प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैंने आपसे पहले भी कंज़म्प्शन (उपभोग) से सम्बन्धित प्रश्न पूछा था और आपने कहा था कि अगर किसी सही काम के लिए किया जा रहा है जैसे कि यहाँ पर हम जो इलेक्ट्रिसिटी यूज़ (विद्युत का उपयोग) करे रहे हैं, तो ये कंज़म्प्शन में नहीं आता अन्यथा वो कंज़म्प्शन में आएगा।
पर कंज़म्प्शन कम हो रहा है या नहीं, ये गणनात्मक रूप से स्पष्ट नहीं हो रहा है। मैंने चार-छः महीने से अपने निजी उपयोग के लिए कंप्यूटर टेबल लेने को रोक कर रखा है। कहीं-न-कहीं ये एनवायरमेंट (पर्यावरण) से जुड़ा है, क्योंकि है तो लकड़ी। तो मैं मिनिमल (कम-से-कम) कर रहा हूँ या नहीं, ये तय नहीं कर पा रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, ये तय तो अरिथमैटिक (अंकगणित) कर देगी। ठीक है? इसके लिए आपको अध्यात्म नहीं अंकगणित चाहिए। भई, भोग की जहाँ तक बात है, वो गिना जा सकता है न। तो गिन लीजिए कि आप कितना भोग कर रहे हो। आपकी कुल ज़िंदगी कितने कंज़म्प्शन पर आधारित है वो तो आप सीधे-सीधे जोड़-घटाव से जान सकते हो, उसमें क्या समस्या है?
प्र: समस्या अब ये है कि जैसे कुछ भी चीज़ दिखती है तो मुझे लगता है कि मैं नहीं लेता तो भी मेरा काम चल जाता। फिर कभी लगता है कि नहीं, मुझे इसकी ज़रूरत भी थी तो मिनिमल नहीं हो रहा है। और मैं ये अपने स्तर तक नहीं सोच रहा हूँ, मैं सब के हिसाब से पूछ रहा हूँ कि ये कैसे कम होगा?
आचार्य: ये देखकर के कि सबसे ज़्यादा कंज़म्प्शन किस जगह पर आप कर रहे हो, उन जगहों को कम करो, हटा दो। मैं उदाहरण देता हूँ। आँकड़े ऊपर-नीचे कर रहा हूँ तो बता देना मुझे (आचार्य जी सही आँकड़ों के लिए एक सदस्य से कहते हैं)।
शायद कुछ ऐसा है कि अगर आप एक बच्चा पैदा कर दें — जो कंज़म्प्शन में ही आता है — तो आप एक साल में चालीस टन कार्बन डाइऑक्साइड और पैदा करने के ज़िम्मेदार हो गए। ठीक है? ये एग्ज़ैक्ट (सटीक) नहीं होगा आँकड़ा, अभी ये बता देंगे पर इसी तरह का है कुछ।
अगर आपने एक बच्चा पैदा कर दिया तो आप एक साल में चालीस टन अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करने के गुनहगार हो गए। और अगर आपने एक पेड़ लगा दिया तो आपने चालीस साल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड कम कर दी। कर लो न अरिथमैटिक , क्या समस्या है? ऐसे ही तो किये जाते हैं निर्णय।
तो आप ये सोचो कि मैं पेड़ लगा देता हूँ दो-तीन, तो इससे खानापूर्ति हो जाएगी; तो क्या हो पाएगी? एक पेड़ चालीस साल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है। ठीक बोल रहा हूँ?
एक पेड़ औसतन कितने साल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है? पेड़ क्या करते हैं — कार्बन डाईऑक्साइड लेकर उसको सीधे लकड़ी बना देते हैं, तो वो सोखते हैं। और आप अगर एक संतान पैदा कर देते हो तो एक साल में ही चालीस टन कार्बन डाइऑक्साइड आपने एक्स्ट्रा (अतिरिक्त) पैदा कर दिया। तो बस ऐसे ही। ये तो अरिथमैटिक है न! इसमें समझ में क्या नहीं आ रहा?
स्वयंसेवी: अगर आप एक बच्चा कम पैदा करते हैं तो अठावन दशमलव छः टन कम कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं।
आचार्य: ये आँकड़े उपलब्ध हैं, इनको देख लिया करो। (फ़ोन से कुछ आँकड़े देखकर बताते हैं) अब जैसे ये था न कि टेबल ली कि नहीं ली तो वैसे ही इसमें एक आँकड़ा दे रखा है कि कार ली या नहीं ली। तो इससे जो कुल बचा पाओगे वो है दो टन। कितना बचा पाओगे — दो टन।
कपड़ों को गर्म पानी की जगह ठंडे पानी में धो दिया क्योंकि गर्म करने में एनर्जी (ऊर्जा) लगती है तो इतना तुम सालभर भी करते रहो तो कितना बचा पाओगे? शून्य दशमलव दो टन। अपनी जो साधारण कार है फ़ॉसिल फ़्यूल (जीवाश्म ईंधन) वाली, उसकी जगह हाइब्रिड कार ले ली तो शून्य दशमलव पाँच टन बचा पाओगे बस।
रीसाइकल (पुनर्चक्रित) करने लगे — रीसाइक्लिंग (पुनर्चक्रण) की इतनी बात होती न, 'रीसाइकल, रीसाइकल' — पूरे साल रीसाइकल करते रहो तो भी कितना बचा पाओगे? शून्य दशमलव दो टन। ये लाइट बल्ब जो हैं, फ़िलामेंट बेस्ड की जगह तुमने ये सब लगा दिये, क्या बोलते हैं इन्हें आजकल? हाँ, एलईडी। कि ये फ़िलामेंट वाले सौ-सौ वॉट के होते हैं, हटाओ, ये लगाओ। पूरे घर के बदल डालो तो भी सालभर के बचा पाओगे शून्य दशमलव एक टन।
ट्रांस-अटलांटिक फ़्लाइट माने यूरोप से अमेरिका जाना और फिर वापस आना — राउंड ट्रिप, टू एंड फ्रो — मत ही करो, कहो, ‘नहीं जा रहे’, तो भी कितना बचा पाओगे? एक दशमलव छः टन। और बस एक बच्चा कम पैदा करो तो मैंने बोला था कि चालीस टन बचता है। चालीस टन नहीं बचता है, इसके हिसाब से साठ टन बचता है। लो, ये होगा अरिथमैटिक !
