आचार्य प्रशांत: उदय रावत हैं, चौंतीस वर्षीय, नैनीताल से, पूछ रहे हैं कि आजकल हर कोई अपनी नज़र में शोषित या विक्टिम क्यों है? जैसे हर किसी ने अपनी पहचान ही बना ली है दमित होने की, दबे कुचले होने की, शोषित, पीड़ित होने की और अगर उनकी सुनें तो उनके पास उनकी कमज़ोरी और लाचारी का एक वाजिब कारण भी होता है। लोग अपने ऊपर या अपने समुदाय के ऊपर या अपने पुरखों के ऊपर हुए अत्याचारों की कहानियाँ सुनाते रहते हैं। कोई कहता है कि उसका जात-पात के आधार पर शोषण हुआ है, महिलाएँ कहती हैं उनका लिंग के आधार पर बरसों से शोषण हुआ है और कोई रंग या रेस (जाति) के आधार पर अपने शोषण की बात करता है। मैं इसमें थोड़ा भ्रमित हूँ। अगर सब शोषित ही हैं तो शोषक कौन है? पूछ रहे हैं उदय कि अगर सब ओप्प्रेस्सड ही हैं तो ओप्प्रेसर कौन है? सबको पीड़ा है तो पीड़ित करने वाला कौन है?
समझना होगा थोड़ा, उदय।
इसमें तो कोई दो राय ही नहीं कि न तो इतिहास न्याय पर चलता है, न प्रकृति न्याय पर चलती है। इतिहास में और प्रकृति में दोनों में ताकत का खेल चलता है। बहुत हद तक 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली बात है। प्रकृति में तो फिर भी एक अन्दरूनी सन्तुलन होता है, ‘नैसर्गिक।‘ जिसके कारण मारने वाला और मरने वाला हमेशा एक निश्चित अनुपात में ही रहते हैं। कभी ऐसा नहीं होता कि मारने वाले सिंह ने मरने वाले हिरणों की प्रजाति ही पूरी साफ़ कर दी। पर जहाँ तक आदमी के इतिहास की बात है, उसमें तो जो बली है उसकी चलती है और इस कारण अन्याय खूब होते हैं, शोषण खूब हुआ है, कोई इसमें दो राय नहीं। लेकिन ये समझना बहुत ज़रूरी है कि आदमी के साथ जो कुछ भी हो रहा है, मनुष्य के साथ, वो किसी एक वर्ग या समूह या दल या वर्ण के लोगों द्वारा किया गया अत्याचार नहीं है, बहुत ज़रूरी है।
आदमी पीड़ा से गुज़रता है। हर मनुष्य तमाम तरह के दर्द झेलता है और हम चाहते हैं कि किसी तरह हमें ये समझ में आ जाए कि हमें ये पीड़ा देने वाला, दर्द देने वाला, है कौन। ऐसे में बहुत आसान रहता है ये मान लेना, ये सोच बैठना कि मुझे परेशान करने वाला ज़रूर उधर, उस तरफ़ का, सीमा के उस पार का वो दूसरा व्यक्ति, दल या समूह है। ऐसा मान लेने से हमें लगता है कि जैसे हमने खुद को समझा लिया, जैसे हमें बात स्पष्ट हो गयी, जैसे हम जान गये कि हमारे दुखों का कारण कौन है। इसमें चिन्तनीय बात ये है कि जो दल सीमा के उस पर बैठा है, वो सीमा किसी भी चीज़ से सम्बन्धित हो सकती है — लिंग से, वर्ण से, जाति से, राष्ट्रीयता से, रंग से, भाषा से, तो जो कोई सीमा के उस पार बैठा है, दुख उसको भी बराबर के हैं और उससे पूछा जाए तुम्हारे दुखों का कारण कौन है तो वो कहेगा, सीमा के इस तरफ़ जो लोग हैं, इन्होंने हमारे साथ ज़्यादती की है, अत्याचार किए हैं इसलिए हम दुखी हैं।
खुद को शोषित मानना और दूसरे को शोषक मानना अहंकार को खूब भाता है क्योंकि जब आप अपनेआप को शोषित मान लेते हैं तो आपको अपनी नज़रों में वो सब करने का अधिकार मिल जाता है जो आपके साथ किसी शोषक ने किया है। आप कहते हो, ‘मेरे साथ गलत हुआ है, मैं शोषित हूँ। अब मैं भी वो सबकुछ करूँगा जो उस शोषणकर्ता ने किया है, मैं पलटवार करूँगा।‘ आपने अपनेआप को हिंसा का अधिकार दे दिया और हिंसा करना, पलटवार करना, ये सब तो अहंकार को पसन्द आता ही है न! तो इसलिए आप पाएँगे कि दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, 'एक भी', चाहे वो किसी भाषा से सम्बन्धित हो, किसी धर्म से, पन्थ से सम्बन्धित हो, किसी लिंग का हो, किसी आयु का हो, किसी देश का हो, जो ये कहे कि उसके साथ जीवन में अत्याचार नहीं हुए हैं।
और बहुत वाजिब सवाल पूछा है आपने कि अगर सबके साथ अत्याचार ही हो रहे हैं तो अत्याचार करने वाला कौन है? अत्याचार करने वाला कोई वर्ग विशेष नहीं है। अत्याचार करने वाला जीवन ही है और जीवन अत्याचार नहीं करता, जीवन तो आपको पूरा मौका देता है कि आप पीड़ा के पार भी चले जायें। चेतना और किसलिए होती है? आप अगर पीड़ा के पार नहीं जा रहे, आप अगर अपने दुख का असली कारण समझ कर उसका निराकरण नहीं कर रहे तो आपके साथ किसी और ने नहीं अत्याचार करा है, आप अपने दुख के और समस्या के ज़िम्मेदार स्वयं हों और ये बात दुनिया के हर आदमी पर लागू होती है क्योंकि अपनी नज़र में हर आदमी शोषित है।
मैं दावे के साथ कहता हूँ, आपको कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो ये कह दे कि नहीं, उसके साथ तो कभी किसी ने कुछ बुरा किया ही नहीं या जो ये कह दे कि उसके पूर्वजों के साथ कभी किसी ने कुछ बुरा किया ही नहीं, जो ये कह दे कि वो दुर्भाग्य का मारा हुआ नहीं है, एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा। जो सुखी-से-सुखी व्यक्ति हैं, जो सबल-से-सबल व्यक्ति हैं, जो आपको लगेगा कि बहुत सौभाग्यशाली लोग हैं, वो भी गहराई से मन में ये दर्द लिए जी रहे हैं कि जीवन ने और ज़माने ने उनके साथ कुछ अच्छा नहीं किया, उनके साथ बड़ा अन्याय किया।
तो बात को समझिए। गौरतलब हुआ न!
