आदतें स्वभाव नहीं होती || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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आदतें स्वभाव नहीं होती || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: मन की हमेशा से एक आदत होती है कि एक तरह के तौर तरीके से चलना। तो ये बीमारी है या स्वभाव है मन का?

वक्ता: आदत है, स्वभाव नहीं। मन की प्रकृति है और प्रकृति में आप जानते ही हैं कि तमों गुण भी होता है। तीन गुण होते हैं न प्रकृति के। तो वही बंधे-बंधाए ढर्रों पर चलते रहना, उनको परिवर्तित ना होने देना, मन के तामसिक होने का सूचक है बस। स्वभाव वगैरह कुछ नहीं, आदत है।

श्रोता: सर जब बोला जाता है कि संसार के पार जाने वाला मार्ग संसार से ही होकर जाएगा तो ये होता तो इन्द्रियों से ही है पर जब भी मन कुछ असली देख लेता है तो डर के मारे उस राह से पीछे हट जाता है।

वक्ता: जिज्ञासा गहरी हो। इमानदारी से जानने की गहन उत्सुकता हो। उस गहन उत्सुकता को फिर मुमुक्षा कहने लगते हैं। जिज्ञासा गहरी हो। जब जिज्ञासा बहुत गहरी होती है, तो डर से बड़ी शक्ति बन जाती है। देखा नहीं है आपने? करे नहीं है ऐसे काम, जो करते हुए डर लग रहा था? पर बड़ी जिज्ञासा थी कि मामला क्या है, तो कर गए, भले ही वहाँ खतरा था। और वहाँ कोई आध्यात्मिक प्रश्न नहीं था। कोई सांसारिक सी बात थी। लोग कैसे–कैसे खतरे उठा लेते हैं। जब संसार में भी कोई बहुत प्रिय लगने लगता है, तो उसके समीप आने के लिए, उसको जानने के लिए आप कैसे-कैसे खतरे उठा लेते हो। उठाते हैं कि नहीं? तो आप जानते हो खतरे उठाना। उठाओ।

जब जिज्ञासा इतनी गहरी होगी तो आप कहोगे, “अब पता तो लगाना ही है भले ही उसमें खतरा हो।” जैसे कि कोई जासूस, जो कोई राज़ खोलना चाहता हो। तो उसके लिए वो पहुँच जाएगा किसी खतरनाक जगह पर। किसी कातिल के घर पर भी, रात के अँधेरे में। उसे राज़ खोलने हैं। जान का खतरा है, मारा जा सकता है, पर पहुँच जाता है न। पहुँचता है कि नहीं? आपने भी रात के गहरे अंधेरों में कुछ राज़ फाश किये होंगे। कुछ रहस्यों पर से परदे उठाए होंगे, और वहाँ बड़ा खतरा रहता है – क्या पता क्या हो जाए? प्रेमीजनों से पूछिए। पर शरीर की ही इतनी उत्सुकता रहती है कि आप शरीर के भय के आगे निकल जाते हैं। आप कहते हो कि अब जो होगा सो देखा जाएगा और जाने बिना मन मानता नहीं। किये बिना, पाए बिना मन मानता नहीं। अब भले ही उसमें पीटे जाओ, कि टांग तोड़ी जाए, कि जान से जाओ, पर दिल है कि मानता नहीं।

संसार की, वस्तुओं की, देह की आसक्ति में जब इतना दम हो सकता है, तो तुम्हारी सत्य की जिज्ञासा में इतना दम क्यों नहीं हो सकता कि अब जो खतरा आता हो, आए, जो महल टूटते हों, टूटे, पाँव के नीचे से ज़मीन सरकती हो, सरके, जीवन का आधार दरकता हो, दरके, जो बात है, वो तो जान के रहूँगा? अपनेआप को और भुलावे में नहीं रखूँगा।

एक ज़रा सी ईमानदारी ही तो चाहिए।

श्रोत: सर, ये जिज्ञासा अहंकार ही नहीं कर रहा?

