''कर्मों का उद्भव ब्रह्म से है। ब्रह्म अक्षर से उद्भूत है। इसलिए ब्रह्म सदा, नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।''
इस श्लोक का अर्थ आज हम इस कोर्स के माध्यम से समझेंगे। अगर आप ने पिछले कोर्सेज किए हैं तो आप जानते होंगे कि गीता के श्लोक में कर्म जब आए तो हमें उसे निष्काम कर्म समझना है।
मगर यह ब्रह्म क्या है? और ब्रह्म अक्षर से उद्भूत है इसका क्या आशय है?
क्या दो अलग अलग ब्रह्म होते हैं? हाँ, ब्रह्म के दो अर्थ होते हैं; एक तो जो निर्गुण-निराकार, वो पारब्रह्म, और एक वो ब्रह्म जिसकी आप कभी बात कर सकते हो, उसको बोलते हैं शब्दब्रह्म।
जो पारब्रह्म है, जो विचारों के अतीत है, उसका उल्लेख शास्त्र में नहीं होता। क्योंकि वो उल्लेख के अतीत है, अपनी परिभाषा से ही, तो उसकी कैसे बात करेंगे? तो ब्रह्म शब्द जब भी मिलेगा शास्त्र में तो समझ लेना शब्दब्रह्म की बात हो रही है। शब्दब्रह्म वो जिसको आप लक्ष्य कर सकते हो; मन के लिए जो उपयोगी है। “ब्रह्म अक्षर से उद्भूत है।” अक्षर माने जो कभी मिट नहीं सकता, जिसका कभी क्षरण नहीं हो सकता। तो किस ब्रह्म की यहाँ पर बात हो रही है? शब्दब्रह्म की। ये जो शब्दब्रह्म है, ये आता है परमात्मा से, माने पारब्रह्म से। वास्तविक मुक्ति जो है, वही तुमको मुक्ति का सिद्धांत देती है ताकि तुम अपने बन्धनों को चुनौती दे सको।
क्या कुछ बात बन पा रही है? अगर हाँ तो कोर्स पर जाएंँ और श्लोक को गहराई से समझें। अगर कुछ नहीं भी समझ आ रहा है तो घबराएंँ नहीं, यह कोर्स आपके लिए है।
Can’t find the answer you’re looking for? Reach out to our support team.