आध्यात्मिक प्रतीक सत्य की ओर इशारा भर हैं || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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आध्यात्मिक प्रतीक सत्य की ओर इशारा भर हैं || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: एक और नया आ गया, ‘ब्रह्मलोक’। मन को मिल गया झुनझुना फ़िर से। ‘ब्रह्मलोक भी कुछ होता होगा’। और कैसा होता है ब्रह्मलोक? आँखे बंद करिए और बताइये?

श्रोता १: सफ़ेद-सफ़ेद।

वक्ता: सफ़ेद-सफ़ेद। और कैसा होता है?

श्रोता २: रंग-बिरंगी रौशनियाँ।

वक्ता: रंग-बिरंगी रौशनियाँ।तो आपका-इनका थोड़ा अलग-अलग है।

श्रोता १: मेरे वाले में डी.जे. नहीं है।

वक्ता: वहाँ पर डी.जे.नहीं है। आवाज़ें सुन्दर-सुन्दर किसकी आ रही हैं, ब्रह्मलोक में? मोर की?

श्रोता ३: सितार की।

वक्ता: सितार की आ रही है। थोड़ा अलग-अलग है।

श्रोता ४: शंख की।

वक्ता: शंख की आ रही है। और कैसी आवाज़ें आ रही हैं?

श्रोता ५: घंटा।

वक्ता: घंटा बज रहा है। और क्या है?

श्रोता ६: सुंदरियाँ।

वक्ता: हाँ, वही मैं बोलने वाला था, आपने बोल दिया।

*(*सभी हँस देते हैं)

वक्ता: सुंदरियों का कुछ विवरण?

*(*सब और ज़ोर से हँस देते हैं)

श्रोता ७: सर, मैं ब्रह्मलोक से आया हूँ, ऐसा मैं बोलूँगा तो आपको आश्चर्य होगा।

वक्ता: बिलकुल नहीं होगा। तुम ब्रह्मलोक से आए हो, और इस जगह को भी वही बना रहे हो।

*(*सभी हँस देते हैं)

वक्ता: *(*हँसते हुए) तुमने यहाँ पर ब्रह्मलोक ही स्थापित कर रखा है, गन्दा, कचरा, झड़ता हुआ। अन्दर और बाहर अलग-अलग नहीं हो सकता बेटा। जो वहाँ से आता है, वैसा ही हो जाता है।

ब्रह्म विद ब्रह्मैव भवति ।।

जो ब्रह्मलोक से आया होगा ना, वो ब्रह्म ही हो जाएगा। ऐसा नहीं होता कि ‘मैं होकर आ गया हूँ’ कि जैसे कोई नैनीताल है, कि ‘होकर आ गए, पर वैसे ही हैं’।

श्रोता ८: वैसा ही हो जाता है?

वक्ता: हाँ। और कैसा है ब्रह्मलोक? बताइए, बताइए! सोचिये! ज़रूरी है, क्योंकि यही बातें मन में घुस कर बैठी हुई हैं। सबके मन में, कुछ ना कुछ ख्याल ज़रूर है। ग़ालिब ने पकड़ा था कि ‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीकत, दिल को बहलाने को..?’

श्रोता ८: ‘ ख्याल अच्छा है’।

वक्ता: ‘ ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है’, उन्होंने पकड़ लिया। *(श्रोताओं से)* हमने पकड़ा नहीं है अभी तक, कि ख़याल ही तो है, कहाँ कोई जन्नत? कैसी होती है जन्नत? सैयद *( एक श्रोता)*, कुछ बताओ कि ख़याल कैसे हैं? पहुँचता तो कोई नहीं, ख़याल बहुत होते हैं। *(*हँसते हुए)

श्रोता ९: अनहद और अनाहत में क्या अंतर है? जो कबीर साहब कहते हैं ‘अनहद नाद’।

वक्ता: कोई अंतर नहीं है। अनहद का, पहली बात तो, यह अर्थ नहीं है कि जो हद के परे से आता है। अनहद का वो अर्थ नहीं है। अनहद का मूल है ‘अनाहत’। अनाहत, जो पदार्थों के घर्षण से पैदा नहीं होता, ऐसा शब्द। वो अनहद, बेहद वाला नहीं है, कि हद के आगे। वो गलत अनुवाद है उसका।

