आपको भौतिकी का ज्ञान नहीं है, गणित का ज्ञान नहीं है, इत्यादि-इत्यादि। सब खुल जाएगी बात।

लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, यह खोलना बड़ा मुश्किल है‌। क्योंकि बिलकुल हो सकता है कि आपने सारे श्लोक रट लिए हों, आपसे कोई परिभाषा पूछी जाए और आप बिलकुल बता दें, लेकिन फिर भी आपका आध्यात्मिक ज्ञान शून्य हो। आध्यात्मिक कोटि के भी प्रश्न तो करे ही जा सकते हैं न। उदाहरण के लिए, मैं आपसे पूछ दूँ कि आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) के साधन चतुष्टय से शम की परिभाषा दीजिए, दम की परिभाषा दीजिए, उपरति बताइए, तितिक्षा बताइए, मुमुक्षा बताइए। आप हो सकता है कि बिलकुल स्पष्ट, सटीक परिभाषाएँ बता दें और आपको अंक मिल जाएँ सौ में से सौ। लेकिन फिर भी हो सकता है कि आपका आध्यात्मिक ज्ञान शून्य हो।

ठीक वैसे, जैसे गणित का प्रश्न पत्र अभ्यास के द्वारा साधा जा सकता है। उसी तरीक़े से स्मृति और अभ्यास के द्वारा आध्यात्मिक परिभाषाएँ भी साधी जा सकती हैं और प्रश्नों को हल भी किया जा सकता है। कुछ आध्यात्मिक प्रश्न हो सकते हैं जो आपको हल करने थोड़े मुश्किल पड़ेंगे। जैसे मैं आपको कोई ज़ेन कोआन दे दूँ और कहूँ कि इस ज़ेन कोआन पर कुछ लिखिए या कुछ बोलिए। तो वहाँ आपको थोड़ी तकलीफ़ आएगी। लेकिन फिर भी हो सकता है कि आप अभ्यास कर-करके कोआन विद्या में भी माहिर हो जाएँ। आप वहाँ पर भी कोई उत्तर दे दें। उन सारे उत्तरों के सही होने के बावजूद ये हो सकता है कि आपका आध्यात्मिक ज्ञान शून्य हो; आध्यात्मिक ज्ञान इतनी टेढ़ी खीर है। इतनी टेढ़ी खीर है!

तो स्वामी जी ने थोड़ा सा हमारे साथ मज़ाक सा कर लिया है। जब वो बोलते हैं, “बस तुम जान लो कि आत्मा हो, *एंड यू आर गॉड*।” ये जो इतना सा कह दिया न उन्होंने, "बस तुम जान लो कि आत्मा हो", ये जानना पूरे जन्म का बलिदान माँगता है। ऐसे ही नहीं जाना जा सकता। ये वैसा ही जानना नहीं है कि आपने टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज देख ली और आपने कुछ जान लिया। स्वयं को आत्मा जानना बहुत-बहुत कठिन काम है, बहुत अभ्यास माँगता है‌, अभ्यास से ज़्यादा प्रेम माँगता है। उतना प्रेमी जीवन हम जीते नहीं।

अब शब्द आ गया, देखिए, 'जीवन'। आपको वाक़ई ये ज्ञान है कि नहीं कि आप आत्मा हैं, इसका प्रमाण कोई प्रश्न पत्र और उसमें लिखे आपके उत्तर नहीं होते; इसका प्रमाण सिर्फ़ एक होता है कि आप जीवन आत्मा की तरह जी रहे हैं या अहंकार की तरह जी रहे हैं। ये हुई कसौटी!

नहीं तो बहुत आसान है, मैं अभी आपसे पूछूँ, ‘आप आत्मा हो?’ और आपने दो-चार ग्रंथ पढ़ लिए हैं, आप बिलकुल कह सकते हैं, ‘बिलकुल आत्मा हूँ।’ मैं आपसे पूछूँ, ‘आप अहंकार हो?’ आप कहेंगे, “कैसी बात करते हैं आप, अहंकार होना किसको पसंद है? मैं साफ़-साफ़ कह रहा हूँ कि मैं अहंकार नहीं हूँ।’ हर व्यक्ति यही कहना चाहता है कि वो जान गया है कि वो आत्मा है। कहना बहुत आसान है, लेकिन आप आत्मा हैं या नहीं, इसकी कसौटी सिर्फ़ आपका जीवन है।