प्र: मतलब निजी जीवन में जो सोच रहा था, उससे कई गुना ज़्यादा तो ये है।
आचार्य: तो ये आप ख़ुद नहीं देख सकते थे, कितनी देर लगी गूगल करने में?
प्र: नहीं, मुझे पहले वो नहीं समझ में आया।
आचार्य: मैंने इतनी बार बोला है न कि एक बच्चा जो तुम पैदा करते हो, इससे ज़्यादा बड़ा गुनाह हो नहीं सकता आज के समय में। इतनी बार तो बोला है, और कितना बोलूँ! और आँकड़े उपलब्ध हैं, ये कोई मैंने नहीं छाप दिया। और अलग-अलग रिपोर्ट से सबको आपस में तुलना करके वेरिफ़ाई (सत्यापित) कर लो, लगभग एक ही बात मिलेगी।
तुम जितना एक्टिविज़्म (सक्रियता) दिखाते हो कि प्लास्टिक नहीं होगा, इलेक्ट्रिक वेहिकल (विद्युत वाहन) चलाएँगे, बल्ब बदल दो, गीज़र का कम इस्तेमाल करो; और क्या चलता है? डिस्पोज़ेबल (प्रयोज्य) का या कि कपड़ों का कम इस्तेमाल करो; ये सब फैड (सनक) चलते रहते हैं। ये सब शून्य दशमलव एक, शून्य दशमलव दो, शून्य दशमलव पाँच वाले हैं। जो सबसे बड़ी डकैती है वो बच्चा पैदा करना, वो सीधे साठ की है। तुम कितने पेड़ लगाओगे कि एक बच्चे की भरपाई कर पाओगे? तुम पूरा जंगल लगा दो तो भी एक बच्चे की भरपाई नहीं कर सकते।
तो ये जो बात है न कि बच्चे कम पैदा करो, वृक्ष ज़्यादा लगाओ, बिलकुल बेवकूफ़ी की बात है। तुम सौ वृक्ष लगा लो तो भी तुमने अगर एक बच्चा पैदा कर दिया तो वो सौ वृक्ष लगाना बेकार हो गया। अभी ये है स्थिति।
आमतौर पर संस्था अपने ट्विटर पर किसी दूसरे को रिट्वीट वगैरह करती नहीं है। ये लोग उस पर मेरी ही कही बात डालते रहते हैं। कल करा है, शायद यूएन सेक्रेटरी जनरल को करा है कल रिट्वीट। और वो यही कह रहे हैं। बहुत उन्होनें साफ़, बिना लाग-लपेट के कहा है कि मेरे लिए ये बहुत क्षोभ की बात है कि दुनियाभर के नेता अभी भी ऐसे चल रहे हैं जैसे क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा हो।
बचेगा ही नहीं कोई। पर अगर बचे सौ, दो-सौ साल बाद लोग तो वो आज के समय की ओर, दो-हज़ार-बीस, दो-हज़ार-तीस की ओर देखेंगे और उनको बड़ी हैरत होगी। वो केस स्टडी (मुद्दा अध्ययन) लिखना चाहेंगे, वो रिसर्च (शोध) करना चाहेंगे कि ये जितने सब लोग थे, सबने कौनसा नशा कर रखा था कि इनको समझ में ही नहीं आ रहा था कि आप दुनिया बर्बाद कर रहे हो और दस-बीस साल के अंदर-अंदर बर्बाद कर रहे हो, ख़त्म! इन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था!