श्रोता १०: *‘*अनहद शब्द गैब धुन गाजे’।

वक्ता : इनके प्रयोग से इतना ही कहा जा रहा है कि यह वो धुन नहीं है, जो तुम रोजमर्या की जिंदगी में बजाते रहते हो। शादी-ब्याह का बाजा नहीं है। किसी की बाँसुरी नहीं है। कुछ नहीं है।

श्रोता १०: जिसे कहते हैं, एक हाथ से ताली बजाना; यह वो वाला है। अनाहत माने, जो भी आवाज होती है, वो किसी चीज़ के आहत होने पर होती है। लेकिन जो आवाज बिना किसी चीज के आहत हुए हो, उसे अनाहत नाद कहते हैं। अनाहत नाद को ही अनहद कहा गया है।

वक्ता: ठीक-ठीक।

श्रोता: शब्द इसका ‘अनाहत’ है। आहत माने, किसी चीज़ पर आघात करना, मारना; और अनाहत का मतलब बिना मारे, जो आवाज हो। तो आवाज जो होगी, दो चीजों के टकराने से होती है, लेकिन बिना टकराहट के कोई आवाज हो, उसे अनाहत नाद कहते हैं, जिसे अनहद कहते हैं।

वक्ता: यह बेचारे लोग ना बड़े परेशान हो जाते हैं। अब उन्होंने कुछ जाना (संतों को इंगित करते हुए) उसको व्यक्त करें, तो करें कैसे। तो कुछ शब्द उठाना पड़ता है। अब जो ही शब्द उठाएँ, वही उल्टा पड़ जाता है। तो बिचारे बोलते हैं पर…

श्रोता ११: बोलने में नहीं आता उनके।

वक्ता: हाँ।

श्रोता ११: ध्यान में जाने वाले लोग बताते हैं कि जैसे घंटे की आवाज, शंख की आवाज, सुनाई देती है। तो उसी के प्रतीक स्वरुप मंदिरों में घंटे लगे हुए हैं।

वक्ता: कितने पागलपन की बात है ये, कि अन्दर घंटा था (मन में), तो बाहर घंटा है। उनसे पूछिए कि जीवन में कभी घंटा देखा ना होता, मंदिर में, तो भी क्या ध्यान में घंटे की आवाज सुनाई देती? सच यह है कि चूँकि ज़िन्दगी भर घंटा सुना है, और अभी भी मन में ही तैर रहे हो, ध्यान जैसा कुछ हुआ ही नहीं, इसीलिए तुम्हारे घंटे बज रहे हैं। ध्यान में किसी के नहीं घंटे बजते। और एक बात और बताता हूँ, सिर्फ हिन्दू के ध्यान में घंटे बजेंगे।

श्रोता ११: तो क्या यह मनोवैज्ञानिक समस्या है?

वक्ता: यह मुख्यता समझ की कमी है, इसमें और कोई समस्या नहीं है। बात इतनी सी है, मैं बताता हूँ सुनिये, सुनने में बहुत उथली बात लगेगी। मुझे बड़ी निराशा है जीवन में किसमाधि जैसा कुछ होता होगा, मुझे भी होना चाहिए। तो मैं अपने आप को ही सम्मोहित कर रहा हूँ बैठा-बैठा।

“मुझे समाधि हो रही है। हो रही है।”

“अच्छा, समाधि हो रही है? क्या हो रहा है उसमें?”

“अ..अ… क्या होता है धरम-वरम में?” *(*सोचते हुए)

“अच्छा, घंटे बजते हैं।” *(*सोचते हुए)

“हाँ, घंटे बज रहे हैं। घंटे बज रहे हैं।”

“और क्या है?”