कि भाई, सभी के साथ अन्याय हो रहा है। ‘अ’ कह रहा है कि ‘ब’ ने उसके साथ अन्याय किया ‘ब’ कह रहा है ‘अ’ ने उसके साथ अन्याय किया। तभी ‘स’ चला आता है वो कहता है तुम दोनों ने मिलकर मेरे साथ अन्याय किया और इतना ही नहीं, अन्याय सहने वाले की पहचान बनाने के लिए हमारे पास कई ज़रिए, कई रास्ते हैं। भिन्न-भिन्न, अनेकों पहचानों का प्रयोग करके हम अपनेआप को शोषित घोषित करते हैं।
उदाहरण के लिए मैं कह सकता हूँ कि मैं एक जाति विशेष से हूँ तो मेरे साथ अन्याय हुआ। मैं कह सकता हूँ, मैं एक प्रान्त विशेष से हूँ तो मेरे साथ अन्याय हुआ। मैं कह सकता हूँ, मैं एक लिंग विशेष से हूँ तो मेरे साथ अन्याय हुआ। मैं कह सकता हूँ, मैं फलाने ज़िले का रहने वाला हूँ उसकी उपेक्षा हुई है, उसका विकास नहीं किया गया, ये मेरे साथ अन्याय हुआ। और मैं कह सकता हूँ कि ये जो मैंने चार-पाँच पहचानें मैंने अभी बताईं वो सारी पहचानें मेरे भीतर है, मैं उन सारी पहचानों का वाहक हूँ तो मेरे साथ पाँच तरीके से अन्याय हुआ है ।
तो हम जितनी भी पहचानें लेकर-के चल रहे हैं, एक तरह से हर पहचान एक दर्द भरी पहचान है। हर पहचान अपनेआप में शोषण का एक किस्सा है और ये सब पहचानें हमारे खूब काम आती हैं क्योंकि जैसा थोड़ी देर पहले कहा, जैसे ही आप कहते हैं कि आपका शोषण हुआ, वैसे ही आपको इस ज़िम्मेदारी से मुक्ति मिल जाती है कि आपकी ज़िन्दगी आपकी ज़िम्मेदारी है। आप अपनेआप को ये भरोसा या दिलासा थमा देते हैं कि मेरे साथ तो जो कुछ हो रहा है, वो किन्हीं बहुत बड़ी ताकतों का परिणाम है। मैं तो छोटा हूँ मैं क्या करूँ। इतिहास ही मेरे खिलाफ़ है, एक अकेला आदमी इतिहास से थोड़े ही लड़ सकता है।
मैं क्या करूँ, ये जो दुनिया भर की व्यवस्था है या जो ये सामाजिक व्यवस्था है, यही मेरे खिलाफ़ है। मैं इससे लड़ थोड़ी सकता हूँ। आप अपनेआप को ये भरोसा, ये दिलासा दे लेते हैं। एक बार अपनेआप को ये आपने एहसास करा दिया, समझा दिया, उसके बाद अब आपके ऊपर ये ज़िम्मेदारी बची ही नहीं कि आप अपनी ज़िन्दगी की कमान अपने हाथ में लें।
तो शोषित अनुभव करना बड़ी अच्छी विधि है अपनी ज़िम्मेदारी से बचने की, हटने की। 'भाई क्या बात है, क्यों बेरोज़गार बैठे हो?' 'नहीं, मेरी कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं, सरकार ही ऐसी है। सरकारी नौकरियाँ कम हैं, नौकरियों के परीक्षाफ़ल चार-चार साल में आते हैं। हम क्या करें? हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।‘ कोई नहीं कहता कि हाँ, जो कुछ है वो होगा किन्हीं बाहरी या सांयोगिक कारणों से लेकिन ज़िन्दगी तो मेरी ही है न। तो बात मैं अपने ऊपर लेता हूँ। दर्द तो मैं झेल रहा हूँ न। जब दर्द मुझे झेलना है तो दर्द का निवारण करने की भी ज़िम्मेदारी, कर्तव्य, दायित्व मेरे ऊपर आया। ये कहने वाले बहुत कम मिलेंगे। और फिर बड़ा अच्छा हो जाता है, कुछ भी आपके साथ चल रहा है, दोष किसी दूसरे को दे दीजिए। अपने गिरेबान में झाँक कर बिलकुल मत देखिए और ये किस्सा हर आदमी का है।
मैं कह रहा हूँ, वो लोग भी, दोहरा रहा हूँ, जिनको आप समझते हैं कि सर्वसामर्थ्यवान हैं, अति शक्तिशाली हैं, वो भी दुर्भाग्य का रोना रो रहे हैं। वो कह रहे हैं, किस्मत ने साथ नहीं दिया, ज़माने ने दगा दे दी, फलाने वर्ग ने, फलाने कौम ने या फलाने लोगों ने विश्वासघात कर दिया, नहीं तो आज हम न जाने किन ऊँचाइयों पर होते। हर आदमी यही रोना रो रहा है कि उसके साथ धोखा हुआ है, अत्याचार हुआ है। उसके साथ हुआ है, नहीं तो उसके पुरखों के साथ हुआ है, नहीं तो उसकी पूरी कौम के साथ हुआ है। हर आदमी का यही कहना है।
तो ये तो जो अभी मैंने कारण बताया ये व्यक्तिगत तल पर था कि हर व्यक्ति क्यों, विक्टमाइज़्ड (शोषित) अनुभव करना चाहता है। हर व्यक्ति ये क्यों कहना चाहता है कि उसका उत्पीड़न हुआ है। शोषित कहलाने में हमें क्या लाभ है? आप समझ रहे हो न शोषित कहलाने में बहुत लाभ है क्योंकि जिसको चोट लगती है, जो कहता है, साहब! मेरे साथ अत्याचार हुआ, मुझे चोट लगी है, उसको फिर मुआवज़ा भी मिलता है। आप मुआवज़ा वसूल सकें इसके लिए ज़रूरी है कि आप ये कहानी लेकर-के चलते रहें कि आपके साथ बुरा हुआ, बुरा हुआ। आप मुआवज़ा वसूलेंगे और आप जिससे मुआवज़ा वसूलेंगे जैसे ही वो मुआवज़ा देगा, अब उसकी एक नयी कहानी तैयार हो गयी। वो कहेगा, देखो मेरे साथ गलत हुआ। मैंने तो कुछ गलत किया नहीं था और मुझसे इतना सारा मुआवज़ा ले लिया गया।