क्या कैलकुलेशन (गणना) बची है! लो है न कैलकुलेशन सामने सारी।
मिनिमलिज़्म (न्यूनतमवाद) दो तलों पर काम करता है। आंतरिक तल पर, वो आपके मन को विषय-वासना मुक्त रखता है। ठीक? नहीं पचास चीज़ों की ज़रूरत है, तो नहीं रखी। जब पचास चीज़ें नहीं हैं तो पचास चीज़ों से मन मुक्त है। आंतरिक तल पर उसका ये लाभ होता है। ये आध्यात्मिक लाभ है उसका। और उसका जो दूसरा लाभ होता है वो है जिसकी अभी हम चर्चा कर रहे थे, पृथ्वी बच जाएगी। और मिनिमलिज़्म में जो सबसे बड़ी चीज़ है, वो है मिनिमल ह्यूमनबींग्स (न्यूनतम मानव)। और थोड़े ही कुछ होता है मिनिमलिज़्म।
मुझे खेद है अगर मैं ये बात आज से पहले स्पष्ट नहीं कर पाया आपको।
मिनिमलिज़्म का मतलब ये नहीं होता है कि आप अपना ये स्वेट शर्ट या कच्छा-बनियान मिनिमल रखोगे। इसको मिनिमल रखकर क्या हो जाएगा? हालाँकि उससे भी है आंतरिक लाभ, ठीक है, वो विषय-वासना वाला लाभ रहेगा कि जहाँ पाँच चीज़ से काम चल सकता है वहाँ पचास काहे को रखें! लेकिन मिनिमलिज़्म का आज के समय में जो सीधा-सीधा अर्थ है, वो ये है कि लोग मिनिमम होने चाहिए इस ग्रह पर। ये ग्रह नहीं बर्दाश्त कर रहा। हम बर्दाश्त की सीमा कब की पीछे छोड़ चुके हैं।
मैं बंबई गया था तो वहाँ कुंतल जोशेर थे। तो उनसे लगभग दो घंटे की बात हुई है इसी चीज़ पर। पूरा-का-पूरा अंग्रेज़ी चैनल पर छपा भी था कि साहब! आप कहाँ मशगूल हैं, ख़्वाबों से बाहर आइए। हम बड़े ख़ास लोग हैं। हम विशेष रूप से अभागे लोग हैं, हम एक मास एक्सटिंक्शन (सामूहिक विलुप्ति) के फेज़ (चरण) में जी रहे हैं, मास एक्सटिंक्शन।
साधारणतया जितनी प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त होती हैं, आज उससे हज़ार गुना ज़्यादा विलुप्त हो रही हैं। और कारण इंसान है, प्राकृतिक कारण नहीं है। प्राकृतिक कारणों से भी प्रजातियाँ विलुप्त होती रहती हैं, पर इंसान ने प्राकृतिक दर को एक हज़ार गुना ज़्यादा बढ़ा दिया। जितनी देर में हम बात कर रहे हैं उतनी देर में सैकड़ों प्रजातियाँ सदा के लिए विलुप्त हो गयीं।
पहले भी हो चुके हैं मास एक्सटिंक्शन्स और उनकी वजह सदा कार्बन डाइऑक्साइड रही है; सदा तो नहीं पर तीन बार। पाँच बार हो चुका है, छठी बार चल रहा है। पाँच में से तीन बार कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता के कारण ही हुआ था — पूरा सर्वनाश! कुछ नहीं बचा था। और इस बार भी उसी वजह से हो रहा है, क्या? कार्बन डाइऑक्साइड। इसलिए मैं मिनिमलिज़्म की बात करता हूँ। और मैं फिर बोल रहा हूँ, ये जूते या जींस मिनिमल करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन पर्याप्त नहीं है।
आप कहें, ‘मेरे तीन बच्चे हैं लेकिन सबको मैं बस तीन-तीन जोड़ी कपड़े देता हूँ, मैं मिनिमलिस्ट (न्यूनतमवादी) हूँ।’ तो आप मिनिमलिस्ट नहीं, पाखंडी हैं। एक बार आपने तीन बच्चे पैदा कर दिये, उसके बाद आप कुछ नहीं कर सकते। उसके बाद उनको चाहे तीन जोड़ा कपड़े दो चाहे तीस जोड़ा कपड़े दो, एक बराबर। बर्बादी हो गयी। ये बल्ब कम रखने से या कहने से, 'देखो, मैं बाहर जाऊँगा तो एसी बंद करके जाऊँगा,' इससे कुछ नहीं मिलना। ये अच्छी चीज़ है पर बहुत अपर्याप्त है।
लोग अपनेआप को ख़ुश कर लेते हैं, कहते हैं, ‘देखो, मैं तो कितनी भी गर्मी हो जाए, एसी सोलह पर नहीं चलाता हूँ, छब्बीस पर चलाता हूँ।‘ फिर अपनेआप को सर्टिफिकेट (प्रमाणपत्र) दे देते हैं — मैं अच्छा आदमी हूँ, आइ एम एनवायरमेंटली कॉन्शियस सिटिज़न; ईसीसी (मैं पर्यावरण को लेकर होशमंद नागरिक हूँ)।
और बताएँगे कि हमारे घर में तो मई-जून में भी छब्बीस पर चलता है एसी ; और एक कमरे में नहीं, सब छः कमरों में। जो चौदह लोग हैं, उन सबके लिए छब्बीस पर ही चलता है। तीन भाई हैं, उनकी तीन बीवियाँ हैं, सबके तीन-तीन, चार-चार बच्चे हैं। और सब बहुत गौरव का जीवन जीते हैं क्योंकि सोलह की जगह छब्बीस पर एसी चलाते हैं। और सब्जी की पन्नी रीसाइकल करते हैं कि इसमें आलू, धनिया आया था, इसको धोओ! काहे से धोओ? पहले सर्फ से धोओ, फिर सैनिटाइज़र से धोओ। भाई एनवायरमेंटली कॉन्शियस हैं! और सर्फ और सैनिटाइज़र तो ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्स (जैविक उत्पाद) होते हैं, खेत से उगते हैं!
हम अपनेआप को बहुत ख़ुश रखते हैं। कोई बता रहा है ऑर्गेनिक फूड (जैविक खाद्यपदार्थ)। भाई मेरे, जितनी आबादी है वो ऑर्गेनिक फूड पर कैसे चलेगी? पागल हो गये हो क्या? ये पेस्टिसाइड्स (कीटनाशक) और फ़र्टिलाइज़र्स (उर्वरक) क्यों यूज़ करने पड़ते हैं? कुछ अक्ल नहीं है? कैसी बातें कर रहे हो?
