प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रश्न है कि – साधक की यात्रा में अच्छे और सुन्दर कपड़े किस सीमा तक महत्व रखते हैं?
आचार्य प्रशांत:
हर वो चीज़, जो तुमको तुम्हारे नियमित जगत से आगे की याद दिलाती हो, उपयोगी है।
मन का बड़ा स्वार्थ है ये मानने में कि जो दुनिया उसने अपने लिए रच ली है, वो दुनिया ही सत्य है। आवश्यक होता है मन को निरंतर यह अहसास देते रहना, ज़रा चोट देते रहना कि – तुम्हारी दुनिया से आगे भी एक दुनिया है, और न सिर्फ़ तुम्हारी दुनिया से अलग है, बल्कि तुम्हारी दुनिया से ऊँची है, श्रेष्ठ है।
यही वजह थी कि परम्परा रही कि मंदिर जाओ, तो पहले कुछ तैयारी करके जाओ। तुम्हें बताया जा रहा था कि जिस जगह जा रहे हो, वो जगह कुछ ख़ास है। अभी भी देश में कई मंदिर हैं, जहाँ आपको जाना हो, तो पहले एक माह का व्रत रखना पड़ेगा। कभी एक माह, कभी दस दिन।
तुम्हारी अपनी दुनिया में भी अगर तुम किसी ऊँचे व्यक्ति के पास जाते हो, तो इच्छा उठते ही तुम तत्काल तो नहीं पहुँच जाते। पहले तुम उससे समय माँगते हो, महीने भर पहले से तैयारी करते हो। और ये सब जब होता है, तो तुम्हें अहसास रहता है कि जिससे तुम मिलने जा रहे हो, वो विशिष्ट है। तुम्हारी ही टोली, या तुम्हारे ही समुदाय का नहीं है, कि जब मन किया गए, खटखटाया, और गपशप कर आए।
तो फिर मंदिरों से सम्बन्धित, पर्वों से सम्बन्धित, शास्त्रों से सम्बन्धित, गुरुओं से सम्बन्धित, नियम बाँधे गए। शास्त्र भी अगर पढ़ने बैठना है, तो ये नियम क़ायदे हैं, इनका पालन करो। मंदिर अगर जाना है, तो ऐसे-ऐसे कपड़े पहनकर ही जा सकते हो, बिना स्नान किए नहीं जा सकते। अब पूछो तुम कि – “सत्य तो निराकार ब्रह्म है, और ये तन तो वैसे भी मिथ्या-माया है। निराकार ब्रह्म को इससे क्या ताल्लुक होने लगा, कि तुम माटी के इस तन को स्नान करा रहे हो, या नहीं करा रहे हो?” पूछो।
निराकार ब्रह्म को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पर अध्यात्म इसीलिए थोड़े ही है कि निराकार ब्रह्म को कोई फ़र्क़ पड़े। अध्यात्म तो इसीलिए है ताकि तुम्हारा भला हो। और तुम्हारी भलाई इसी में है कि – तुम अपनी दुनिया से आगे भी किसी को ख़ास मानो। और अगर ख़ास मानोगे, तो उसके साथ ख़ास व्यवहार भी करोगे। उस ख़ास व्यवहार में वस्त्र भी समाहित हैं। वस्त्रों का भी ख़याल रखना पड़ता है।
वस्त्रों का अपने-आप में कोई महत्व नहीं है। लेकिन वस्त्र तुम्हें याद दिलाते हैं कि जो करने जा रहे हो, वो महत्त्वपूर्ण है। कभी वो वस्त्र गेरुए होते हैं, कभी काले होते हैं, कभी श्वेत होते हैं। और सब प्रकार के रंगों का अपना महत्व होता है।
हर रंग एक सन्देश होता है, हर रंग अपने पीछे एक कहानी रखता है। वो सन्देश आवश्यक है। और वो सन्देश तुम्हें याद रह जाए, इसके लिए वो वस्त्र आवश्यक है। जब तुम ऐसे हो जाओ कि सुरति अहर्निश चलती रहे, सत्य की याद निरंतर बनी ही रहे, तब फिर किसी वस्त्र आदि के सहारे की ज़रूरत नहीं है। पर जब तक वैसे नहीं हुए हो, तब तक प्रतीकों की, सहारों की, नियमों की आवश्यकता है, और उनका पालन भी किया जाना चाहिए।