अब दोनों पक्ष विपरीत खड़े हैं एक-दूसरे के लेकिन मज़ेदार बात ये है कि दोनों की कहानी बिल्कुल एक है। एक पक्ष कह रहा है, मेरे साथ अत्याचार हुआ है और उस पार वालों ने मेरे साथ अत्याचार किया है। और दूसरी पार वाला कह रहा है कि ये देखो! अत्याचार की झूठी कहानी बता करके यह मुझसे इतना मुआवज़ा वसूल रहा है, ये अत्याचार कर रहा है मेरे साथ। उसके साथ तो कोई अत्याचार नहीं हुआ पर वो मेरा शोषण कर रहा है, वो भय दिखा-दिखाकर के मेरा दोहन कर रहा है। दोनों घुमा-फिरा करके बात एक ही कह रहे हैं कि साहब हमारे साथ कुछ गलत हो रहा है।
और जिस आदमी ने ये मान लिया कि उसके साथ दुनिया कुछ गलत कर रही है वो अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर रहा है। वो कह रहा है कि मेरा होना ही एक गलत बात है जैसे कि मेरी हस्ती ही किसी साज़िश का नतीजा हो। मैं पृथ्वी पर आया हूँ और मेरे साथ बहुत कुछ गलत-गलत हो रहा है। जितने लोग हैं चारों तरफ, वो सब मेरे साथ गलत कर रहे हैं, यहाँ तक कि भाग्य भी मेरे साथ गलत कर रहा है। लोग यहाँ तक भी कह सकते हैं कि पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी मेरे साथ गलत कर रहे हैं।
ये सब करके हम सिर्फ़ अपने अहंकार को बढ़ावा देते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह चुराते हैं। ये व्यक्तिगत तल की बात हुई और भूलिएगा नहीं कि इस तरह से शोषित होने की बात हम सिर्फ़ सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं करते, ये हम घर के अन्दर भी करते हैं। छोटे बच्चे हों आप देखिएगा, कोई नहीं कहेगा छोटा बच्चा भी, कि अगर उसका परीक्षाफल खराब आया है तो इसमें उसकी ज़िम्मेदारी है। उसके पास कोई-न-कोई कारण होगा। आप पूछिएगा कि, ‘हाँ भाई बंटू, इतने कम अंक क्यों आये हैं तेरे’ और बंटू के पास तत्काल जवाब होगा, ‘वो टीचर अच्छा नहीं पढ़ाती।‘ घुमा-फिराकर बंटू यही कह रहा है कि टीचर ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया है और कर्तव्य का पालन न करके बंटू की टीचर ने कक्षा के चालीस छात्रों का शोषण ही तो किया न। भई, चालीस छात्रों को ज्ञान नहीं मिला, चालीस छात्रों का परीक्षाफल खराब हो गया तो ये जो शिक्षक है, यह बड़ा शोषक है।
बंटू कभी नहीं कहेगा कि जो शिक्षक है वो भी इंसान है। कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है, मैं उसको क्या दोष दूँ। असली बात तो ये है कि पढ़ने की ज़िम्मेदारी मेरी थी और मैं ठीक से पढ़ा ही नहीं, मैं चाहता तो मैं बेहतर कर सकता था, मैं चाहता तो मैं अपने दोष देख सकता था लेकिन अपने दोष देखने की जगह मुझे ज़्यादा मज़ा आता है दूसरे के दोष देखने में। तो ये जन्मजात प्रवृत्ति होती है, ये सब में होती है। मियाँ-बीबी की लड़ाई चल रही हो, कभी देखा है कि दोनों सीधे दिल पर हाथ रखकर कहें कि गलती तो मुझसे ही हुई है, माफ़ी चाहता हूँ। कौन ऐसा कहता है? कौन बेटा बाप से कहता है कि मैंने जीवन भर आपकी बात नहीं सुनी। आपको पागल समझता रहा, मुझे माफ़ करें। कौन बाप बेटे से कहता है कि मैं तुझे सही परवरिश नहीं दे पाया। सही शिक्षा और संस्कार नहीं दे पाया मुझे माफ़ करो। सब यही बताते हैं कि गलती हमेशा कोई दूसरा ही कर रहा है।
तो ये बात बहुत व्यक्तिगत तल की है जो कि फिर फैलकर-के हमको सामाजिक क्षेत्र में भी दिखायी देती है, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी दिखायी देती है, धार्मिक क्षेत्र में भी दिखायी देती है, समुदायों के बीच दिखायी देती है और तमाम तरह के कलह-क्लेश और बड़े-बड़े युद्धों का कारण बनती है। जब भी दो देश युद्ध कर रहे हों, आप देखिएगा, दोनों को यही लग रहा होता है कि वो जो दूसरा देश है न, वही अन्यायी है। उस युद्ध में दोनों देशों की जनता अपनी-अपनी जगह पर बिलकुल सही होती है और युद्धोन्माद के नारे लगा रही होती है। एक देश के कह रहा होगा, ये जो दूसरे देश के लोग हैं, ये तो बर्बर हैं, आततायी हैं, रक्त पिपासु हैं। इनको हराना, मार ही डालना बहुत ज़रूरी है। और दूसरे देश वाले कह रहे होंगे, नहीं साहब, वो जो सीमा पार के लोग हैं उनसे ज़्यादा बर्बर, हिंसक और अत्याचारी कोई है नहीं। उनको हराना बहुत ज़रूरी है।
