प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मैं ये पूछना चाहता हूँ कि आज के समय के लिए भक्ति उचित है कि ज्ञान? भक्ति मार्ग या ज्ञान मार्ग?
जितना मुझे समझ में आया है, जो शायद ग़लत हो। भक्ति से आजकल समझ में आता है कि नाम लेना, मंदिर जाना या मंत्र आदि का उच्चारण करना या भजन करना। और ज्ञान है, उसमें वेद आदि ग्रंथों का अध्ययन आता है। तो कौनसा मार्ग उचित रहेगा?
आचार्य प्रशांत: आज का ज़माना हो या कोई भी ज़माना हो, मन की अवस्था को देखिए — मन क्यों नहीं शांत है, क्यों नहीं मुक्त है, क्यों नहीं सत्य में ही स्थापित है। बंधन को, कारण को पहचानिए।
पहली बात — मन को लगता है कि ये जो इतना कुछ उपलब्ध है दुनिया में वो काम आ जाएगा, और मन को ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि प्रमाण उपलब्ध हैं। दुनिया में जो कुछ है वो काम का ही तो है। सारा काम ही दुनिया की चीज़ों से चल रहा है, दुनिया के लोगों से चल रहा है। ये ट्यूबलाइट काम आती है, कार काम आती है, कैमरा काम आता है, रुपया काम आता है, लोग काम आते हैं, सगे-सम्बन्धी काम आते हैं। ये सब काम आ रहे हैं कि नहीं आ रहे हैं?
तो मन के पास कारण है ये विश्वास करने का कि दुनिया ही काम आ जाएगी सत्य तक पहुँचने में भी, दुनिया ही काम आ जाएगी मुक्ति के अभियान में भी। ये पहली बात है।
दूसरी बात — कभी-कभार अगर मन को संदेह भी उठता है कि ये दुनिया कुछ काम आती दिख नहीं रही है, मामला कुछ गड़बड़ है। इसका इस्तेमाल करके हम कभी परम सत्ता तक पहुँचेंगे भी? तो तुरतं प्रश्न खड़ा होता है कि दुनिया नहीं काम आ रही तो और क्या काम आएगा क्योंकि दुनिया के अलावा तो और कुछ है ही नहीं? जो है सो यही है। तो फिर मन ये उपाय निकालता है कि दुनिया नहीं काम आ रही तो दुनिया के एक हिस्से का उपयोग करने की जगह दूसरे हिस्से का उपयोग कर लो। दुनिया में एक जगह असफलता मिल रही है तो दूसरी जगह आज़माइश कर लो।
तो इस तरीके से मन फँसा रह जाता है दुनिया में ही। जब दुनिया अच्छी लगे, प्यारी लगे तो भी फँसा हुआ है, और जब दुनिया निराश करे तो भी फँसा हुआ है। अच्छी लगे तब तो फँसा हुआ है ही, और जब निराश करे तो आदमी कहता है, "दुनिया के अतिरिक्त और कुछ तो ही नहीं। तो दुनिया से अगर निराशा मिली भी है तो पुनः कोशिश करो, दुनिया में ही कहीं और कोशिश करो, पर लगे यहीं रहो।"
अब जब इस तरह की स्थिति है मन की, जब ये रूप है हमारे बंधनों का, तो फिर हमें देखना होगा कि ज्ञान क्या है और भक्ति क्या है।
पहली बात — ये दोनों अलग-अलग चल नहीं सकते। कोई कहे, "मैं ज्ञान मार्गी हूँ", कोई कहे, "मैं भक्ति मार्गी हूँ", तो ये बात बहुत समझदारी की नहीं है। व्यक्ति को दोनों चाहिए और एक साथ चाहिए। कैसे?