वक्ता: उसी सवाल पर वापिस जाओ जिसका थोड़ी देर पहले प्रश्न किया था।

अहंकार ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहता, जो उसी के लिए मौत बन जाए। अहंकार के लिए बहुत ज़रूरी होता है प्रतखता बनाके रखना। प्रतखता का अर्थ हुआ अपनेआप को संसार से अलग बना के रखना। “मैं बचा रहूँ। उसके बाद मेरा दुनिया से सम्बन्ध रहे, पर सम्बन्ध ऐसे नहीं हो सकते कि जिसमें मैं ही मारा जा रहा हूँ। मैं बचा रहूँ। सम्बंधित तो रहूँ पर बचा रहूँ। जानूं तो, पर वो सारी जानकारी मुझे संवर्धित करने वाली हो, ख़त्म करने वाली नहीं।

अहंकार जो कुछ भी करता है, अपने पोषण के लिए ही करता है। जब जानने में तुम्हारी आत्म छवि को ही खतरा हो, तब जानना अहंकार नहीं है। तब जानने की कोशिश अहंकार नहीं है। तब वो प्रेरणा कहीं और से आ रही है। अभी हम थोड़ी देर पहले सवालों की बात कर रहे थे। तुम यूँ ही मज़े में बैठे रहकर, अपने आराम में स्थापित रहकर कोई प्रश्न पूछ दो, वो प्रश्न मात्र एक बौद्धिक खुजली है। उसकी कोई कीमत नहीं। एक सवाल वो भी होता है लेकिन जिसको पूछते हुए जबान कांपती है और शरीर थरथराता है क्योंकि इस सवाल का जवाब तुम्हारी जड़ों को हिला सकता है। इस सवाल की कीमत है।

साफ़ सुन्दर कमरा है, सुबह का समय है। माहौल अच्छा है, शान्ति है। सब बढ़िया-बढ़िया है और तुम बैठे पूछ रहे हो-“आत्मा क्या है? क्या आत्मा और ब्रहम एक है? ज़रा माया के बारे में कुछ बोलिए।” ये सब व्यर्थ के प्रश्न हैं। ये तो तुम अपने मन को भरना चाहते हो। अहंकार और सूचनाएं इक्ख्ट्टी कर रहा है। इन प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं है। एक सवाल आता है, जो अपने जीवन से उठता है-जिसके बारे में मैंने कहा कि उसको पूछते हुए जबान लड़खडाती है और देह कांपती है। उस सवाल का महत्व है क्योंकि वो सवाल अब किसी बाहरी वस्तु के बारे में या विचार के बारे में नहीं है, वो सवाल अब अपने बारे में है। तुम्हारे जीवन में एक ख़ास घटना घट रही है, तुम अपनी ओर मुड़ रहे हो इसीलिए अहंकार यूँ थर-थर काँप रहा है।

तुमने पूछा है कभी ऐसा सवाल कोई? जिसको पूछने में तुम्हारी पूरी जान लग जाती हो? जिसको पूछने के विरुद्ध तुम्हारे पास हों बड़े तर्क। तुमने नहीं पूछा। सच तो ये है कि ऐसे सवालों से तुमने हमेशा किनारा किया है। एक दफा मैंने कहा था कि –

*सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न वो होते हैं, जो कभी पूछे ही नहीं जाते। और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न वो होते हैं जिन्हें हमें अपने अंतरस्थल में दमित करके दफन कर रखा होता है। हमारी हिम्मत ही नहीं होती पूछने की।*