ये कैसे हो सकता है? करोड़ो लोग इस तरफ, करोड़ो लोग इस तरफ और दोनों लोगों को पूरा भरोसा है कि उनके साथ गलत हुआ है, उनके साथ अत्याचार हुआ है। निश्चित रूप से दोनों ही पक्ष भ्रम में हैं, निश्चित रूप से असली बात कुछ और है और असली बात यह है कि आदमी का शोषण करने वाला दूसरा आदमी बाद में होता है, आदमी का शोषण करने वाला उसका अपना अज्ञान और अन्धकार पहले होता है। ये बात हम मानना नहीं चाहते। दूसरे पर दोष देना बहुत आसान लगता है, खुद को दोष दोगे तो घूम-फिर करके वही ज़िम्मेदारी वाली बात आ जाएगी। दोष अगर तुम्हारा है तो दोष ठीक करने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। कुछ ठीक करने चलो तो मेहनत लगती है। मेहनत कौन करे? मेहनत करने से कहीं ज़्यादा आसान लगता है दूसरे पर दोषारोपण कर देना। तो ये तो बात हुई दूसरे को शोषक और स्वयं को शोषित बताने के मनोविज्ञान की। ये बात तो हुई व्यक्तिगत तल पर।
अब आते हैं कि बड़े वृहद तल पर क्या होता है क्योंकि तुमने जो सवाल पूछा है उदय, वो 'आजकल' से शुरू हो रहा है। तुम कह रहे हो कि आजकल हर कोई अपनी नज़रों में विक्टिम (शिकार/शोषित) क्यों है। आजकल क्यों विक्टिम है? तो एक बात तो यही है कि भाई हम सब में जन्मजात प्रवत्ति होती है और दूसरी बात क्या है, वो समझो। दूसरी बात ये है कि जब तुम किसी भी तरह सत्ता के और ताकत के भूखे हो तब तुम्हारे लिए वरदान हो जाती है ऐसी हर स्थिति जिसमें दो पक्ष आपस में मनमुटाव रखते हों। जिसमें दो पक्षों की आपस में एक-दूसरे के प्रति दोष-दृष्टि हो। ठीक है?
अब ये मेरे सामने मान लो दो लोग बैठे हैं। ठीक है? एक हरे में बैठा है, एक नीले में बैठा है। मान लो ये हैं जैसे दो, तुम लोग बैठे हो, तुम हरे में, तुम नीले में और आदमी तो आदमी है, कोई दो लोग नहीं होते जिनमें थोड़ी-बहुत एक-दूसरे के लिए तनातनी न हो। कोई तुम्हारा कितना भी हार्दिक हो, कितना भी करीबी हो, कितना भी प्यारा हो, ज़रा सा उसके खिलाफ़ मन में कुछ-न-कुछ तो शिकायत रहती ही है। है न! भले ही उतनी ही शिकायत हो कि जैसे एक बड़े पात्र में पानी के एक रेत का छोटा सा कण। बस उतनी ही शिकायत होगी, पता भी नहीं चलेगी आमतौर पर। पर रहती तो है ही। शिकायत का बीज तो ज़रूर रहता है हम सब के मन में अपने सब निकटस्थ लोगों के लिए भी।
तो अब अगर मैं सत्ता का लोभी हूँ, मुझे राज करना है तो मेरे लिए आसान तरीका क्या है? मैं इसके पास जाऊँगा और मैं उससे कहूँगा, 'देख, तेरे साथ न बड़ा अत्याचार हुआ है। तेरे साथ बहुत अत्याचार हुआ है और इन-इन तरीकों से वो जो नीला है, उसने तेरे साथ गलत किया है, हरे!’ अब हरा यहाँ बैठा हुआ है जैसे अभी शुभंकर बैठा है हरा पहनकर। वो तो शायद ये सुनना ही चाहता था कि नीले ने उसके साथ कुछ गलत करा है।
आपको बताया जाए अगर कि दुनिया बहुत अच्छी है तो आपको क्या सहसा यकीन आता है? नहीं आता। पर आपको बताया जाए कि दुनिया बड़ी गड़बड़ है और खासतौर पर तुम्हारे ही खिलाफ़ षड्यन्त्र कर रही है, आपको तुरन्त यकीन आ जाता है न! आपके कान खड़े जाते हैं। आप कहते हैं, और बताओ, और बताओ, कौन साजिश कर रहा है मेरे खिलाफ़?
आप जब टीवी चैनल लगाते हो तो उसमें कैसी खबरें पाते हो कि दुनिया में सब अच्छा-ही-अच्छा हो रहा है, राम राज्य है, अमृत वर्षा हो रही है, प्रेम के फ़ूल खिल रहे हैं, लोग एक-दूसरे के प्रति सौहार्द और आत्मीयता से भरे हुए हैं? ऐसी खबरें आ रही होती हैं? तो क्या दिखता है, लोग किन बातों पर सहजता से तुरन्त तैयार हो जाते हैं यकीन करने के लिए? यही न कि देखो तुम्हारा पड़ोसी देश मिसाइल तैयार कर रहा है तुम पर दागने के लिए। और आप तुरन्त सतर्क होंगे, कहेंगे, हाँ लगाओ, लगाओ, ये वाला चैनल बढ़िया है, इसमें आ रहा है कि कौन मुझ पर आक्रमण कर रहा है। या कि बिलकुल तैयार रहिए, फलानी तारीख को आकाश से पत्थर-ही-पत्थर बरसेंगे। फलाना धूमकेतु आ रहा है, ये हो रहा है, वो हो रहा है, कुछ हो रहा है। इस तरीके की ही बातें हमें ज़्यादा सुहाती हैं क्योंकि हम जंगल से आये हैं और जंगल में भय का माहौल रहता है, कभी भी आप पर आक्रमण हो सकता है। तो हमारा शरीर हमारा मस्तिष्क इस तरह से प्राकृतिक रूप से संस्कारित है कि वो खतरों को ज़्यादा तवज्जो देता है।
बात समझ रहे हो?
