जो कुछ महाभारत में है, वही सर्वत्र है। मनुष्य के मन में ऐसा कुछ भी नहीं जो महाभारत में मौजूद न हो। चेतना के सभी तल महाभारत में उभरकर सामने आते हैं — मूर्खताएँ भी, कपट भी और गीता का प्रकाश भी।
हम जो कुछ हैं, वो सब महाभारत में मौजूद है। हमारी सारी मलिनताएँ भी, और उन मालिनताओं के केंद्र में बैठी मलिनताओं से अस्पर्शित आत्मा भी। ठीक उसी तरीके से महाभारत में काम, क्रोध, छल, कपट, सब पाते हैं आप, और गीता को भी पाते हैं। मलिन मन को भी पाते हैं और गीतारूपी आत्मा को भी पाते हैं।
यह पुस्तक आचार्य प्रशांत जी की 'महाभारत' महाकाव्य पर दिए गए व्याख्यानों का संकलन है। आचार्य जी बातों को जस-का-तस रखते हैं तो वो पात्रों की चारित्रिक दुर्बलताओं का खुलकर मखौल भी उड़ाते हैं और जहाँ जो पूजनीय है उसका दिल खोलकर वंदन भी करते हैं।
निवेदन है कि आप भारत के इस श्रेष्ठतम महाकाव्य को सही अर्थों में समझें, और इसके प्रचलित कथानकों के पीछे छिपे रहस्य और सीख से परिचित होने का प्रयास करें।
Index
1. वृत्ति नहीं, विवेक2. परिवार से मोह3. जब शारीरिक दुर्बलताएँ परेशान करें4. वेदव्यास: महाभारत के रचयिता5. भीष्म ने प्रतिज्ञा क्यों की?6. एकलव्य नहीं, द्रोण हैं दया के पात्र