इसको मैंने कई मौकों पर ऐसे कहा है, "जीना ही जानना है।" ऐसे भी कहा है, "मुझे मत बताओ कि तुम्हें पता क्या है, मुझे बताओ कि तुम जी कैसे रहे हो।" यह सब आपने पढ़ी होंगी, उक्तियाँ हैं, हमारी ऐप पर रहती हैं; उसमें जो उक्ति वाला भाग है उसमें रहती हैं, पोस्टर्स पर रहती हैं। "मुझे मत बताओ कि तुम्हें पता क्या है, मुझे दिखाओ कि तुम जी कैसे रहे हो।"

यही बात वहाँ स्वामी जी कहना चाहते हैं, पर और महीन तरीक़े से उन्होंने बात कह दी है। ये बात कह कर के थोड़ा मुस्कुराए होंगे। स्वयं को आत्मा जानना कोई शाब्दिक खेल भर नहीं है, लफ्फ़ाज़ी नहीं है कि बोल दिया कि मैं आत्मा हूँ। अरे, ज़िंदगी लेकर के आओ सामने न! दिखाओ, कहाँ तुम आत्मा की तरह जी रहे हो। आत्मा हो तो आत्मा जैसा जीवन भी दिखाओ न। नोइंग इज़ बीईंग (जीना ही जानना है)। जानते होते तो तुम्हारी हस्ती में वो ज्ञान उतरा होता न। ये कौनसा ज्ञान है जो स्मृति में तो है, चित्त में तो है, जिह्वा पर तो है, पर जीवन में नहीं है? जिह्वा वाले ज्ञान से काम नहीं चलता, जीवन वाला ज्ञान चाहिए। ज़िंदगी दिखाओ, ज़िंदगी में कहाँ तुम आत्मा बनकर जी रहे हो! आत्मा को कभी देखा है डरते हुए? हमारे जीवन में डर-ही-डर है। आत्मा को कभी भ्रमित देखा है, चकराया हुआ देखा है? हम इधर-उधर चकराए घूमते हैं। हम कहाँ से आत्मा हो गए? लेकिन दावा हमारा यही रहता है कि हम या तो आत्मा हो गये हैं या बस उसके बहुत निकट हैं। कैसे? जीवन बताइए, कैसे?

आत्मा को तो आपने यही जाना होगा न कि अनंत है, देती रहती है, और उतना देती है कि देने के बाद भी अनंत रह जाती है, "पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।" आप पूर्ण तो छोड़िए, किसी को अपूर्ण भी कुछ दे पाते हैं आसानी से? आत्मा का तो ऐसा है कि सबकुछ लुटा दे उसके बाद भी उसकी मस्ती है, मौज है, क्योंकि उसने कुछ दिया ही नहीं, उसका कुछ लुटा ही नहीं। सबकुछ देने के बाद जैसे वो और भरपूर हो जाती है, "पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्णमेवावशिष्यते।" देने के समय हमें साँप सूँघ जाता है, हम आत्मा हैं? कैसे हैं आत्मा? आत्मा अकेली हो जाती है तो डर जाती है, सहम-सकुचा जाती है कि अरे, ये मेरे साथ क्या हो गया है?

देखिए, आप गणित पढ़ लें, आप समाजशास्त्र पढ़ लें और वो सब पढ़ने के बाद भी आपकी ज़िंदगी लगभग वैसी ही रह जाए जैसे पहले थी, तो कोई अनहोनी नहीं हुई। एक-से-एक अंधविश्वासी हैं जो गणित के बड़े शास्त्री हैं। मैं शीर्षस्थ वैज्ञानिक संस्थानों को जानता हूँ जहाँ के वैज्ञानिकों के अंधविश्वास का कोई अंत नहीं है। और ये मैं कह रहा हूँ कि कोई अनहोनी नहीं हो रही, क्योंकि गणित आपके केंद्र को बदलने का दावा भी नहीं करता। गणित तो प्रकृति की एक और भाषा है। बड़ी उपयोगी भाषा है जो हम सीख लेते हैं। गणित का दावा नहीं है कि आप गणित सीख लेंगे तो आपका जीवन बदल जाएगा। लेकिन यदि आपको अध्यात्म विद्या आती है और फिर भी आपका जीवन तद्नुसार बदल नहीं रहा, तो आप अपनेआप से झूठ ही बोल रहे हैं न!