“अच्छा वाला प्रकाश होता है।”

“अच्छा, अच्छे रंग कौन से होते हैं?” *(*सोचते हुए)

“सफ़ेद बड़ा अच्छा होता है।” *(*सोचते हुए)

“और क्या अच्छा होता है?” *(*सोचते हुए)

“गेरुआ बड़ा अच्छा होता है।” *(*सोचते हुए)

“तो गेरुए रंग का प्रकाश है और उसमें खूब घंटे बज रहे हैं। और वैसे ही गाइड फ़िल्म में भी था।” और गाइड फिल्म भी इन्होंने देखी हुई है बीस साल पहले।

उनसे पूछिए कि ‘दुनिया में तीन-सौ धर्म हैं, किसी यहूदी को भी समाधि लगेगी, तो घंटे बजेंगे क्या?’

श्रोता १२: सर, कबीर साहब की वाणी में आता है, ‘लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।’ यह क्या प्रतीक है?

वक्ता: वही, ‘अपनी छवि बनाइ के जो मैं पी के पास गई, जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।’

‘लाली देखन मैं गई’, उसको खोजन मैं गया, ‘मैं भी हो गई लाल’, मैं भी हो गया लाल। मैं भी वैसा ही हो गया।

हेरत-हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराइ।’

‘लाली देखन मैं गई – हेरत-हेरत हे सखी; मैं भी हो गई लाल – रहा कबीर हिराइ।’

यही है। इसका यह थोड़ी न अर्थ है कि वो लाल-लाल है।

श्रोता १२: थोड़ा सा बोलने की इजाज़त दे दीजियेगा, कि जब इस आध्यात्मिक पथ, सत्य की यात्रा का कबीर साहब ने…, ‘उल्टा कुआँ गगन में, उसमें जरै चिराग’ में बहुत तलों की व्याख्या की है। शरीर से लेकर… मतलब पन्द्रह-सोलह तल तो बताएँ ही हैं। उसमें से, जब हम आँखों से ऊपर जाते हैं, केंद्र से।

वक्ता: कहाँ से?

श्रोता १२: मतलब शिव नेत्र से।

वक्ता: कहाँ है?

श्रोता १२: दो आँखों के बीच में जिसको माना जाता है। जिसे हम एकाग्रता का केंद्र बिंदु मानते हैं।

कोई अन्य श्रोता: माना ही जाता है ना।

श्रोता १२: जहाँ हम सोचते हैं। बोध कह सकते हैं। जहाँ से बोध शुरू होता है।

वक्ता: कोई है यहाँ डॉक्टर? यहाँ तो नहीं सोचते।

श्रोता १२: नहीं, जैसे आँख बंद कर के। यही कहा जाता है कि कोई जो भी सोचता है…

वक्ता: कहा जाता है। किसने कहा?

श्रोता १२: हम अपने तजुर्बे में भी लेते हैं।

वक्ता : आपका तजुर्बा, सुनी-सुनाई बात से आ रहा है। वो कोई तजुर्बा है ही नहीं। जे.कृष्णमूर्ति आप पढ़ते हैं ना? “एक्स्पीरिंसर इज़ दी एक्स्पीरिंसड़” (‘ अनुभवकर्ता ही अनुभव है’) , आपका अनुभव वहाँ से आ रहा है, जो आपने पहले ही अनुभव कर रखा है। कुछ नहीं है यहाँ पर *(**दो आँखों के बीच में)*। कुछ भी नहीं है। खोल के देख लीजिये। बच्चों में होती है आदत, खिलौने खोल के जाँचते हैं, मामला क्या है अन्दर। यहाँ क्या है?

श्रोता १२: कोई चक्र नहीं है?

वक्ता : यह सब प्रतीक हैं। यह बस प्रतीक हैं। ओशो कहते थें कि “वो फ़लाने मेरे पास आए, बोले, ‘मेरी कुण्डलिनी जग गई है।’ मैने पूछा, ‘क्या है?’ तो वो बोले, ‘इधर कुछ-कुछ होता है।’ तो मैंने कहा, ‘खड़ा हो, और कहा, चल कपड़े उतार।’ उतारा तो देखा, नीचे ख़ाज हो गई थी।”

*(*सभी मुस्कुरा देते हैं)

श्रोता १३ : बच्चे करते हैं ना? वो एक सौ एक बार यहाँ रगड़ेंगे (दोनों आँखों के बीच), और कहेंगे कि मेरा शिव नेत्र बन गया। छिल नहीं जाता है रगड़ते-रगड़ते?

