आचार्य प्रशांत नहीं हैं एन्लाइटेंड (enlightened)? || (2020)

Acharya Prashant

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आचार्य प्रशांत नहीं हैं एन्लाइटेंड (enlightened)? || (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी। मैं आइआइटी कानपुर से हूँ, और जीवन के प्रति एक तर्कवादी रवैया रखता हूँ, चीज़ों को समझने की कोशिश करता हूँ। आपको सुनता हूँ और आपका बहुत सम्मान करता हूँ। मेरे कुछ मित्र भी हैं जो आपको सुनते हैं, और और भी आपको सुनने वाले हैं जो कॉमेंट इत्यादि में लिखते हैं।

बहुत ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि उनको आपमें कुछ दिव्य रोशनी वगैरह दिखायी देती है, मुझे नहीं दिखती। क्या इसका मतलब यह है कि मुझमें कोई कमी है, क्या मैं आपको ठीक से देख नहीं पा रहा?

आचार्य प्रशांत: तुममें कोई कमी नहीं है, तुम बिलकुल ठीक हो। मुझे उन लोगों से ताज्जुब है जिन्हें दिव्य रोशनी दिखती है। उन्हें कहाँ और कौनसी रोशनी दिख गयी, मुझे कभी समझ आया नहीं। मैं तो जब भी अपनेआप को देखता हूँ बाहर के आईने में या अन्दर के दर्पण में, मुझे तो कोई दिव्य रोशनी दिखाई देती नहीं। जो देख रहे हैं, उनकी महानता है कि उनको दिख रही है।

प्र: तो क्या इसका यह तात्पर्य है कि एन्लाइटेंड (प्रबुद्ध) नहीं हैं आप?

आचार्य: (हँसते हुए) मैंने कब कह दिया कि एन्लाइटनमेंट (प्रबोधन) जैसा कुछ होता भी है? मैं तो सौ टका अनएन्लाइटेंड हूँ, हूँ भी और आजन्म रहूँगा भी। कोई ऐसी चीज़ होती, जो पाने की थी, तो भई, कुछ सम्भावना बनती भी कि क्या पता वो घटना घट ही जाए। क्या पता वो हमारे बिना चाहे ही घट जाए अकस्मात। यहाँ तो जो बात है वो बिलकुल कपोल कल्पना, दिवास्वप्न है, आकाश महल है। वो हो कहॉं से जाएगा।

तुम्हें शक है कि मैं अनएन्लाइटेंड नहीं हूँ?। मुझे पूरा भरोसा है। और अगर सुनते हो मुझे, और आइआइटी से हो, तो बुद्धि का भी कुछ स्तर रखते ही होगे। तो भाई, उन लोगों से बचकर रहना जो स्वघोषित एन्लाइटेंड लोग हैं। देखो, दो तरह के होते हैं। एक तो वो जिनके गुजर जाने के बाद पीछे से उनके चेले चपाटे, भक्त लोग घोषणा कर देते हैं कि हमारे गुरुजी एन्लाइटेंड थे, मुक्त पुरुष थे। एक तो वो होते हैं। अब ये तो चेलों की साजिश है। इसमें उनका कोई योगदान नहीं जो अपना जीवन जी गये। तो उनका ठीक है।

जिनको मैं सबसे ज़्यादा मानता हूँ, ‘कबीर साहब’। उन्होंने कभी ख़ुद नहीं कहा कि वो एन्लाइटेंड हैं या फलाने दिन उनको मोक्ष मिला था इत्यादि, इत्यादि। कुछ नहीं, कभी नहीं। सीधे साधे सरल इंसान थे और इसीलिए मुझे प्यार है उनसे, क्योंकि सरल इंसान थे,’ इंसान’। न परमात्मा न परमेश्वर, एक आला इंसान। बहुत प्यारे जीव।

