आज्ञा मानना भी बंधन है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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आज्ञा मानना भी बंधन है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

“आज्ञा मानना बंधन है। भय बंधन है।”

~निरालंब उपनिषद्

आचार्य प्रशांत: आज्ञा का अर्थ है– विशेषाधिकार किसी का, किसी के पीछे सुनना, किसी को बहुत ऊँचा स्थान दे देना, किसी को प्रथम मान लेना। आत्मा और आज्ञा साथ-साथ नहीं चलते। आत्मा किसी की नहीं सुनती। आत्मा किसी की आज्ञा पर नहीं चलती तो आज्ञा कभी आखिरी बात नहीं हो सकती। हाँ, इतना अवश्य है कि जो आज्ञा, मन को आत्मा तक ले जाए, वो आज्ञा मन के लिए शुभ हो सकती है। पर कोई आज्ञा अपनेआप में आत्मिक नहीं होती तो (इसलिए) आज्ञा आखिरी बात नहीं है।

हाँ, आज्ञा अगर आपको आखिरी बात तक ले जाए तो अच्छी है। जब तक वो आपको आखिरी बात की ओर ले जा रही हो, उसका पालन करते रहिएगा। पर कोई अगर यह कह दे कि मेरा धर्म ही है आज्ञा का अनुसरण करना, किसी की भी आज्ञा हो वो भले ही, (कहे) कि मेरा धर्म ही है आज्ञा का अनुसरण करना, तो बात गलत हो गयी।

बात इसलिए नहीं ग़लत हो गयी कि आज्ञा बुरी है, बात इसलिए ग़लत हो गयी क्योंकि आपने केन्द्र, आज्ञा को बनाया है, सत्य को नहीं बनाया। आज्ञा का अनुसरण करना बहुत अच्छा हो सकता है अगर वो सत्य की ओर ले जाती है। माने प्रथम क्या है? महत्त्वपूर्ण क्या है? आवश्यक क्या है? सत्य आवश्यक है।

आज्ञा बहुत भली बात हो सकती है। आज्ञाकारी होना बहुत अच्छा हो सकता है अगर आपने पहले यह भली-भाँति जाँच-परख लिया हो कि वो जो आज्ञा है, वो आपको ले किधर को जा रही है। अगर आप ये ध्यान ही नहीं दे रहे कि आज्ञा आपको किधर ले जा रही है और आप की रुचि या आपका झुकाव, आपने जो मूल्य दे रखा है, वो बस आज्ञा का अनुकरण करने में है, तो भूल हो जाएगी। ये दो अलग-अलग बातें हैं। एक जैसी लगती हैं।

अन्तर सूक्ष्म है, समझिएगा। आज्ञा का अनुकरण बहुत आवश्यक भी हो सकता है। इसलिए नहीं कि आज्ञा अपनेआप में बहुत ऊँची चीज़ है (बल्कि) इसलिए कि वो आज्ञा, हो सकता है आपको सच्चाई की ओर ले जा रही हो। तो इस दिशा में, मात्र इस दशा में, ‘मात्र’, ‘मात्र’, आज्ञा आपको सच्चाई और मुक्ति की ओर ले जा रही है। (इस) आज्ञा को सिर माथे रखिएगा। सिर माथे आज्ञा को नहीं रखा है, किसको रखा है? उसको रखा है जिसकी ओर आज्ञा आपको ले जा रही है आज्ञा आपको। बात समझ में आ रही है?

लेकिन आपने यह देखना ही छोड़ दिया। आप बिलकुल भूल ही गये कि अगर किसी की आज्ञा मानी भी जाती है तो क्यों। और आपने यह कह दिया कि मैं जिसकी आज्ञा मान रहा हूँ वही मेरे लिए प्रथम हो गया, तो बड़ी भूल हो जाएगी। चाहे आज्ञा देने वाला गुरु हो, देवता हो, माता-पिता हो, बन्धु-बान्धव हो, कोई भी हो, जिसकी आज्ञा का आप पालन कर रहे हैं वो कभी महत्वपूर्ण नहीं होता। महत्वपूर्ण होता है वो, जिसकी ओर वो आज्ञा आपको ले जा रही है। यह बहुत अच्छे से समझिएगा।

फिर दोहरा रहा हूँ– गुरु हो, अभिभावक हो, बन्धु-बान्धव हो, कोई हो दुनिया का, उसकी आज्ञा इसलिए नहीं महत्वपूर्ण हो जाती कि वो एक विशिष्ट व्यक्ति के द्वारा आ रही है जिसका विशेषाधिकार है आपके ऊपर, न! अगर आज्ञा पालन महत्वपूर्ण होता है तो इसलिए कि वो आज्ञा मानने से आपका भला होगा, कल्याण होगा। और आपकी भलाई निहित है आपकी मुक्ति में, आपकी भलाई निहित है आपके झूठ के सच से मिलन में, विगलन में। समझ में आ रही बात?

तो इसका मतलब क्या है? इसका मतलब ये है कि अगर कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाए कि जो आपको आज्ञा दे रहा है, आप पाएँ कि उसकी आज्ञा आपको नहीं ले जा रही है मुक्ति की ओर, तो आज्ञा-पालन बिलकुल भी मत कर लीजिएगा। क्योंकि आज्ञा-पालन अन्तिम मूल्य नहीं है, अन्तिम मूल्य मुक्ति है।

इन दोनों में कभी चुनाव करना पड़े, आज्ञाकारी होने में और मुक्ति के अभिलाषी होने में, तो आप आज्ञा के ऊपर मुक्ति को चुनिएगा। हाँ, आज्ञा जब तक ऐसी है कि आपको मुक्ति प्रदान करे तब तक उस आज्ञा का भरपूर, सबकुछ लुटाकर भी अनुसरण करिएगा। समझ में आ रही है बात?

तो जब कहा जा रहा है कि आत्मा गुण से अतीत है और आज्ञा, भय, संशय आदि गुणों को आत्मा का गुण मानना बन्धन है तो मतलब समझिएगा कि कोई भी चीज़ अन्तिम नहीं होती। कुछ भी ऐसा नहीं है जिसको आप कह दें कि हाय, ये न मिला तो फिर क्या मिला! जो चीज़ ऐसी है जिसके लिए कहा जा सके कि हाय, यह न मिला तो क्या– वो एक ही है। बाक़ी सबका महत्व सिर्फ़ प्रासंगिक है, माध्यमिक है। एक माध्यम, एक विधि, एक उपाय की तरह बाकी सब कुछ महत्व रखते हैं, अन्यथा उनका कोई महत्व नहीं है।