तात्विक दृष्टि से देखो, तो जब द्वैत ही नहीं, तो फिर गुरु कौन, और शिष्य कौन – खेल है बस। एक प्रकार का झूठ है। लेकिन जब तुम ऐसे हो जाओ कि अद्वैत में अडिग स्थापित हो गए, अब तुम्हें कहीं ‘दो’ दिखते ही नहीं, अब तुम्हें अपने में और सामने वाले पेड़ में अंतर नज़र आता ही नहीं, तब तुम ऐसे भी हो जाना कि अब हम न शिष्य हैं, न गुरु हैं। पर जब तक ऐसे नहीं हुए हो, तब तक आवश्यक है कि शिष्य धर्म का पालन करो।
और उसमें भी वस्त्रों का महत्व है।
सिखाने वालों ने सिखाया है कि गुरु के सामने कुछ भी पहनकर नहीं पहुँच जाते। देखते ही होंगे, कि चाहे मंदिर हो, चाहे मज़ार हो, चाहे गुरुद्वारे, कहा जाता है कि अपना परिधान ज़रा शालीन रखो। अकसर ज़ोर दिया जाता है कि सिर को ढककर आओ।
कुछ तुम्हें याद दिलाया जाता है, अन्यथा सिर ढकने में वास्तव में कोई कीमत नहीं है। किसके सामने सिर ढक रहे हो – ‘उसी’ के सामने जिसने सिर दिया है? क्या करोगे पर्दा करके? बाल भी ‘उसी’ के हैं, और खाल भी ‘उसी’ की है। ‘उससे’ क्या पर्दा करना है। और ‘उसके’ सामने क्या पर्दा किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता।
पर ये बात तात्विक हो गयी। ये बात आख़िरी हो गयी। तुम्हारे लिए ये अभी ज़रूरी है कि ये तुम्हें याद रहे कि जिसके सामने तुम जा रहे हो, वो अति-विशेष है। तात्विक बात तो ये हो गयी कि जिसके सामने जा रहे हो, वो निर्विशेष है। वो ख़ास है ही नहीं। पर तुम ये मत कह देना कि – “जिसके सामने हम जा रहे हैं, वो ख़ास है ही नहीं।” तुम ये कहना, “जिसके सामने हम जा रहे हैं, वो अति-विशिष्ट है। चूँकि वो अतिविशिष्ट है, इसीलिए उसके सामने जाते वक़्त, ज़रा कुछ बातों का ख़याल रखेंगे।”
उसमें फिर बहुत कुछ आ जाता है – क्या खा रहे हो, क्या पहन रहे हो, क्या पी रहे हो, क्या सोच रहे हो। मन के साथ क्या किया है, तन के साथ क्या किया है, धन के साथ क्या किया है। जा रहे हो, तो दान भी देना। जा रहे हो, तो मन को कुत्सित विचारों से मुक्त रखना। जा रहे हो, तो तन की स्वच्छता रखना। तन, मन, धन – सब ठीक रखना। ‘उसके’ सामने जा रहे हो। क्योंकि ‘वो’ ख़ास है, क्योंकि ‘वो’ किसी और दुनिया का है।
और अगर तुमने ‘उसका’ सम्मान नहीं किया, तो तुमने अपने-आप को ये सन्देश दे दिया कि दूसरी दुनिया या तो है नहीं, या अगर है भी, तो ख़ास नहीं है। और अगर दुनिया दूसरी है नहीं, और अगर है भी, तो ख़ास नहीं, तो फिर तुम दूसरी दुनिया तक पहुँचोगे कैसे? फिर तो तुम इसी दुनिया में फँसकर रह जाओगे न?
तुम्हारे भीतर भवसागर पार करने की प्रेरणा उठे, इसके लिए आवश्यक है न कि उस दूसरे किनारे की महिमा का भी तो तुम्हें कुछ पता हो। तुम इस किनारे से उस किनारे पहुँच सको, उसके लिए आवश्यक है न कि इस किनारे के प्रति तुममें कुछ प्रेम हो, कुछ सम्मान हो।
समझ रहे हो?
इसीलिए साधना में कुछ नियम-क़ायदे होते हैं, ताकि तुम्हें ये बार-बार याद दिलाया जा सके कि वो जो दूसरा किनारा है, उसकी महिमा न्यारी है। “क्या गौरव है उसका!” ताकि तुम्हें आकर्षित किया जा सके, ताकि तुम्हारा सिर झुका रहे। और तुम ‘उस’ दूसरे को, अपने से ऊपर मानते रहो।
अपने से ऊपर मानोगे, तभी तो उस तक पहुँचना चाहोगे न !