आत्मा को व्यर्थ प्रलाप करते देखा है? आत्मा को प्रपंच मचाते देखा है? आत्मा को क्षुद्र बातें करते देखा है? आप ही बता दीजिए ईमानदारी से, आपके जीवन में ये सब मौजूद हैं कि नहीं? जिस दिन आपके जीवन से ये सब विदा हो जाएँगे, उस दिन आप आत्मा हो गए। आत्मा होने का अर्थ ये नहीं होता कि आप बैठ करके रटो, ‘मैं आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ।’ ये क्या फ़रेब है अपने साथ! ‘मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ।’ एक आँख से ये भी देख रहे हैं कि वहाँ चल क्या रहा है, उधर मोहल्ले में क्या चल रहा है, टीवी में क्या चल रहा है — ‘मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ।’ नाक सूँघ रही है, आज रसोई में क्या पक रहा है — ‘मैं शुद्ध आत्मा हूँ।’ और अध्यात्म के नाम पर यह ख़ूब हुआ है।

सबसे घटिया काम जो अध्यात्म के नाम पर हुआ है, वो यही है कि आध्यात्मिक जीवन को और जो आपका रोज़मर्रा का भौतिक जीवन है, जो आपकी दुनियादारी है उसको दो अलग-अलग भागों में काट दिया गया है।

कल अभी शाम की ही बात है, रात की। मैं एक जगह बैठा हुआ था तो एक सज्जन आए मेरे पास। तो उन्होंने दो-तीन संस्थाओं का नाम लिया, बोले, ‘मैं इनसे जुड़ा हुआ था पहले, फिर इनसे जुड़ा हुआ था, फिर इनसे जुड़ा हुआ था।’ वो साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट हैं वैसे तो। बोले, ‘मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहता पर ध्यान कैसे करना है, यह मुझे सिखा दिया गया कि ये करना है, ये करना है। लेकिन एक बात मुझसे कभी किसी ने बोली ही नहीं कि तुम दिन भर जो कर रहे हो, वही अध्यात्म है।’ तुम ये नहीं कर सकते कि तुम एक घंटा ध्यान करते हो और फिर दफ़्तर में जा करके अपनी अक्षमता प्रदर्शित करते हो या लताड़ पाते हो या बेईमानी करते हो, जो भी। बोले, ‘यह बात कभी बोली ही नहीं गयी।’

और यह बात आध्यात्मिक जगत में लगभग वर्जित सी है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी का तो नाम ही नहीं लेना है। अध्यात्म का मतलब एक विशेष गतिविधि बना दिया गया है। एक अलग, विशिष्ट, पृथक गतिविधि बना दिया गया है, जीवन से अलहदा। कि ज़िंदगी एक तरफ़ है, अध्यात्म एक तरफ़ है। जैसे कोई विषय हो, अध्यात्म को गणित जैसा बना दिया, अध्यात्म को समाजशास्त्र जैसा बना दिया। कि ज़िंदगी आपको जैसी भी आपकी चल रही है चलाते रहिए, ये एक नया विषय है, आध्यात्मिक विषय, इसमें भी आप पारंगत हो जाइए। इसकी भी कुछ किताबें हैं, इसमें भी कुछ आपको कौशल हासिल करना होता है, इसमें आपको कुछ क्रियाएँ वग़ैरा बताई जाएँगी, आप उनका अभ्यास करिए, आप उसमें पारंगत हो जाइए, तो यह अध्यात्म है।

जीवन कैसा चल रहा है, इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं। जीवन तो वैसे ही चलने दो, उसकी बात ही मत करो। घर पर क्या हो रहा है, बच्चों से कैसे सम्बन्ध है, पत्नी से कैसे सम्बन्ध है, पड़ोसियों से कैसे सम्बन्ध है; जो भी काम करते हो पेशा, व्यवसाय, नौकरी, वहाँ तुम्हारी हालत क्या है — इसका तो ज़िक्र ही मत करो। बस ये बता दो कि फ़लानी क्रिया तुमने दिन में चालीस बार की है कि नहीं की है। और अगर चालीस बार कर ली, तो तुम कह सकते हो कि तुम एक पहुँचे हुए आध्यात्मिक साधक हो। ये घोर बेईमानी है, यह घोर बेईमानी है!