कोई अन्य श्रोता: हाँ।

वक्ता: मज़े की बात बता रहा हूँ। ‘कुण्डलिनी जग गई!’ ‘क्यों?’ ‘पीठ में यहाँ कुछ होने लगा है, खुरदुराहट होती है, कुछ उठता-उठता सा लगता है। छूने का मन करता है। दर्द भी होता है हल्का-हल्का।’ ‘देखें कहाँ होता है? *(*हँसतें हुए) ले यह दवा लगा, ठीक हो जाएगा। कुण्डलिनी ठीक हो जाएगी।’ उसके लिए एक आता है, वो…

कुछ श्रोतागण (एक साथ): बी-टेक्स

वक्ता: बी-टेक्स।

( सभी फिर हँस देते हैं)

वक्ता: ‘दाद-खाद, खुजली का दुश्मन।’

श्रोता ४: कुण्डलिनी का दुश्मन।

वक्ता: यह सब प्रतीक हैं, यह तन्त्र में हैं। और इनकी जरुरत इसलिए पड़ती है, क्योंकि, समझिये- रूमी से पूछा गया था एक बार कि ‘सीधे-सीधे हमें सच क्यों नहीं बता देते? क्यों तुम इतनी बातें फिराते हो?’ रूमी भी प्रतीकों में बड़े माहिर थे। कल उनका एक पढ़ रहा था, ‘मर्दे खुदा’, और मर्दे खुदा में उन्होंने, मर्दे खुदा के बारे में इतनी बातें लिखी हैं, ‘ऐसा करता है, वैसा करता है।’ पूरा पढ़ लिया, बड़ा सुन्दर था। लगा, सीधे-सीधे क्यों नहीं? फ़िर एक और उनका याद आया। उसमें कहा है कि ‘उसका नूर, अगर तुम्हें सीधे-सीधे स्पष्ट कर दूँ, तो तुम अंधे हो जाओगे, झेल नहीं पाओगे।’ तो इसीलिए बात प्रतीकों में करनी पड़ती है, घुमा-फिरा के इशारों में करनी पड़ती है।

तुम इतने अंधे हो। जैसे कोई आदमी अंधा हो एकदम। या समझ लीजिये, अंधा तो कोई भी नहीं है, आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। और फ़िर उसको हज़ार वाट की रौशनी के सामने, खोल कर (पट्टी) अचानक खड़ा कर दिया जाए, तो उसका क्या होगा? किसी आदमी ने, ज़िन्दगी भर, आँखों पर पट्टी बाँध रखी है, अचानक आप पट्टी खोल दो, और सामने चारो तरफ, हज़ार वाट की रौशनी है। उसका क्या होगा? क्या होगा?

श्रोता ६: अंधा हो जाएगा।

वक्ता: तो इसीलिए उसको थोड़ा-बहुत बताया जाता है। घुला के, मिला के, इशारे से, तनु कर के, प्रतीकों के द्वारा। इसलिए आपको थोड़ा-थोड़ा बताया जाता है। आप प्रतीक को सच मत मान लीजिये। कहीं कोई चक्र नहीं है। कहीं कुछ नहीं है। यह सब प्रतीक हैं, क्योंकि सीधा-साधा सच, हमें बताया जा नहीं सकता। और जो जान जाते हैं, वो जान जाते हैं कि ‘अरे! यह तो बड़ा सरल है। इसमें इतने उलझाव की जरुरत ही नहीं है।’

श्रोता ७: सिद्धांत भ्रम में डालने के लिए ही तो बनाए जाते हैं।

वक्ता: वो भ्रमों के लिए नहीं है। वो जिसने जिसको बोली थी, उसके लिए थी। एक आदमी ने दूसरे आदमी को बोली, क्योंकि उसको वो भाषा समझ में आती थी। आज मैं आपसे एक भाषा बोल रहा हूँ। अभी मैं यहाँ पर बैठा हुआ हूँ। आपको क्या लगता है, मैं इसके साथ बैठता हूँ, और उसके साथ बैठता हूँ, तो इसी भाषा का इस्तेमाल करता हूँ? तब हम गालियों की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। वो इन्हें बेहतर समझ में आती है।