आप एक पेड़ के नीचे से निकल रहे हो। पेड़ पर फ़ल भी है, अजगर भी है। आप एक पेड़ के नीचे से गुज़र रहे हो, पेड़ में फ़ल भी लटका हुआ है और पेड़ में अजगर भी लटका हुआ है। आपने फ़ल की अनदेखी कर दी, आप सतर्क नहीं थे फ़ल को देखने में। आप फ़ल को देखना भूल गये। आप किसी तरीके से फ़ल की उपेक्षा कर गये। आपको कितना फ़र्क पड़ेगा? बहुत ज़्यादा नहीं। फ़ल से लाभ होता। क्या लाभ होता? भाई, फ़ल खाने को मिल जाता। आपने फ़ल नहीं देखा, आपको कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं हो जाना है लेकिन अगर आपने, फ़ल अच्छी खबर था, फ़ल अच्छी खबर था। अच्छी खबर से आप चूक गये तो आपको कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं हो जाना है। अब उसी पेड़ पर बुरी खबर भी है — अजगर। और बुरी खबर से आप चूक गये तो क्या होगा? आपकी जान जाएगी। तो जंगल ने हमें संस्कारित कर रखा है कि बुरी खबरों के प्रति ज़्यादा सतर्क रहो। तो इसीलिए आदमी तुरन्त आकर्षित हो जाता है बुरी खबर के प्रति या ऐसी खबर के प्रति जिसमें खतरे का अन्देशा हो। जिसमें तुम्हे कोई आशंका बतायी जा रही हो। हम तुरन्त ऐसी चीज़ के प्रति आकर्षित हो जाते हैं। हाँ, हाँ, बताओ, बताओ और बताओ न!
तो अब जब मैं इसको कहूँगा, हरे को कि भाई ये जो नीला वाला तेरे बगल में बैठा हुआ है, ये तेरे खिलाफ़ लगातार साज़िशें कर रहा है और तू तो भोला आदमी है तुझे पता भी नहीं है इसने कैसे-कैसे षड्यन्त्र करे है तेरे खिलाफ़ और यही नहीं, तेरे बाप-दादाओं का तो इसके बाप-दादाओं ने ज़बर्दस्त शोषण किया था। तो हरा तुरन्त कहेगा, 'अच्छा! और बताओ और क्या-क्या हुआ था?' कहेगा, 'ये देखो, ये मैं किताब बताता हूँ। ये इतिहास की किताब देखो। इस इतिहास की किताब में उन सब अन्यायों का विस्तारपूर्वक उल्लेख है जो तुम्हारे समुदाय के साथ, तुम्हारे वर्ग के साथ, पिछले एक हज़ार सालों में किए गये।‘ और तुम तुरन्त वो किताब उठाओगे और पढ़ना शुरू कर दोगे।
ये व्यक्ति अब अपनी नज़रों में शोषित हो गया और मान लो मैं था जो इसके पास गया था इसको ये सारी पट्टी पढ़ाने। मुझे लाभ क्या हुआ? मुझे लाभ ये हुआ कि इस व्यक्ति को, हरे को, अब ये पता चल गया कि वो इतिहास की बहुत बड़ी ताकत के खिलाफ़ है। उसको ये भी पता चल गया कि उसका ही नहीं, उसके बाप-दादाओं का भी हज़ारों सालों से ये नीले लोग शोषण करते रहे हैं। तो पहली बात तो अब उसकी हिम्मत टूट जाएगी अपने दम पर कुछ कर गुज़रने की। वो कहेगा, ‘मैं कर क्या सकता हूँ। जो इतिहास की ताकत, हज़ार सालों से मेरी कौम के करोड़ो लोगों का दमन करती रही है, उसके सामने मैं अकेला अब क्या उखाड़ लूँगा?’
तो अब उसका एकमात्र सहारा कौन बचा? वो ये तो समझ गया है कि वो अपने दम पर कुछ नहीं कर सकता तो अब वो क्या करेगा? मैं गया था उसको ये सारी बातें बताने। मैं गया था उसका शुभचिन्तक बन कर, मैं गया था उसको ये जताने कि देख तेरे साथ बड़ा अत्याचार हुआ है। अपने दम पर, उसको दिख गया, वो कुछ कर नहीं सकता। ऐसी पट्टी मैंने ही पढ़ायी। तो अब वो क्या करेगा? वो आकर-के मेरी गोदी में बैठ जाएगा। वो आकर-के मुझसे कहेगा कि तुम ही मेरे अपने हो, तुम ही मेरे शुभेच्छु हो, तुम्हीं ने मुझे बताया कि आज तक मैं कितने अन्धेरे में था। ये नीले वाले लोग मेरे साथ कितना बुरा कर रहे थे। और मैं तुमसे कहूँगा, ‘आओ, यहाँ बैठो इधर, तुम मेरे आज से बच्चे हुए और आज से तुम वो सब कुछ करोगे जो मैं कहूँगा।‘ मुझे ताकत मिल गयी।
‘डिवाइड एंड रूल’ और क्या था! बँटवारे की नीति, बाँटो और राज करो और क्या था! अब इसको पता चल गया कि यह कुछ और नहीं कर सकता तो अब ये मेरे पास आकर बैठ गया। नीले से अब ये बात करना भी पसन्द नहीं करेगा। नीले के खिलाफ़ अब ये नये-नये नारे गढ़ेगा। नीले से इसके जो भी रिश्ते-नाते थे, ये तोड़ देगा। नीले को अब ये अपने वर्ग-शत्रु के रूप में देखेगा।
बात समझ में आ रही है?