इतना ही नहीं है, बहुत सारी संस्थाएँ हैं और बड़ा प्रचलन आ गया है, ये मुझे मुंबई में बताया गया था, कि वहाँ पर ऐसी भी जगहें हैं जहाँ पर आपको प्रमाण-पत्र दिया जाता है एनलाइटेंड होने का। अगर आपने ये सब कर लिया, कई उसमें तल होते हैं कि इतने-इतने काम अगर आपने कर लिए तो आप पहले तल के साधक हैं, इतने कर लिए तो दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा। और जब आपने चार या पाँच तल पार कर लिए तो विधिवत् घोषित किया जाता है कि फ़लाने साहब या साहिबा, ये अब मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।

मुझे इसमें नहीं समस्या है कि उनको मोक्ष बता दिया गया, भली बात है सबको मोक्ष प्राप्त हो जाए, लेकिन उस पूरी प्रक्रिया में, जितने भी हैं तीन-चार-पाँच तल, उसमें कहीं भी ये शामिल नहीं है पूछना कि बताओ ज़िंदगी कैसी चल रही है। तुम अपनी ज़िंदगी में अभी भी उतने ही भ्रमित हो, उतने ही डरपोक हो और उतने ही बेईमान हो, कोई बात नहीं!

बात समझ रहे हैं?

जीवन ही एकमात्र कसौटी है, उसके अलावा कुछ नहीं, कुछ नहीं तो कुछ नहीं! जीवन बताइए जीवन!

आप यहाँ आए आज, कार्यक्रम विलंब से शुरू हुआ। आप यहाँ बाहर खड़े थे, मुझे बताया गया कि बाहर गर्मी लग रही थी। उस गर्मी को आपकी क्या प्रतिक्रिया थी, उससे पता चलेगा कि अध्यात्म कितना गहरा है। आपमें से कुछ लोग अभी हो सकता है ऐसी जगहों पर बैठे हों, जहाँ से मुझे देखने में थोड़ी समस्या आ रही हो, बीच में कैमरे का स्टैंड आ सकता है या किसी के सामने कोई लंबा व्यक्ति बैठ गया है जिससे उसको बाधा हो रही होगी। यहाँ, यहाँ पता चलेगा कितने आध्यात्मिक हैं आप। जैसे जो वहाँ पर बंधु बैठे हैं (हॉल के एक कोने की ओर इशारा करते हुए), उनको इस बुक स्टैंड के कारण हो सकता है कुछ समस्या आ रही हो। इस स्थिति में वो क्या करते हैं, बाहरी तौर पर भी और भीतरी तौर पर भी। बाहरी तौर पर उनका कर्म होगा, कहाँ उठ कर के जाने लगें या कुछ करने लगें। और भीतरी तौर पर उनकी मनोस्थिति होगी कि अगर वो नहीं ठीक से देख पा रहे हैं यदि तो उनकी मनोस्थिति कैसी बन रही है। इससे पता चलता है कि आप कितने आध्यात्मिक हैं। ये होता है स्वयं को ‘आत्मा’ जानना। जो अहंकार की तरह काम न करे, वो हुआ न आत्मा। अन्यथा आत्मा कुछ नहीं हैं।

यह बात सैकड़ों बार कह चुका हूँ, पुनः दोहराई जानी चाहिए, आत्मा अपनेआप में कुछ नहीं होती। ये तौलिया होता है, ये माइक होता है, यह मेज़ होती है; आत्मा नहीं होती उस अर्थ में जिस अर्थ में तौलिया, माइक और मेज़ होते हैं। तो फिर समस्त अध्यात्म का लक्ष्य क्या है? लक्ष्य है अहंकार की जकड़ से मुक्ति। आत्मा कुछ नहीं है, पर अहंकार सबकुछ है, हमारा पूरा जीवन ही वही है। वो सबकुछ है। उसने हमें बस गर्दन में नहीं पकड़ रखा है, उसने हमें नाक में, आँख में पकड़ रखा है। उसने हमें बाहर से पकड़ रखा है, उसने हमें भीतर से पकड़ रखा है। उसने हमारे दिल को जकड़ रखा है, वो है अहंकार। जो उससे मुक्त होने लगा, वो आत्मस्थ हुआ।

बात समझ रहे हैं?