आप मुझे इनके साथ बैठा हुआ देखेंगे, तो आपको विश्वास ही नहीं होगा कि यह आदमी कैसी भाषा बोल रहा है? ‘यह तो कॉलेजी लौंडों जैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, इधर-उधर की गालियाँ चला रहा है, और यह सब कर रहा है।’

वो, समझ में आ जाती हैं। और चर्चा हम सत्य की ही कर रहे होते हैं। सत्य ही समझना चाहते हैं, पर भाषा बदल जाती है। मुझे भाषा बदलनी पड़ती है क्योंकि आपका मन दूसरा है, उसका मन दूसरा है। उसका मन वो वाली भाषा ज़्यादा पकड़ लेता है। अब कोई उसको पकड़ ले, जो मेरे और इसके बीच की बात है, और सोचे कि यही असलियत है, और जिसको सत्य समझना हो, उनको माँ-बहन की और सेक्स की बात करनी ही पड़ेगी। तो वो गलत समझ रहा है। वो मेरे-इसके बीच की बात है। वो हर जगह नहीं लागू होती।

कोई रहा होगा, जिसे इस तरह से समझाने की जरुरत है, कि कुण्डलिनी होती है। वो कोई सार्वभौमिक सत्य थोड़ी न हो गया।

श्रोता १४: नहीं, जो ओशो ने बात की है, उन्होंने एक सी ही बात की है।

वक्ता: उन्होंने एक जैसी बात की है, क्योंकि वो एक ढ़र्रे पर चल रहे हैं। वो एक पंथ के हैं, एक सिलसिले के हैं। वो एक सिलसिले के हैं। तो मुझे बताइए, बाकी ज्ञानियों को यह सत्य क्यों नहीं अनुभव हुए?

श्रोता १४: नहीं, कबीर साहब की वाणी में है, उन्होंने पूरा रास्ता दिखाया है।

वक्ता: कबीर ने कभी नहीं रास्ते दिखाए, इनका जिक्र ज़रूर करा है, पर कभी रास्ते-वास्ते नहीं दिखाए। कबीर तो हमेशा पोंगा पंडितों के खिलाफ़ खड़े थे।

श्रोता १४: यह पंडितों की बात नहीं है। उन्होंने अंतर-यात्रा पर बोला है।

वक्ता: कभी नहीं बोला। आप मुझे बताइए कौनसा दोहा है कबीर का?

श्रोता १४: ‘उल्टा कुआँ गगन में’।

वक्ता: इसका क्या अर्थ है, ‘उल्टा कुआँ गगन में’?

श्रोता १४: विवरण है उलटी यात्रा का।

वक्ता: यह आपको किसने अनुवादित करके बताया है कि इसका यह अर्थ है? अब मैं आपको इसका दूसरा अर्थ बता दूँ अभी तो? ‘उल्टा कुआँ गगन में’, इसका अर्थ ही बिलकुल अलग है। गगन क्या होता है? कबीर गगन मंडल का इस्तेमाल सिर्फ एक बात के लिए करते हैं, क्या है वो?

श्रोता ९: चिदाकाश।

वक्ता: तो उल्टा कुआँ क्या है? कुआँ क्या है? घट?

श्रोता ९: घट।

वक्ता: हाँ। घट क्या है? अपने अन्दर, अहम्। तो, ‘उल्टा कुआँ गगन में, इसका क्या अर्थ है?

श्रोता ९: मतलब घटना उल्टी है।

वक्ता: उसका अर्थ बिलकुल वही है, जो थोड़ी देर में इसमें आने वाला है, कि एक पेड़ जिसकी जड़ें ऊपर की तरफ हैं और पत्तियाँ नीचे की तरफ हैं।

श्रोता १४: ‘उसमें जरै चिराग।’

वक्ता: चिराग का क्या अर्थ है?

श्रोता १४: मतलब एक ज्योति।

वक्ता: कौन सी ज्योति?

श्रोता १४: ज्योत जैसे एक…

वक्ता: क्योंकि गगन जो है, गगन में, कोई ज्योति भी नहीं होती, कोई अंधेरा भी नहीं होता है। ज्योति से मतलब है, आपकी अपनी चेतना। इसमें मुझे बताइए, चक्र कहाँ आया, और कुण्डलिनी कहाँ आई?

