क्रांति (Kranti)

क्रांति (Kranti)

बाहर भी, भीतर भी
5/5
8 Ratings & 4 Reviews
Paperback Details
hindi Language
202 Print Length
Description
अधिकांशत: 'क्रांति' शब्द का अर्थ हम किसी बाहरी परिवर्तन से ही लगाते हैं। जीवन की सभी समस्या, उलझनों और दुःख का कारण हम हमेशा बाहर ही ढूँढते हैं, और फिर उसका समाधान भी।

हम अपने वास्तविक शत्रुओं से कभी परिचित हो ही नहीं पाते। हमारे भीतर ही कुछ ऐसा होता है जो सदा झुकने को, दबने को तैयार रहता। है। और इस भीतरी गुलामी को और प्रगाढ़ व मज़बूत बनाती है हमारी सामाजिक व्यवस्था। जीवन फिर हमारा निढाल और नीरस ही रह जाता है। न कोई धार होती है, न कोई आग।

आचार्य प्रशांत की यह 'क्रांति' पुस्तक आप तक इसीलिए लायी जा रही है कि आप अपने अंदरूनी दुश्मनों से रूबरू हो सकें और असली जवानी और आज़ादी का अनुभव ले सकें।
गुलामी बड़ी सस्ती होती है लेकिन आज़ादी एक कीमत माँगती है। यदि आपको भी विवशता और लाचारी का जीवन रास न आता हो, तो यह पुस्तक आपके लिए ही है।
Index
CH1
क्रान्तिकारी भगत सिंह, और आज के युवा
CH2
मार्क्स, पेरियार, भगत सिंह की नास्तिकता
CH3
वो भगत सिंह थे, इसलिए उन्होंने ये सवाल नहीं पूछा
CH4
महापुरुषों जैसा होना है?
CH5
सब महापुरुष कभी तुम्हारी तरह साधारण ही थे
CH6
स्वामी विवेकानन्द का दर्दनाक संघर्ष, अपनों के ही विरुद्ध
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