नीले को किसी भी तरह चोट पहुँचाने में अब ये रस लेगा। ठीक है? अब मैं नीले के पास गया। मैं नीले से कहूँगा, 'तुझे पता है तू कितना बड़ा अत्याचारी है? तुम लोगों ने हज़ारों सालों से इन हरे लोगों का शोषण करा है। तुमने इन लोगों को शिक्षा से वंचित रखा, तुमने इनको धन से वंचित रखा, तुमने इनको सम्मान से वंचित रखा है। तुमने हर तरीके से इनका शोषण करा है।‘ अब ये जो नीला वाला व्यक्ति है, है तो वो भी इंसान ही। वो कहेगा, हम इतने बुरे लोग हैं? तो मैं कहूँगा, हाँ, तुम इतने बुरे आदमी हो और ये देखो ये किताब। इस किताब में साफ़ लिखा हुआ है कि तुम कितने बुरे आदमी हो।
वो किताब लिखी किसने है? वो मैंने लिखी है। वो मैंने ही किताब लिखी है। भाषा पर मेरा बड़ा अच्छा अधिकार है। अंग्रेज़ी मैं बहुत अच्छी बोल लेता हूँ और विश्वविद्यालयों के इतिहास के संकायों पर, विभागों पर मैंने कब्ज़ा कर लिया है। तो इतिहास पूरा मेरी मुट्ठी में आ गया है। अब वही किताब में नीले वाले को दिखाऊँगा। मैं कहूँगा, ‘देखो, तुम कितने गलत लोग हो। अब ये जो नीला है, ये अपनी ही नज़र में गिर जाएगा, ये ग्लानि का अनुभव करेगा।‘ ये कहेगा, 'मैं इतना बुरा आदमी हूँ!' मैं कहूँगा, ‘इतने ही बुरे आदमी हो तुम। देखो तुमने क्या-क्या करा है।' वो अपनी नज़र में गिरकर-के अपनी सब पहचानों से नाता तोड़ लेगा। वो कहेगा, ‘अगर मैं इतना बुरा आदमी हूँ तो मैं अपने अतीत से अपनेआप को अभी विच्छिन्न करता हूँ। मैं अपने अतीत का हिस्सा कहलाना नहीं चाहता क्योंकि मेरे अतीत में शोषण ही शोषण है। मेरे बाप ने शोषण किया हरे लोगों का, मेरे दादा ने शोषण किया हरे लोगों का, मैं अपने बाप और दादा की परम्परा से अभी अपनेआप को अलग करता हूँ। मैं आज से अपनेआप को नीला कहलाना ही बन्द करता हूँ। मैं नीला नहीं हूँ, मैं लाल हूँ।‘
हरा मेरे पास आया, वो भी मेरी गोद में बैठकर क्या बन गया? लाल। नीले को भी अपने नीले होने से घृणा हो गयी। वो कह रहा है, नीला होने का मतलब ही अत्याचारी होना। तो वो भी अब मेरे पास आयेगा और मेरी गोद में बैठ जाएगा और क्या बन जायेगा? लाल।
समझ में आ रही है बात?
नीला नीला नहीं रहा, हरा हरा नहीं रहा। दोनों लाल हो गये। ये तरीका है समाज में जहाँ कहीं भी ज़रा सी दरार देखो, उस दरार का फ़ायदा उठाने का और दरारें तो होती ही हैं। अगर आपकी नीयत ही यही है कि दो लोगों के बीच में दरार देखो तो उस दरार में अपना उल्लू सीधा करो। दो वर्गों के बीच में दरार देखो, उस दरार का फ़ायदा अपने स्वार्थ के लिए उठाओ। दो पन्थों, दो धर्मों, दो मज़हबों के बीच में दरार देखो, दो राष्ट्रों के बीच में दरार देखो, तुरन्त उसका फ़ायदा उठाओ। तो आप ये बखूबी कर ले जाओगे। आपको बस ये करना है कि इधर वाले को बताओ, 'तेरे साथ बहुत गलत हुआ है।' और उधर वाले को बताओ, 'तू ने बहुत गलत किया है।'
तो ये खेल चल रहा है जिसमें लगातार हर व्यक्ति को यही बताया जा रहा है कि पूरी दुनिया तेरे खिलाफ़ है और तेरे साथ बुरा-ही-बुरा हुआ है। ये जो लोग ये पाठ पढ़ा रहे हैं वर्ग-संघर्ष वगैरह का कि इसने इसके साथ बुरा किया, इसने उसके साथ बुरा किया, इनसे पूछो, कभी कोई किसी के साथ अच्छा भी करता है भैया! और तुम्हारी किताबों में कहीं ये क्यों नहीं लिखा है कि किसी ने, किसी के साथ अच्छा भी करा। तो कहेंगे, 'नहीं, अच्छा तो कोई किसी के साथ करता ही नहीं।' उनसे कहो, वो तुम्हें दिखायी नहीं देता क्योंकि तुम देखना नहीं चाहते कि कोई किसी के साथ अच्छा करता है कि नहीं। बहुत कुछ अच्छा भी होता है। लेकिन वो जो अच्छाई है वो आदमी के जिस केन्द्र से आती है, उस केन्द्र का नाम है — दैवीयता। उस केन्द्र का नाम है —अध्यात्म। और दैवीयता और अध्यात्म से तुम डरते हो क्योंकि तुम्हारा अहंकार अपने से ऊपर की किसी सत्ता को स्वीकारना नहीं चाहता।