तो स्वामी जी चुटकी ले रहे हैं, ठिठोली कर रहे हैं। ये हास्य है उनका जब कह रहे हैं ‘जस्ट नो योरसेल्फ़ एज़ आत्मन, एंड यू आर होम।’ ये जस्ट नोइंग अपनेआप में ऐसी चीज़ है तो एक क्षण में भी हो सकती है, सैद्धांतिक तौर पर, किताबी तौर पर। पर एक क्षण में होने वाली नहीं, इसको तो पूरा जीवन देना पड़ेगा, समग्र आहुति; तब बात बनती है। आत्म-अवलोकन, लगातार अपनेआप पर पैनी नज़र रखें।

आत्मा निर्गुण है, फिर भी उसके बारे में वेदांत में इतना क्यों बोला गया है? आपकी सहायता के लिए। आत्मा के बारे में इतना कुछ इसलिए बोला गया है ताकि आप जो कर रहे हैं, आप उसको जाँच सकें कि क्या यह आत्मा की हरकत है।

आत्मा को बता दिया गया है कि आत्मा असंग है। ठीक? कोई आवश्यकता नहीं थी बताने की, मौन रहा जा सकता था; बुद्ध मौन रहे। सत्य या आत्मा के विषय में उनसे कुछ पूछा जाता था तो मौन रहते थे। अनात्मा के विषय में ख़ूब बोलते थे। उपनिषदों के ऋषि भी मौन रह सकते थे, पर करुणावश उन्होंने बहुत कुछ बोला है। क्या बोला है उन्होंने? उन्होंने निर्गुण के गुण गा दिए हैं। असंभव करके दिखा दिया है! वो गुण आपको इसलिए बताये गये हैं ताकि आप खट से पहचान कर लें। आत्मा का एक गुण बताया गया — गुण हो नहीं सकता फिर भी बताया गया — कि क्या है आत्मा? अभी मैंने कहा कि असंग है। अब आप यदि ऐसे हैं जो हर समय संगति के लिए आकुल रहते हैं, कोई मिल जाए, किसी के पास बैठ लें। कोई अनजाना भी मिल जाए तो जाकर के नाम पूछने लगें और पूछने लगें, ‘और क्या है, क्या नहीं।’ अकेले रहने में जान सूखती है। कोई नहीं मिल रहा तो फ़ोन उठाकर के लगे हैं बातचीत कर रहे हैं, ये वो। और फ़ोन पर किसी से बात नहीं कर सकते, जिसको भी फ़ोन कर रहे हैं वही काट रहा है, कौन बात करना चाहेगा, तो लेकर के सोशल मीडिया पर कुछ देखने लग गये हैं, ये वो; फेसबुक खोल लो, इंस्टाग्राम खोल लो।

इसीलिए बताया गया कि आत्मा असंग है। जब ये हो तो भीतर अलार्म बज जाए। ये असंग का काम लग रहा है क्या, लगातार संगति को यूँ बेचैन रहना?

आत्मा अनंत है, असीम है और हम चिपके रहते हैं दुनिया भर की क्षुद्र चीज़ों से। तो आत्मा को अनंत, असीम इसीलिए बोला गया कि जब भी क्षुद्रता प्रदर्शित करें या क्षुद्रता बहुत आकर्षक लगे, तो भीतर घंटी बज जाए। 'ये अनंत-असीम वाली तो हरकत लग नहीं रही है। यह मैं क्या कर रहा हूँ?' ये तो सीधे-सीधे अहंकार की करतूत है, ये आत्मा वाला काम तो नहीं लग रहा।

आत्मा गुणातीत है, माने प्रकृति से परे है। प्रकृति के सब गुणों से अलग है। और आप यदि प्रकृति में ही लिप्त हैं, खोए जा रहे हैं, दीवाने हुए जा रहे हैं तो उसी क्षण आवाज़ आ जानी चाहिए कि यह आत्मा वाली चीज़ तो नहीं लग रही है, मैं क्या कर रहा हूँ या क्या कर रही हूँ।

आत्मा निर्मोही है, निर्मम है और आपके जीवन में मोह-ममता का कोई अंत नहीं। खट से बत्ती जल जानी चाहिए, ‘ये आत्मा वाला तो मुझे खेल नहीं लग रहा, आत्मा को न मोह होता है, न ममता होती है; यह मैं क्या कर रहा हूँ?’