बात बिलकुल ठीक है, गगन मंडल में, उल्टा कुआँ है, उसमें ज्योति जल रही है, लेकिन इसमें चक्र और कुण्डलिनी कहाँ हैं?

श्रोता १४: जैसे शरीर में प्रतिबिंब है, शरीर के अन्दर हमारे। अस्तित्व के प्रतिबिंब शरीर में भी हैं, अंड में भी है।

वक्ता: संसार के हैं, अस्तित्व के नहीं। संसार के हैं।

श्रोता १४: सत्य के।

वक्ता: सत्य के नहीं, संसार के।

श्रोता १४: संसार के, कैसे कह सकते हैं?

वक्ता: सत्य तो परम शून्य है।

श्रोता १४: सत्य परम शून्य है।

वक्ता: हाँ। उसके कौन से प्रतिबिंब?

श्रोता १४: पर उसका प्रतिबिंब बाकियों में पड़ता है।

वक्ता: किसी में नहीं पड़ता। सत्य परम शून्य ‘है’, बस है। उसका कोई प्रतिबिंब नहीं है। शून्य माने क्या? शून्य माने क्या?

श्रोता १४: जो नहीं है।

वक्ता: जो कुछ नहीं है। जो कुछ नहीं है, उसकी छाया हो सकती है?

श्रोता १५: एक गुरु नानक देव जी के साथ में आता है,

‘हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ।

नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ।।’

वक्ता: बहुत साधारण सी बात है ये, कि उसी में सब कुछ है, और उसके बाहर कुछ नहीं है। जो इस बात को बूझ जाए, वो सब कुछ जान गया। इतना ही कह रहे हैं वो, कि समस्त द्वैत जो तुम देख रहे हो, उसका आधार वही है। और क्या कह रहे हैं? इसमें कहाँ कोई चक्र या ऐसी कोई बात कहाँ है?

संतों ने तो बहुत सरल बातें कही हैं। कुछ उन्होंने कभी टेढ़ा-टपरा करा ही नहीं। टेढ़ा-टपरा आदमी का मन कर देता है उसको। नानक जब बोल रहे हैं, तो बड़े सरल मन से बोल रहे हैं।

श्रोता १४: कबीर साहब की बड़ी मोटी किताबें हैं।

वक्ता: हैं ही नहीं इतनी किताबें।

श्रोता १४: कबीर सागर, अनुराग सागर, यह अनंत सागर, कई सागर बने हैं।

वक्ता: यह सब जितना आप बोल रहे हैं.., कबीर का जो प्रमुख ग्रन्थ है, ‘बीजक’, उसी में डूब जाइए, उतना बहुत है। फिर उसके बाद बाकी यात्राएँ करियेगा। तब मज़ा आएगा। आपने जो सारे जो इधर-उधर के हैं, उनके नाम ले लिये। जहाँ पर कबीर की आत्मा बैठी हुई है, उसका नाम तो लीजिये पहले।

श्रोता १४: हतरस एक सूफी थे। तुलसी साहब के नाम से जाने जाते हैं। अब उनकी वाणी है, घट रामायण है। अब घट रामायण बिलकुल समझ में ही नहीं आती।

वक्ता: किसी से बोली होगी, जो समझता होगा। निर्भर करता है ना, किससे बोली है?

श्रोता १४: शेख़तकी को उन्होंने ज्ञान दिया था।

वक्ता: हाँ, तो बस यही है। शेख़तकी को समझ में आती होगी वो रामायण। हमारे-आपके लिए फिर नहीं बोली गई थी ना। वो किसी और के लिए बोली गई थी। उसको आती है समझ में।

श्रोता ८: सर, ऐसा वाकई होता है? कोई अन्दर की बात करता है, तो वो तो सबको समझ में आनी चाहिए?

वक्ता: कैसे आएगी? भाषा तो आपके मन पर निर्भर करेगी ना? यहाँ पर कुछ बैठे हैं जो, बाप या माँ हों, अभिभावक हों? बच्चों से आप जो बात करते हैं, वो सब समझ जाते हैं क्या?