ये जो लाल वाला है न, ये महा अहंकारी है। इसकी ज़िन्दगी का केन्द्रीय उसूल है- मुझ से ऊपर कोई नहीं। किसी की सुनूँगा नहीं, किसी के आगे झुकूँगा नहीं। मैं, मेरा मन, मेरे विचार, मेरी धारणाएँ, मेरी विचारधाराएँ। अपने हिसाब से चलता हूँ। मुझसे आगे भी कुछ होता है। मुझसे अतीत भी कुछ होता है, बियॉन्ड (इससे परे) भी कुछ है, ट्रान्सेंडैंटल (अलौकिक) भी कुछ है। उसको तो मैं मान ही नहीं सकता। इसको झुकना नहीं है ज़रा भी।
जो मानेगा नहीं कि कुछ आगे भी है वो मानेगा नहीं कि प्रेम और करुणा भी होते हैं। क्योंकि देखो जंगल में प्रेम और करुणा तो पाये नहीं जाते। जंगल में प्रेम और करुणा नहीं होते, जंगल में प्रकृति के खेल होते हैं। जंगल में मोह हो सकता है, ममता भी हो सकती है, प्रेम और करुणा नहीं हो सकते। तो ये जो विभाजनकारी ताकतें हैं, इनके भी शब्दकोश में ये शब्द हैं ही नहीं — प्रेम, करुणा, आत्मीयता, हार्दिकता।
इनके हिसाब से हर आदमी दूसरे आदमी का बस शोषण ही करता है। अगर हर आदमी दूसरे आदमी का बस शोषण ही करता है तो लाल महाराज! आप भी ज़रूर दूसरों का शोषण ही कर रहे होंगे या सिर्फ़ आप ही अपवाद हो? आप जब कह रहे हो, इस वर्ग ने उसका शोषण किया, पुरुषों ने महिलाओं का शोषण किया तो आप कह रहे हो, प्रेम तो कहीं होता ही नहीं, शोषण-ही-शोषण होता है। सब एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं तो लाल महाराज, आप किसका शोषण कर रहे हो? अपनी बात भी खुल के क्यों नहीं कहते? पर अपनी बात आप करोगे नहीं क्योंकि आत्म- मन्थन करना, आत्म-विचार करना, आत्म-जिज्ञासा करना आपके संस्कारों में है नहीं। आपके संस्कारों में तो यही है कि आप बिलकुल ठीक हो और पूरी दुनिया आततायी, अत्याचारी, अन्यायी है। आपकी उँगली कभी अपनी ओर तो उठती ही नहीं। अपने मन में झाँक करके तो आप कभी देखते ही नहीं। हाँ, पूरी दुनिया पर आरोप गढ़ने में, नारेबाजी करने में आप सबसे आगे हो।
इसी साज़िश का नतीजा यह निकला है कि आज दुनिया का हर छोटा-छोटा वर्ग अपनेआप को शोषित कहलाने में जैसे गौरव अनुभव करने लगा हो। हर वर्ग ने अपनी पहचान ही यही बना ली है कि हमारे साथ भी गलत हुआ, हमारे साथ भी गलत हुआ। जिसको देखो उसको अब सहूलियतें चाहिएँ और मुआवज़े चाहिएँ, इसी आधार पर कि देखो हम भी तो गये-गुज़रे और पिछड़े हैं। भाई, हमें भी तो कुछ ज़रा रियायत दे दो। कुछ हमें भी दान-दक्षिणा, बख्शीश दे दो। यहाँ तक कि समाज के वो वर्ग जो परम्परागत रूप से सामर्थ्यशाली और शक्तिशाली समझे गये हैं, वो भी अब कतार में खड़े हो गये है, वो कह रहे हैं, हम भी गये-गुज़रे, पिछड़े हैं। हमें भी बख़्शीशें चाहिए। एक पूरा माहौल ही बन गया है जिसमें हर आदमी की पहचान ही यही है कि उसके साथ कुछ गलत है। और जब सबकी पहचान ही यही है कि उसके साथ कुछ गलत है तो हर आदमी को फिर हिंसा का अधिकार भी मिल गया है।
हरे के साथ गलत हुआ तो हरे ने अपनेआप को ये अधिकार दे दिया, मेरे साथ जब गलत हुआ है तो थोड़ा-बहुत तो बदला मैं ले सकता हूँ न। नीला कह रहा है कि ये जो हरे लोग हैं, ये अब आकर-के मुझ पर बहुत वार करने लग गये हैं। तो थोड़ी देर में अब नीला भी हिंसा करेगा और नीला हिंसा करने लग गया है अपनी परम्परा के खिलाफ़, अपने बाप और दादा के खिलाफ़। वो कह रहा है, इन लोगों ने हरे लोगों के साथ जो करा वो बड़ा गलत था। तो मैं अब सपूत पैदा हुआ हूँ। मैं अपने बाप-दादों को मज़ा चखाऊँगा। उनको सबक सिखाऊँगा कि तुम लोग जो आज तक करते आए हो, वो सब बिलकुल गलत करते आए हो।
समझ में आ रही है बात?