ये मेरे सामने एक व्यक्ति बैठा है। अपनेआप में इसका कोई महत्व नहीं है। अच्छे से समझिएगा– ये जो व्यक्ति मेरे सामने बैठा है या ये जो व्यक्ति आपके सामने बैठा है, इस व्यक्ति का अपनेआप में कोई महत्व नहीं है। अपनेआप में वो व्यक्ति है ही क्या? हाड़-माँस का पुतला, मिट्टी भर। क्या महत्व हो सकता है उसका? हाँ, उस दिशा का महत्व है जिस दिशा वो आपको लेकर जा रहा है।

तो उस व्यक्ति की बात सुननी है, अगर वो सही दिशा ले जा रहा है। उस व्यक्ति की बात नहीं सुननी है, अगर वो सही दिशा नहीं ले जा रहा है। ऊँचे-से-ऊँचा व्यक्ति भी अगर आपको सही दिशा न ले जा रहा हो तो उसे तत्क्षण त्याग दीजिए। वो ऊँचा है ही नहीं।

ऊँचा होने का पैमाना क्या है? कि कितने लोग उसको पूजते हैं? कितनी उसकी सामाजिक मान्यता है? न! ऊँचाई का पैमाना ये है कि वो आपको ऊँचाई की ओर ले जा रहा है कि नहीं। किसी भी व्यक्ति का कैसे आप आकलन करोगे? किसी भी व्यक्ति को कैसे आप ऊँचा कहोगे?

वो व्यक्ति ऊँचा है जो आपको ऊँचाई की ओर ले जा रहा हो। बस बात ख़त्म। और जो आपको ऊँचाई की ओर नहीं ले जा रहा, वो कितना भी ऊँचा माना जाता हो, कहलाता हो, आप उसे ऊँचा मत मान लीजिएगा। बिलकुल पीछे हट जाइएगा।

यह बड़ा महत्वपूर्ण श्लोक है, यह आपको बता रहा है (कि) देखो, कुछ भी आखिरी नहीं है। कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, कुछ भी अनिवार्य, आवश्यक नहीं है। सब तोड़ा जा सकता है, सारी वर्जनाएँ खंडित की जा सकती हैं। कोई बाड़ ऐसी नहीं है, जो लाँघी नहीं जा सकती। कोई क़ायदा ऐसा नहीं है जिसका उल्लंघन नहीं हो सकता। कोई नियम आखिरी नहीं है। कोई कानून, कोई नियम ऐसा नहीं जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। ये सब प्रकृति के दायरे के भीतर की चीज़ें हैं। इन्हें अन्तिम नहीं मान सकते क्योंकि इनको पाने में हमें अन्तिम मुक्ति मिलती नहीं है। ये अन्तिम होते तो हमें हमारी अन्तिम चाहत तक भी पहुँचा देते न!

इसमें कुछ अन्तिम नहीं है। हाँ, हम इनको बड़े प्रेम से, बड़े आदर से देखेंगे, अगर ये माध्यम बनकर हमें अन्तिम तक पहुँचा दें। कोई अनुशासन, कोई कानून हो ऐसा जिसका पालन करने से हमारी चेतना को ऊँचाई और रिहाई मिलती हो तो हम उस कानून को बिलकुल सिर माथे रखेंगे। कोई रिवाज़ हो ऐसा, कोई परम्परा हो ऐसी, जो हमारे लिए शुभ हो, तो हम सोचेंगे भी नहीं उसको खंडित करने का। समझ में आ रही बात?

किसी भी चीज़ को, व्यक्ति को, विचार को बस यूँही आवश्यक मत मान लीजिएगा। पूछते रहिए, अवलोकन करते रहिए लगातार। भूलिएगा नहीं कि आप कौन हैं, बहुत बार दोहराता हूँ– आप एक अतृप्त चेतना हैं। उस अतृप्त चेतना के लिए आखिरी चीज़ तो तृप्ति-मात्र होती है। वो और (अन्य) किसको मान लेगी कि यही महत्वपूर्ण है, यही आखिरी है, इसी पर अटक जाना है? कहीं नहीं अटक जाना है।

‘भय उठे तो भय पर अटक नहीं जाना है’– कह रहे हैं ऋषि, क्योंकि भय अन्तिम नहीं है। भय अन्तिम नहीं है तो माने भय से ऊपर कुछ और होगा! तो फिर भय से क्या घबराना? भय से तुम तभी तक घबरा सकते हो जब भय से आगे जो है उससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। भय को आत्मा का गुण नहीं मानना है। भय आत्मा नहीं है। माने भय अन्तिम नहीं है, माने भय से ऊपर भी कुछ है। लेकिन भय हमारे लिए बड़ी बात हो जाती है। बड़ी बात क्यों हो जाती है? क्योंकि भय से ऊपर जो है उससे हमारा कोई नाता नहीं।

आपके जीवन में भी अगर भय बहुत है, आपको जकड़ लेता है, तो स्पष्ट हो गयी न बात? आत्मा नहीं है आपके पास! न जाने कहाँ जाकर के किस माया लोक में बैठे हुए हैं आप। आत्मा नहीं है आपके पास। आप नहीं हैं आत्मा के पास। माया के जगत में कुछ और है जो आत्मा बना बैठा है, नकली, छद्म। और आपको बड़ा मोह लग गया उससे। आपने कहा यही तो आखिरी चीज़ है, सबसे ऊँची। आप उसी से चिपट कर बैठ गये हैं। आत्मा नहीं है आपके पास।

तो भय बड़ा लगता है। देखिए, भय सबको लगता है। हम पैदा ही भय के साथ होते हैं। भय तो प्रकृति का उपकरण है। भय न हो तो ये जो शरीर है, ये बहुत आगे तक नहीं जाता। भय तो हम लेकर के पैदा होते हैं। प्रश्न ये है कि उसी भय में आप जीते हैं या मरते हैं या उस भय से आगे निकलते हैं। प्रकृति ने तो भय दे दिया है और वो बिलकुल ऐसा नहीं चाहती कि आप भय की सीमाएँ तोड़ दें। निर्भयता जैसा प्रकृति में कुछ नहीं होता, पर आपकी चेतना, भय से सहमत होती नहीं है, आप जानते हैं। है कोई ऐसा जिसे डरना अच्छा लगता हो? डर बुरा लगता है न? आपकी चेतना में कुछ है जो नहीं मानता भय को। माने निर्भयता स्वभाव है आपका। भय प्रतिकूल पड़ता है स्वभाव के। इसीलिए जब भय आता है तो हम छटपटा उठते हैं। कैसा दुख होता है! होता है न?

