मन को पकड़ने के लिए कुछ सार्थक/विधायक चाहिए। हम जो कुछ भी मन को देंगे उसे पकड़ लेगा। हमें कुछ ऐसा चाहिए जो बाकी सब धारणाओं को तो काट पाए और अंत में खुद भी मिट जाए। तो आदिशंकराचार्य जी ने कहा कि "हम असंग हैं"। तो मन को कुछ तो मिल गया पकड़ने को। मन संतुष्ट हुआ। असंग होना ऐसी बात है जो पकड़ में आ ही नहीं सकती। क्योंकि जो असंग है उसके साथ कोई नहीं, उसके बाद दूसरा कोई नहीं, तो फिर उसे पकड़ने वाला भी कौन होगा फिर? इसपर विस्तार से चर्चा की गई है।
आगे समझेंगे, जितनी भी अवस्थाएँ होती हैं, उनके पीछे बैठा है अनंतर स्वभाव। जैसे बादल आ-जा रहे हों, ध्यान तो सारा बादलों पर ही चला जाता है। आसमान पर ध्यान नहीं जाता। पर बादल दिखाई ही इसलिए पड़ते हैं क्योंकि उनके पिछे आकाश है। निरन्तर स्वभाव में कैसे रहा जाए? क्या स्वभाव को ढूंढना है?
आम भाषा में ईश्वर और परमात्मा को हम एक ही समझते हैं। पर ईश्वर और परमात्मा दोनों ही आयामगत रूप से अलग-अलग हैं। ईश्वर हमारे आयाम का है, जिसके सामने हम प्रार्थना करते हैं अपने इक्षाओं की पूर्ति के लिए पर परमात्मा से हमारा सम्बंध आम जीवन में होता नहीं। इस कोर्स के माध्यम से समझेंगे कि परमात्मा और ईश्वर में क्या भेद है और दोनों को अपने जीवन में किस तरह से देखा जाए।
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