श्रोता ८: सारा कुछ नहीं समझते, जो हमें पता है…

वक्ता: और आपके बच्चे को पता है। कैसी बातें चलती हैं? *(*बच्चे की तोतली भाषा का विवरण देते हुए) ‘यु मोय कॉम अत तोय’ आप समझ के बताइए? माँ समझ गई, बच्चा समझ गया। आप समझ के बताइए? पर माँ भी समझ गई, बच्चा भी समझ गया। दोनों खुश हैं। आप बताइये समझ के? उसको बोलते ही हैं, ‘मदरइस्क’। माँ समझ गई, बच्चा समझ गया, तीसरा नहीं समझ सकता। तीसरे को लगेगा, क्या…? फ़ालतू!

जिन दो की बात है, वही दो समझ सकते हैं ठीक-ठीक। कृष्ण-अर्जुन की बात है, वही दोनों समझेंगे। इसीलिए गीता हमें समझ में नहीं आती। बोली अर्जुन से गई थी। वो क्षत्रिय था। तो उसको उत्तेजित करने के लिए सत्तर बार बोल रहे हैं कि ‘अपने धर्म का पालन करो, क्षत्रिय हो।’ आप क्षत्रिय हैं? तो आपको कृष्ण की बात कहाँ समझ आएगी? आप अर्जुन हैं? नहीं हैं। आपकी हैं दो-चार बीवियाँ? नही हैं।

कोई अन्य श्रोता: आप उस परिस्थिति में भी नहीं हो।

वक्ता: आप उस स्थिति में हैं? नहीं हैं।

श्रोता १४: आप जो मार्ग बता रहे हैं, वो सरलतम है। पर बाकी जितने सूफियों की किताबें हैं, वो चेतावनी देती हैं कि…।

वक्ता: कौन सी किताब? लाइए तो, देखें हम। लाइए देखते हैं, कहाँ पर इस तरीके की.. खतरनाक।

श्रोता १४: मेरे पास बहुत सी किताबें ऐसी हैं, जो समझ ही नहीं आतीं।

वक्ता: आपने यही किताबें क्यों चुनी? यह तो बताइए?

श्रोता १४: मेरे हाथ जो लगी, ले ली। कबीर साहब क्या थे? कौन थे? कैसे थे? यह भी उन्ही को…

वक्ता: कबीर तो मैं भी पाँच साल से पढ़ रहा हूँ, बल्कि और पहले से भी। मुझे कभी कबीर में कोई जटिलता दिखाई ही नहीं दी।

श्रोता १४: अभी जो हमारे गुरुओं ने जो मार्गदर्शन दिए हैं, उससे तो कबीर साहब समझ आ रहे हैं, लेकिन…

वक्ता: कबीर, जन-मानस से बोलते थे, कबीर ने ज़िन्दगी में नहीं सोचा होगा कि मैं जो बोल रहा हूँ, उसपर भी टिप्पणी की ज़रुरत पड़ेगी।

श्रोता १४: क्या ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं होगा, जो कबीर साहब ने खुद लिखा हो?

वक्ता: दूसरों ने ही लिखा है, पर इतना तो हम मान ही सकते हैं कि जो लिखा है, वो ठीक लिखा है। कबीर के ही वचन हैं। अब यह भी मान लें, कि उसमें भी कोई प्रक्षेपण है, तो अलग बात है। तो कबीर जब बोल रहे हैं, तो वो तो सीधा-सीधा संवाद है। या कबीर ने यह सोच के कहा कि ‘पहले मैं बोलूं, फिर बीच में मध्यस्थ व्यक्ति चाहिये, जो मेरी बात का अनुवाद करे, और तब मेरी बात समझने योग्य बनेगी’? कबीर किस दृष्टी से बोल रहे हैं? कबीर सीधी बात आपके सामने रख रहे हैं। ‘यह रही बात, समझो।’ इसमें कहाँ कुछ टेढ़ा-टपरा है? कुछ टेढ़ा है ही नहीं। सब सरल है।

श्रोता १०: चाय पीते-पीते।

वक्ता: हाँ। चाय पी रहे हैं, कुछ बात हुई, बोल दिया। अब वो अनुवादक थोड़े ही ना बैठा कर रखे हैं।

श्रोता १४: एक रामपाल जी, गुरु जी हैं।

कोई अन्य श्रोता: *(*हँसते हुए) : रामपाल जी?