बहुत ख़ुश रहते हैं, ‘मेरे किचन (रसोई) में तो सिर्फ़ ऑर्गेनिक (जैविक) आता है।’ पहली बात तो तुम अमीर बहुत हो। आम आदमी ऑर्गेनिक अफ़ोर्ड (वहन) नहीं कर सकता। दूसरी बात, सब ऑर्गेनिक खाने लग गये तो मार्केट में हो ही नहीं सकता इतना ऑर्गेनिक। पृथ्वी पर आठ सौ करोड़ लोगों को ऑर्गेनिकली खिलाने की क्षमता नहीं है तभी तो उसमें फ़र्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड डालने पड़ते हैं।
तो कुल-मिलाकर के एक ही समाधान हो सकता है — ये आठ सौ करोड़ कम होने चाहिए। इसके अलावा कोई समाधान नहीं है।
पर सब ख़ुश रहते हैं, ‘मैं एनवायरमेंटली कॉन्शियस हूँ और मैं सुबह योगा करती हूँ।’ तो उससे क्या हो जाएगा? योगा से क्या हो जाएगा? ‘नहीं, मैं बहुत रिस्पॉन्सिबल मदर (ज़िम्मेदार माँ) हूँ, मेरे चारों बच्चे भी योगा करते हैं। और वहाँ दिल्ली सरकार ने बोला है कि वो फ़लानी कॉलोनी (बस्ती) बन रही है तो उसके लिए डेढ़-सौ पेड़ कटेंगे, तो मैं तो जा ही रही थी वहाँ पर धरना प्रदर्शन करने लेकिन तभी पता चला कि दीदी लेबर (प्रसव) में आ गयी हैं, उनका चौथा बच्चा है। तो मैं दीदी को कांग्रेचुलेट (बधाई देने) करने चली गयी।’
तुम पागल हो, पाखंडी हो, क्या हो?
एक बच्चे का पैदा होना माने दस लाख पेड़ों का कटना। डेढ़-सौ पेड़ सरकार काट रही है उसको बचाने के लिए तुम कह रही हो, ‘धरना प्रदर्शन करने जा रही हूँ’, और दीदी प्रेग्नेंट (गर्भवती) हुई हैं तो तुम उन्हें कॉन्ग्रेचुलेशन्स (शुभकामनाएँ) भेज रही हो! इससे बड़ा पाखंड हो सकता है कोई! आज के समय में आप किसी को बच्चा पैदा होने की बधाई दें, इससे बड़ा कोई पाप हो सकता है?
समझ में नहीं आ रही न बात?
आपके सामने हत्याएँ हो रही हों तो लगता है कोई बुरी चीज़ हो रही है लेकिन जब बच्चा पैदा होता है तो वो कितनी हत्याएँ अपने साथ लेकर पैदा हो रहा है, ये दिखायी नहीं पड़ता न! वहाँ तो बस ये दिखायी पड़ता है वो क्यूट, बंडल आफ जॉय (प्यारा, खुशनुमा बच्चा)। तो दिखायी नहीं पड़ता तो सब लोग बधाइयाँ, बधाइयाँ, बधाइयाँ।
यहाँ भी अभी हो सकता है आपमें से बहुत जवान लोग बैठे हैं, कईयों के अरमान हों। जो जवान नहीं हैं उनके भी अरमान हों। जो जवानी से और दूर जा चुके होते हैं उनके फिर जवान लोगों से अरमान होते हैं, ‘बेटा! जो मैं करके नहीं दिखा पाया, वो तू करेगा।’
अध्यात्म भी यही बताता है न कि जीवन दुख है। काहे को बेकार में किसी को पैदा कर रहे हो दुख झेलने के लिए? अपनी ज़िंदगी से बड़े संतुष्ट हो? बहुत आनंद में बीती है क्या ज़िंदगी जो एक और जीव ला रहे हो दुनिया में? इतना ज़रूर कर रहे हो कि वो बेचारे जो जंगल में पड़े हुए हैं बेज़ुबान, निरीह, उनको कहीं का नहीं छोड़ रहे; बर्बाद कर दिया। पूरी-की-पूरी उनकी प्रजातियाँ खा गये। ये नहीं कि एक-दो जीव, स्पिशीज़ ही ख़त्म कर दी।
मिनिमलिज़्म (न्यूनतमवाद) समझ में आया क्या है? कौनसे दो फ़ायदे बताये? भीतरी फ़ायदा क्या होता है? ज़िंदगी में चीज़ें कम रहती हैं। जब चीज़ें कम रहती हैं तो झंझट कम रहता है, आसक्ति कम रहती है। चीज़ें कम रहती हैं तो देखभाल भी कम रहती है, ठीक! चीज़ें कम रहती हैं तो किसी ऊँची चीज़ पर समय बिताने की मोहलत ज़्यादा रहती है। ये सब अंदरूनी फ़ायदे होते हैं मिनिमलिज़्म के। नहीं तो जीवनभर यही करते रहो कि फर्नीचर झाड़-पोंछ रहे हैं।
सोचो आपके पास दस शहरों में दस प्लॉट (ज़मीन) हों — कई लोगों के होते हैं — तो दिमाग में लगातार क्या घूमता रहेगा? प्लॉट-ही-प्लॉट घूम रहे हैं, फ़लाने पर कब्ज़ा कर लिया, फ़लानी जगह रेट (मूल्य की दर) बढ़ रहे हैं, फ़लानी जगह रेट घट रहे हैं, यही चलता रहेगा। चलता है कि नहीं चलता है? कम रखो। कितना कम रखो — ये आपके विवेक को तय करना है। और दूसरा फ़ायदा क्या है?
