आप अपना ध्यान क्यों नहीं रखते हैं?

Acharya Prashant

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आप अपना ध्यान क्यों नहीं रखते हैं?
जितना हो सकता है, उतना रखता ही हूँ। और उसके आगे मेरे हाथ में नहीं है, उसके आगे आपके हाथ में है। जैसी स्थितियाँ हैं, उनमें जितना ख़ुद को देखा जा सकता है, देख लेता हूँ। बाकी, मेरे नियंत्रण की बात होती, तो मैं आपको आश्वासन दे भी देता। वो चीज़ मेरे हाथ में है ही नहीं ना। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: अब दूसरा सवाल।

प्रश्नकर्ता: दूसरा सवाल है कि जैसे आपको पता है कि आप हैं, तो हमारे पास गीता का सत्य — जो सच है वो आ रहा है। वैसे लोगों को धर्म वाले बाबा से तो आ नहीं रहा। तो "आप हैं" तो हम हैं, "आप हैं" तो कम्युनिटी है। तो आप अपना ध्यान क्यों नहीं रखते हैं? हम मानते हैं कि आप मिशन पर हैं। अब ऐसा बोलना मुझे ठीक नहीं लग रहा, पर "आप नहीं रहेंगे..."

आचार्य प्रशांत: अब ये काम भी मैं ही करूँ? आप अभी मुझे बिल्कुल संबोधित कर रही हैं पिताजी की तरह।

प्रश्नकर्ता: तो आप ही तो हैं हमारे परमपिता!

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो सब ठीक है, मैं ये जानना चाहता हूँ कि सारे काम मैं ही करूँ? आपका ख़्याल भी मैं रखूँ और अपना ख़्याल भी मैं ही रखूँ?

प्रश्नकर्ता: हम क्या करें आपके लिए?

आचार्य प्रशांत: तो ये होना चाहिए था ना सवाल? अब दो काम हो सकते हैं — एक आपका ख़्याल रखना, या अपना ख़्याल रखना। मेरा ख़्याल रखना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, वो तो कोई भी कर सकता है। पर आपका ख़्याल शायद मेरे अलावा कोई नहीं रख सकता। तो वो काम तो मुझे ही करना पड़ेगा — आपका ख़्याल रखने वाला। ये आपने ही कहा कि "जो मैं आपको बता रहा हूँ, वो बताने वाला कोई नहीं था।" तो वो तो मुझे ही आपको बताना पड़ेगा ना, कोई और नहीं है।

तो आपका ख़्याल तो मुझे ही रखना है। और इतना समय है नहीं कि आपका भी ख़्याल रख लूँ, अपना भी रख लूँ। तो मैं अगर आपका ख़्याल रख लेता हूँ, तो आप मेरा रख लीजिए।

पर वो ज़िम्मेदारी नहीं उठाएँगे। मुझे ताना मारेंगे — "अजी, ऐसा भी क्या काम है? इतना भी क्या काम है?" बेटा, एक जॉइन करा लो, तो पता चलेगा कि काम किसको कहते हैं। और तब समझ में आएगा कि मैंने जितनों को जॉइन कराया है, उसमें कितना काम लगता है।

"जाके पाँव ना फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।"

जिसने ख़ुद कुछ नहीं किया होता ना, वह ये भी नहीं समझ पाता कि दूसरा जो कर रहा है, उसमें कितनी मेहनत लगती है।

प्रश्नकर्ता: पर आचार्य जी, आप होंगे तो हम हैं ना।

आचार्य प्रशांत: अगर इतना ही लगता है कि "मैं होऊँगा" तो मेरा ख़्याल आप रख लीजिए ना।

प्रश्नकर्ता: मैं ये समझ सकती हूँ, क्योंकि मैंने बहुत लोगों को ट्राई किया है जॉइन कराने का।

आचार्य प्रशांत: तो मैंने ट्राई नहीं किया है ना — मैंने करके दिखाया है। मुझे आपका ख़्याल रखना था, तो मैंने आपका ख़्याल रखने का ट्राई नहीं किया है, मैंने ख़्याल रख के दिखाया है। आप भी मेरा ख़्याल रख के दिखा दो। ये "ट्राई" क्या होता है? ट्राई कर लिया... ट्राई से क्या होता है? मुझे आपका ख़्याल रखना था, तो मैंने आपसे पूछ के भी आपका ख़्याल नहीं रखा। मैंने आपके पीछे दौड़-दौड़ के, आपको दौड़ा-दौड़ा के, आपका ख़्याल रखा है। जब आप नहीं भी चाहते थे, मैंने तब भी आपका ख़्याल रखा है। मैंने ज़बरदस्ती आपका ख़्याल रखा है।

आपको मेरा ख़्याल रखना है, तो ज़बरदस्ती भले ना करो — पर कुछ तो करो, आप तो कुछ भी नहीं करते। और मैं अपना ख़्याल तो तभी रखूँगा जब मिशन ठीक चल रहा होगा। मिशन उलट-पुलट चल रहा हो और मैं बैठ के अपना हेल्थ केयर और स्किन केयर रूटीन कर रहा हूँ — ये तो मुझसे नहीं होने वाला। मेरे पास और कुछ है नहीं। देखिए, ये मैं नाहक बचकानी ज़िद नहीं कर रहा हूँ।