भय अगर बहुत आता है तो मान लीजिए कि प्रकृति में कहीं फँस गये कहीं आप, माया में फँसे हुए हैं कहीं आप। जो आत्मा के निकट है वो डरेगा नहीं। डर आएगा, वो डरेगा नहीं। डर आएगा, डर क्यों आएगा? क्योंकि डर कहाँ बैठा हुआ है? प्रकृति में। तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, ये सब क्या हैं? प्राकृतिक। तो डर तो आएगा। लेकिन यदि आत्मा से निकटता है आपकी, तो आपके पास डर से ऊपर आत्मा होगी। डर तो होगा, डर के आगे भी कुछ होगा। ये दोनों होंगे।

इससे आप यह भी समझिएगा कि निडर होने का अर्थ क्या है। निडर होने का अर्थ यह नहीं है कि आपको डर नहीं लगता। निडर होने का अर्थ है, डर तो लगता है पर डर से बड़ा कुछ और भी है हमारे पास। डर से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ और ही है हमारे पास। तो डरने का समय नहीं मिलता। डर तो आया, बहुत ज़ोर से लगा। तभी स्मरण हुआ, अरे, बहुत बड़ा काम बाक़ी है। डरता कौन बैठा रहे! काम करो भाई, काम!

जैसे आपको बुख़ार चढ़ा हो बहुत और आप काम बहुत कर रहे हैं। अब शरीर की दृष्टि से देखें तो चढ़ा हुआ है बुख़ार। मन की दृष्टि से देखें तो कहाँ है बुख़ार? आप तो काम कर रहे हैं। डर की भी ऐसी ही बात है। जिनके पास आत्मा होती है, उनके पास भीतर एक बहुत शुद्ध बिन्दु होता है, उसको आत्मा कहते हैं। उसको हृदय कहते हैं। बाहर-बाहर डर होगा भीतर डर नहीं होता। बाहर-बाहर सबकुछ होता है। ये उम्मीद तो बना ही मत लीजिएगा कि बाहर भी नहीं होगा कुछ। कैसे नहीं होगा? बुख़ार तो आता है। नहीं आता? दर्द भी होता है, डर भी लगता है, थकान भी होती है, मोह भी लगता है, कष्ट भी होता है, आँसू भी आते हैं। सब होगा। बाहर-बाहर होगा, उसको रोक नहीं सकते। कम हो जाता है वो सबकुछ, जब भीतर एक सफ़ाई-शुद्धता रहती है तो बाहर के भी ये सब विकार कम हो जाते हैं। शून्य नहीं होते। हाँ, इतना ज़रुर होता है कि ये सब अपनी जगह पड़े रहते हैं, आप अपना काम करते रहते हैं। समझ में आ रही है बात?

किसी व्यक्ति का आकलन करना हो तो ये मत पूछने लग जाइएगा कि इसके जीवन में संशय, डर इत्यादि हैं या नहीं हैं। यह बड़ा व्यर्थ का प्रश्न है। इसका एक ही सही उत्तर हो सकता है – ‘हैं’, निश्चित हैं। यही ईमानदार उत्तर है। सच्चाई इसी में है। आप किसी भी इंसान की ओर देखें और पूछें कि इसके जीवन में संशय है, भ्रम है, आशा-निराशा है, भय है, हर्ष है, रोष है? तो राग-द्वेष, हर्ष-अमर्ष, ये सबके जीवन में लगे रहते हैं, यह मत पूछिएगा कि ये हैं कि नहीं हैं। इसका मैंने कहा एक ही सही उत्तर होता है कि– ‘हैं’।

प्रश्न यह होना चाहिए कि इन सब के अतिरिक्त और इन सबसे ऊपर भी कुछ है कि नहीं है? यहाँ पर दो उत्तर आते हैं। कहीं पर उत्तर आता है– ‘है’ और कहीं पर उत्तर आता है– ‘नहीं है।’ समझ में आ रही है बात ?

अगर आप पूछें कि किसी के जीवन में सुख-दुख, ऊँच-नीच, राग-द्वेष हैं या नहीं हैं और कोई बोल दे, 'नहीं है', तो जानिएगा ये बड़ा मक्कार आदमी सामने खड़ा है। या तो मक्कार है या नासमझ। उसका तो सही उत्तर यही है कि– ‘हैं’।

कभी अध्यात्म की ओर इसलिए न चले जाइएगा कि अरे, अध्यात्म की ओर जाने से दुख मिट जाएँगे या डर मिट जाएगा। नहीं मिटता। अध्यात्म की ओर इसलिए जाया जाता है कि ये तो पड़े रहें, इनसे आगे का कुछ मिल जाए। और कोई तरीक़ा नहीं है। 'ये पड़े रहें, इनसे आगे का कुछ मिल जाए’– तो ये पूछने वाला सवाल होता है। भैया तुम्हारे पास आगे का कुछ है कि नहीं है? पीछे वाला तो जितना तुम्हारे पास है, उतना हमारे पास है, उतना उसके पास भी है। सबके पास वो प्रचुर मात्रा में है, पीछे वाला। आगे वाला बताओ? वो आगे वाला किसी-किसी के पास होता है। पीछे वाला सबके पास होता है। और उस आदमी से, मैं कह रहा हूँ, सावधान, जो कहे कि मेरे पास पीछे वाला नहीं है। जो कहे, मुझे तो कभी डर लगता ही नहीं, मैं जानता ही नहीं डर क्या होता है, (उससे) भागिए दूर। बड़ा ये कुटिल आदमी है, मक्कार है, ठग है, न जाने क्या इरादे हैं इसके।

सनातन परम्परा रही है (कि) उसमें कोई भी अवतार प्रकृति के गुणों से अतीत नहीं दिखाया गया। राम रोते हैं, कृष्ण रास करते हैं फिर मोह में पड़ते हैं— आप जितने भी अवतारों को देखेंगे, उनमें सबमें मानवीय लक्षण विद्यमान हैं। बहुत कुछ हमारे-आपके जैसे हैं वो। तो ये भी नहीं कहा गया कि अवतार तक में प्रकृति के गुण मौजूद नहीं होते। प्रकृति के गुण सब में मौजूद होते हैं। आप क्या ढूँढने निकल पड़े? अवतारों को भी भय लगता है। अवतार भी धोखा खा जाते हैं। स्वर्ण मृग के पीछे कैसे राम चल दिए थे धनुष-बाण लेकर के! स्वर्णमृग होता है क्या? राम चल दिए उसके पीछे।

कोई कहे, ‘मैं अध्यात्म में ऐसी जगह पहुँच चुका हूँ जहाँ अब मैं धोखा नहीं खाता। मुझे तो सिर्फ़ सच्चाई ही सच्चाई, ब्रह्म ही ब्रह्म दिखाई देता है’, तो ये आदमी राम से कुछ आगे का होगा फिर! राम से आगे का तो नहीं है, ठगराम ज़रूर है! समझ में आ रही है बात?

भ्रमित राम भी होते हैं और भ्रमित आम आदमी भी होता है। अन्तर बस ये है कि राम जब भ्रमित भी हैं तो भी उनके पास एक आत्मिक स्पष्टता का केन्द्र है। प्रकृति की माया है कि उनको भ्रमित कर ले गयी। मनुष्य होने का तक़ाज़ा है कि भ्रमित पड़ गये, लेकिन उसके बाद भी उनके पास एक स्पष्ट आन्तरिक प्रकाश है। अपना धर्म समझते हैं वो। कुछ समझ में आ रही है बात?