ज्ञान चाहिए ताकि आपको समझ में आ सके कि जहाँ तक आपके दुनियावी अस्तित्व की बात है, उसमें दुनिया सहायक हो सकती है। पेट को रोटी चाहिए, वो रोटी दुनिया से ही आएगी। ठीक है, कोई दिक़्क़त नहीं है। दुनिया काम की चीज़ निकली न? पेट को रोटी चाहिए थी, रोटी कहाँ से आई? दुनिया से ही आई।
लेकिन आदमी सिर्फ़ पेट नहीं है, आदमी सिर्फ़ पेट नहीं है इसीलिए उसे सिर्फ़ रोटी ही नहीं चाहिए। आदमी कुछ और भी है, उसे रोटी से आगे का भी कुछ चाहिए। रोटी से आगे का उसे जो चाहिए वो दुनिया में मिलता नहीं। दुनिया में जो कुछ है सब क्षणभंगुर है। आदमी को कुछ ऐसा चाहिए जो बहुत भरोसे का हो, जो शाश्वत हो। दुनिया में कुछ भी शाश्वत नहीं है। ये बताएगा आपको ज्ञान, इसीलिए सबके लिए आवश्यक है ज्ञान मार्गी होना।
कोई कहे कि, "हमें ज्ञान से कोई मतलब नहीं", तो पागल है। ज्ञान नहीं होगा तो कैसे जानोगे कि दुनिया आख़िरी अर्थ में एक धोखा मात्र है? आमतौर पर धोखा नहीं है दुनिया, आमतौर पर काम की चीज़ है। तुम्हें यहाँ से चौराहे तक जाना है तो बस और कार तुम्हारे काम आ जाएँगे। देखा, दुनिया काम आई कि नहीं आई?
तो आमतौर पर दुनिया काम की चीज़ है। लेकिन जब बात है जीवन के परम लक्ष्य की, जब मुद्दा उठता है जीवन के अंतिम उद्देश्य का, वहाँ दुनिया तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकती। कोई कार , कोई बस , कोई रोटी, कोई पैसा, कोई रुपया, माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, कोई तुम्हारी मदद नहीं कर पाएँगे।
ज्ञान मार्गी होने का अर्थ होता है नेति-नेति में प्रवीण होना कि, "ना, जो मुझे अंततः चाहिए वो दुनिया से नहीं मिलने वाला।" ये समझना बहुत ज़रूरी है कि जो मुझे अंततः चाहिए वो दुनिया से नहीं मिलने वाला, नहीं मिलने वाला। ये सबको समझना बहुत ज़रूरी है।
लेकिन जैसे ही ये बात स्थापित होगी भीतर कि जो मुझे अंततः चाहिए वो मुझे दुनिया से नहीं मिलने वाला, तो भीतर कोई बैठा है जो प्रतिप्रश्न करेगा, तुरंत प्रश्न करेगा, कहेगा, "दुनिया से नहीं मिलेगा तो फिर कहाँ से मिलेगा? और है क्या दुनिया के अलावा, बताना?" और इस प्रश्न का उत्तर ज्ञान से नहीं मिल सकता। इस प्रश्न को हराने के लिए, इस शंका को जीतने के लिए तुम्हें चाहिए श्रद्धा।
तुम कहते हो, "देखो, कुछ तो है जो मुझे चाहिए। उसको तृप्ति कहते हैं, संतोष कहते हैं, मोक्ष कहते हैं, आनंद कहते हैं। और ये दिख रहा है मुझे कि वो दुनिया में नहीं मिलेगा। मैं अपने-आपको धोखा नहीं दे सकता। अगर दिख रहा है मुझे कि दुनिया में नहीं मिल सकता, तो मैं स्वीकार करूँगा कि दुनिया में नहीं मिल सकता। लेकिन मुझे चाहिए तो है। मेरी अहम् सत्ता पुकार-पुकार कर उसी की माँग कर रही है। मुझे चाहिए तो है।"
तो अब ये दो बाते हैं, "मुझे चाहिए है और दुनिया में मिल नहीं सकता।" तो कहीं और मिलेगा। कैसे मिलेगा? "मैं नहीं जानता।" कहाँ मिलेगा? "मैं नहीं जानता। पर मिलेगा ज़रूर।" ये श्रद्धा है। इसको कहते हैं अज्ञेय में विश्वास होना। कुछ पता नहीं कहाँ मिलेगा, लेकिन मुझे चाहिए तो मिलेगा ज़रूर।
ये पक्का है कि कहाँ नहीं मिलेगा। कहाँ नहीं मिलेगा? दुनिया में तो नहीं मिलेगा और दुनिया के अलावा ये आँखें कुछ जानती नहीं, दुनिया के अलावा ये मन कुछ जानता नहीं। तो ये शंका करेंगे। कहेंगे, "दुनिया ही तो है। दुनिया में नहीं मिलेगा तो कहाँ मिलेगा?" तुम कहोगे, "ये भी पक्का है कि दुनिया में नहीं मिलेगा और ये भी पक्का है कि मिलेगा ज़रूर।"