प्र: पृथ्वी भी बचेगी।
आचार्य: हाँ। एक है फ़ायदा अंदरूनी और एक है फ़ायदा बाहरी।
प्र: आचार्य जी! दूसरा प्रश्न ये है कि आप जैसे कहते हैं कि व्यक्ति को किसी खेल में, किसी कला में या कभी-कभी ट्रैवलिंग (भ्रमण) में थोड़ा रहना चाहिए ताकि उसका बौद्धिक विकास हो। पर कभी मन तो इन चीज़ों से भी उचटने की कोशिश करता ही है न?
आचार्य: तो और कुछ करो न।
प्र: नहीं! ठीक है, मुझसे नहीं हो रहा है अब, तो इनसे भी भागने का मन तो रहता ही है। ऐसा तो नहीं है कि वो करेगा तो उससे प्रेम ही हो जाएगा।
आचार्य: ये सब बुद्धि-विलास कर रहे हो आप या करके देखा है, फिर मन उचट गया है? कितनी ट्रैवेलिंग करी?
प्र: मैं तो ट्रैवेलिंग पहले नहीं करता था। आप ही के पास आता था...(श्रोतागण हँसते हैं)।
आचार्य: इनका अच्छे से रिकॉर्ड कर लो, बहुत लाइक्स आने वाले हैं। कितना क्यूट जवाब दिया है, कह रहे हैं, ‘आचार्य जी, आपने कहा ट्रैवेलिंग कर लो पर ट्रैवेलिंग जब ख़ूब कर लेंगे तो उससे भी तो मन उचट जाएगा न!’ करी कितनी? ‘नहीं, मैने तो नहीं करी।’
प्र: मैंने उसमें जैसे म्यूज़िक (संगीत) का ट्राई (प्रयास) किया है तो उसमें मैं कह रहा हूँ।
आचार्य: तो म्यूज़िक में बिलकुल पारंगत हो गये क्या?
प्र: कोशिश चल रही है।
आचार्य: हाँ तो कोशिश करो न। और गहरी कोशिश करो। घुस जाओ उसमें बिलकुल। सतह-सतह पर छूते चलोगे तो ऊब के अलावा क्या मिलेगा? आत्मा को अनंत क्यों बोला गया है? अनंत है तभी तो ऊब नहीं है न उसमें। बाक़ी सब चीज़ें स-अंत हैं, उनमें अंत होता है, स-अंत। जहाँ अंत है वहाँ ऊब है; सीमा आ गयी न। अब इसके आगे कुछ है ही नहीं इसमें। आत्मा अकेली है जिसमें कभी सीमा आती नहीं। अभी और भी है। ‘अच्छा! अभी और भी है! बताओ क्या है?’ तो रूचि बनी रहती है, कभी ऊब नहीं सकते; अनंत।
प्र: मतलब अगर किसी चीज़ को करना है तो उत्कृष्टता से करते जाना है?
आचार्य: हाँ, आत्मा उत्कृष्टता का ही दूसरा नाम है। उत्कृष्ट होते जाओ, और, और, और।
प्र: प्रणाम आचार्य जी! आपने जब अभी बोला, एक बच्चा ज़्यादा पैदा करना भी प्रकृति के लिए बहुत भारी पड़ेगा और आपने एक बार बोला था कि दस हज़ार पृथ्वी हो उसको भी आप खा डालोगे, सब भोग डालोगे। तो ये है और ये हो रहा है। कम्युनिटी (समुदाय) में हो रहा है।
वो मठाधीश होते हैं न, एक पर्टिकुलर एरिया (किसी विशेष क्षेत्र) के मठाधीश रहते हैं। मैं बात करती हूँ मेरे रिलेटिव (सम्बन्धी) से तो कहते हैं कि हमारा तो उम्र चला गया; दूसरी बात, बच्चा और वो सब नहीं है। लेकिन धर्म के नाम पर युवाओं को इकट्ठा करके वो बता रहे हैं कि और भी बच्चे पैदा करो, एक नहीं, दो नहीं, तीन। उनकी दलील है कि अपनी कम्युनिटी (समुदाय) के लोग बहुत कम हो रहे हैं।
आचार्य: अरे! कोई कम्युनिटी नहीं बचेगी, न अपनी, न दूसरी।
प्र: मेरा वही तर्क था। पर वो कहते हैं, 'तुम मुझे मत समझाओ क्योंकि हम लोग एक-दो बच्चे पर आ गये हैं, एजुकेटेड (शिक्षित) हैं।' रिलीजन के ऊपर बात करते हैं।
आचार्य: मैंने एक पिक्चर देखी थी। उसमें एक गाड़ी थी, वो जल रही थी। गाड़ी जल रही है और जितने लोग उसमें थोड़ा दिमाग वाले थे, वो बाहर कूद गये। दो ऐसे थे जो आपस में लड़ रहे थे अंदर और वो अंदर ही जल मरे। उन्हें जलती गाड़ी नहीं दिख रही थी, उन्हें अपना दुश्मन दिख रहा था। उन्होंने कहा — दुश्मन से निपटना ज़्यादा ज़रूरी है, भले ही मैं ख़ुद जल मरूँ।
कौनसी कम्युनिटी ! मास एक्सटिंक्शन समझ रहे हो? कम्युनिटी छोड़ दो, दूसरी कम्युनिटी वाले तो फिर भी तुम्हारी अपनी स्पिशीज़ के हैं, अपनी प्रजाति के हैं, यहाँ तो सारी ही प्रजातियाँ ख़त्म हो रही हैं। आप कितने क्षुद्र तल पर बात कर रहे हो कि मेरी कम्युनिटी, उसकी कम्युनिटी ?