और दूसरे तरीक़े के लोग वो होते हैं जो अपने ही मुँह से घोषणा कर देते हैं कि मेरा हो गया। अभी-अभी हुआ है ताज़ा-ताज़ा। क्या ओ निकल पड़ी। किसी का पहाड़ पर चढ़कर होता है, किसी का पेड़ पर चढ़कर होता है, किसी का अपने ही ऊपर चढ़कर हो जाता है, किसी का कहीं से गिरकर होता है। और बड़ी-बड़ी जादूगरी बताते हैं। कहीं ऐसा हुआ, वैसा हुआ। उन्होंने मुँह खोला तो मुँह से कमल निकल पड़ा। हमने पानी में झाँका तो हमें अपना चेहरा ही नहीं दिखाई दिया। ये सब ज़्यादातर भाँग-गाँजे के लक्षण हैं। ये एन्लाइटेनमेंट के नहीं लक्षण हैं। कहे, ‘गए थे हम वो पहाड़ पर चढ़े हुए थे। अचानक हमें लगा कि हम अपने शरीर से बाहर निकल गए हैं और हम इधर-उधर घूमने लगे।’ बढ़िया है! (हँसते हुए) कौनसे ब्रांड की थी? (सभी श्रोतागण हँसते हैं)

तो मेरी प्रार्थना है कि वो दिन कभी न आए कि मुझे इस तरह की कोई घोषणा करनी पड़े। जैसे तुम हो, तुम्हारी ही तरह आदमी हूँ। जैसे आप सब लोग हैं। आप ही की तरह मानवीय जीवन है। और जितनी मानवीय कमजोरियाँ होती हैं, वो भी मुझमें हैं।

एन्लाइटेंड का तो मतलब होता है, जैसे कोई अन्तिम बिन्दु आ गया। अरे! कोई अन्तिम बिन्दु नहीं आ गया। संघर्ष में हूँ। आप ही के साथ संघर्ष कर रहा हूँ। कुछ अपने लिए, कुछ आपके लिए। कोई आख़िरी विजय मिल नहीं गयी है। कोई नतीजा भी पता नहीं है कि महापुरुष हैं, अवतार हैं, महान हैं। पता नहीं क्या हैं? तो इनको तो जीत मिलेगी ही मिलेगी। ऐसा कुछ तय भी नहीं है। कुछ एन्लाइटेंनमेंट वगैरह कुछ नहीं।

इंसान की तरह देखो, इंसान की तरह बात करो, इंसान की तरह बात सुनो। ठीक है, थोड़ा सा ऊपर बैठ गया हूँ ताकि आप सब लोग देख लें मुझे। वरना ऊपर बैठने का भी वैसे कोई कारण इत्यादि नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि यहाँ जो बातचीत हो रही है वो एकतरफ़ा है कि आपको ही मुझसे सीखना है। आपको पता नहीं, पता है कि नहीं, लेकिन मैं जिससे मिलता हूँ। सिर झुकाकर के स्वयं भी उससे सीखता हूँ। खूब सीखता हूँ। कितनी बार तो प्रश्नकर्ताओं से सीखा है। था न अवधूत गीता में, इससे सीखा, उससे सीखा है, ऐसे सीखा। कितनी प्यारी बात! जो ही सामने है उसी से सीखा। तो वैसा ही चल रहा है।

हाँ! इतना ज़रूर है कि ज़िन्दगी समर्पित करी है चूँकि बोध को ही। तो आम आदमी ने जितना पढ़ा होता है बोध साहित्य, उससे थोड़ा ज़्यादा पढ़ा है। आम आदमी की दर्शन पर जितनी पकड़ होती है, उससे ज़्यादा है, क्योंकि भाई, वो क्षेत्र है न मेरा। समय लगाया है उसपर, श्रम करा है, अभी भी करता रहता हूँ। यही मेरा काम है, पढ़ना-पढ़ाना। ठीक है! उस मामले में हो सकता है कि ज़्यादातर लोगों से मैं थोड़ा सा आगे हूँ। उसके अलावा कुछ नहीं।

जब किसी को बना दोगे न कि उसका अब बिलकुल उद्बोधन हो गया है, एन्लाइटेनमेंट, तो तुम उसके प्रति बड़े क्रूर हो जाओगे। ये बात अजीब लगेगी, पर समझना। बहुत क्रूर हो जाओगे क्योंकि अब तुम उसमें एक बहुत विचित्र तरह का परफेक्शन (पूर्णता) देखना चाहोगे। चाहोगे न? है न! भाई वो क्या है? वो एन्लाइटेंड है। तो तुम्हें अब उसमें क्या चाहिए? परफेक्शन। अब तुमने उस आदमी को मजबूर कर दिया है कि वो नौटंकी करे। क्योंकि आदमी तो आदमी है, हाड़-माँस का पुतला, वो कहाँ से परफेक्ट हो जाएगा भाई? पर तुमने उसको क्या कर दिया? तुमने उसको बिलकुल आसमान वाले सिंहासन पर बैठा दिया। अब वो भी पता नहीं क्या उसको बुद्धि फिरी थी कि वो चढ़कर बैठ भी गया, पगला।