आत्मा कालातीत है, माने काल से परे है, माने काल से उसका कोई लेना-देना ही नहीं। और हमें भविष्य की ही चिंता सताती रहती है। हम अतीत के ही दुख-दर्द को भूल नहीं पाते। किसी से पूछो, ‘इतनी तुम्हारी आज हालत ख़राब क्यों है?’ ‘अरे, मैं आपको क्या बताऊँ साहब! आइए बैठिए, पहले यहाँ मेज़ पर बैठिए। चाय ऑर्डर करते हैं पहले ताकि आप भाग न जाए। फिर विस्तार में आपको बताऊँगा कि मेरी हालत ख़राब क्यों है।’ फिर वो आपको दो घंटा बताएँगे कि अतीत में उनके साथ किस-किस तरह की ज़्यादतियाँ हुई हैं। उनका उत्पीड़न किया गया है इसलिए आज वो बेचारे ख़राब हालत में हैं। और ये सब बता कर कहेंगे, ‘देखिए, मैंने प्रमाणित कर दिया न कि मैं बड़ा शोषित व्यक्ति हूँ, निकालिए पाँच हज़ार रुपए।’ नहीं, वो आप से भी माँग सकते हैं, सरकार से माँग सकते हैं, समाज से माँग सकते हैं, कहीं से माँग सकते हैं।

पर हम उलझे रहते हैं अतीत में और हमारे सारे सपने होते हैं भविष्य के‌; और आत्मा है कालातीत, उसका समय से कोई सम्बन्ध नहीं। उसके लिए तो यह क्षण पर्याप्त है, उसको अभी ही सही कर्म करना है। और इस क्षण में सही कर्म करना इतनी बड़ी माँग होती है कि उसके बाद जगह नहीं बचती, स्थान नहीं रहता कि अभी और इधर-उधर का सोचें। जैसे कि यदि अभी आप मेरी बात को ध्यान से सुन रहे हैं, तो आपके लिए बड़ा मुश्किल होगा कि आप अतीत की स्मृति या भविष्य की आशाओं में खोएँ। इस क्षण में आप समय से बाहर आ गये हैं; न अतीत बचा है, न भविष्य‌। आत्मा ऐसी ही है। अभी यदि आपके लिए कुछ इधर-उधर का बचा नहीं है तो आप आत्मस्थ हैं। पर मात्र इसी क्षण में हैं। हो गये हैं आत्मस्थ, पर वो अभी कहीं दूर चला नहीं गया जो आपको आत्मा से दूर खींच ले जाएगा।

अभी आप यहाँ पर बैठे हुए हैं, यह एक विशेष व्यवस्था है। आप अभी एक प्रभाव क्षेत्र में बैठे हुए हैं। यहाँ आसान है आत्मस्थ हो जाना, एक स्वाद मिलता है। इसीलिए यह व्यवस्था की गई है कि आपको वो अनुभव मिल जाए, वो स्वाद मिल जाए, थोड़ी देर के लिए ही सही, मिल जाए। लेकिन इसके बाद आप उसको अपना पूरा जीवन बना लेते हैं या नहीं, ये तो आपका चुनाव है न। वो चुनाव ही निर्धारित करता है कि आपको अहंकार चाहिए या आत्मा। यहाँ पर तो एक तरह से प्रदर्शनी लगाई जा रही है। चीज़ें आपको एक मर्तबा स्वाद लेने के लिए, झलक लेने के लिए, हाथ में दी जा रही हैं। उसके बाद ये चीज़ आपका जीवन ही बन जाती है या नहीं, वो तो आपको तय करना है न।

तो तीन दिन का मेला है। इन तीन दिनों में भी आप मेरे साथ एक-चौथाई दिन रहेंगे बस। ईमानदारी तो यह होती कि आप बोलते, ‘अगर इन चार घंटों, छः घंटों में बात पसंद आ गयी तो अब छोड़ेंगे नहीं।’ या तो यह न कहें कि बात पसंद आयी या फिर यह न कहें कि बात अच्छी थी पर चार घंटे के लिए अच्छी थी, अब बाहर निकल करके पुरानी ज़िंदगी दोबारा शुरू।