मेरे पास क्या है? मेरे पास ना पैसा है, ना पॉलिटिकल पैट्रोनिज है, ना बाबा जी का नाम है, ना निशान है, ना कोई आश्रम है, ना पैतृक संपत्ति है, ना पीछे से समर्थन देने वाली कोई परंपरा है। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरे पास बस एक चीज़ है — "मैं।" मेरे पास सिर्फ "मैं" हूँ संसाधन के नाम पर। तो इस एकमात्र, अकेले संसाधन को तो मैं खर्च करूँगा ना।

एक ही संसाधन है मेरे पास। यही है — ये जो यहाँ बैठा हुआ है, यही मेरा संसाधन है। इसको भी ना खर्च करूँ, तो किसको करूँ? मेरे पास और क्या है? और ना मेरे पास सेन्सेशन है, कि कहीं कुछ हो रहा हो तो मैं उस पर मुँह खोल दूँ, और सनसनी पैदा कर दूँ, तो उससे इधर-उधर लगातार सुर्ख़ियों में बना रहूँ — लोगों तक बात पहुँचती रहे। जो सीधी-सपाट, सच्ची बात है, वो बोलता हूँ। सनसनीख़ेज़ बात तो मैं बोलता नहीं। हाँ, सच ही कभी सनसनीख़ेज़ हो जाए, तो अलग बात है।

तो मेरे पास क्या है? मेरे पास बस ये है।

प्रश्नकर्ता: मेरा ये कहना है कि जैसे श्रीकृष्ण थे— उन्होंने बड़ी अहिंसा के लिए छोटी हिंसा करी थी। तो वैसे, आपको भी — इतना बड़ा हमारा मिशन है — उसको ध्यान में रखते हुए, अपना थोड़ा ध्यान तो रखना चाहिए।

ये मेरा हक़ है। यह हम सबका हक़ है कि हम आपको इतना बताएँ। और इस हक़ से हम बोल रहे हैं — प्लीज़, इसका थोड़ा एक्सेप्ट कर लीजिए।

आचार्य प्रशांत: जितना हो सकता है, उतना रखता ही हूँ। और उसके आगे मेरे हाथ में नहीं है, उसके आगे आपके हाथ में है। जैसी स्थितियाँ हैं, उनमें जितना ख़ुद को देखा जा सकता है, देख लेता हूँ। बाकी, मेरे नियंत्रण की बात होती, तो मैं आपको आश्वासन दे भी देता। वो चीज़ मेरे हाथ में है ही नहीं ना।

अभी मैं उठूँगा, जाऊँगा, देखूँगा और पता चलेगा कि फिर से कहीं पे आग लग गई है। तो उसको बुझाना तो मुझे ही पड़ेगा ना। मैं तब ये नहीं कह सकता कि, “अरे अब 1:00 बज रहा है, मेरे विश्राम का समय है।” तक़्लिया। आग लगी होगी, अभी मैं जाऊँगा — कहीं ना कहीं किसी ना किसी ने आग लगा ही दी होगी।

एक बात समझो आप, ये दुनिया बड़ी गंदी चीज़ है, घटिया चीज़ है। ये ना सिर्फ़ ताक़त पर चलती है और जब, जैसा मैंने कहा, ना आपने राजनीतिक किसी का प्रश्रय स्वीकार किया होता है, ना किसी का धार्मिक प्रश्रय स्वीकार किया होता है, ना किसी सेठ जी को अपना पैट्रन बनाया होता है — तो आपके पास कोई ताक़त तो होती नहीं ना?

जब आपके पास ताक़त नहीं होती है — नहीं होती है ना — तो जो छोटे-मोटे, एकदम नुन्नू-पुन्नू-झुन्नू गधवा होते हैं, ये भी आपको आँख दिखाते हैं! जो रास्ता मैंने चुना है — कि सत्ता के जो स्थापित केंद्र हैं, जितने भी — इनमें से किसी के साथ जाकर नहीं खड़े होना है, और हाथ नहीं मिलाना है। तो उसका नतीजा यह होता है कि छोटे-छोटे कामों में भी फिर बहुत अड़चन आती है, और बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। और बहुत छोटे लोग भी आपके सामने ऐंठ कर खड़े हो जाते हैं।

मैं कहाँ से विश्राम कर लूँ? और विश्राम मुझे चाहिए भी नहीं है। जिस चीज़ से मुझे दुख होता है, वो ये है कि, मैं आपको ही देने के लिए कोई तैयारी नहीं कर पाता हूँ। जो लोग यहाँ बोधस्थल में आते हैं, उन्होंने अक्सर देखा होगा कि सत्र शुरू होने से 10 मिनट पहले मैं आता हूँ। कई बार मैं जब यहाँ बैठ जाता हूँ, तो मुझे श्लोक पता चलता है।