हमने बड़ा विचित्र चलन चला लिया है। हमने चलन ये चला लिया है कि जो व्यक्ति अध्यात्म में कुछ आगे निकल जाता है, उसके पास कोई भी मानवीय लक्षण शेष नहीं रह जाता— न भूख, न प्यास, न दर्द, न डर, न थकान। और लोग अपने विषय में इसी तरह का प्रचार भी करते हैं। आपको और भरोसा हो जाता है। और उस भरोसे के साथ फिर आती है– निराशा और हतोत्साह। आप कहते हैं कि मैं तो मोह से बाहर निकल नहीं सकता तो अध्यात्म मेरे लिए नहीं है। इतना ही नहीं होता, (फिर) आपको अध्यात्म से डर लगने लगता है। आप कहते हैं कि आध्यात्मिक होने का मतलब होगा कि मेरे भाव मर जाएँगे, जीवन नीरस हो जाएगा क्योंकि आध्यात्मिक आदमी के लिए तो माया शून्य हो जाती है।

नहीं, ऐसा नहीं होता। आप कौनसी छवि पकड़कर बैठ गये हैं? भाव रहते हैं। भाव शुद्ध होने लगते हैं। मोह, प्रेम में परिणीत होने लगता है। इच्छाएँ रहती हैं, इच्छाओं के विषयों में शुद्धता आने लगती है। आप जो चाह रहे होते हैं, जो माँग रहे होते हैं, उसमें आपकी भलाई के साथ-साथ दूसरों की भलाई भी निहित होने लगती है। चाहना छूट नहीं जाता, ‘संकीर्ण चाहना' छूट जाता है। एक तरह से आप ‘बड़ा चाहना' शुरू कर देते हैं।

रोटी पहले भी माँगते थे, रोटी अभी भी माँगेंगे, पर ये नहीं कहेंगे कि सिर्फ मुझे मिले खाने को। रोटी माँगना छूट नहीं गया, हाँ, रोटी अब आप कहेंगे, सबको मिल जाए। यह नहीं कह रहे (कि) मुझे न मिले। आप अपने लिए पहले भी माँग रहे थे, अपने लिए अभी भी माँग रहे हैं, पर पहले सिर्फ़ अपने लिए माँग रहे थे। अब अपने साथ-साथ सबके लिए माँग रहे हैं। तो डरिए मत, कोई मानवीय गुण अध्यात्म नष्ट नहीं कर देता। अध्यात्म उसका परिष्कार कर देता है– ‘रिफाइनमेंट’। अध्यात्म उसमें शुद्धता ला देता है– 'प्योरिटी’। समझ रहे हो?

आपके जीवन में आपके परिवारवाले हैं। अध्यात्म परिवार नहीं छुड़वा देता है। अध्यात्म आपको इस लायक बना देता है कि आप अपने परिवार की वास्तविक भलाई कर पाएँ। अच्छा है या नहीं है? अध्यात्म आपको बता देता है, आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी अन्तिम नहीं है। तो आप समझ जाते हैं कि अपने बच्चे को भी आपको आत्मा तक लेकर जाना है; आत्मा माने सच्चाई, मुक्ति। वही ऊँची-से-ऊँची चीज़ है। अपने बच्चों के लिए आप अच्छी चीज़ें चाहते हैं न? ऊँची चीज़ें चाहते हैं न? अध्यात्म आपको समझा देता है कि उसको वीडियो गेम दिलाने या बाइक दिलाने या कुछ और दिलाने से कहीं ऊँची बात है कि आप उसको सच्चाई दिला दें।

नहीं तो वीडियो गेम दिलाने में क्या रखा है! पैसा फूँक, तमाशा देख। क्रेडिट कार्ड, स्वाइप भर ही तो करना होता है। पैसे वाले आप हैं ही! उसमें आपके बच्चे का कल्याण नहीं है– अध्यात्म आपको यह सिखा देता है। अध्यात्म यह नहीं कह रहा कि बच्चे का तुम एक्सबॉक्स छीन लो। अध्यात्म कह रहा है, बच्चे को सच्चाई दे दो। आप डर जाते हैं, आप कहते हैं बेचारे बच्चे के पास एक वही तो है- गेमिंग कंसोल वो छीन लिया तो करेगा क्या?

अरे बाबा! अध्यात्म उसे कुछ देने की बात कर रहा है (और) आप डर रहे हो (कि) कुछ छिन जाएगा! अध्यात्म आपको बता रहा है कि वो चीज़ देनी है बच्चे को जो आखिरी है, अन्तिम है; उसी को आत्मा कहते हैं। आत्मा कोई रूह इत्यादि नहीं होती। आत्मा कोई पारलौकिक चीज़ नहीं होती। आत्मा का मतलब है ‘सही चयन’ ताकि तुम ऊँचे-से-ऊँची चीज़ पर निशाना लगा सको। ये तुम्हें चाहिए ही है, चाहे अपने लिए, चाहे अपने प्यारों के लिए। तो कोई बढ़िया चीज़ माँगोगे न! ऊँची चीज़ माँगोगे न! नहीं? बोलो। या किसी घटिया चीज़ की कामना करनी है?

तो ये सीधी सी बात है जो वेदान्त कह रहा है। क्या? अरे बाबा, जब माँग ही रहा है तो ऊँचा माँग न! और ऊँचा माँगने में ऐसा नहीं है कि महत्वाकांक्षा है। ऊँचा माँगना स्वभाव है। ऊँचा माँगने में तृप्ति है। ऊँचा ही माँगने में तृप्ति है इसलिए ऊँचा माँगना है। ऊँचा माँगना एक तरह से मजबूरी है, महत्वाकांक्षा नहीं। अनिवार्यता है, आवश्यकता है, महत्वाकांक्षा नहीं है। उसके बिना चैन पाओगे नहीं। धीरे-धीरे विक्षिप्त होते रहोगे।

जो चाहिए वो न मिले तो मन रोगी बनता जाएगा कि नहीं बनता जाएगा? जैसे तुम्हारी शारीरिक व्यवस्था को कोई विटामिन चाहिए, कोई मिनरल चाहिए, वो मिल ही नहीं रहा। उसे दो साल तक नहीं मिला। धीरे-धीरे क्या होता जा रहा है? भीतर-ही-भीतर न जाने कौनसा रोग पनपता जा रहा है। दो साल बाद अचानक बेहोश होकर गिर पड़ोगे। फिर पता चलेगा कि अरे, बड़े लम्बे समय से इस व्यक्ति के शरीर में फ़लानी चीज़ की कमी थी। ये तो शरीर के साथ हो जाता है।

