आँखों का महत्व || (2014)

Acharya Prashant

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आँखों का महत्व || (2014)

आचार्य प्रशांत: आँखें जो होती हैं शरीर में, ये बड़ी आक्रामक होती हैं। ये भेदती हैं; टांग किधर को बढ़े उससे पहले आँख वहाँ जासूसी करके आई होती है। देखते हो न, आँख जिधर देखती है, कदम उधर को बढ़ते हैं?

आँख का काम ही है आक्रमण करना, सेंध लगाना और आँख जाती भी वहीं है, जहाँ मन उसको निर्देश देता है।

तुम अभी इधर को देख रहे हो, उधर को नहीं देख रहे हो, तो मन तुम्हें निर्देशित कर रहा है। जिधर को तुम्हारा मन लगा है, आँख उधर को जाती है। आँख कभी पूरा चित्र देखती नहीं, आँख तो मन की अनुचरी है। मन अगर गन्दा है, तो आँख लगातार क्या देखेगी? और फिर लोग कहते हैं, "आँखों देखी बात है", देख रहे हो संसार की मूर्खता? हम क्या बोलते हैं? हम बोलते हैं, "आँखों देखी बात हो, तभी यकीन करना।" मैं तुमसे कह रहा हूँ आँखों देखी है इसीलिए यकीन मत करना। क्योंकि देखी किसने? तुमने। और तुम देखोगे क्या? जो तुम्हारा मन कहेगा देखने को। तुम अपने सर के पीछे तो नहीं देख रहे। तुम मौजूद ही कहाँ पर हो? जहाँ तुम्हारा मन लाया। जहाँ तुम मौजूद भी हो, वहाँ तुम किस दिशा देख रहे हो, जहाँ तुम्हारा मन तुम्हें कह रहा है। फिर आँखों देखी बात की हैसियत क्या है? कानों सुनी की फिर भी थोड़ी ज़्यादा कीमत है क्योंकि कान फ़र्क नहीं कर पाता।

तुम कहीं बैठे हो, चारों तरफ़ से आवाज़ आ रही है तो कान में पड़ेगी ही। तो कान पर तो अपेक्षाकृत फिर भी थोड़ा भरोसा किया जा सकता है। आँख तो बड़ी धोखेबाज़ है, इसीलिए आँख बैठ कर के बंद की जाती है। समझ रहे हो कि क्यों योगी, संत ध्यान में बैठते हैं, तो आँखें बंद कर लेते हैं? और बंद कर भी नहीं लेते हैं, बंद हो ही जाती हैं। आँख कहीं को देखे, उसके लिए मन को उस विषय में रुचि होनी चाहिए। तुम्हारी अभी रुचि नहीं है पीछे की खिड़की में, तो उसको नहीं देख रहे हो। यहीं तुम्हें लगे कि अभी यहाँ से भागना है, भागने में तुम्हारी रुचि हो या तुम्हें कहीं पहुँचना है, तुम लगातार खिड़की और दरवाज़े की तरफ़ देखोगे। और जिसे कहीं को ना भागना हो, ना कहीं पहुँचना हो, वो किधर को देखे? उसके लिए तो देखना व्यर्थ ही है, तो उसकी आँखें अपने आप बंद हो जाती हैं।

जिसने ख़ुद को जाना, जिसकी आँखें अंदर को मुड़ गईं, जानने लग गया हो कि यह सब भागना-पहुँचना ये सब क्या है; अब उसकी आँखें क्यों बाहर भटकें? क्या बाहर तलाशें? जिसे अपने घर में ही जन्नत मिल गई हो, वो खिड़की से बार-बार बाहर झाँक कर देखेगा क्या? करोगे ऐसा? तो आँखें अपनेआप बंद हो जाती हैं। बुद्ध की आँखें देखी हैं? ध्यान भर में ही नहीं मुंदी रहती हैं, उनकी आँखें अध्मुंदी होती हैं, तब भी, जब वो लोगों के साथ हो, अध्मुंदी आँखें बड़ा सुंदर प्रतीक हैं। ऐसा नहीं कि बाहर देख ना रहे हो, पर आँखें भीतर को भी मुड़ी हैं; दोनों प्रक्रिया एक साथ चल रही है। जगत में कर्ता, भोक्ता भी है, साथ ही में साक्षी भी है; दोनों एक साथ चलते हैं तो आँखें भी आधी खुली रहती हैं। दुनिया के खेल हैं, तो भागीदार हैं। वो बात ठीक है कि सिद्धार्थ गौतम का शरीर है, पर बुद्ध की आत्मा है; दोनों एक साथ हैं। दोनों एक साथ हैं! समझ में आ रही है बात?