गीता सत्र शायद अकेले होते हैं, जहाँ पहले से मुझे पता होता है — क्योंकि काव्यात्मक अर्थ लिखा होता है। सिर्फ़ अगर सांसारिक ज्ञान की बात करूँ, तो जितना सांसारिक ज्ञान मुझे 10 साल पहले था, उतना आज नहीं है।

किसी यूनिवर्सिटी का कोई विद्वान, कोई प्रोफेसर अभी बैठ जाए और मुझसे बातें करने लग जाए — दार्शनिकों की, लेखकों की — मैं हो सकता है, उसे ऐसे अब मुँह फाड़े देखूँ। क्योंकि संस्था की दिन-रात की चक्की में पिसते-पिसते जो मेरा अपना स्रोत था, जीवन का, प्राण का — मैं उससे दूर हो गया हूँ।

जो लेखक मुझे बहुत पसंद थे — बहुत, आज से नहीं, कॉलेज के समय से — उनकी किताब उठाता हूँ, खोलता हूँ, तो ऐसा लगता है जैसे कभी पढ़ी ही नहीं है। वो मुझे कोई मूल सिद्धांत नहीं समझा सकते। मूल सिद्धांत तो यहाँ गीता में है। लेकिन उनकी बात अगर मुझे याद हो, तो मैं बेहतर आपको उदाहरण दे पाऊँ, बेहतर कहानियाँ सुना पाऊँ, बेहतर तरीके से इलस्ट्रेट कर पाऊँ। ये सब कर पाऊँगा।

तो वो जो एनरिचमेंट हो सकता है सत्रों का, वो नहीं हो पा रहा है — क्योंकि मुझे अपने ऊपर काम करने का कोई समय नहीं मिलता। पिछली कुछ किताबें जो मैंने पढ़ी हैं, वो सब की सब मालूम है कहाँ पढ़ी हैं? फ्लाइट में। क्योंकि वहाँ फोन नहीं होता। नहीं तो किताब होती है, मेरे सिरहाने रखी होती है, मेरी मेज़ पर रखी होती है, खुलने की नौबत नहीं आती।

एक कहानी थी पुश्किन की — ड्यूल माने दो जने सामने खड़े होते हैं। 19वीं शताब्दी के वो जो रूसी लेखक थे, जिनमें बाद में टॉलस्टॉय आते हैं, दोस्तोएव्स्की आते हैं — उनमें सबसे पहले ये हैं पुश्किन। और बहुत कम उम्र में मर गए थे — 37 की उम्र में। और चूँकि उनकी ज़िन्दगी का बंदूकों से बड़ा नाता था, तो जब मैं टीनएज में था, तो मुझे ये बड़े अपील करते थे।

इनकी एक कहानी थी जिसमें यही था — ड्यूल था — कि दो आमने-सामने खड़े होकर करते हैं। ऐसे खड़े हो जाते हैं, जो जिसको पहले गोली मार दे — बाकायदा एक जगह निर्धारित होती है, जहाँ दो लोग मिलेंगे अपनी-अपनी बंदूक से। जहाँ बंदूक ले के जो जिसको पहले गोली मार दे, वो जीत गया। और पुश्किन की अपनी मौत भी ऐसे ही हुई थी — 37 की उम्र में गए ड्यूल लड़ाने और उन्होंने मारा, उसने मारा — इनको गोली लग गई — मर गए।

कल किसी वजह से इनका एक चरित्र, इनकी कहानी का एक चरित्र सामने आ गया। और कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि कोई चीज़ याद आ रही होती है पर नहीं भी आ रही होती? और आप कह रहे हो — “याद है... पर याद नहीं आ रहा... याद नहीं आ रहा।” मैं क़रीब 10 मिनट तक उस हालत में रहा। और ये वो है, जो आज से क़रीब 30 साल पहले मेरे बड़े पसंदीदा हुआ करते थे।

कुछ दिनों में मैं इनका भी नाम भूल जाऊँ, भूल ही गया हूँ। नहीं याद। क्योंकि ये बातें स्मृति की होती हैं ना। स्मृति तो दोहराव माँगती है। मूल सिद्धांत — फिर कह रहा हूँ — इनमें से कोई नहीं सिखा सकता, मूल सिद्धांत के लिए तो वेदांत है। पर वेदांत को आप तक पहुँचाने के लिए जो सामग्री चाहिए — सीधे कहूँ, जो मसाला चाहिए — वो मुझे अनुपलब्ध हो रहा है। यही है समस्या।

मैं लिख भी सकता हूँ, मैं ठीक-ठाक कवि हूँ। मैं 5 साल में एक कविता लिख रहा हूँ। क्यों? क्योंकि कविता आपाधापी में नहीं लिखी जाती। एक प्रकाशक हैं, और वो कब से माँग रहे हैं किताबें। मैं दे नहीं पा रहा हूँ, अभी एक किताब तैयार हुई है — उसको 3 साल लगे हैं तैयार होने में।

कुछ नहीं था — 2 महीने में तैयार हो सकती थी पर वक़्त कहाँ से दूँ? तो आप लोगों के पीछे-पीछे दौड़ने में मिशन का वास्तविक और बहुत भारी नुकसान हो रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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