अब मन को भी इसी तरीक़े से चाहिए– चैन, आराम, मुक्ति। वो तुम उसे दे नहीं रहे हो। तो भीतर-ही-भीतर सड़न पैदा होगी कि नहीं? एक दिन गिर ही पड़ोगे कि नहीं? बस जो शरीर का गिरना होता है वो बड़ा स्थूल होता है– गिरे धड़ाम से, आवाज़ आयी, फ़र्श चटक गया, सिर फूट गया, दिखाई पड़ता है (कि) यह क्या हो गया। टाइल में दरार आ गयी, खोपड़ा फट गया, इतनी स्थूल घटना है कि तुम इन्कार नहीं कर सकते (कि) कुछ हुआ है। खून बह रहा है। लेकिन जब मन चटकता है, जब चित्त में दरार आती है तो पता नहीं चलता किसी को।

अमीर साहब का एक वक्तव्य है। क्या? मन जब फट जाए तो बताओ कैसे सिलें? मन अगर फट जाए तो बताओ कैसे सिलें? कौन सी सुई-धागे से मन को सिलें? कपड़ा फट जाता है, दिखाई पड़ जाता है। कहते हो, नुकसान हो गया। देखो, इसको कुछ हुआ था। त्वचा फटने लगती है तो भी कहते हो– ‘पानी की कमी थी, हाइड्रेटेड नहीं थी मेरी स्किन, तो फट गयी।’ और मन में किस चीज़ की कमी थी जो मन फट गया? ये कभी जान ही नहीं पाते क्योंकि यही नहीं जान पाते कि मन फट गया। दिखाई नहीं पड़ता न! हम बड़े स्थूल लोग हैं। मोटी-मोटी चीज़ें दिखाई देती हैं। झीनी-झीनी चीज़ें हमें दिखाई नहीं देती। दिखाई दे सकती हैं। हमें नहीं दिखाई देती हैं। आदत ख़राब कर ली है। कुछ समझ में आ रही है बात?

यह कोई प्रवचन भर की बात नहीं है। यह बिलकुल व्यावहारिक बात है। न अपनेआप को लघु करो, न अपने सामने वाले को, अपने निकट वाले को, लघु, छोटा, क्षुद्र, संकीर्ण होने दो। इसमें भाषणबाजी-नारेबाजी नहीं है। ये जीवन की अनिवार्यता है। नहीं तो मन फट जाएगा। जिओगे कैसे? तुम्हें आत्मा चाहिए। आत्मा अनन्त है। उसमें क्षुद्रता के लिए कोई स्थान नहीं।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। अभी मैं आपको सुन रहा था तो मुझे एक प्रश्न उठा। प्रश्न कुछ ऐसा था कि जैसा आपने कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है, ऐसी कोई आज्ञा नहीं है जिसका आप उल्लंघन नहीं कर सकते, शर्त यह है कि आप सच्चाई की ओर बढ़ें।

एक सवाल जो उठा वो ये था कि ये जो चुननेवाला है, जो यह निर्णय लेगा कि सुनूँ या न सुनूँ, वो जहाँ खड़ा है, उसके लिए तो दुनिया धुँधली है, वरना उसको ये समस्या या आज्ञा पालन करने की आवश्यकता ही क्यों उठती! तो ऐसे में कोई अगर अहंकारी है जो अपने अहंकार को बचाना चाहता है तो ये वक्तव्य उसके लिए बहुत अच्छा है कि 'हमें लगा कि हम तो मुक्ति की ओर नहीं जा रहे थे।'

तो कैसे पता चले कि आपको, आप जिस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, वो मुक्ति की है भी या नहीं?

नमस्कार आचार्य जी। जैसा आपने कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है, ऐसी कोई आज्ञा नहीं है जिसका आप उल्लंघन नहीं कर सकते, शर्त यह है कि आप सच्चाई की ओर बढ़ें।

एक सवाल जो मेरे मन में उठा वो ये था कि ये जो चुननेवाला है, जो यह निर्णय लेनेवाला है कि सुनूँ या न सुनूँ, वो फिलहाल जहाँ खड़ा है वहाँ से उसके लिए तो दुनिया धुँधली है। तभी तो उसको ये समस्या या आज्ञा पालन करने की आवश्यकता उठ रही है!

तो ऐसे में अगर कोई जो अहंकारी है और अपने अहंकार को बचाना चाहता है तो ये वक्तव्य उसके लिए बहुत अच्छा बहाना है कि 'हमें लगा कि हम तो मुक्ति की ओर नहीं जा रहे थे।(इसलिए आज्ञा नहीं मानी)'

तो कैसे पता चलेगा कि आप जिस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, वो मुक्ति की है भी या नहीं?

आचार्य: देखो एक ओर तो बिलकुल सही बात है कि जब भी सच्चाई सामने रखी जाती है तो उसका दुरुपयोग कोई अहंकारी चित्त अपनेआप को बढ़ाने, बचाने के लिए कर सकता है। बात बिलकुल ठीक है। दूसरी ओर यह बात भी सही है कि सच्चाई सामने रखना आवश्यक है। भूलना नहीं कि शिष्यों के सामने एक गुरु स्वयं यह कह रहा है कि आज्ञा को आत्मा मान लेना बन्धन है। कोई और नहीं आया है शिष्यों को भड़काने के लिए। स्वयं गुरु अपने शिष्यों से बोल रहा है, “आज्ञा को आत्मा मान लेना बन्धन है।”

आवश्यक है। गुरु हितैषी है। लेकिन जब वैसी स्थिति आ जाए जिसकी आप बात कर रहे हो, उस स्थिति में फिर इस वक्तव्य में कुछ बातें और जोड़ी जाती हैं। ठीक है? जैसे कि, सिर्फ़ किसी बाहर वाले की आज्ञा मानना बन्धन नहीं है। समझ रहे हो बात को? क्या? जो भीतर अपने बैठा है उसकी आज्ञा मानना और बड़ा बन्धन है।

गुरु कभी नहीं कहेगा आपसे कि गुरु की आज्ञा सदा शिरोधार्य है। कभी नहीं कहेगा। गुरु सदा आपको ये छूट देकर रखेगा – “चाहो तो मेरी आज्ञा न मानो।” लेकिन इतनी सी बात और जोड़ देगा – “पर अपनी भी मत मान लेना।” समझ में आ रही हैं बात? हाँ, कोई नकली, फ़र्ज़ी किस्म का गुरु हो तो वो ज़रूर कहेगा (कि) मैं ही भगवान हूँ। वो आता है न —‘अपुनिच भगवान है, तो अपुनिच भगवान है और मेरी आज्ञा है, मुझे माननी पड़ेगी। मेरी आज्ञा नहीं मानेगा तो तू कीड़ा बन जाएगा।’

नहीं, ये वेदान्त है। हम उन ऋषियों की बात कर रहे हैं जिनमें इतना भी स्वार्थ नहीं था कि अपना नाम तक आपको बताते। इतना मिटाया उन्होंने अपनेआप को कि अपने व्यक्तित्व को गौरवान्वित करने की इतनी-सी भी इच्छा शेष न रखी। तो वो तो आपको सच्चाई ही बताएँगे। और सच्चाई उन्होंने ये कही है कि बेटा, मेरी आज्ञा भी कोई आखिरी चीज़ नहीं है। उसका उल्लंघन किया जा सकता है। अगर तुम पाओ कि गुरु भी सच के आड़े आ रहा है तो गुरु को भी परे धकेल देना। गुरु भी सच की राह में रोड़ा बनता हो तो कौन सा गुरु! काहे का गुरु!