देखना कभी कि तुम्हारी आँखें सबसे ज़्यादा फ़ैल कब जाती हैं, चौड़ी कब हो जाती हैं। कभी किसी डरे आदमी की आँख देखी हैं कैसी हो जाती है? निकल कर बाहर ही आ जाएँगी या काम उत्तेजना में आँखें देखी हैं? यही नहीं बस कि पलकें पूरी खुल जाती हैं। जो तुम्हारे लेंस का द्वार है, जिसमें से रौशनी अंदर जाती है, वो भी चौड़ा हो जाता है। सब कुछ फ़ैल जाता है, आँखें बिलकुल संसार की ओर उन्मुख हो जाती हैं। मन जितना संसारी, आँखें उतनी ज़्यादा खुलती हैं। जब तुम सहज शांत होते हो, आँखें अपनेआप मुंदने सी लगती हैं। ये आँखें मन का प्रतीक हैं। मन ऐसा ही रहे, ये दुनिया के क्रिया कलापों में लगा हुआ है, पर भीतर को भी मुड़ा हुआ है।

दुनिया में है, पर दुनिया से बंध नहीं गया है। और दुनिया से, याद रखना, उसे कोई नफ़रत या घृणा भी नहीं है। अगर तुम बुद्ध को देखो, उनके क्रिया-कलापों को देखो, तो तुम जितने लोगों से शायद जीवन भर में मिलते हो, बुद्ध उतने लोगों से एक हफ़्ते में मिल लेते थे। इतने बड़े संसारी थे बुद्ध, दिन रात वो और कर क्या रहे हैं? जितना तुम एक महीने में चलते हो बुद्ध शायद उतना एक दिन में चल लेते थे। जितनी जगह एक आम आदमी कई जन्मों में देखता होगा, बुद्ध उतनी एक साल में देख लेते थे। चलते ही जा रहे हैं, चलते ही जा रहे हैं, एक गाँव से दूसरे गाँव, एक शहर से दूसरे शहर, एक राज्य से दूसरे राज्य। पैदल- पैदल चल रहे हैं; मेहनत की कोई कमी नहीं है। लोगों से मिलने जुलने में कोई दिक़्क़त नहीं है तुम क्या बात करते हो कॉर्पोरेट की, और आर्गेनाइज़ेशंस की, और मैनेजरियल्स की! बुद्ध ने इतना बड़ा संघ खड़ा कर दिया, सोचो उसमें कितना प्रबंधन, मैनेजमेंट चाहिए होगा। कितने लोग उनके साथ हैं, उनका हाल-चाल इन्तज़ाम तो देखना पड़ता होगा न? करते थे बुद्ध ये सब और साथ-ही-साथ अपने में लीन थे। बुद्ध का कारोबार भी कोई छोटा-मोटा नहीं था; बहुत बड़े सीईओ थे। हाँ, वास्तव में आज दुनिया की करीब-करीब पंद्रह प्रतिशत आबादी बौद्ध है।

और उसकी जड़ें बुद्ध ने ख़ुद आरोपित की थीं और ऐसा भी नहीं कि सिर्फ़ गाँव के लोगों से मिल रहे हैं, सेठों से भी मिल रहे हैं, राजाओं से मिल रहे हैं। और ऐसा नहीं कि बैठ कर चुप-चाप बैठे हैं; लोगों से बात चीत कर रहे हैं। ध्यान का समय है, मिलने जुलने वालों का समय है, प्रश्न-उत्तर का समय है सब चल रहा है, संसार पूरी तरीके से रत है, पर आँखें मुंदी हुई हैं। राजा से भी मिल रहे हैं, तो भी ऑंखें वैसी ही हैं। राजा को देखा, लेकिन साथ-ही-साथ अपने आप को भी देखा। ये नहीं कि राजा से मिलने गए, तो आँखें खोल ली कि वो राजा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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