प्रकृति का पूरा खेल ही मायावी है। और प्रकृति में लगातार द्वैत है। दो का जोड़ा चलता रहेगा, धूप-छाँव चलती रहेगी। आत्मा के बारे में अगले ही श्लोक में कृष्ण आपको समझाएंगे कि वो प्रकृति से इतनी अलग है कि आप उसका चिंतन भी नहीं कर सकते, वो अचिंत्य है। क्योंकि चिंतन भी कौन करता है? मन। चिंतन मन करता है। मन इन दोनों में किधर है? मन प्रकृति के आयाम का है और हमनें कहा प्रकृति आत्मा को छू भी नहीं सकती। तो इसीलिए मन का विचार कभी आत्मा तक पहुँच ही नहीं सकता।
आत्मा के बिंदु पर क्या होता है जहाँ कृष्ण खड़े हैं? वहाँ उन्हें धर्म का विचार नहीं करना पड़ता। ये वो बिंदु है जो पूर्ण मुक्ति का है, यहाँ तक कि धर्म से भी मुक्ति का। कृष्ण धर्म से भी मुक्त हैं। कृष्ण इतने मुक्त हैं—उन्हें हम यूँ ही पूर्ण नहीं कहते, वो धर्म से भी पूर्णतया मुक्त हैं—वो जो करें वही धर्म है। अर्जुन को धर्म का पालन करना है और धर्म कृष्ण का पालन करता है। अर्जुन को पालन करना है धर्म का और धर्म को पालन करना है कृष्ण का। अर्जुन को कहना पड़ेगा तुम धर्म पर चलो। और धर्म क्या है, ये कैसे जाना जाता है? कृष्ण को देखकर के। जिस राह कृष्ण चलें, वही धर्म है। पर हम किसी व्यक्ति की बात नहीं कर रहे हैं। हम किसकी बात कर रहे हैं? कृष्ण किसके प्रतिनिधि हैं? आत्मा के। लेकिन ये सुविधा, ये मुक्ति, ये ज़बरदस्त छूट उपलब्ध सिर्फ़ कृष्ण को है; आपको नहीं उपलब्ध है कि हम जो करे वही धर्म हो गया। हमें तो स्वयं के प्रति सावधान रहना है, हम अर्जुन जैसे हैं। हमारा ज़्यादा रूझान तो रहता है, अधर्म की तरफ़ बढ़ने में।
Can’t find the answer you’re looking for? Reach out to our support team.