मैं तो बालक समान प्रश्न पूछता हूँ, ‘बात अगर अच्छी है तो सिर्फ़ चार घंटे के लिए क्यों अच्छी है?’ कहते हो कि मेरी बातें ठीक लगती हैं, पसंद आती हैं। बस चार घंटे के लिए पसंद आती हैं? उन्हें अपनी ज़िंदगी क्यों नहीं बना रहे? यहाँ पर आकर खेल ख़राब हो जाता है। यहीं आकर फैसला होता है कि आत्मा हो या अहंकार। अहंकार अवसरवादी होता है, वो थोड़ी देर के लिए आत्मा बनने के भी मज़े ले लेता है। कहता है कि दुनिया में हर तरह के अनुभव भोगने हैं, चलो आत्मा होने का भी अनुभव भोग लेते हैं थोड़ी देर के लिए। एक वीकेंड (सप्ताहांत) काफ़ी है। सोमवार को वापस!

तो जिस चीज़ को स्वामी जी कह रहे हैं, *‘जस्ट नो दैट यू आर द आत्मन’*। वो जस्ट नोइंग बड़ी ही लम्बी कहानी है। जस्ट का अर्थ होता है सहजता से, आसानी से। सहजता से वो चीज़ उसी के लिए होती है जिसका जीवन सहज है। आपके जीवन में अगर सबकुछ असहज और जटिल ही है, तो आप सहजता से आत्मा भी कैसे हो जाएँगे? जीवन ठीक करिए न। वहाँ जो जटिलताएँ हैं, कृत्रिमताएँ हैं, बनावटीपन हैं, उनको अलग करिए। गाँठे हैं, तो या तो उनको त्याग दीजिए या खोल दीजिए।

कर्मयोग और कर्मसंन्यास में यही अंतर होता है, और दोनों एक हैं। कर्मसंन्यास क्या कहता है? जीवन में गाँठ है, गाँठ को त्याग दो। और कर्मयोग क्या कहता है? जीवन में गाँठ है, गाँठ से जूझ जाओ। दोनों एक ही हैं, जो पसंद आता हो उसको चुनिए। पर ये गाँठ वाला जीवन ढोते रहने में क्या लाभ? फिर कह देंगे कि हम आत्मा हैं; वो कुछ नहीं है, वो जीवन की एक और गाँठ है (हँसते हुए)। आत्मा भी गाँठ हो गयी! गाँठ को क्या बोलते हैं? ग्रंथी। ग्रंथी उसका तत्सम है। तो इसीलिए मुक्त होने के लिए एक शब्द होता है निर्ग्रंथ होना भी, गाँठें खुल गयीं।

गाँठ समझते हो न? जो जीवन के सहज प्रवाह को बाधित कर दे, वो गाँठ है। घरों में पौधों को पानी देने के लिए या लॉन में पानी देने के लिए पाइप होता है न प्लास्टिक वाला, होता है? उसमें गाँठ पड़ जाती है कई बार और आप हाथ में लेकर खड़े हैं पाइप, पानी नहीं आ रहा। क्या हुआ? प्रवाह बाधित हो गया, गाँठ ये है। इसलिए जीवन में गाँठ नहीं चाहिए।

गाँठ है या नहीं, ऐसे ही जाँच लीजिए — सबकुछ एक सरल-सुचारू प्रवाह में है या अटका पड़ा है? जो अटका पड़ा है या तो उसको त्याग ही दीजिए या खोल दीजिए। खोलना आसान नहीं है, जूझ जाइए। मैं जूझने की सलाह देता हूँ। त्यागने की सलाह मैं कम देता हूँ, क्योंकि कितना त्यागोगे; एक गाँठ को छोड़ोगे, दूसरी कहीं जाओगे वहाँ भी बँधी पड़ी है। तो जीवन तो गाँठों की ही श्रृंखला है, भागना संभव नहीं है। तो इससे अच्छा है जूझ जाओ, खोल लो। ऐसे ही अहंकार बढ़ता है आत्मा होने की तरफ़ — स्वयं से जूझकर। 'आत्मजयी भव!' स्वयं को हराओ, अपने ही ख़िलाफ़ जूझ जाओ और ये लड़ाई जीवन भर लड़ो।

कुछ बात मैं कह पाया, थोड़ी-बहुत?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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