सुनामी आती है तो हिंदू-मुसलमान देखती है क्या? पहली बात तो समुद्र का तल बढ़ रहा है, दूसरी बात, सत्तर प्रतिशत पानी है। सूर्य से जो ऊर्जा आती है पृथ्वी पर, उसका सत्तर प्रतिशत से भी ज़्यादा समुद्र ही सोख लेता है। पानी पर रेडिएशन (विकिरण) पड़ेगा तो पानी क्या करेगा? एब्ज़ॉर्ब (सोखना) कर लेता है न उसको।
पहली बात तो ग्लेशियर (हिमनद) पिघल रहे हैं तो जलस्तर बढ़ गया और जो जल बढ़ा है वो गर्म ज़्यादा है। जो ऊपर से आया रेडिएशन , अब वापस तो जा नहीं पा रहा है। यही ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट (हरितगृह प्रभाव) है—अंदर आ गया, बाहर जा नहीं सकता। अंदर आ गया तो एक तो बर्फ़ पिघला रहा है, समुद्र ऊपर उठ गया, और ऊपर ही नहीं उठ गया, वो और गर्म हो गया। वो पूरा शहर खा जाएगा, मुंबई खा जाएगा। तो वो जाति-धर्म देखकर खाएगा? कौनसी कम्युनिटी ! कम्युनिटी की इसमें क्या बात है?
प्र: और ये हर मीटिंग (चर्चा) में उकसा रहे हैं उनको।
आचार्य: उनको अपने पीछे चलने वाली भेड़ों की संख्या बढ़ानी है। ठीक है! मेरे पीछे दस लोग चलते हैं, मैं चाहता हूँ मेरे पीछे चालीस चलें तो मैं इन दस से क्या कहूँगा? तुम चालीस पैदा करो न! तभी तो मेरे पीछे चलने वाले चालीस होंगे।
प्र: जो रिलेटिव्स उनको मानते हैं, वो बोलते हैं तुम जाकर फिर दूसरे रिलीजन वालों को समझाओ जो सात बीवियाँ रखते हैं और उनके हर बीवी से बहुत बच्चे होते हैं। उनको समझाओ!
आचार्य: देखिए, एक तो हम तथ्यों में नहीं जीते हैं। ठीक है! हम तथ्यों में नहीं जी रहे हैं। भारत की जहाँ तक बात है, भारत में हिंदू जनसंख्या की वृद्धि दर और मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर में जो अंतर है वो बहुत कम हो चुका है और हर बीतते वर्ष के साथ और कम होता जा रहा है। कुल ये एक अफ़वाह फैलाकर के कि मुसलमान बढ़ते जा रहे हैं, बढ़ते जा रहे हैं और एक दिन छा जाएँगे तुम्हारे ऊपर; कुल ये एक अफ़वाह फैला करके धर्म चलाया जा रहा है, सरकारें चलायी जा रही हैं। ये एक अफ़वाह हटा दी जाए तो न जाने क्या-क्या गिर जाएगा।
एक समय निश्चित रूप से था जब मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर बहुत ज़्यादा थी। तो तब रोक लिया होता न, तब काहे नहीं रोक लिया? तब तो रोका नहीं। मुसलमानों से इतनी ही समस्या है तो जब विभाजन हुआ था तो सबको पाकिस्तान भेज दिया होता, तब तो भेजा नहीं। अब शोर क्यों मचा रहे हो?
अभी तो स्थिति ये है, फिर से बोल रहा हूँ, कि जो फ़र्टिलिटी रेट (प्रजनन दर) है, टीएफ़आर , वो हिंदुओं में और मुसलमानों में जो दोनों के कर्व्स (वक्र) हैं वो लगातार कन्वर्ज (निकट आ रहे हैं) कर रहे हैं। अब शोर मचाने से क्या फ़ायदा? क्यों अफ़वाह फैला रहे हो बेकार!
संतानें कम पैदा करनी चाहिए, हिंदुओं को भी, मुसलमानों को भी। और मुसलमानों को और ज़ोर देकर के मैं बोलता हूँ, 'कम पैदा करो'। क्योंकि अभी भी अपेक्षतया उनमें ज़्यादा हो रही हैं। पर अब इतनी ज़्यादा नहीं हो रही हैं कि हम कहें, 'ख़तरा, ख़तरा, ख़तरा!' कौनसा ख़तरा?