ये बहुत पुराने तरीके हैं। जिसको भी तुम जीतना चाहते हो उसके कान में बस ये फूँक दो, ‘तेरे साथ कुछ गलत हो रहा है।‘ वो आदमी तुम्हारा हो जाएगा। चाहो तो प्रयोग करके देख लेना। फ्लाइट में, ट्रेन में, बस में जहाँ भी सफर करते हो वहाँ किसी बिलकुल अपरिचित आदमी के साथ बैठना और ये प्रयोग करना कि उसके चेहरे को देखो, आँखों में आँखे डाल के और कहो, 'आपके चेहरे को देख कर मुझे लग रहा है, आपके साथ कुछ कोई गलत कर रहा है। वो आदमी अभी तक भले ही तुम पर बहुत ध्यान न दे रहा हो, तुम्हारी अवहेलना कर रहा हो। वो अचानक बिलकुल तनकर बैठ जाएगा और कहेगा, 'और बताइए और बताइए, क्या कह रहे हैं आप? ये आपने अभी क्या कहा, ज़रा दोहराइएगा, विस्तार में बताइएगा।‘
हर आदमी डरा हुआ है और हर आदमी जैसे सुनना ही यही चाहता है कि पूरी दुनिया लगी हुई है उसका पत्ता काटने में। हर आदमी सुनना ही यही चाहता है कि अगर वो दर्द में है तो वो इसलिए दर्द में है क्योंकि दुनिया ने उसके साथ बुरा करा। ये बहुत झूठी बात है, व्यक्तिगत तल पर भी झूठी बात है और उन ताकतों का तो मैं कहूँ ही क्या जिनका काम ही यही है कि जहाँ कहीं भी, थोड़ा भी मन-मुटाव दिखे, वैमनस्य दिखे, जहाँ कहीं भी कोई फिशर (दरार) या फॉल्टलाइन दिखे उसका इस्तेमाल कर लो। उसका एक्सप्लॉयटेशन (दोहन) कर लो और लोगों में और दरार पैदा कर दो। एक को दूसरे के खिलाफ़ खड़ा कर दो।
ये वो लोग हैं जो लगातार इसी टोह में रहते हैं कि कहीं कोई ऐसी घटना हो जाये जिसमें हम ये साबित कर सकें कि किसी के साथ गलत हुआ है। ये लोग मक्खियों की तरह घाव खोजते हैं। कि कोई मिल जाए जिसके पास घाव हो और जैसे ही कोई मिला जिसके पास घाव है, तुरन्त उसको कहेंगे, देख, ये तुझे जो घाव दिए हैं न, ये उसने दिए हैं, उसने दिए हैं, उसने दिए हैं। हम तेरे साथ हैं। हम तेरे घावों का इलाज भी करेंगे और अगर तू कहे तो जो लोग तुझे आज तक घाव देते आये हैं, बोल, पलटकर उनको भी घाव देना है? हम तेरे साथ हैं।
इस पूरे खेल में होता बस ये है कि हरा हरा नहीं रह जाता, नीला नीला नहीं रह जाता, सब लाल बनते जाते हैं। बात समझ में आ रही है? ये बहुत दबे-छुपे तरीके से ताकत हथियाने की कोशिश है। ये एक तरीके से जनतन्त्र के खिलाफ़ जाकर सत्ता हथियाने की कोशिश होती है। भाई, अगर आप खुले आम चुनाव में खड़े हों तो आप ये नहीं घोषणा कर पाएँगे कि देखो तुम सबने एक-दूसरे का शोषण करा है तो सब मुझे वोट दो। तब लोग कहेंगे, 'अरे! हरे को तुम बोल रहे हो, नीले ने तुम्हारा शोषण किया है। नीले को तुम बोल रहे हो कि पीले ने तुम्हारा शोषण किया है। बात बिल्कुल ज़ाहिर हो जाएगी। तो इस तरह की जो ताकतें होती हैं वो जनतान्त्रिक प्रक्रिया से अक्सर सत्ता में आ नहीं पाती। थोड़ा-बहुत जनतन्त्र में उनको समर्थन मिलता है और थोड़े-बहुत से ज़्यादा मिलता नहीं। तो फिर वो ये दबी-छुपी गुप्त चालें आज़माती हैं। भीतर-ही-भीतर लोगों में आपसी फ़ूट डाल दो।
पत्नी को पति के खिलाफ़ कर दो। पत्नी अगर बोले कि पति के लिए खाना बनाती हूँ, ये मेरे प्रेम की बात है तो पत्नी को बोलो, 'नहीं, यह प्रेम नहीं है, पेट्रियार्की (पितृसत्ता) है। और पत्नी बीस-तीस साल से जो विचार मन में कभी लायी नहीं थी वो विचार ज़बर्दस्ती उसके मन में घुसेड़ दो और कहो कि यह महिला सशक्तिकरण हो रहा है। पत्नी कह रही है, भाई, मेरा पति है, मेरे बच्चे हैं और मैं उनके लिए खाना बनाती हूँ। और उसको जाकर के बोलो, ये अत्याचार हो रहा है तेरे खिलाफ़। ये महिलाओं का शोषण हो रहा है। ये प्रेम नहीं है, ये पेट्रियार्की है। ये पुरुष सत्ता है जो सब स्त्रियों का दमन करती है। अब वो स्त्री भी कहेगी, अच्छा! ऐसा है क्या! मुझे तो पता ही नहीं था! यह आज नयी बात पता चली, बताइए, बताइए।
तो ये वो ताकते हैं जो कभी प्रेम का सन्देश नहीं देतीं। जो दरारों को भरने का काम नहीं करतीं, जो एकता का काम नहीं करतीं, जो सिलने का काम नहीं करतीं। इनका काम है, फाड़ो या जो कुछ फटा हुआ है उसमें अपनी टाँग डाल दो ताकि और फट जाए।
ये ताकतें हमारी जो पहले से चली आ रही व्यक्तिगत वृत्तियाँ हैं, उनको और उभार और उत्तेजना देती हैं। तो उदय, दो बातें कहीं मैंने, पहली, हम व्यक्तिगत तौर पर ही संस्कारित हैं, जैविक रूप से, जन्मगत रूप से संस्कारित हैं दूसरे पर दोष और इलज़ाम डालने के लिए। हर समय ये अनुभव करते रहने के लिए कि दूसरे से हमें खतरा है। ये तो हमारी जैविक बात हुई।
और दूसरी बात ये कि इस समय समाज में ऐसी बहुत ताकतें हैं जो बस दरारें और फ़ूट ढूँढ रही होती हैं। उनका काम ही यही है कि इंसान और इंसान के बीच में, घर और घर के बीच में समुदाय और समुदाय के बीच में फ़ूट डालना। फ़ूट डालो, राज करो। तो इनसे अगर बचना है तो एक ही तरीका है कि हम व्यक्तिगत तौर पर अपना मन साफ़ रखें। जो इंसान व्यक्तिगत तल पर दूसरे पर दोषारोपण करने में सुख का अनुभव नहीं करेगा वो इंसान फिर इस तरह की ताकतों का भी शिकार नहीं बनेगा। नहीं तो फिर ऐसी ताकतें बहुत राज करती हैं। बचिएगा।