जो गुरु सच की तरफ न ले जा रहा हो, सच के विपरीत हो गया हो उसमें तो ‘ग़ुरूर’ है, ‘गुरुता’ नहीं। गुरुता के आगे झुका जाता है, ग़ुरूर के आगे थोड़े ही झुका जाता है!

लेकिन ठीक तब जब गुरु साफ-साफ कह रहा है कि ज़रूरत पड़े तो मेरी बात से भी इन्कार कर देना, इतनी-सी बात जोड़ेगा वो ज़रूर, क्या? मेरी बात की जब अवज्ञा करना तो बेटा ये न कर लेना कि अपनी बात को मान लिया। मेरी बात यदि काटना तो इसलिए कि तुम्हें एकदम सुस्पष्ट तरीके से दिख गया है कि तुम्हारी मुक्ति में मैं बाधा हूँ। पर मेरी बात इसलिए नहीं काट लेना कि तुम्हारे भीतर जो बन्धन का पैरोकार बैठा है वो बड़ा सशक्त हो गया है। नहीं, नहीं, नहीं, नहीं। मेरी बात मानना यदि तुम्हें दासता, ग़ुलामी जैसा लगता हो तो तुम एक बात अच्छे से समझ लेना (कि) मेरी बात मानना यदि ग़ुलामी है तो अपने मन की बात मानना महाग़ुलामी है, परम दासता है।

तो श्लोक ने बता दिया कि आज्ञा भी आखिरी नहीं होती। पर आप उस पर स्पष्टीकरण माँग रहे हो तो मैं बता देता हूँ (कि) बिलकुल ठीक बात है, आज्ञा आखिरी नहीं होती। दूसरे की आज्ञा की अपेक्षा आत्मा सदैव बड़ी ऊँची होती है। तो दूसरे की आज्ञा तभी काटना जब उस आज्ञा का विकल्प आत्मा हो। दूसरे की आज्ञा इस आधार पर मत काट देना या इस नीयत, इस कामना के साथ मत काट देना कि अब से उसकी आज्ञा नहीं मानूँगा, अपनी आज्ञा यानि मनमर्ज़ी पर चलूँगा।

गुरुमुख होने की जगह मनचला मत हो जाना। गुरुमुख होने का क्या मतलब होता है? कि जिसका मुँह हमेशा गुरु की ओर होता है। वो देख रहा है गुरु को हमेशा। ऐसे (ऊपर की ओर टकटकी लगाए देखने का अभिनय करते हैं)। गुरुमुख होना आखिरी बात नहीं है। आखिरी बात है सत्यमुख होना। तुम सत्यमुखी हो जाओ। बस बात इतनी सी है कि सत्य (तो) देखो, निराकार-निर्गुण (होता है), उसकी ओर मुख करना बड़ा मुश्किल है क्योंकि सत्य के पास तो कोई मुख होता नहीं। तो इसलिए आपको एक बड़े सुन्दर विकल्प के तौर पर कह दिया जाता है, तुम गुरूमुख हो जाओ। लेकिन गुरु स्वयं यह स्वीकारेगा कि गुरुमुख होने से भी ऊँची बात है सत्यमुख होना। लेकिन ये नहीं कर लेना (कि) न सत्यमुख हैं, न गुरुमुख हैं, हम क्या हैं? ‘मनचले।’ हम मनमुख हैं। चले थे गुरुमुख बनने, बन गये मनसुख। मनसुख माने? मन पर चलने में बड़ा सुख मिलता है। जो मन कहे, वही कर डालो– ‘मनसुखदास।’ मन के सुख के दास– मनसुखदास। ये नहीं कर देना बस। आयी बात समझ में?

प्र: आचार्य जी, श्लोक की शुरुआत में आप समझा रहे थे कि उसकी आज्ञा माननी चाहिए जो आपको ऊँचा उठाए। अभी पिछले दिनों मैं यू ट्यूब पर कुछ वीडियोज़ देख रहा था। उनमें मैंने कुछ ऐसे उल्लेख पढ़े, वो भी उन वीडियो पे जो एकदम भद्दे थे, बेहूदा थे। मगर उनमें जो कमेंट्स थे, वो ऐसे कमेंट्स थे जो मैं आपके वीडियो पर पढ़ता हूँ। तो जब मन ने ऊँची चीज़ का ….

आचार्य: नहीं, क्या? मैं समझा नहीं, खुल कर बताओ, क्या कमैंट्स थे, बोल रहे हो?

प्र: जैसे कि– ‘आपने मेरा जीवन ही बदल दिया’ और ‘मुझे तुमने बचा लिया।' और वो एकदम कॉमेडी टाइप के वीडियोज़ थे। वो ऐसे थे कि वो एकदम बेहूदा बातें कर रहे हैं, कुछ बेहूदा से जोक्स मार रहे हैं। इंटरटेनमेंट स्टफ (मनोरंजन सामग्री) है और उन पे कमेंट्स ऐसे हैं कि जैसे वो उपाधियाँ, वो शब्द कि जैसे गुरु को ही सम्बोधित किया जा रहा है। कि तुमने तो जैसे ….

आचार्य: हाँ, हाँ, ‘आई लव यू’ , ‘मुझे प्यार है तुमसे। तुम न होते तो मेरी ज़िन्दगी क्या होती?’