गुरु से ही नहीं, जिनको तुम अपना प्रेमी कहते हो उनसे भी तुम वो सवाल कभी नहीं पूछ पाते जो तुम्हारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। पूछ ही नहीं पाते। वो बातें कभी कह ही नहीं पाते, जो सबसे गहरी हैं। कहीं न कहीं जानते हो कि ये सवाल पूछ दिया तो कुछ बचेगा नहीं। दोस्तों से, या माँ-बाप से, या पत्नी से या किसी से भी अगर ये बात छेड़ दी, तो फिर ये रिश्ता ही ख़त्म हो जाना है। सच नंगा होके उघड़ जाएगा। समस्त तथ्य अनाव्रत हो जाएँगे। जिस झूठ की बुनियाद पर ये रिश्ता है, वो झूठ ही ख़त्म हो जाएगा यदि ये सवाल पूछ दिया। पूछोगे नहीं। पर उसी सवाल की कीमत है। वो सवाल अहंकार को संवर्धित नहीं कर रहा, पुष्ट नहीं कर रहा। वो सवाल तो अहंकार पर वार है। वो साधारण सवाल नहीं है।

वो सवाल समझ लो कि उतना ही गहरा है कि जैसे किसी ऋषि से उसका शिष्य जिज्ञासा कर रहा हो कि सत्य के बारे में कुछ कहें। उसने उन शब्दों में कहा कि गुरुदेव सत्य के बारे में कुछ कहें। और गहरी है उसकी जिज्ञासा। हो सकता है कि तुम किन्हीं दूसरे शब्दों में कह रहें हो। तुम्हारी भाषा उतनी परिवर्धित, रिफाइंड न हो जितनी उस शिष्य की है। तुमने तो ईमानदारी से बस अपने प्रेमी जन से बस इतना ही पूछ लिया-कि “मैं बदल जाऊं, तो भी तू साथ रहेगा?” पर तुमने पूछा वही है। तुमने जिज्ञासा वही करी है, जो जिज्ञासा उपनिषद की है। उतनी ही गहराई से वो जिज्ञासा निकल रही है। एक ही जिज्ञासा है।

वहाँ पर शिष्य गुरु से पूछ रहा है-“नित्य क्या है? सत्य क्या है? क्या है जो समय के पार है?” तुम नहीं जानते इस भाषा को तो तुमने बस ये पूछ लिया कि, “मैं बदल जाऊं, तो भी तू साथ रहेगी?” पर पूछा तुमने भी वही है कि नित्य क्या है? और जब ये पूछोगे तो कांपोगे क्योंकि जानते हो कि अगर उसने ईमानदारी से जवाब दे दिया, तो बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। ईमानदार जवाब तो यही होगा कि-“बदल जाओगे तो मुझे कहीं नहीं पाओगे। बदल मत जाना।” और जानते हो तुम अच्छे से कि बदलना तुम्हारी प्रकृति है। बदलोगे तो है ही। और दे दिया उसने ईमानदार जवाब कि बदलोगे तो मुझे कहीं नहीं पाओगे। और तुम जानते हो कि प्रतिक्षण बदल रहे हो तो रिश्ता उघड़ गया, नंगा सच सामने आ गया। अब कहाँ मुंह छुपाओगे, इसीलिए ये सवाल पूछोगे नहीं।

ये मत सोच लेना कि ये दूसरा सवाल अहंकार से निकल रहा है। और प्रयोग करना हो तो इस तरह के कुछ सवाल पूछ कर देख लो। इन सवालों को जानते बखूबी हो। हम सब जानते हैं कि वो कौन से सवाल हैं, जो नहीं पूछने हैं। जानते हैं कि नहीं? उनको पूछ के देखो कि अहंकार और रस पाता है या बिखर जाता है। एक सूची बनाओ न कि कौन-कौन सी बातें हैं, जो किससे-किससे नहीं करनी हैं। कौन-कौन से सवाल हैं जो किससे नहीं पूछने हैं। एक बड़ी मजेदार बात सामने आएगी-

जिन लोगों से तुम्हारा कोई विशेष लेना देना नहीं, उनके नाम उस सूची में होंगे ही नहीं।