और स्टैटिसटिक्स (सांख्यिकी) आँकड़ों पर चलती है, तथ्यों पर चलती है। ये जो बात कही जाती है न कि मुसलमानों की आबादी बढ़ती रहेगी और वो ही इस देश में बहुसंख्यक हो जाएँगे, ये बात तथ्यात्मक रूप से भी बिलकुल ग़लत है। भारत की मुस्लिम आबादी उन्नीस-बीस प्रतिशत के स्तर पर आकर के रुक जानी है, वहीं पर इक्वीलिब्रियम (साम्यावस्था) आ जाएगा और ये बात आप सीधे-सीधे कर्व्स को एक्स्ट्रापोलेट करके देख पा रहे हो।
प्र: इनके लिए भी उनका तर्क था कि जब जनसंख्या गिनती के लिए आते हैं तो वो लोग घर में कितने रहते हैं वो बताते नहीं और कम बताते हैं।
आचार्य: कैसे कम बताएँगे? आधार कार्ड नहीं बनवाएँगे? आधार कार्ड नहीं बनवाएँगे तो सरकारी सुविधाएँ कैसे पाएँगे? क्या बेहूदी बात है! ये कह रहे हैं कि उनकी वास्तविक जनसंख्या ज़्यादा है, वो छुपा जाते हैं। कैसे छुपा जाएँगे? ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनवाएँगे? आधार कार्ड नहीं बनवाएँगे? पैनकार्ड नहीं बनवाएँगे? कैसे छुपा ले जाएँगे? पैन कह भी दो नहीं बनवाएँगे, इनकम टैक्स (आयकर) नहीं देते; पैन नहीं बनवाते, आधार? आधार के बिना कैसे सरकारी सुविधाएँ मिलेंगी? तो ये क्या बेहूदा तर्क है कि नहीं, उनकी जनसंख्या बहुत ज़्यादा है पर वो छुपा रहे हैं।
और मैं तथ्यों से बिलकुल इन्कार नहीं कर रहा। ये बिलकुल हुआ है। विभाजन के समय भारत की मुस्लिम आबादी लगभग दस प्रतिशत थी, वो बढ़कर सोलह-सत्रह प्रतिशत पर आ गयी है। पर सोलह-सत्रह प्रतिशत से अब ये चालीस प्रतिशत नहीं होने वाली। ये थोड़ा और अनुपात बढ़ेगा और वहीं पर रुक जाना है। और ये बात हमें आँकड़ों से साफ़-साफ़ दिख रही है। तो अब शोर मचाने से फ़ायदा नहीं।
मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर को बिलकुल रोका जाना चाहिए था, पर कब? तब रोकते न जब बढ़ रही थी। वो बढ़ी है पचास के दशक में, साठ के दशक में, सत्तर-अस्सी के दशक में। उसके बाद से जैसे-जैसे मुसलमानों में भी शिक्षा आयी है और स्वास्थ्य सुविधाएँ मिली हैं और वो जैसे-जैसे आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे वहाँ पर भी जो जनसंख्या वृद्धि दर है, वो कम होती जा रही है।
तो अब ये समय नहीं है दो-हज़ार-तेईस में कि आप इस बात का हौआ खड़ा करें, अब कोई लाभ नहीं। बच्चे कम पैदा करने हैं हिंदुओं को भी, मुसलमानों को भी, दोनों को। और दोनों को ही यही संदेश है—कम पैदा करो। हो सके तो न ही पैदा करो। करना ही है तो एक कर लो। ठीक है?
इसमें बल्कि देख लो न कहाँ पर है ये। (स्वयंसेवक को कर्व्स दिखाने के लिए कहते हैं) सीधे-सीधे आँकड़ा ही दिखा दो सबको कि दोनों कर्व्स कैसे एक-दूसरे के पास आते जा रहे हैं, हिंदू और मुसलमान का जो ग्रोथ रेट (वृद्धि दर) का कर्व है।
हम फैक्ट्स (तथ्यों) में नहीं जीते, हम कल्पनाओं में जीते हैं। हम इस पर जीते हैं कि व्हाट्सएप पर हमें फॉरवर्ड (प्रेषित) में क्या आ गया है और उसमें लिखा हुआ है कि देखो, देखो, देखो! और ये व्हाट्सएप फॉरवर्ड कोई ऐसे ही नहीं भेज देता। ये पूरी एक फैक्ट्री लगी हुई है और इनके बहुत दूषित इरादे हैं। ये गंदे लोग हैं जो इस तरह की चीज़ें बनाकर भेजते हैं। आप क्यों इनके चक्कर में आ जाते हो?