प्र: जी, तो ये तो अब जब ऐसी उपाधियाँ दी जा रही हैं तो मतलब ऐसे लोगों को गुरु ही बोला जा रहा है।

आचार्य: हाँ, माने उन्हें अन्तिम और आत्मा मान लिया गया है। हाँ, ठीक।

प्र: तो ऐसे में फिर ये तो सिलसिला चलता जाएगा जब तक बहुत तगड़ी ठोकर नहीं पड़ती है।

आचार्य: देखो, भरोसा तो तुम्हारे भीतर जो सच्चाई या सच्चाई की चाह बैठी है, उसी का है। अगर लोग एकदम ही भ्रष्ट होते या मूर्ख होते तो फिर किसी गुरु का कोई प्रयत्न काम आ नहीं सकता था। फिर तो लोगों तक रोशनी को लाने की कोई कोशिश करना भी व्यर्थ होता। बात यह है कि कोई कितना भी अन्धेरे में हो, कोई कितना भी भ्रमित हो, वो कभी पूरे तरीक़े से भ्रमित नहीं हो सकता। कोई कितना ही मूर्ख हो गया हो, वो कभी पूरे तरीक़े से मूर्ख नहीं हो सकता। बोध की कुछ-न-कुछ सम्भावना उसमें बची ही रहती है।

वो याद है, एक बार मैंने कहा था कि ‘इवन इन योर डार्केस्ट आवर, द ट्रुथ ग्लिमर्स इन योर हार्ट‘ (आपकी सबसे अन्धकारपूर्ण घड़ी में भी सत्य आपके ह्रदय में प्रकाशमान रहता है)। सबकुछ अन्धेरा-सा हो तुम्हारे भीतर— बाहर नहीं कि, मैं नहीं कह रहा हूँ, स्थितियाँ प्रतिकूल हैं— भीतर, तुम घोर भ्रम में, अंधकार में, अज्ञान में, इल्यूज़न में हो तो भी सच्चाई एक ज़रा से जुगनू की तरह, दीये की तरह भीतर टिमटिमाती ही रहती है। उतना सा प्रकाश तो बचा रहता है, उसी का आसरा है। उसी का आसरा है कि बात समझ में आएगी। तुम करो तो बात! हो सकता है बहुत देर में आये, पर आएगी। समझाओ तो।

अभी अन्धेरे के मारे हुए हैं कि ये इंटरटेनर्स को, कॉमेडियंस को, किसी को भी, इधर-उधर के यूट्यूबर्स या किसी को भी, इनको ही ये समझ लेते हैं कि यही बहुत ऊँची चीज़ है। उन्हीं पर उस तरह के जज़्बात उड़ेलने लग जाते हैं कि ‘तुम न होते तो मेरा क्या होता। मैं तो रोज़ तुम्हारे वीडियो का इन्तज़ार करता हूँ या करती हूँ।' और जैसे देवता को पूजा जाता है वैसे इस तरह के निठल्ले लोगों को पूजते हैं। ये सब है, बिलकुल है।

जानते हो श्रीकृष्ण क्या कहते हैं गीता में एक जगह– “मैं ही हूँ वो जो तुम्हें तुम्हारी कामनाओं की ओर ले जाता हूँ। तुम जिस-जिस देवी-देवता में आस्था रखते हो, तुम्हें उस देवी-देवता की तरफ मैं ही भेजता हूँ।” यह बात समझो, बड़ी ज़बरदस्त बात है। तुम जिस किसी से भी जाकर के अटक गये, चाहे वो बिलकुल बेकार की बातें करने वाला ही व्यक्ति क्यों न हो। और मैं बिलकुल समझ रहा हूँ तुम क्या कह रहे हो। सोशल मीडिया वगैरह पर बहुत सारे ऐसे ही वीडियो होते हैं, जैसे– पनवाड़ी की दुकान पर दो-चार लोग खड़े हो गये हों और वो एक-दो घंटा बातें करें और उसकी लाइव स्ट्रीमिंग हो जाती है, और ये स्ट्रीमर्स कहलाते हैं आज तो। और ये कर क्या रहे हैं? ये वही कर रहे है कि चौराहे वाली गॉसिप (गप्पेबाज़ी)! जिसका कोई मूल्य नहीं। जिसकी दो कौड़ी की कीमत नहीं। पर यह सब चल रहा है।

तो कृष्ण कह रहे हैं कि तुम जिस भी दिशा जाते हो, तुम्हें उस दिशा भेजता मैं (ही) हूँ। इसको ऐसे पढ़ो कि तुम जिस भी दिशा जाते हो, जाते तो मेरी ही तलाश में हो। बस भ्रमित हो तुम। तुम कुछ बहुत ऊँचा खोज रहे हो माने तुम मुझे खोज रहे हो। पर तुम्हारी स्थितियाँ ऐसी हैं, तुम्हारा संयोग ऐसा है, तुम्हारी प्राकृतिक अवस्था ऐसी है कि तुम्हें बहुत ऊँचाइयों के दर्शन नहीं हो रहे, तो तुम्हें जो एकदम ही छोटे-छोटे मिट्टी के ढेर और बालू के टीले मिल जाते हैं तुम इन्हीं को हिमालय समझ लेते हो। पर खोज तो तुम कोई शिखर, कोई चोटी ही रहे हो।

जैसे कोई बिलकुल छोटा-सा बच्चा हो, चाहिए उसको भी एवरेस्ट का शिखर ही है कि मुझे भी कंचनजंघा मिल जाए, या एवरेस्ट मिल जाए। पर उसकी अभी अवस्था ऐसी नहीं है। उसको अभी हाथ पकड़ने वाला ऐसा नहीं मिला है जो उसको उतनी ऊँचाई तक ले जा सके। पर चोटी की आकांक्षा उसे है, ऊँचाई की आकांक्षा उसे है। तो क्या कर रहा है? वो बालू में घरौंदा बना रहा है और बालू के घरौंदे का जो शिखर है वो उसी को बोल रहा है कि यह मेरा माउंट एवरेस्ट है और उस माउंट एवरेस्ट को वो वैसे ही पूज रहा है कि, 'तुम न होते तो मेरा क्या होता! तुमने ही मेरा आसमानों से परिचय करा दिया! तुम भाई हो मेरे, तुम बाप हो मेरे, तुम गुरु हो मेरे!' और ये बातें वो किससे बोल रहा है? मिट्टी के टीले से, बालू के ढेर से, किसी घरौंदे से। इनसे सबसे वो ये सब बातें बोल रहा है।

पर किसी की ओर भी तुम जा रहे हो, जा रहे हो कृष्ण की तलाश में ही। कृष्ण माने जो उच्चतम है। तो इसी बात का मैं कह रहा हूँ कि मुझे आसरा है, कि तलाश तो सबको उच्चतम की ही है। वो जो तलाश है न, वही अन्धेरे में टिमटिमाता दीया है। मानोगे नहीं तुम्हें जब तक उच्चतम न मिल जाए। अभी तुम्हें उच्चतम यही मिला है और इससे ऊपर का जैसे ही तुम्हें मिलेगा तुम इसको भूल जाओगे। तो सारी बात फिर ‘रीच’ (पहुँच) की है। किसकी है? ‘रीच’। पहुँचो तो!

