आचार्य प्रशांत: अब किसी के जीवन के सारे ढर्रे ही तनाव, ऊब, बैचैनी से भरे हुए हैं और वो कहे, ‘मुझे सिगरेट छोड़ देनी है’। सिगरेट की आदत छूटेगी नहीं क्योंकि आपके पास पाँच और आदतें हैं जो सिगरेट को आमन्त्रित करती हैं। जब तक आप उन पाँच और आदतों को भी नहीं छोडे़ंगे, सिगरेट अकेले को कैसे छोड़ देंगे!
तो कुछ ऐसा करना पड़ेगा जो पुराने ढर्रों के मध्य एक अराजकता ला दे। कुछ डिस्रप्टिव (विनाशकारी) होना चाहिए। फिर तो ये छूटेंगे ढर्रे अन्यथा बहुत सारी विधियाँ हैं, आदतें बदलने की, पैटर्न्स तोड़ने की, वो आज़माते रहो, उनसे थोड़ा बहुत लाभ होता है कुछ काल के लिए और फिर वही ढाक के तीन पात। कई बार जिस जगह पर रह रहे हो, उस जगह को बदलना कारगर हो जाता है। कई बार आगे की पढ़ाई करना, नया ज्ञान लेना, किसी नए कोर्स (पाठ्यक्रम) इत्यादि में प्रवेश ले लेना सहायक हो जाता है। कई बार अपनेआप को एक चुनौती भरा लक्ष्य दे देना सहायक हो जाता है।
पर जो भी कुछ जीवन में लाओ तो इतना चुनौतीपूर्ण, इतना आवश्यक, इतना अपरिहार्य होना चाहिए कि उसके आगे पुराना सबकुछ फीका लगे, तब तो पुराने से मुक्ति मिलेगी, नहीं तो नहीं मिलेगी। सतही और कृत्रिम बदलाव बहुत गहरे नहीं जाते, दूर तक भी नहीं जाते। अपनेआप को एक बड़ा लक्ष्य दो। बड़ा लक्ष्य भी देने भर से काम नहीं चलता, बड़े लक्ष्य को न पाने की पेनल्टी , क़ीमत, दंड भी बड़ा होना चाहिए। नहीं तो, फिर तो भीतर जो हमारे बन्दर बैठा है उसके लिए आसान हो गया न, अपनेआप को बड़ा लक्ष्य देते रहो बार-बार, बार-बार और हासिल उसे कभी करो मत। बेशर्म बन्दर है, फ़र्क उसे पड़ता ही नही। वो कह देगा, ‘हाँ, मैने फिर लक्ष्य बनाया और फिर मात खायी, कोई बात नहीं।’
लक्ष्य भी बड़ा हो और लक्ष्य से प्रेम इतना हो, लक्ष्य का महत्व इतना समझ में आता हो कि लक्ष्य को न पाने का विचार ही बड़ा डरावना हो।
साफ़ पता हो कि जीवन बड़ी पेनल्टी लगाएगा अगर जो लक्ष्य बनाया है, उसको पाया नहीं तो। हम लोग यही भूल कर जाते हैं। संकल्प तो बड़े बना लेते हैं पर बड़ा संकल्प बनाने से काम नहीं चलता, अपनेआप को सज़ा भी देनी पड़ती है अगर संकल्प पूरा न हो तो।
संकल्प पूरा नहीं कर पाए और अब अपनेआप को सज़ा नहीं दी तो फिर क्या है, फिर तो मौज है! ऊँचे-ऊँचे संकल्प बनाने का श्रेय भी लेते रहो और आलसी रह गए, निखट्टू रह गए, ढीले रह गए, कोई दृढ़ता नहीं दिखायी, इसकी कोई सज़ा भी मत भुगतो। नहीं, सज़ा तुम्हें अपने लिए स्वयं निर्धारित करके रखनी पड़ेगी पहले से।
आमतौर पर सबसे बड़ी सज़ा तो प्रेम ही होती है। कुछ अगर ऐसा लक्ष्य बनाया है जिसके प्रति बड़ा समर्पण है, बड़ा प्रेम है तो यही अपनेआप में सज़ा बन जाती है कि जिससे प्रेम था उसे पाया नहीं।
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