श्रोता १४ : हाँ, रामपाल जी। वो कहते हैं, कबीर साहब जी सदा ही एक्सिस्ट(exist) करते हैं। वो आज भी हैं।

वक्ता: बिलकुल हैं। पर वो कौनसे कबीर हैं?

श्रोता १४: कवि हैं। वो कहते हैं, कवि। कवि को ही कबीर। वो अपने सद्गुरु मानते हैं।

वक्ता: अरे! कवि नहीं हैं कबीर! कबीर अल्लाह के नामों में से एक है।

श्रोता १४: अलग-अलग युगों में, जब भी उनका जिक्र आया है।

वक्ता: वो भी बहुत सरल सी बात है। अभी हमने कहा कि ‘जो जाने वही बुद्ध है।’ तो वो वही बात है कि जो जाने वही कबीर है। ठीक जैसे, जो जाने वो बुद्ध, वैसे ही जो जाने वो कबीर। इसका यह थोड़ी मतलब है कि कबीर कहीं बैठे हुए हैं, जैसे अश्वस्थामा को मिला था कि ‘ससुरे कभी मरोगे नहीं’, तो लोग कहते हैं कि वो फलानी गुफा में अभी भी बैठा हुआ है। तो वैसे ही कबीर कहीं बैठे हुए हैं और…

श्रोता १४: इनको याद करने से, इनकी तरंगे आ जाती हैं।

वक्ता: महाशय! तरंगित होना एक भौतिक घटना है। जो कबीर अभी हैं, वो शारीरिक नहीं हैं कि वो आपको एक भौतिक तरंग भेजेंगे! तरंग क्या है? ‘वाई इज़ इक्वल टू साइन एक्स प्लस टी’, एक भौतिक घटना है। कबीर कैसे पैदा करेंगे, मुझे बताइए? कैसे?

मैं पानी में पत्थर मारुँ, तो तरंग उठती है। कबीर कैसे तरंग उठाएँगे? कहाँ पत्थर है, जो कबीर मारें कि पानी में तरंग उठे?

श्रोता १४: कोई कबीर साहब को याद करे, संतों को याद करे, बैठे ध्यान में।

वक्ता: जब आप कबीर को याद करते हैं, तो वो आत्म-स्मरण है। आप कबीर को नहीं याद करते, आप कबीर के माध्यम से अपने आप को याद करते हो। तो किसी के माध्यम से याद करो, या सीधे ही याद कर लो, एक ही बात है। जब आप कबीर को याद करते हो, जब आप यहाँ बैठते हो।

हमने कबीर पर खूब चर्चाएँ करी हैं? तब हम क्या कहते हैं? हम कबीर को याद कर रहे हैं, या खुद को देख रहे हैं? तो कबीर जो आज हैं, वो कबीर हैं, हमारा सत्व, हमारा होना, हमारा गुरु, हमारा आत्मबोध । पहली बात तो यह है कि हमारे अलावा और कोई सत्य है नहीं। जो हमें हम तक वापस न ला पाए, वो मामला ही गड़बड़ है।

जीवन भर कबीर क्या बोलते रहे? ‘अपना आप पहचान, अपना आप पहचान’;

आया था किस काम से सोया चादर तान ।

सूरत संभाल ए गाफ़िल, अपना आप पहचान ।।

या कबीर यह बोल रहे थे कि ‘मेरे को पहचान’? कबीर क्या बोल रहे थे? ‘अपना आप पहचान’, या यह बोल रहे थे कि ‘मेरे को पहचान’?

श्रोता १४: अपना आप पहचान।

वक्ता: अपना आप पहचान माने क्या? आत्मबोध, सेल्फ़ अवेयरनेस। सारा चक्कर सेल्फ़ अवेयरनेस का ही है। उसमें कबीर कही नहीं खड़े हैं। कबीर का कोई प्रयोजन नहीं हमसे। कबीर कह रहे हैं, ‘खुद को जानो। अपनी दृष्टि से देखो।’

’संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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