उस बेचारे ने कभी देखा ही नहीं है कुछ ऊँचा, तो वो दो मुट्ठी बालू लेता है, उसी का पहाड़ बना देता है और कहने लग जाता है, ये देखो, पहुँच गया हूँ मैं एकदम चोटी पर और यहाँ बिलकुल ठंडी-ठंडी हवा बह रही है और यहाँ से सूर्यास्त कितना प्यारा दिखाई दे रहा है। इतनी ऊँचाई है यहाँ, मुझे तो लग रहा है ऑक्सीजन की कमी हो रही है। और बनाया क्या है उसने? दो मुठ्ठी बालू का ढेर। पर तुम उसे पूरी तरह से दोष भी नहीं दे सकते क्योंकि उसके अनुभव में इससे ऊपर का आज तक कुछ आया ही नहीं। अब ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है फिर कि तुम उसके अनुभव में इससे ऊपर का कुछ लाओ। तो पहुँच आवश्यक है, प्रचार आवश्यक है। ‘रीच’। पहुँचो तो उसके पास!

उसके पास आज तक कुछ पहुँचा नहीं और चूँकि उसके पास अब इतने साल हो गये, कुछ ऊँचा पहुँचा ही नहीं तो अब जब कुछ ऊँचा पहुँचेगा तो वो डर-सा जायेगा। ऊँचाई जैसे ही सामने आएगी उसमे दो तरह की प्रतिक्रिया होगी। पहला, वो डरेगा। दूसरा, उसे कुछ समझ में नहीं आएगा। पहले तो डर लगेगा। तुम सोचो न, जो खेलता रहा हो बालू के ढेर से आज तक, उसके सामने प्रकट हो जाए गिरिराज अचानक, उसकी हालत क्या होगी? अच्छा तो नहीं लगेगा। न समझ में आएगा।

ये दो प्रतिक्रियाएँ होती हैं जब सच किसी ऐसे के सामने आता है जिसकी आदत हो गयी होती है कॉमेडियन को ही ऋषि समझ लेने की। उसको समझ में ही नहीं आता (कि) ये कौनसी बात बोल दी गयी और जो थोड़ा-बहुत समझ में आता है, वो बहुत बुरा लगता है। दस-बीस प्रतिशत समझ में आता है, जो समझ में आता है बहुत बुरा लगता है (और) अस्सी प्रतिशत समझ में ही नहीं आता, (कि) यह बोल क्या दिया गया! लेकिन शिकायत तुम नहीं कर सकते।

ये तो प्रकृति का संयोग है कि उस बच्चे को आज तक किसी पर्वत का, किसी ने अनुभव दिलाया ही नहीं, तो वो क्या करे। ललक तो उसके मन में भी है ऊँचाइयों की। तो उसने इस तरीक़े से ऊँचाइयाँ निर्मित कर लीं। मिट्टी लेता है और मिट्टी का ही, या प्लास्टर-ऑफ-पेरिस का बना लेता है और उसके ऊपर लिख देता है, क्या? माउंट एवरेस्ट। समझ में आ रही है बात?

रीच। पहुँचो तो! और जब पहुँचो तो ये उम्मीद मत रखना कि तुम पहुँचोगे और वो पलक-पावड़े बिछा देंगे कि तुम पहुँचोगे और कहेंगे– ‘आ हा हा! आप थे कहाँ? आपके इन्तज़ार में हम, धन्य हुए हम, अब आप आ गये!’

पहली प्रतिक्रिया डर की और तिरस्कार की होगी। तुम्हें मिलेंगे अस्वीकृति, रिजेक्शन और डर और घृणा, हेट्रेड , कंडेमनेशन। अस्वीकृति मिलेगी, रिजेक्शन। डर मिलेगा और घृणा भी मिलेगी। लेकिन तुम तो समझदार हो न! खुद ही कह रहे हो वो नासमझ हैं। तुम कह रहे हो वो नासमझ हैं तो अपनेआप को तो समझदार ही बोल रहे हो न!

तुम समझदार हो तो फिर तुम्हारा काम ये है कि तुम्हें उनसे कितनी भी घृणा मिलती रहे तुम बार-बार, बार-बार उन तक पहुँचते रहो, अपनी बात बताते रहो। बार-बार। भूलना नहीं कि जुगनू तो हम सबके भीतर है। पूरा अन्धेरा कहीं सम्भव नहीं। एकदम ही सम्भव नहीं। मनुष्यों में क्या, जो एकदम ही न्यून चेतना वाले पशु भी होते हैं, बस दो-चार कोशिकाओं वाले, एकदम आरम्भिक किस्म के जीव भी होते हैं, उनकी भी चेतना ऊँचाई पाने के लिए छटपटा रही होती है।

इसीलिए तुम पाते हो कि पशु भी प्रेम चाहते हैं। चाहते हैं कि नहीं चाहते हैं? क्योंकि उसकी चेतना भी कहीं-न-कहीं कुछ पाने के लिए आकुल है। जब पशुओं की चेतना भी कुछ पाने के लिए आकुल है तो इंसानों को लेकर क्यों निराश होते हो?

आज वो कितने भी बहक गये हों, पर तुम अपनी कोशिश ज़ारी रखो। वो तुम्हें दस बार ठुकरायेंगे, बीस बार ठुकरायेंगे, हैं तो इंसान न! एक दिन तुम्हारे पास आएँगे। और उन्हें दोष दो, ठीक है, समझ में आता है, जब वो इस किस्म की बेहूदी हरकतें करते हैं तो बिलकुल मन करता है कि उनको दोष दिया जाए। पर दोष देते वक़्त यह बात भी ध्यान रखो कि क्या उनको शिक्षा मिली है? क्या उन्हें किसी ने कभी सच्चाई बतायी भी? दोष उनका है या उनके माँ-बाप का है? दोष उनका है या शिक्षा का है? उनका है या इस पूरी व्यवस्था का है?

कोई चाहता तो नहीं है न मूर्ख रहना? कोई चाहता तो नहीं है न अज्ञान और अंधकार से भरा हुआ रहना? या उन्होंने चुनाव किया था? उनसे कहा गया था, ज्ञान चाहिए या अज्ञान? उन्होंने कहा, अज्ञान। ऐसा तो नहीं है? तो उनको इतना क्या दोष देना। जिनकी तुम बात कर रहे हो अधिकांशतः पन्द्रह से पच्चीस साल के युवा लोग हैं। उनके मनों में अगर अंधेरा है, उनके लिए इधर-उधर के फालतू यूट्यूबर ही अगर गुरु बन जाते हैं, तो इसकी वजह है उनकी ग़लत शिक्षा और कमज़ोर परवरिश। तो इन लड़के-लड़कियों को, इन युवाओं को बहुत दोष देना ठीक भी नहीं है। तुम अपना काम करो। इन तक बार-बार जाओ। इन्हें सच्चाई बताने की कोशिश करो। हाथ बढ़ाओ। भले ही वो तुम्हारा हाथ ठुकराएँ। भले ही वो तुम्हारे हाथ पर चोट मार दें। कर्तव्य तुम्हारा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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