प्र: आचार्य जी, मैं ये सोच रही हूँ कि अगली बार ऐसा कुछ हुआ, सभा या कुछ, तो उनका माइक लेकर मैं ये वाली बात बोल दूँ।
आचार्य: नहीं, आप उनको बस ये दिखा दीजिएगा कर्व। आपको बहुत कुछ बोलना ही नहीं है। एक ग्राफ़ काफ़ी है जवाब देने के लिए।
प्र: उनका कुतर्क क्या रहता है, देखना है अभी।
आचार्य: प्रकृति मनुष्य मात्र को साफ़ कर रही है। वो हिंदू-मुसलमान में भेद नहीं करेगी। मुझे अफ़सोस इस बात का है कि हिंदू-मुसलमान क्या, वो बाक़ी प्रजातियों में भी भेद नहीं करेगी। हम जो बदतमीज़ियाँ कर रहे हैं उसका ख़म्याज़ा भुगतना पड़ रहा है बेचारे हिरण को, खरगोश को, न जाने कितने पक्षियों को, मछलियों को। विलुप्त वो हो रहे हैं और हम हिंदू-मुसलमान, हिंदू-मुसलमान, ये कर रहे हैं।
अभी कितना है? अभी कितना चल रहा है वही आँकड़े बता दो न सबको? (आचार्य जी आँकड़े पूछते हैं)
स्वयंसेवक: अभी हिंदू में इस वक़्त चल रहा है सोलह दशमलव आठ प्रतिशत और मुसलमानों में इस वक़्त चल रहा है चौबीस दशमलव छः प्रतिशत। पर हिंदुओं का तीन प्रतिशत घटा है, उनका पाँच प्रतिशत घटा है और समय के साथ और घट रहा है।
आचार्य: उनका ज़्यादा घट ही इसलिए रहा है क्योंकि उनका ज़्यादा ऊपर है। तो नीचे आ रहा है, तेज़ी से नीचे आ रहा है; आ रहा है और अगले पाँच साल, दस साल में वो लगभग उतना ही हो जाएगा जितना हिंदू जनसंख्या की वृद्धि दर है। और यहाँ हम बिलकुल इन्कार नहीं कर रहे हैं कि मुसलमानों में जनसंख्या की वृद्धि दर हिंदुओं की दर से ज़्यादा रही है, बिलकुल रही है, लेकिन अब वो दर कम-ही-कम होती जा रही है, प्रतिवर्ष कम होती जा रही है। अब शोर मचाने से कोई लाभ नहीं। अब शोर मचाने से नुक़सान ही नुक़सान है।
स्वयंसेवक टोटल फ़र्टिलिटी रेट (कुल प्रजनन दर) का भी यहाँ एक डेटा है जो दो-हज़ार-पंद्रह-सोलह के हिसाब से बता रहा है कि हिंदुओं में ये दो दशमलव एक पर पहुँच रही है और मुसलमानों में ये दो दशमलव छः पर आ रही है धीरे-धीरे।
आचार्य: दो दशमलव छः! काहे को बोलते हो कि औसत मुस्लिम महिला पाँच बच्चे पैदा करती है? दो दशमलव छः है, तो वो अभी दो दशमलव छः से दो दशमलव चार, दो दशमलव पाँच होगा। और प्रोपेगेंडा (दुष्प्रचार) कर रखा है कि हर मुस्लिम महिला पाँच बच्चे पैदा करती है। काहे को?
इसमें आपको अलग-अलग रंग के कर्व्स दिख रहे होंगे, ठीक है! (आचार्य जी हाथ में फ़ोन उठाकर उसमें कर्व दिखाते हैं)। सबसे अधिक तेज़ी से गिरता हुआ कर्व कौनसा दिख रहा है? सबसे ऊपरवाला। हाँ, वो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर का कर्व है। वो अभी भी सबसे ऊपर है लेकिन वो गिर भी तेज़ी से रहा है।
तो हम बिलकुल दोष देंगे मुसलमानों को इस बात के लिए कि उनका जो कर्व है वो सबसे ऊपर है। निसंदेह मुस्लिम वर्ग में ज़्यादा बच्चे पैदा हुए हैं उन्नीस-सौ-सैंतालीस के बाद से, लेकिन हमें ये भी देखना है कि अब वो कर्व काफ़ी तेज़ी से नीचे आ रहा है। तो अब माहौल ख़राब करने से कोई फ़ायदा नहीं है।
क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन), मास एक्सटिंक्शन , हम इनकी बात कर रहे हैं बाबा! इसके सामने ये समुदाय या वो सम्प्रदाय, ये बहुत छोटी बात हो जाते हैं।
ये आ रही है बात समझ में?
प्र: प्रणाम आचार्य जी! वो जनसंख्या में जो इकोनॉमिकली (आर्थिक रूप से) ग़रीब लोग रहते हैं, उनमें ये कैसे रहता है कि ज़्यादा बच्चे पैदा करेंगे तो ज़्यादा इकोनॉमिकल ग्रोथ (आर्थिक वृद्धि) होगी। वो जैसे इन्वेस्टमेंट टाइप (निवेश की तरह) देखते हैं बच्चों को।
आचार्य: क्योंकि उनकी आमदनी हाथ से होती है तो उनका तर्क ये होता है — जितने हाथ होंगे (उतनी आमदनी होगी)। दूसरी बात, शिक्षा नहीं होती, कांट्रासेप्टिव्स (गर्भनिरोधकों) का प्रचलन नहीं होता। ये सब बातें होती हैं।
देखो, मुस्लिमों में भी जो वृद्धि दर रही है जनसंख्या की, आपको रोचक लगेगा, वो लगभग उतनी ही है जितनी हिंदुओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की है। हिंदुओं में एससी और एसटी में जो पॉपुलेशन ग्रोथ रेट (जनसंख्या वृद्धि दर) है, लगभग उतना ही है मुसलमानों का।
इससे क्या सिद्ध हो रहा है कि बात किसकी है? बात एजुकेशन (शिक्षा) और इकोनॉमिक्स (अर्थव्यवस्था) की है। लेकिन हौआ ऐसे खड़ा करा जा रहा है कि जैसे ‘जनसंख्या जिहाद’ किया जा रहा है, जैसे वहाँ जान-बूझकर के ज़्यादा बच्चे पैदा किये जा रहे हैं।
होगा उनमें भी ऐसा वर्ग, मैं नहीं इन्कार कर रहा, वहाँ भी होंगे कुछ ऐसे मुल्ले-मौलवी जो यही प्रचार करते होंगे कि अपनी तादाद बढ़ाओ और हिंदुस्तान पर छा जाओ। निश्चित रूप से ऐसे होंगे। होंगे क्या, हैं ही। उनके वीडियो भी देखे गये हैं जो यही सीख दे रहे हैं कि चलो मुसलमानों, अपनी आबादी बढ़ाओ और भारत पर छा जाओ। अरे! मुट्ठी-भर हैं। उनसे कोई फ़र्क नहीं पड़ना है।