मैं कहूँ उनके नाम लिखो जिनसे ये सवाल नहीं पूछने हैं और फिर वो सारे सवाल लिखो, जो उन व्यक्तियों से नहीं पूछने हैं। उस सूची में उन लोगों के नाम ही नहीं होंगे, जो तुम्हारे लिए महत्व ही नहीं रखते, जिनका तुम्हारे जीवन से कोई वास्ता नहीं है। ये खतरनाक सूची है न। इस सूची में तुम उनका नाम लिख रहे हो, जिनसे तुम बात नहीं कर पाते।

तुम ये पाओगे कि जो लोग तुम्हारे जीवन में जितनी गहराई से बैठे हुए हैं, उन लोगों के नामों के आगे सवालों की फेहरिस्त उतनी ही लम्बी है। यहीं से शुरुआत कर लो। इसी को कह रहा हूँ ईमानदारी से शुरुआत कर लो। मियाँ-बीवी अगल-बगल बैठे हुए हैं। बातें क्या हो रही हैं? “पॉप-कोर्न खाएगी?” वो पूछ रही है कि, “वो आज शाम बाहर चलना है?” दोनों अच्छे से जानते हैं कि ये बातें व्यर्थ की हैं। असली मुद्दे कुछ और हैं । क्यों व्यर्थ की बातें कर रहे हो बैठ के? इन बातों का क्या प्रयोजन है?

असली बात पूछो। भले ही उसकी भाषा आध्यात्मिक न हो, पर वो सवाल आध्यात्मिक होगा। असली बात, खरी बात।

श्रोता: सर, कभी-कभी ऐसा होता है कि ऐसे ईमानदार सवाल आपकी तरफ आते हैं और जिस क्षण आते हैं, तो उस वक़्त तो आपको तुरंत जवाब मिल जाता है, ईमानदार जवाब। उसके बाद आपके अन्दर एक बहुत बड़ा प्रतिरोध आता है। जो आपने अभी-अभी समझाया, उसके खिलाफ भी आता है। तो जो आपको समझ में भी आ रहा होता है, वो भी ढकने लगता है।

वक्ता: न, ईमानदारी नहीं है। जिसे जानना होगा, जो आवरण को हटाएगा, उसे यदि नीचे कोई विकृति की कुरूपता दिख जाए, तो आवरण को जल्दी से वापिस नहीं रख देगा। उसे ये पता होगा कि अभी पूरा जाना नहीं। और उसे ये भी पता होगा कि अब देख तो लिया ही है। अब दुबारा पर्दा करने से होगा क्या? राज़ खुल तो गया ही है। तो अब ज़रा पूरा ही खुल जाने दो। अब चाह करके भी पुराने भ्रमों को कायम तो रख नहीं पाऊँगी। दिख तो गया ही है, तो ज़रा पूरा ही देख लें क्योंकि न देखने से अब कोई लाभ तो नहीं। अब ये तो कह नहीं पायंगे कभी कि नहीं जानते। जान तो गए हैं। जब जान गए ही हैं, तो पूरा ही जान लेते हैं।

श्रोता: पर आप जानना नहीं चाहते थे, आपको ज़बरदस्ती दिखाया है।

वक्ता: अब दिख तो गया न। क्या करोगे? कहाँ जाओगे? देखे को अनदेखा कर दोगे? दिखा दिया परिस्थितियों ने, कि सत्य न या परमात्मा ने, या गुरु ने ज़बरदस्ती दिखा दिया-यही लोग हैं जो ये सब काम करते हैं। तुम्हारा बस चले तो सच्चाई की ओर काहे को देखो कभी? सपनों में व्यस्त रहो कि यही है सच्चाई। पर धोखे से कभी-कभी सत्य का साक्षात हो जाता है। दिख तो गया न।

दूध में मक्खी है। अब जल्दी से नज़र फेर भी लोगे तो क्या होगा? मक्खी है। और ये बात तुम जान गए हो। तो अब ज़रा ठीक से देख लो ताकि जान पाओ कि आगे क्या कर सकते हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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