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आत्मस्थ हो जाओ अर्जुन

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 58–61 पर आधारित
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1 घंटा 40 मिनट
हिन्दी
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परिचय
लाभ
संरचना

अर्जुन ने पिछले श्लोक में पूछा था कि स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? लेकिन आप पाएंगे कि श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्द्रिय संयम का ज्ञान दे रहे हैं। वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि अर्जुन की इंद्रियांँ बाहर की ओर भागी हुई हैं।

श्रीकृष्ण यहांँ तीन तलों की बात कर रहे हैं। आईए जानें तीन तलों के बारे में।

सबसे निचला तल वह होता है जीने का जहांँ आपकी इंद्रियांँ प्रकृति को बस भोग की दृष्टि से देखती हैं। यह सामने प्रकृति है और मुझे भोगना है।

फिर उससे ऊंँचा तल होता है इन्द्रिय संयम। जहांँ श्रीकृष्ण ने कछुए का उदाहरण देते हुए समझाया था की जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को भीतर सिकोड़ लेता है उसी प्रकार योगी इन्द्रियों को विषयों से पूर्णतया अपने भीतर लौटा लेता है। इससे भी बात पूरी तरह नहीं बनती क्योंकि रस या आसक्ति तो रह जाती है। यह देखा जाए तो दमन करने जैसा है। प्रकृति से अपने आप को खींच लिया लेकिन कामना बनी हुई है। इसलिए इंद्रिय संयम आखिरी बात नहीं है।

तो आखिरी और सबसे ऊंची बात क्या है? आखिरी और ऊंची बात है परम् का साक्षात्कार कर लेना। कैसे हो परम् का साक्षात्कार? कैसे जानें ब्रह्म को?

जब आप दृश्य और दृष्टा को एक साथ देख लें। जब आप अपने आप से हटकर अपने आप को देख पाएंँ।

क्या कुछ बात बन पा रही है? अगर हांँ, तो चलते रहें। अगर नहीं, तो घबराएंँ नहीं यह सारी बातें आचार्य जी हमें सिखाएंगे गीता के श्लोकों द्वारा।

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