अब तुमने जो मन में एक छवि बना रखी है कि एन्लाइटेंड आदमी ऐसा होता है। तुम उससे कहोगे, ‘तू वैसा ही आचरण कर, काहे कि तू तो एन्लाइटेंड है न।’ और वो करेगा भी। ये बिलकुल परस्पर क्रूरता का खेल है। वो नाटक करके तुमको बेवकूफ़ बना रहा है और तुमने उसकी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी है। तुमने कह दिया, ‘अब तू आम आदमी नहीं रहा, तो अब तुझे बिलकुल एक ख़ास आदमी की तरह व्यवहार करना है।’ क्या करना है? कि डकार भी आए, तो डकार को भी इस तरह से प्रशिक्षित कर कि ‘ओम’ निकले। कहे, ‘महाराज जी डकार में भी ‘ओम’ मारते हैं।’ अरे! डकार तो डकार है, पर ये बात बड़ी अजीब लगती है न सुनने में कि बुद्ध को मोक्ष हुआ, निर्वाण, और डकार मार दी। कहे, ‘ये तो जमी ही नहीं बात। देवता पुष्प बरसा रहे हैं और ये डकार मार रहे हैं, पाद दिया। अजीब हो गया!’

कभी सुना है कोई? इस तरह की कोई कहानी है? कि कोई एन्लाइटेंड आदमी जा रहा था पादते हुए और...

श्रोता: नहीं सर।

आचार्य: नहीं, सोचो तो सही न, इस बात का मनोविज्ञान पकड़ो। ऐसा क्यों होता है कि—मैं नहीं कह रहा हूँ कि दिखाया जाए कि जिनको हम एन्लाइटेंड मानते हैं वो भोग में लिप्त है। भोग में चलो नहीं लिप्त हैं, पर डकारना-पादना तो चलेगा न? वो सब बातें भी तुम उनसे छीन लेते हो। तुम कहते हो, ‘अब तुम्हें ये भी हक़ नहीं है।’ भाई! मुझे मेरा हक़ बचाकर रखने दो। मैं जीना चाहता हूँ, मैं आम इंसान हूँ। और मेरी किसी के साथ कोई स्वांग करने में कोई रुचि नहीं है।

ऑथेंटिसिटी (प्रमाणिकता), ईमानदारी मुझे बहुत प्यारी है। मैं नहीं चाहता कि मुझे सोच-सोच कर बोलना पड़े आपके साथ। और मैं साफ़ बहाव में, खुले दिल से, बिलकुल निर्भीक तभी बोल पाऊँगा, जब मैं आपकी दी हुई छवि का बोझ अपने सिर पर नहीं रखे हुए हूँ। अगर मुझे बार-बार यही सोचना पड़ रहा है कि लोगों की नजर में तो मैं एन्लाइटेंड हूँ, तो फिर तो मैं साफ़, सपाट और खुली बात बोल चुका। फिर तो हो गया। फिर तो मुझे वही सब बोलना पड़ेगा जो आप मुझसे बुलवाना चाहते हैं। फिर तो मैं आपका गुलाम हो गया न। नहीं, ऐसे नहीं।

आपको सलाह भी इसीलिए दे पाता हूँ क्योंकि वो सब अनुभव जिनसे आप गुजर रहे हैं, मैं भी उनसे न सिर्फ़ गुजरा हूँ बल्कि आज भी गुजर रहा हूँ। और अगर मैं उनसे नहीं गुजर रहा हूँ, तो मुझे बताओ, मैं आपके अनुभव समझूँगा कैसे? बोलो? फिर तो आप जो बातें लेकर आओगे, मैं कहूँगा, ‘बच्चा! मिथ्या, मिथ्या।’ वो चाहते हो? कि हर बात को बोल दूँ ‘मिथ्या’। कहो? और बातें तो सब दुनियादारी की ही लेकर आते हो। ठीक है। बोल भी इसीलिए पाता हूँ क्योंकि वो सब कष्ट अनुभव करे हैं जो आप करते हैं। उन सब जालों को, उन भ्रमों को जानता हूँ जिसमें हम फँसते हैं। इसलिए सलाह भी दे पाता हूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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