आदि शंकराचार्य उन महान दार्शनिकों में से हैं जिन्होंने अद्वैत वेदान्त की ऊँचाइयों को जनमानस तक पहुँचाया। इनका प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब धर्म व्यभिचार और कुरीतियों के कारण पूर्ण रूप से कलंकित हो चुका था। आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदान्त को धर्म के केंद्र में प्रतिस्थापित कर सनातन धर्म को पुनर्जीवित किया।
उन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु में ही गृहत्याग कर सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। अद्वैत वेदान्त में उनकी गहरी श्रद्धा थी और वे चाहते थे कि सभी वेदांत की सीख से लाभान्वित हो अपने दुःखों और कष्टों से मुक्त हों। पर वे एक साधारण संसारी मन से भी परिचित थे इसीलिए उन्होंने कुछ ऐसे ग्रंथों की आवश्यकता समझी जो एक आम व्यक्ति को भी वेदान्त की ओर ले जाएँ।
उन्होंने 'तत्वबोध' की रचना ऐसे जिज्ञासुओं के लिए की है जो अध्यात्म के शुरुआती पड़ाव पर हों। इस ग्रंथ की रचना इस प्रकार है कि यह साधकों को कदम-दर-कदम आगे बढ़ाकर वेदान्त के मूल को उन तक पहुँचाता है।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत ने 'तत्वबोध' के श्लोकों की समयानुकूल व्याख्या की है। यदि आप भी वेदांत के मर्म को समझना चाहते हैं और यदि आप में भी ब्रह्म, मन, शरीर, संसार और ईश्वर को लेकर मूलभूत जिज्ञासाएँ उठती हों, तो यह पुस्तक आपके लिए उपयुक्त है।
Index
1. दमन क्या है? साधना में दमन आवश्यक क्यों? (श्लोक 5.4)2. दुख शुभ है3. यदि गुरु के प्रति श्रद्धा न हो? (श्लोक 5.7)4. सही राह कौनसी?5. स्वधर्म और कर्तव्य (श्लोक 5.5)6. अष्टावक्र और आदि शंकराचार्य के मुक्ति मार्ग में अंतर क्यों?