तो भीतर जो शंकालु बैठा है वो पूछेगा, "कहाँ मिलेगा?" तुम कहना, "हम नहीं जानते कहाँ मिलेगा। बात अज्ञेय है। ना जानते हैं ना कभी जान पाएँगे कि कहाँ मिलेगा, कैसे मिलेगा, कब मिलेगा, क्यों मिलेगा, किस साधन से मिलेगा, पर ये पक्का है कि मिलेगा। मुझे चाहिए इसलिए मिलेगा। अगर वो ना मिल सकता होता तो मेरे भीतर उसकी माँग क्यों उठती?" - ये श्रद्धा है।
तो तुम्हें दोनों चाहिए, ज्ञान भी चाहिए और भक्ति भी चाहिए। किसी एक से काम नहीं चलेगा। ज्ञान चाहिए ये देखने के लिए कि यहाँ नहीं मिलेगा, और भक्ति चाहिए ये मानने के लिए कि कहीं तो मिलेगा, कोई तो है। मिलेगा ज़रूर।
ज्ञान चाहिए तुम्हें ये बताने के लिए कि आत्यंतिक अर्थ में तुम गन्दगी से घिरे हुए हो और उस गन्दगी की सफाई करनी है, यही नेति-नेति है। ज्ञान तुम्हें बताता है कि अभी तुम जैसे हो, जहाँ हो बहुत गंदे हो गए हो। और भक्ति तुम्हें बताती है कि परम स्वच्छता, पूर्ण निर्मलता है, है और मिलेगी। कहीं तो है, उसके होने में हमें कोई शंका नहीं। वो है और मिलेगी, ये भक्ति बताती है।
ज्ञान काटता है कचरे को, भक्ति जोड़ती है निर्मलता से। दोनों चाहिए। अगर भक्तिहीन ज्ञान होगा तो तड़प कर रह जाओगे क्योंकि दुनिया को तो काट दोगे, दुनिया हटा दी, नेति-नेति कर दी। हटा तो दिया, जोड़ा कुछ नहीं बस काट भर दिया। बहुत तड़पोगे। ये दोनों साथ-साथ ही चलेंगे। दुनिया का जो आधिपत्य है तुम्हारे ऊपर वो मिटेगा ही तभी जब तुम शनैः शनैः किसी और से जुड़ते जाओगे। और जितना उस स्वछता से जुड़ते जाओगे, उतना तुम्हारे लिए कचरे को हटाना आसान होता जाएगा। ये दोनों साथ-साथ चलते हैं।
भक्ति का अर्थ ना तो मूर्तिपूजा है, ना भजन-कीर्तन है। ये तो सब भक्ति के प्रकार हैं। आपने जो बात करी वो सगुणी भक्ति है। निर्गुणी भक्ति भी तो होती है। निर्गुणी भक्ति में पूजा जैसी कोई बात नहीं। भक्ति के मूल में पूजा, आराधना, भजन-कीर्तन नहीं हैं, भक्ति के मूल में है श्रद्धा। भक्ति के मूल में है अज्ञेय के प्रति श्रद्धा।
इसी तरीके से ज्ञान का अर्थ आप समझते हैं ग्रंथों का अध्ययन इत्यादि। ज्ञान का अर्थ आप समझते हैं ज्ञान इकठ्ठा कर लेना। आप ज्ञान मार्गी उसको कहते हैं जिसने ज्ञान बहुत इकट्ठा कर लिया, ग़लत बात। ज्ञान के मूल में है ज्ञान को हटाना, नेति-नेति करना। ये जानना कि, "मैंने जो भी ज्ञान इकट्ठा कर रखा है, मैंने जो भी धारणाएँ बना रखी हैं दुनिया के बारे में वो सब मिथ्या हैं।"
तो ज्ञान मार्गी होने का मतलब होता है ज्ञान से मुक्ति। ज्ञान का झूठ देख लेना और उसको हटा देना। और भक्ति मार्गी होने का अर्थ होता है अज्ञेय में श्रद्धा, अज्ञेय में अकारण श्रद्धा। कोई पूछे, "क्यों है वो श्रद्धा?" उसका भी कोई उत्तर नहीं। अकारण श्रद्धा। दोनों चाहिए। मुझे जो चाहिए वो ये नहीं, और हो नहीं सकता कि मुझे जो चाहिए वो हो नहीं। दोनों बातें कहनी हैं और एक ही साँस में कहनी हैं। मुझे जो चाहिए वो ये नहीं, और हो नहीं सकता कि मुझे जो चाहिए वो हो नहीं। पहली बात हुई ज्ञान और दूसरी बात हुई श्रद्धा या भक्ति। दोनों चाहिए, साथ-साथ चाहिए।
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